Wednesday, December 10, 2014

अनुपस्थिति और निर्वासन ही इकलौती उपस्थिति हैं - अदूनिस


(जारी)

३.

इस ज़ाविये से, कविता निश्चित ही “खोया हुआ स्वर्ग” नहीं होती न ही वह कोई “स्वर्णकाल” है. इसके उलट वह एक ऐसा सवाल है जो एक दूसरे सवाल से रू-ब-रू कराती है. एक प्रश्न की तरह पहचाना गया “दूसरा” एक बिंदु पर “मैं” के साथ मिलता है जो दरअसल जवाब के निर्वासन में रह रहा होता है. इसीलिये “दूसरा” जवाब का एक संघटक हिस्सा होता है – ज्ञान और इलहाम का तत्व. यह ऐसा ही है जैसे कि “मैं” के भीतर के सवाल की उत्तेजना “दूसरा” होती है.

अरब कविता के रचनात्मक अनुभव में “दूसरा” हमेशा मौजूद रहा है. क्योंकि जिस भाषा का इस्तेमाल अरब कवि करता है उसके भीतर नई और पुरानी कई भाषाएँ होती हैं. कविता में कहा जाए तो अरबी एकवचन के आकार में बहुवचन है.

लेकिन चाहे अभ्यास में हो चाहे ऊपर बताई गयी व्यवस्था से अपने संपर्क में, अरबी भाषा के पास हमें बताने को और कुछ बचा नहीं है. कहा जाए तो वह खामोशी की ज़बान बन गयी है, बल्कि वह कोशिश करती है कि अभिव्यक्ति को खामोशी में तब्दील कर दे. उसका कार्यक्षेत्र निश्शब्दता में है न कि बोली-भाषा में. "दूसरे” ने, यहाँ अभिप्राय पश्चिमी छवि से है, अरब कवि के साथ अपने सम्बन्ध को एक ख़ामी या एक ज़ंजीर में बदल दिया है, कम से कम व्यवस्था के सम्बन्ध में ऐसा कहा जा सकता है.वह अपनी सीमाओं में अपनी स्वतंत्रता से संतुष्ट रह सकता है. शायद वह अरब इतिहास में कुछ न देख पा रहा हो, लेकिन सवाल का जवाब उसे पहले से पता है क्योंकि अपनी कल्पना, ज़रुरत और स्वार्थ के हिसाब से सवाल का आविष्कार भी उसी ने किया था.

इस बात से हम समझा सकते हैं कि क्यों एक अरब कवि दोहरी अनुपस्थिति का मूर्त रूप होता है – एक अपने आप से और दूसरी “दूसरे” से अनुपस्थिति. वह इन दो निर्वासनों में दरम्यान रहता है : आंतरिक और बाहरी. सार्त्र के शब्दों की व्याख्या करें तो कह सकते हैं, वह दो नर्कों के बीच कहीं रहता है – “मैं” और “दूसरा”.

“मैं” मैं नहीं होता, न ही “दूसरा”.

अनुपस्थिति और निर्वासन ही इकलौती उपस्थिति का निर्माण करते हैं.  

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