संस्थागत बना दी गयी भाषा “मैं” और “दूसरे” के ऊपर बाढ़ की तरह बहती है और स्वाधीनता और लोकतंत्र की बुनियादों को झकझोर कर रख देती है. मृत्यु और कत्ले-आम की इस भाषा में “मैं” और “दूसरा” अपनी मृत्यु खोजा करते हैं.
मृत्यु सिर्फ़ मृत्यु को देखती है. पहले से ही मरा हुआ “मैं” “दूसरे” को स्वीकार नहीं कर सकता – वह उसे अपनी ही छवि में देखता है जो कि मृत्यु की छवि है. फ़िलहाल हमारी कविता इसी तरह की मृत्यु के भीतर घूमती नज़र आती है.
अदूनिस
पेरिस, ९ मार्च १९९२
(समाप्त)
(समाप्त)
1 comment:
आपकी लिखी रचना शनिवार 22 दिसंबर 2014 को लिंक की जाएगी........... http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
Post a Comment