महान गायक उस्ताद अमीर ख़ां
-प्रभु जोशी
स्त्राविन्स्की ने अपने समकालीनों की प्रतिभा की परख
में संगीत-समीक्षकों के द्वारा होने वाली सहज-भूलों और इरादतन की गई उपेक्षाओं के
प्रति टिप्पणी करते हुए कहा था – “ज्यों ही हमारा महानता से साक्षात्कार हो, हमें उसका जयघोष करने में होने वाली हिचकिचाहटों से जल्द
ही मुक्त हो लेना चाहिए”. लेकिन बावजूद इसके दुर्भाग्यवश कलाओं के इतिहास में
उपेक्षा के आयुधों से की गयी हिंसा में हताहतों की एक लम्बी फेहरिस्त है. कहना न
होगा कि भारतीय समाज में ऐसा खासतौर पर अ-श्रेणी की प्रतिभाओं के साथ कहीं ज्यादा
ही हुआ है. बीसवीं शताब्दी के शास्त्रीय-संगीत के क्षेत्र में जिन कलाकारों के साथ
में ऐसा हुआ, निश्चय ही उनमें महान गायक उस्ताद अमीर ख़ां का
भी नाम शामिल है, जिनकी एक लम्बे समय तक उपेक्षा की गई.
उनकी प्रतिभा के अस्वीकार का आरंभ तो उसी समय हो गया था, जब वे शास्त्रीय संगीत के एक दक्ष गायक बनने के स्वप्न से भरे हुए थे और रायगढ़ दरबार में एक युवतर गायक की तरह अपनी अप्रतिम प्रतिभा के बलबूते संगीत-संसार में एक सर्वमान्य जगह बनाने में लगे हुए थे. एक बार उनके आश्रयदाता ने उन्हें मिर्जापुर में सम्पन्न होने वाली एक भव्य-संगीत सभा में प्रतिभागी की बतौर भेजा, ताकि वे वहाँ जाकर अपनी गायकी की एक प्रभावकारी उपस्थिति दर्ज करवा के लौटें. लेकिन, उन्होंने जैसे ही अपना गायन शुरू किया चौतरफा एक खलबली-सी होने लगी और रसिकों के बीच से उनके विरोध के स्वर उठने लगे, जो जल्द ही शोरगुल में बदल गये. उस संगीत-सभा में प्रसिद्ध गायक इनायत ख़ां, फैयाज ख़ां और केशरबाई भी अपनी प्रस्तुतियाँ देने के लिए मौजूद थे.
उनकी प्रतिभा के अस्वीकार का आरंभ तो उसी समय हो गया था, जब वे शास्त्रीय संगीत के एक दक्ष गायक बनने के स्वप्न से भरे हुए थे और रायगढ़ दरबार में एक युवतर गायक की तरह अपनी अप्रतिम प्रतिभा के बलबूते संगीत-संसार में एक सर्वमान्य जगह बनाने में लगे हुए थे. एक बार उनके आश्रयदाता ने उन्हें मिर्जापुर में सम्पन्न होने वाली एक भव्य-संगीत सभा में प्रतिभागी की बतौर भेजा, ताकि वे वहाँ जाकर अपनी गायकी की एक प्रभावकारी उपस्थिति दर्ज करवा के लौटें. लेकिन, उन्होंने जैसे ही अपना गायन शुरू किया चौतरफा एक खलबली-सी होने लगी और रसिकों के बीच से उनके विरोध के स्वर उठने लगे, जो जल्द ही शोरगुल में बदल गये. उस संगीत-सभा में प्रसिद्ध गायक इनायत ख़ां, फैयाज ख़ां और केशरबाई भी अपनी प्रस्तुतियाँ देने के लिए मौजूद थे.
हालाँकि इन वरिष्ठ गायकों ने समुदाय से आग्रह करके
उनको सुने जाने की ताकीद भी की लेकिन असंयत-श्रोता समुदाय ने उनके उस निवेदन की
सर्वथा अनसुनी कर दी. इस घटना से हुए अपमान-बोध ने युवा गायक अमीर ख़ां के मन में ‘अमीर’ बनने के दृढ़ संकल्प से नाथ दिया.
वे जानते थे, एक गायक की ‘सम्पन्नता’,
उसके ‘स्वर’ के साथ ही
साथ ‘कठिन साधना’ भी है. नतीजतन,
वे अपने गृह नगर इन्दौर लौट आये, जहाँ उनकी
परम्परा और पूर्वजों की पूँजी दबी पड़ी थी. उनके पिता उस्ताद शाहगीर ख़ां थे,
जिनका गहरा सम्बन्ध भिण्डी बाजार घराने की प्रसिद्ध गायिका अंजनीबाई
मालपेकर के साथ था. वे उनके साथ सारंगी पर संगत किया करते थे. पिता की यही
वास्तविक ख्वाहिश भी थी कि उनका बेटा अमीर ख़ां अपने समय का एक मशहूर सारंगीवादक बन
जाये. उन्हें लगता था, यह डूबता इल्म है. क्योंकि, सारंगी की प्रतिष्ठा काफी क्षीण थी और वह केवल कोठे से जुड़ी महफिलों का
अनिवार्य हिस्सा थी, लेकिन वे यह भी जानते थे कि मनुष्य के कण्ठ के बरअक्स ही सारंगी के स्वर हैं. और उनके पास की यह पूँजी
पुत्र के पास पहुँच कर अक्षुण्ण हो जाएगी.
बहरहाल, पुत्र की वापसी से उन्हें एक किस्म की तसल्ली भी हुई कि शायद वह फिर से अपने पुश्तैनी वाद्य की ओर अपनी पुरानी और परम्परागत आसक्ति बढ़ा ले. लेकिन, युवा गायक ‘अमीर’ के अवचेतन जगत में मिर्जापुर की संगीत-सभा में हुए अपमान की तिक्त-स्मृति थी, ना भूली जा सकने किसी ग्रन्थि का रूप धर चुकी थी, जिसके चलते वह कोई बड़ा और रचनात्मक-जवाब देने की जिद पाल चुका था. वह अपने उस ‘अपमान’ का उत्तर ‘वाद्य’ नहीं, ‘कण्ठ’ के जरिये ही देना चाहता था. बहरहाल, यह एक युवा सृजनशील-मन के गहरे आत्म-संघर्ष का कालखण्ड था, जहाँ उसे अपने ही भीतर से कुछ ‘आविष्कृत’ कर के उसे विराट बनाना था. नतीजतन, उसने स्वर-साधना को अपना अवलम्ब बनाया, और ऐसी साधना ने एक दिन उसको उसकी इच्छा के निकट लाकर छोड़ दिया.
शायद इसी की वजह रही कि बाद में, जब अमीर ख़ां साहब देश के सर्वोत्कृष्ट गायकों की कतार में खड़े हो गये तो बड़े-बड़े आमंत्रणों और प्रस्तावों को वे बस इसलिए अस्वीकार कर दिया करते थे कि ‘वहाँ आने-जाने में उनकी ‘रियाज’ का बहुत ज्यादा नुकसान हो जायेगा.’ नियमित रियाज उनका दैनंदिन आध्यात्मिक कर्म थी. कहते हैं कि वे सुबह से शाम तक केवल अपनी रियाज को समर्पित रहते थे. यह ‘गले’ को नहीं, ‘स्वर’ को साधने की निरन्तर निमग्नता थी. जाने क्यों मुझे यहाँ सहज रूप से सहसा देवास के महान् गायक उस्ताद रजब अली ख़ां के एक कथन की स्मृति हो आयी. वे कहा करते थे ‘अमां यार, धक्का खाया, गाया-बजाया, भूखे रहे गाया बजाया, अमानुल-हफीज क्या कहें जूते ख़ांये और गाया बजाया.’ बाद इसके वे अपन वालिद की डांट-फटकार का हवाला दिया करते थे. ‘तो मियाँ यही वजह है कि जब हम सुर लगाते हैं तो इस जिस्म में जिगर-गुर्दा एकमेक हो जाता है.’
कुल मिला कर यह रियाज के अखण्डता की बात ही थी. बहारहाल, अमीर ख़ां साहब का सर्वस्व रियाज पर ही एकाग्र हो गया था. भारतीय शास्त्रीय संगीत के इतिहास में शायद ही कोई ऐसा गायक हुआ होगा, जिसके लिए ‘रियाज’ इतना बड़ा अभीष्ट बन गयी हो. उनके बारे में एक दफा उनके शिष्य रमेश नाडकर्णी ने जो एक बात अपनी भेंट में कही थी, वह यहाँ याद आ रही है कि ‘मौन में भी कांपता रहता था, ख़ां साहब का कण्ठ. जैसे स्वर अपनी समस्त श्रुतियों के साथ वहाँ अखण्ड आवाजाही कर रहा है.’
बहरहाल, पुत्र की वापसी से उन्हें एक किस्म की तसल्ली भी हुई कि शायद वह फिर से अपने पुश्तैनी वाद्य की ओर अपनी पुरानी और परम्परागत आसक्ति बढ़ा ले. लेकिन, युवा गायक ‘अमीर’ के अवचेतन जगत में मिर्जापुर की संगीत-सभा में हुए अपमान की तिक्त-स्मृति थी, ना भूली जा सकने किसी ग्रन्थि का रूप धर चुकी थी, जिसके चलते वह कोई बड़ा और रचनात्मक-जवाब देने की जिद पाल चुका था. वह अपने उस ‘अपमान’ का उत्तर ‘वाद्य’ नहीं, ‘कण्ठ’ के जरिये ही देना चाहता था. बहरहाल, यह एक युवा सृजनशील-मन के गहरे आत्म-संघर्ष का कालखण्ड था, जहाँ उसे अपने ही भीतर से कुछ ‘आविष्कृत’ कर के उसे विराट बनाना था. नतीजतन, उसने स्वर-साधना को अपना अवलम्ब बनाया, और ऐसी साधना ने एक दिन उसको उसकी इच्छा के निकट लाकर छोड़ दिया.
शायद इसी की वजह रही कि बाद में, जब अमीर ख़ां साहब देश के सर्वोत्कृष्ट गायकों की कतार में खड़े हो गये तो बड़े-बड़े आमंत्रणों और प्रस्तावों को वे बस इसलिए अस्वीकार कर दिया करते थे कि ‘वहाँ आने-जाने में उनकी ‘रियाज’ का बहुत ज्यादा नुकसान हो जायेगा.’ नियमित रियाज उनका दैनंदिन आध्यात्मिक कर्म थी. कहते हैं कि वे सुबह से शाम तक केवल अपनी रियाज को समर्पित रहते थे. यह ‘गले’ को नहीं, ‘स्वर’ को साधने की निरन्तर निमग्नता थी. जाने क्यों मुझे यहाँ सहज रूप से सहसा देवास के महान् गायक उस्ताद रजब अली ख़ां के एक कथन की स्मृति हो आयी. वे कहा करते थे ‘अमां यार, धक्का खाया, गाया-बजाया, भूखे रहे गाया बजाया, अमानुल-हफीज क्या कहें जूते ख़ांये और गाया बजाया.’ बाद इसके वे अपन वालिद की डांट-फटकार का हवाला दिया करते थे. ‘तो मियाँ यही वजह है कि जब हम सुर लगाते हैं तो इस जिस्म में जिगर-गुर्दा एकमेक हो जाता है.’
कुल मिला कर यह रियाज के अखण्डता की बात ही थी. बहारहाल, अमीर ख़ां साहब का सर्वस्व रियाज पर ही एकाग्र हो गया था. भारतीय शास्त्रीय संगीत के इतिहास में शायद ही कोई ऐसा गायक हुआ होगा, जिसके लिए ‘रियाज’ इतना बड़ा अभीष्ट बन गयी हो. उनके बारे में एक दफा उनके शिष्य रमेश नाडकर्णी ने जो एक बात अपनी भेंट में कही थी, वह यहाँ याद आ रही है कि ‘मौन में भी कांपता रहता था, ख़ां साहब का कण्ठ. जैसे स्वर अपनी समस्त श्रुतियों के साथ वहाँ अखण्ड आवाजाही कर रहा है.’
बहरहाल, जब पिता उस्ताद शाहगीर के पास देवास से उस्ताद रजबअली ख़ां और उस्ताद बाबू ख़ां बीनकार आया करते थे. तब पूरे समय घर में ही एक संगीत समय बना रहता था. हरदम
गहरे सांगीतिक-विमर्श की गुंजाइशें बनती रहती थीं. अमीर ख़ां साहब को उस्ताद बाबू ख़ां बीनकार के गुरु उस्ताद मुराद ख़ां के उस प्रसंग की याद थी, जिसमें उस्ताद मुराद ख़ां इतनी गहरी निमग्नता से बीन बजाते थे कि लगने लगता
था, जैसे सब कुछ जो इस समय दृष्टिगोचर है, वह विलीन और विसर्जित हो गया है, बस केवल एक नाद
स्वर रह गया है. उन्हें उनके बीन वादन की तन्मयता एक किस्म की
आध्यात्मिकता-निमग्नता लगती थी. कहते हैं एक बार वे ठाकुर जी के सामने गिरधर लालजी
महाराज की हवेली में ‘बीन-वादन’ कर रहे
थे कि अचानक उनके उस निरन्तर प्रवाहमान-स्वर को किसी के अचानक द्वारा रोक दिया गया.
तभी बीन वादन के रुकते ही अचानक ठाकुरजी की मूर्ति के समस्त आभूषण और श्रृंगार गिर
गये.’ यह स्वर और ईश्वर को अंतरंगता का प्रमाण था.
पंडित गोस्वामी गोकुलोत्सव महाराज ने एक दफा बातचीत
में बताया था कि ‘उस्ताद अमीर ख़ां साहब अपनी दस वर्ष की
अवस्था से लेकर सत्रह वर्ष की अवस्था तक, उनके पिताश्री
महाराज श्री के पास आया करते थे. उन दिनों वाद्यों की साज-संभाल के लिए उस्ताद
बाबू ख़ां साहब को चाँदी के दो कलदार दिये जाते थे, और बालक
अमीर ख़ां को चवन्नी मिलती थी.’ बालक अमीर को उस्ताद बाबूख़ां
बहुत प्यार करते थे.
युवा गायक अमीर ख़ां को संवेदना के स्तर एक और प्रसंग ने ठेस पहुँचायी थी, जिसने भी उन्हें ‘स्वयं को स्वयं पर’ एकाग्र करने की रचनात्मक-विवशता पैदा की. प्रसंग यों है कि जब एक बार अमीर ख़ां, उस्ताद नसीरुद्दीन डागर के ध्रुपद गायन को सुनने गये तो ख़ां साहब ने गाते अपना गाना रोक दिया. इस आशय से कि कहीं अमीर ख़ां उनकी ध्रुपद की गायन शैली के रहस्यों को ग्रहण न कर ले. युवा अमीर ख़ां को इस घटना के भीतर ही भीतर कई दिनों तक अन्तरात्मा में आहत किया. कारण कि तब वे अधिकांशतः संगीत-संसार के अत्यन्त उदार और अवढरदातियों के बीच रह रहे थे, जो उनके वालिद उस्ताद शाहगीर ख़ां साहब के पास मित्रता के कारण अक्सर ही आते रहते थे. क्योंकि, उस्ताद शाहमीर ख़ां साहब होल्कर रियासत के दरबार से जुड़े हुए थे. उनके यहाँ ‘किराना-घराना’ के उस्ताद अब्दुल वहीद ख़ां (जिन्हें बहरे वहीद ख़ां के नाम से भी चिह्नित किया जाता है) तथा अंजनी बाई मालपेकर भी आती थीं. लेकिन, उन्हें वाद्य के स्तर पर लिये जाने वाले ‘आलाप’ से आसक्ति थी और गायन के लिए वे उसे ही कहीं अपने लिए ज्यादा बड़ी और सृजनात्मक चुनौती मानते थे. बाद में उन्होंने अपनी ‘आलापी’ के लिए उस्ताद मुराद ख़ां के ‘बीन वादन’ की शैली को ‘आत्मस्थ’ किया. क्योंकि, उनकी बीन ‘अति-विलम्बित’ का वह रहस्यात्मक-स्वर उत्पन्न करती थी, जो गले में बैठकर और अधिक रहस्यात्मक बन सकता था. उस्ताद मुराद ख़ां ने अपने वाद्याभ्यास से सामान्य बीन-वादन में ‘आलापचारी’ का ऐसा चमत्कार पैदा किया था कि संगीतज्ञ विस्मय से भर जाते थे कि यह कैसा मुसलसल-आलाप है?
बहरहाल, युवा गायक अमीर ख़ां के लिए यह एक तरह से संगीत के अनंत में अपनी निजता को आविष्कृत करने के अत्यन्त गहरे आत्म-संघर्ष का समय था. निश्चय ही प्रकारान्तर से यह एक ऐसी ‘नादोपासना’ थी, जिसमें परम्परा के पार्श्व में उन्हें अपने लिए यथोचित जगह बनाने पर विचार करना था. वे जहाँ एक ओर उस्ताद नसीरुद्दीन ख़ां डागर की गायकी और उनकी ध्रुपद-परम्परा की तरफ देख रहे थे, दूसरी तरफ उनके समक्ष भिण्डी बाजार घराने के उस्ताद छज्जू-नज्जू ख़ां के ‘मेरुखण्ड’ की तानों की तकनीक और सौंदर्य भी था, जो आसक्त करता चला आ रहा था. लेकिन, यह विवेक अमीर ख़ां जैसे युवा गायक में आ चुका था कि ‘अनुकरण’ से पहचान तो बन सकती है लेकिन संगीत की मारा-मारी से भरी निर्मय दुनिया में जगह नहीं. नतीजतन उनमें अपने लिये भारतीय संगीत में जगह बनाने की कोई अदृश्य सृजनात्मक-जिद पैदा हो गई थी, जिसने उन्हें घर और अंततः ‘घराना’ बनाने के निकट लाकर छोड़ दिया.
निश्चय ही इसके लिए एक व्यापक और गहरी संगीत-दृष्टि की दरकार थी. उन्होंने यों तो सांस्थानिक रूप से कोई बहुत औपचारिक शिक्षा हासिल नहीं की थी, लेकिन उन्हें उर्दू-फारसी का अच्छा ज्ञान हो चुका था. काफी हद तक उन्होंने संस्कृत की संभावनाएँ उलीच कर अपनी सृजनात्मक के लिए आवश्यक ‘समझ’ अर्जित कर ली थी. कदाचित् इसी के चलते उन्होंने पाया कि ‘संगीत’ और ‘अध्यात्म’ के मध्य एक ऐसा अदृश्य-सेतु है, जिसके दोनों ओर आवाजाही की जा सकती थी. यह उनकी रचनात्मक-बैचेनी से भरी प्रकृति के काफी अनुकूल भी था.
हालाँकि, अमीर ख़ां साहब के निकट सम्पर्क में रहे लोगों कि अलग-अलग राय है, लेकिन काफी हद तक यह बात एक तर्कदीप्त आधार हमारे सामने रखती है कि उनकी इस तरह की प्रकृति की निर्मिति में बचपन से ही ‘पुष्टि मार्ग’ से रहे आये उनके परिचय की बड़ी भूमिका है. पद्मश्री गोस्वामी गोकुलोत्सव महाराज कहते हैं कि ‘उनका सांगीतिक-साहचर्य पुष्टिमार्गीय से इसलिए भी रहा कि वे बाल्यावस्था से ही रामनाथजी शैल (इण्डिया टी होटल वालों) के साथ हमारे यहाँ आया करते थे. मंदिर की संगीत-सभाओं में भी वे नियमित आत थे. लोगों का गाना-बजाना भी सुनते ही थे. जिन ‘मेरुखण्ड’ की तानों के लिए अमीर ख़ां साहब की प्रशंसा होती है, वह उन्हें हमारे इन्दौर स्थित मंदिर से ही मिली थी. हमारी ही परम्परा की एक पुस्तक में ‘मेरुखण्ड’ की तानों का विधिवत् विवरण दिया गया है.’
युवा गायक अमीर ख़ां को संवेदना के स्तर एक और प्रसंग ने ठेस पहुँचायी थी, जिसने भी उन्हें ‘स्वयं को स्वयं पर’ एकाग्र करने की रचनात्मक-विवशता पैदा की. प्रसंग यों है कि जब एक बार अमीर ख़ां, उस्ताद नसीरुद्दीन डागर के ध्रुपद गायन को सुनने गये तो ख़ां साहब ने गाते अपना गाना रोक दिया. इस आशय से कि कहीं अमीर ख़ां उनकी ध्रुपद की गायन शैली के रहस्यों को ग्रहण न कर ले. युवा अमीर ख़ां को इस घटना के भीतर ही भीतर कई दिनों तक अन्तरात्मा में आहत किया. कारण कि तब वे अधिकांशतः संगीत-संसार के अत्यन्त उदार और अवढरदातियों के बीच रह रहे थे, जो उनके वालिद उस्ताद शाहगीर ख़ां साहब के पास मित्रता के कारण अक्सर ही आते रहते थे. क्योंकि, उस्ताद शाहमीर ख़ां साहब होल्कर रियासत के दरबार से जुड़े हुए थे. उनके यहाँ ‘किराना-घराना’ के उस्ताद अब्दुल वहीद ख़ां (जिन्हें बहरे वहीद ख़ां के नाम से भी चिह्नित किया जाता है) तथा अंजनी बाई मालपेकर भी आती थीं. लेकिन, उन्हें वाद्य के स्तर पर लिये जाने वाले ‘आलाप’ से आसक्ति थी और गायन के लिए वे उसे ही कहीं अपने लिए ज्यादा बड़ी और सृजनात्मक चुनौती मानते थे. बाद में उन्होंने अपनी ‘आलापी’ के लिए उस्ताद मुराद ख़ां के ‘बीन वादन’ की शैली को ‘आत्मस्थ’ किया. क्योंकि, उनकी बीन ‘अति-विलम्बित’ का वह रहस्यात्मक-स्वर उत्पन्न करती थी, जो गले में बैठकर और अधिक रहस्यात्मक बन सकता था. उस्ताद मुराद ख़ां ने अपने वाद्याभ्यास से सामान्य बीन-वादन में ‘आलापचारी’ का ऐसा चमत्कार पैदा किया था कि संगीतज्ञ विस्मय से भर जाते थे कि यह कैसा मुसलसल-आलाप है?
बहरहाल, युवा गायक अमीर ख़ां के लिए यह एक तरह से संगीत के अनंत में अपनी निजता को आविष्कृत करने के अत्यन्त गहरे आत्म-संघर्ष का समय था. निश्चय ही प्रकारान्तर से यह एक ऐसी ‘नादोपासना’ थी, जिसमें परम्परा के पार्श्व में उन्हें अपने लिए यथोचित जगह बनाने पर विचार करना था. वे जहाँ एक ओर उस्ताद नसीरुद्दीन ख़ां डागर की गायकी और उनकी ध्रुपद-परम्परा की तरफ देख रहे थे, दूसरी तरफ उनके समक्ष भिण्डी बाजार घराने के उस्ताद छज्जू-नज्जू ख़ां के ‘मेरुखण्ड’ की तानों की तकनीक और सौंदर्य भी था, जो आसक्त करता चला आ रहा था. लेकिन, यह विवेक अमीर ख़ां जैसे युवा गायक में आ चुका था कि ‘अनुकरण’ से पहचान तो बन सकती है लेकिन संगीत की मारा-मारी से भरी निर्मय दुनिया में जगह नहीं. नतीजतन उनमें अपने लिये भारतीय संगीत में जगह बनाने की कोई अदृश्य सृजनात्मक-जिद पैदा हो गई थी, जिसने उन्हें घर और अंततः ‘घराना’ बनाने के निकट लाकर छोड़ दिया.
निश्चय ही इसके लिए एक व्यापक और गहरी संगीत-दृष्टि की दरकार थी. उन्होंने यों तो सांस्थानिक रूप से कोई बहुत औपचारिक शिक्षा हासिल नहीं की थी, लेकिन उन्हें उर्दू-फारसी का अच्छा ज्ञान हो चुका था. काफी हद तक उन्होंने संस्कृत की संभावनाएँ उलीच कर अपनी सृजनात्मक के लिए आवश्यक ‘समझ’ अर्जित कर ली थी. कदाचित् इसी के चलते उन्होंने पाया कि ‘संगीत’ और ‘अध्यात्म’ के मध्य एक ऐसा अदृश्य-सेतु है, जिसके दोनों ओर आवाजाही की जा सकती थी. यह उनकी रचनात्मक-बैचेनी से भरी प्रकृति के काफी अनुकूल भी था.
हालाँकि, अमीर ख़ां साहब के निकट सम्पर्क में रहे लोगों कि अलग-अलग राय है, लेकिन काफी हद तक यह बात एक तर्कदीप्त आधार हमारे सामने रखती है कि उनकी इस तरह की प्रकृति की निर्मिति में बचपन से ही ‘पुष्टि मार्ग’ से रहे आये उनके परिचय की बड़ी भूमिका है. पद्मश्री गोस्वामी गोकुलोत्सव महाराज कहते हैं कि ‘उनका सांगीतिक-साहचर्य पुष्टिमार्गीय से इसलिए भी रहा कि वे बाल्यावस्था से ही रामनाथजी शैल (इण्डिया टी होटल वालों) के साथ हमारे यहाँ आया करते थे. मंदिर की संगीत-सभाओं में भी वे नियमित आत थे. लोगों का गाना-बजाना भी सुनते ही थे. जिन ‘मेरुखण्ड’ की तानों के लिए अमीर ख़ां साहब की प्रशंसा होती है, वह उन्हें हमारे इन्दौर स्थित मंदिर से ही मिली थी. हमारी ही परम्परा की एक पुस्तक में ‘मेरुखण्ड’ की तानों का विधिवत् विवरण दिया गया है.’
आगे वे कहते हैं ‘आकार लगाने का जो तरीका उस्ताद अमीर ख़ां साहब के पास था, वह सामवेद की स्वरोच्चार पद्धति ही है. यानी मुँह खोल कर ‘अकार’ उच्चारण नहीं किया जाना चाहिए.’ ....ख़ां साहब ने मिया की सारंग की बंदिश ‘प्रथम प्यारे’
राग शुद्ध वसंत की ‘उड़त-बंधन’ और हमारी वंश-परम्परा में गोस्वामी हरिराय महाप्रभु की ‘राग दरबारी’ में ‘ऐ मोरी अली,
जब तें भनक परी पिया आवन की’ तथा ‘वल्लभाचार्य जी के पुत्र गुंसाई विट्ठलनाथ जी के प्रति रचना ‘लाज राखो तुम मोरी गुंसैंया’ (राग-चारुकेशी): आदि
बंदिशें ख़ां साहब ने गायी हैं.’
कहने की जरूरत नहीं कि गोस्वामी गोकुलोत्सवजी महाराज के पास लगभग एक हजार घण्टे की अमीर ख़ां साहब की रिकॉर्डिंग्स हैं. और उनकी गायकी की सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेचना कर सकने में वे अत्यन्त समर्थ भी हैं. क्योंकि ‘स्वर’ और ‘लयकारी’ की जो नाद-स्थिति है, वही अपने ‘रूप’ और ‘स्वरूप’ की विशिष्टता में ‘घरानों’ की एक निश्चित पहचान बनाती है. और उस्ताद अमीर ख़ां साहब ने अपनी गायकी से यही किया कि वे ‘लय और स्वर’ के बीच के अन्तरसंबंधों में ‘गान की आध्यात्मिकता’ के अनुसार ‘खयाल’ को ‘मेलोडिक’ बनाने पर स्वयं को एकाग्र करने लगे. यह प्रकारान्तर से ‘समाधिस्तता’ की ओर जाना था.
संगीतज्ञ जानते हैं कि प्रत्येक गायक की अपनी अन्तःप्रकृति गाते समय उसकी मुद्राओं को तय करती है. उस्ताद अमीर ख़ां अपनी प्रकृति से गहन ‘आध्यात्मिक’ थे शायद यही कारण था कि गाते समय वे ‘विनिमीलक’ रहते थे. अर्थात् एक समाधिस्थ योगी की तरह आँखें मूंदे हुए गाते थे. ध्यानावस्था की तरफ शनैः शनैः बढ़ते हुए उनकी गहरी और पाटदार आवाज जो कि शास्त्रीय गायकों में बहुत कम ही मिलती है, ने भी उन्हें एक रास्ता दिखाया, जो उन्होंने उस्ताद बाबू ख़ां की ‘बीनकारी’ से आत्मस्थ किया था, ‘आलापचारी’ में ‘अति-विलम्बित’ लय का चयन. स्वर के नैरतर्य को ‘लयकारी’ से नाथ कर रखने का अनुशासन, शायद उन्हें अपने आरंभिक वर्षों के सारंगी-वादन ने सिखा दिया था. इसलिए उन्होंने तय किया कि संगीत में सारंगी को अनुपस्थित रखा जाये तो शायद ‘स्वर’ को अपने ‘आत्म से ही संतुलित’ किया जाये. वही स्वर-साहचर्य की युक्ति होगी. यही वजह थी कि उनके साथ तबला सिर्फ धीमा और सादा ठेका देता है. यहाँ इस बात की ओर ध्यान देना होगा कि वे अपने गायन में ‘नाद की प्रवहमानता’ को पूरी तरह नैसर्गिक बनाये रखने के लिए तालों में केवल ‘झूमरा’ या ‘तिलवाड़ा’ को ही जगह देते हैं. हालाँकि विलम्बित ‘खयाल’ के अस्थायी में ‘छन्दोग’ तानों का किंचित् दिग्दर्शन कराते भी थे, जिसमें अपने स्वर के गांभीर्य के अनुरूप ‘गमक’ ‘लहक’ या ‘धनस’ की उपस्थिति भी अत्यन्त नैसर्गिकता के साथ आ जाती थी. यदि हम उनके द्वारा गाये गये परम्परागत राग, मसलन ‘तोड़ी’, ‘भैरव’, ‘ललित’, ‘मारवा’, ‘पूरिया’, ‘मालकौंस’, ‘केदारा’, ‘दरबारी’, ‘मुल्तानी’, ‘पूरवी’, ‘अभोगी’, ‘चन्द्रकौंस’ आदि देखें तो यह बहुत स्पष्ट हो जायेगा कि इसमें वे अपनी ‘गांभीर्यमयी स्वर-सम्पदा से ‘मन्द्र’ का जिस तरह दोहन करते हैं, वह एकदम विशिष्ट है.
बहरहाल, उनकी गायकी के दो दशकों का अध्ययन करके यह बहुत साफ तौर से बताया जा सकता है कि उन्होंने, जिस तरह स्वयं का एक ‘आत्म-आविष्कृत’ मार्ग शास्त्रीय गायकी की दुनिया बनाया, उसमें उनका शुरू से रहा आया आध्यात्मिक रुझान और बीन तथा सारंगी जैसे वाद्यों की नाद-निर्मिति को, तथा जिस तीन ‘शक्ति-त्रयी’ के शैलीगत वैशिष्ट्य से जोड़ा, वे थे- देवास के उस्ताद रजबअली ख़ां, भिण्डी बाजार घराने के उस्ताद अमान अली ख़ां और उस्ताद अब्दुल करीम ख़ां. हालाँकि, उस्ताद अमीर ख़ां की गायकी के अध्येता अपने विश्लेषणों में यह भी कहते हैं कि बहरे वाहिद ख़ां साहब की ‘गायकी’ की कुछ खासियत और खसूयितों को भी उन्होंने निःशक होकर अपनाया है. ‘मेरुखण्ड’ तानों के अभ्यास ने उन्हें ‘सरगम’ और ‘पलटों’ के प्रति इतना सहज कर दिया था कि उनकी गायकी से रसिकों के बीच एक अलग ही आनंद की सृष्टि हो जाती है.
मुझे याद आता है, स्वर्गीय पंडित कुमार गंधर्व हमेशा कहा करते थे कि ‘आलाप’ गायक का पुरुषार्थ बताता है. ऐसा गायक कभी बूढ़ा नहीं होता. उस्ताद रजबअली ख़ां साहब के बारे में, जिनका सानिध्य उस्ताद अमीर ख़ां को आरंभ से मिला था, कहा जाता है कि जब उन्हें आकाशवाणी पर गाने के लिए आमंत्रित किया जाता था तो वे बहुत वृद्ध हो चुके थे. उनकी दोनों बाहों को दो लोग अपने-अपने कंधों पर रखकर पकड़ते और बहुत शाइस्तगी के साथ स्टूडियो का कॉरीडोर पार करवा कर माइक्रोफोन के सामने बिठाते थे. लेकिन, ज्यों ही वे ‘आलाप’ पर आते और कोई आँख मूँद सुने तो उस आवाज के आधार पर कोई उनकी उम्र का अनुमान नहीं लगा सकता था.
यहाँ मैं थोड़ा-सा ‘आलाप’ की आधुनिकता का उल्लेख करना चाहता हूं कि आधुनिक-संगीत में प्राचीन ‘निबद्ध-अनिबद्धगान’ के अन्तर्गत ‘अनिबद्ध’ गान का एक ही ‘प्रकार’ प्रासंगिक रहा आया है. और वह है, ‘आलाप’. पहले ‘आलाप’ करने वाले ध्रुपदिये होते थे, जिनका स्वर एवम् राग-ज्ञान ही ‘आलाप’ को विशिष्ट सौंदर्य देता था. अब तो खयाल गायक भी सुंदर आलाप करते हैं.
‘आलाप’ के दो ढंग है, एक ‘नोम-तोम’ द्वारा तथा दूसरा ‘अकार’ द्वारा. ‘अकार’ का ‘आलाप’ ‘आऽऽ’ के उच्चारण द्वारा होता है, जबकि ‘नोम-तोम’ का त-ना-न-रीनों-नारे-नेनेरी-तनाना-नेतोम आदि शब्दों के द्वारा किया जाता है. उस्ताद अमीर ख़ां साहब दोनों तरह से करने में समर्थ थे, लेकिन ‘अकार’ की अपेक्षया नोम्-तोम’ में किसी स्थान पर ‘सम’ दिखाने की सुविधा रहती है. ये वो समय था, जब धु्रपद गाने वाले ‘तराने’ पर स्वयं को एकाग्र करने वाले गायकों के बारे में व्यंग्यात्मक लहजे में कहा करते थे, ‘ये हमारी तरह क्या स्वर लगायेंगे, ये तो ‘नोम-तोम’ करते-करते ही मर जायेंगे.’
लेकिन, जब उस्ताद अमीर ख़ां साहब ने स्वयं को तराने पर एकाग्र किया तो उनकी अप्रतिम मेधा ने उसका लगभग ‘नवोचार’ ही कर दिया. उनका वह काम आज भारतीय शास्त्रीय-संगीत की मौलिक धरोहर में बदल गया है. तराने में प्रचलित ‘नादिर दानी तुम दिरदानीं’, जिसे पूर्व में मात्र निरर्थक शब्द-समूह माना जाता था, उसे उस्ताद अमीर ख़ां ने अपने गहन अध्ययन के आधार-पर सूफी-सम्प्रदाय का जाप-मंत्र सिद्ध किया. इसी के चलते ख़ां साहब ने कई तराने के अंतरे में महान सूफी संत अमीर खुसरो की रुबाइयों का जो कायान्तरण किया, वह अद्भुत है. हालाँकि इसके पूर्व भी कुछेक संगीतज्ञों का विवेचन ऐसा रहा आया कि ये निरर्थक से जान पड़ने वाले शब्द ‘ईश्वरोपासना’ का बिगड़ा हुआ रूप ही हैं, चूंकि पूर्वगायक संस्कृत पंडित हुआ करते थे, तो शब्दोच्चारण भी स्पष्ट था, लेकिन ‘राग’ से आसक्ति के बाद मुस्लिम गायकों के लिए शब्दोच्चारण सहज नहीं था, नतीजतन, उन्होंने राग तो पकड़े, शब्द छोड़ दिये और जो शब्द पकड़े वे उन्होंने अपने ‘सूफी-चिंतन’ की भाषा से उठा कर रख दिये.
यहाँ उस्ताद ख़ां साहब के ‘आलाप’ को प्रक्रियागत एवम् संरचना के बारे में स्पष्ट है कि वे बहुत ही नैसर्गिकता के साथ अपनी पाटदार आवाज से स्थायी में पहले ‘षड्ज’ लगा कर वादी स्वर का ऐसा महत्व दिखा देते थे कि पूर्वांग में ‘राग’ चलता और आरंभ में कुछ मुख्य-स्वर समुदायों को लेकर फिर एक नया स्वर अपने स्वर-समुदायों में जोड़ जोड़़कर वे मध्य-स्थान के पंचम ‘धैवत’ और ‘निषाद’ तक जाते हैं फिर ‘तार-षड्ज’ को बहुत खूबसूरती से छूते हुए ‘मध्य-षड्ज’ पर ‘स्थायी’ समाप्त करते. ‘स्थायी’ भाग का ‘आलाप’ अधिकतर ‘मन्द्र’ और कभी-कभी ‘मध्य-सप्तकों’ तक भी चलता. बाद इसके वे अधिकांशतः ‘मध्य-सप्तक’ के स्वर से ‘अंतरा’ का भाग शुरू करते और तार-सप्तक के ‘षड्ज’ पर पहुँच कर वे अपने स्वर कौशल की द्युति का भास कराते हैं. स्मरण रहे कि अपनी विशिष्ट तानों को वहीं लेकर वे वहीं समाप्त करते हैं फिर शनैः शनैः अपनी पाटदार आवाज के स्वर की आध्यात्मिक दिव्यता के साथ ‘मध्य-षड्ज’ पर आकर मिल जाते हैं. यहीं मोड़ और ‘कम्पन’ के काम के लिए पर्याप्त अवकाश होता है. उस ‘स्पेस’ का दोहन करने में उनकी तन्मयता अलौकिक-सी जान पड़ती है. जैसे एक समाधिस्थ योगी अपनी दैहिकता के पार चला गया है.
यही वह उम्र और उनकी गायकी का पड़ाव था, जहाँ पहुँच कर उनके स्वर-सामर्थ्य ने परम्परा को नवोन्मेष से जोड़ा. मसलन ‘मार-वा’ मूलरूप से वीर-रस का राग है. क्योंकि इस राग में ‘निषाद’ कई स्थानों पर वक्र-गति से प्रयुक्त होता है. खासकर जब इस राग में ‘अवरोह’ में ऋषभ-वक्र होता है, तो राग की अन्तर्द्युति बढ़ जाती है. इसी ‘चमक’ को ख़ां साहब ने कुछ इस तरह अपने स्वर से व्यक्त किया कि यह अपने ‘रसोद्रेक’ में शांत और सौम्यता के निकट आ गया, जो कि बुनियादी रूप से आध्यात्मिकता की विशिष्टता है. दूसरे ‘मालकौंस’ को लें. यह राग अमूमन शृंगारिक-अभिव्यक्तियों में बहुत खिलकर रूपायित होता है, लेकिन उन्होंने अपनी ख्याल गायकी के सामर्थ्य से उसमें भी आध्यात्मिक गांभीर्य पैदा कर दिया.
कहना न होगा कि अब तक वे एक ऐसे शिखर पर आ गये थे कि मिर्जापुर की महफिल का मान-अपमान बहुत पीछे छूट गया था. अब वह बहुत दूरस्थ और धूमिल था. उन्हें खासतौर ‘मेरुखण्ड’ की गायकी ने जिस रचनात्मक-स्थापत्य पर खड़ा कर दिया, वहाँ उनकी ऊँचाइयाँ देख कर ‘किराना’ घराना से लेकर भिण्डी बाजार तक के लोग उनको अपने दावों के भीतर रखने लगे,. लेकिन वे अपनी कठिन तपस्या के बल पर, अब अपने आप में एक ‘घराना’ बनने के करीब थे. देश भर के संगीत-संस्थानों के आयोजनों और आकाशवाणियों के केन्द्रों परचारों-ओर अब वही पाटदार और ठाठदार आवाज गूँजने लगी. यह ‘इतिहास में हुए अपमान के विरुद्ध’ शनैः शनैः अर्जित प्रसिद्धि का पठार था. मगर, उस्ताद अमीर ख़ां एक गहरी आध्यात्मिक उदारता और दार्शनिकता के साथ अपनी तपस्या में लगे रहे.
उन्हें फिल्मों में भी गाने के लिए आमंत्रित किया, लेकिन वहाँ भी उन्होंने शास्त्रीयता की रक्षा के साथ अपना अवदान दिया. लोगों के लिए वहाँ भी यह विस्मय था, कि कहाँ कैसे कोई श्रुति आयी है ? षड्ज लगा है तो कौन सा लगा है ? दूसरी श्रुति या तीसरी श्रुति का ? गान्धार लगा तो कौन सा लगा ? और इसमें मूर्च्छना से जो जरब लगी, वो ‘जरब’ कैसी लगी ? ‘जरब’ जहाँ तोल कर लगाई, तो लगता है, वह सन्तुलित नहीं अतुलित है ? यह गणित को जानकर गणित से बाहर हो जाने का सामर्थ्य है. मुझे अंग्रेजी के प्रोफेसर और लेखक अजातशत्रु के दिए गए एक साक्षात्कार की याद आ रही है. उन्होंने एक दफा उनके पेडर रोड के उनके फ्लैट में सामने की गैलरी में देखा था. रात गये, जब बम्बई ऊँघ रही थी. वे उस गैलरी में चहल-कदमी करते हुए ऐसे लगे थे, जैसे कोई बैचेन सिंह है, कटघरे में. जो कटघरे के भीतर रह कर भी कटघरे से बाहर फलाँग गया है. वह खामोश है, लेकिन उसकी गर्जना मेरे कानों के भीतर गूँज रही है.’
कहने की जरूरत नहीं कि गोस्वामी गोकुलोत्सवजी महाराज के पास लगभग एक हजार घण्टे की अमीर ख़ां साहब की रिकॉर्डिंग्स हैं. और उनकी गायकी की सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेचना कर सकने में वे अत्यन्त समर्थ भी हैं. क्योंकि ‘स्वर’ और ‘लयकारी’ की जो नाद-स्थिति है, वही अपने ‘रूप’ और ‘स्वरूप’ की विशिष्टता में ‘घरानों’ की एक निश्चित पहचान बनाती है. और उस्ताद अमीर ख़ां साहब ने अपनी गायकी से यही किया कि वे ‘लय और स्वर’ के बीच के अन्तरसंबंधों में ‘गान की आध्यात्मिकता’ के अनुसार ‘खयाल’ को ‘मेलोडिक’ बनाने पर स्वयं को एकाग्र करने लगे. यह प्रकारान्तर से ‘समाधिस्तता’ की ओर जाना था.
संगीतज्ञ जानते हैं कि प्रत्येक गायक की अपनी अन्तःप्रकृति गाते समय उसकी मुद्राओं को तय करती है. उस्ताद अमीर ख़ां अपनी प्रकृति से गहन ‘आध्यात्मिक’ थे शायद यही कारण था कि गाते समय वे ‘विनिमीलक’ रहते थे. अर्थात् एक समाधिस्थ योगी की तरह आँखें मूंदे हुए गाते थे. ध्यानावस्था की तरफ शनैः शनैः बढ़ते हुए उनकी गहरी और पाटदार आवाज जो कि शास्त्रीय गायकों में बहुत कम ही मिलती है, ने भी उन्हें एक रास्ता दिखाया, जो उन्होंने उस्ताद बाबू ख़ां की ‘बीनकारी’ से आत्मस्थ किया था, ‘आलापचारी’ में ‘अति-विलम्बित’ लय का चयन. स्वर के नैरतर्य को ‘लयकारी’ से नाथ कर रखने का अनुशासन, शायद उन्हें अपने आरंभिक वर्षों के सारंगी-वादन ने सिखा दिया था. इसलिए उन्होंने तय किया कि संगीत में सारंगी को अनुपस्थित रखा जाये तो शायद ‘स्वर’ को अपने ‘आत्म से ही संतुलित’ किया जाये. वही स्वर-साहचर्य की युक्ति होगी. यही वजह थी कि उनके साथ तबला सिर्फ धीमा और सादा ठेका देता है. यहाँ इस बात की ओर ध्यान देना होगा कि वे अपने गायन में ‘नाद की प्रवहमानता’ को पूरी तरह नैसर्गिक बनाये रखने के लिए तालों में केवल ‘झूमरा’ या ‘तिलवाड़ा’ को ही जगह देते हैं. हालाँकि विलम्बित ‘खयाल’ के अस्थायी में ‘छन्दोग’ तानों का किंचित् दिग्दर्शन कराते भी थे, जिसमें अपने स्वर के गांभीर्य के अनुरूप ‘गमक’ ‘लहक’ या ‘धनस’ की उपस्थिति भी अत्यन्त नैसर्गिकता के साथ आ जाती थी. यदि हम उनके द्वारा गाये गये परम्परागत राग, मसलन ‘तोड़ी’, ‘भैरव’, ‘ललित’, ‘मारवा’, ‘पूरिया’, ‘मालकौंस’, ‘केदारा’, ‘दरबारी’, ‘मुल्तानी’, ‘पूरवी’, ‘अभोगी’, ‘चन्द्रकौंस’ आदि देखें तो यह बहुत स्पष्ट हो जायेगा कि इसमें वे अपनी ‘गांभीर्यमयी स्वर-सम्पदा से ‘मन्द्र’ का जिस तरह दोहन करते हैं, वह एकदम विशिष्ट है.
बहरहाल, उनकी गायकी के दो दशकों का अध्ययन करके यह बहुत साफ तौर से बताया जा सकता है कि उन्होंने, जिस तरह स्वयं का एक ‘आत्म-आविष्कृत’ मार्ग शास्त्रीय गायकी की दुनिया बनाया, उसमें उनका शुरू से रहा आया आध्यात्मिक रुझान और बीन तथा सारंगी जैसे वाद्यों की नाद-निर्मिति को, तथा जिस तीन ‘शक्ति-त्रयी’ के शैलीगत वैशिष्ट्य से जोड़ा, वे थे- देवास के उस्ताद रजबअली ख़ां, भिण्डी बाजार घराने के उस्ताद अमान अली ख़ां और उस्ताद अब्दुल करीम ख़ां. हालाँकि, उस्ताद अमीर ख़ां की गायकी के अध्येता अपने विश्लेषणों में यह भी कहते हैं कि बहरे वाहिद ख़ां साहब की ‘गायकी’ की कुछ खासियत और खसूयितों को भी उन्होंने निःशक होकर अपनाया है. ‘मेरुखण्ड’ तानों के अभ्यास ने उन्हें ‘सरगम’ और ‘पलटों’ के प्रति इतना सहज कर दिया था कि उनकी गायकी से रसिकों के बीच एक अलग ही आनंद की सृष्टि हो जाती है.
मुझे याद आता है, स्वर्गीय पंडित कुमार गंधर्व हमेशा कहा करते थे कि ‘आलाप’ गायक का पुरुषार्थ बताता है. ऐसा गायक कभी बूढ़ा नहीं होता. उस्ताद रजबअली ख़ां साहब के बारे में, जिनका सानिध्य उस्ताद अमीर ख़ां को आरंभ से मिला था, कहा जाता है कि जब उन्हें आकाशवाणी पर गाने के लिए आमंत्रित किया जाता था तो वे बहुत वृद्ध हो चुके थे. उनकी दोनों बाहों को दो लोग अपने-अपने कंधों पर रखकर पकड़ते और बहुत शाइस्तगी के साथ स्टूडियो का कॉरीडोर पार करवा कर माइक्रोफोन के सामने बिठाते थे. लेकिन, ज्यों ही वे ‘आलाप’ पर आते और कोई आँख मूँद सुने तो उस आवाज के आधार पर कोई उनकी उम्र का अनुमान नहीं लगा सकता था.
यहाँ मैं थोड़ा-सा ‘आलाप’ की आधुनिकता का उल्लेख करना चाहता हूं कि आधुनिक-संगीत में प्राचीन ‘निबद्ध-अनिबद्धगान’ के अन्तर्गत ‘अनिबद्ध’ गान का एक ही ‘प्रकार’ प्रासंगिक रहा आया है. और वह है, ‘आलाप’. पहले ‘आलाप’ करने वाले ध्रुपदिये होते थे, जिनका स्वर एवम् राग-ज्ञान ही ‘आलाप’ को विशिष्ट सौंदर्य देता था. अब तो खयाल गायक भी सुंदर आलाप करते हैं.
‘आलाप’ के दो ढंग है, एक ‘नोम-तोम’ द्वारा तथा दूसरा ‘अकार’ द्वारा. ‘अकार’ का ‘आलाप’ ‘आऽऽ’ के उच्चारण द्वारा होता है, जबकि ‘नोम-तोम’ का त-ना-न-रीनों-नारे-नेनेरी-तनाना-नेतोम आदि शब्दों के द्वारा किया जाता है. उस्ताद अमीर ख़ां साहब दोनों तरह से करने में समर्थ थे, लेकिन ‘अकार’ की अपेक्षया नोम्-तोम’ में किसी स्थान पर ‘सम’ दिखाने की सुविधा रहती है. ये वो समय था, जब धु्रपद गाने वाले ‘तराने’ पर स्वयं को एकाग्र करने वाले गायकों के बारे में व्यंग्यात्मक लहजे में कहा करते थे, ‘ये हमारी तरह क्या स्वर लगायेंगे, ये तो ‘नोम-तोम’ करते-करते ही मर जायेंगे.’
लेकिन, जब उस्ताद अमीर ख़ां साहब ने स्वयं को तराने पर एकाग्र किया तो उनकी अप्रतिम मेधा ने उसका लगभग ‘नवोचार’ ही कर दिया. उनका वह काम आज भारतीय शास्त्रीय-संगीत की मौलिक धरोहर में बदल गया है. तराने में प्रचलित ‘नादिर दानी तुम दिरदानीं’, जिसे पूर्व में मात्र निरर्थक शब्द-समूह माना जाता था, उसे उस्ताद अमीर ख़ां ने अपने गहन अध्ययन के आधार-पर सूफी-सम्प्रदाय का जाप-मंत्र सिद्ध किया. इसी के चलते ख़ां साहब ने कई तराने के अंतरे में महान सूफी संत अमीर खुसरो की रुबाइयों का जो कायान्तरण किया, वह अद्भुत है. हालाँकि इसके पूर्व भी कुछेक संगीतज्ञों का विवेचन ऐसा रहा आया कि ये निरर्थक से जान पड़ने वाले शब्द ‘ईश्वरोपासना’ का बिगड़ा हुआ रूप ही हैं, चूंकि पूर्वगायक संस्कृत पंडित हुआ करते थे, तो शब्दोच्चारण भी स्पष्ट था, लेकिन ‘राग’ से आसक्ति के बाद मुस्लिम गायकों के लिए शब्दोच्चारण सहज नहीं था, नतीजतन, उन्होंने राग तो पकड़े, शब्द छोड़ दिये और जो शब्द पकड़े वे उन्होंने अपने ‘सूफी-चिंतन’ की भाषा से उठा कर रख दिये.
यहाँ उस्ताद ख़ां साहब के ‘आलाप’ को प्रक्रियागत एवम् संरचना के बारे में स्पष्ट है कि वे बहुत ही नैसर्गिकता के साथ अपनी पाटदार आवाज से स्थायी में पहले ‘षड्ज’ लगा कर वादी स्वर का ऐसा महत्व दिखा देते थे कि पूर्वांग में ‘राग’ चलता और आरंभ में कुछ मुख्य-स्वर समुदायों को लेकर फिर एक नया स्वर अपने स्वर-समुदायों में जोड़ जोड़़कर वे मध्य-स्थान के पंचम ‘धैवत’ और ‘निषाद’ तक जाते हैं फिर ‘तार-षड्ज’ को बहुत खूबसूरती से छूते हुए ‘मध्य-षड्ज’ पर ‘स्थायी’ समाप्त करते. ‘स्थायी’ भाग का ‘आलाप’ अधिकतर ‘मन्द्र’ और कभी-कभी ‘मध्य-सप्तकों’ तक भी चलता. बाद इसके वे अधिकांशतः ‘मध्य-सप्तक’ के स्वर से ‘अंतरा’ का भाग शुरू करते और तार-सप्तक के ‘षड्ज’ पर पहुँच कर वे अपने स्वर कौशल की द्युति का भास कराते हैं. स्मरण रहे कि अपनी विशिष्ट तानों को वहीं लेकर वे वहीं समाप्त करते हैं फिर शनैः शनैः अपनी पाटदार आवाज के स्वर की आध्यात्मिक दिव्यता के साथ ‘मध्य-षड्ज’ पर आकर मिल जाते हैं. यहीं मोड़ और ‘कम्पन’ के काम के लिए पर्याप्त अवकाश होता है. उस ‘स्पेस’ का दोहन करने में उनकी तन्मयता अलौकिक-सी जान पड़ती है. जैसे एक समाधिस्थ योगी अपनी दैहिकता के पार चला गया है.
यही वह उम्र और उनकी गायकी का पड़ाव था, जहाँ पहुँच कर उनके स्वर-सामर्थ्य ने परम्परा को नवोन्मेष से जोड़ा. मसलन ‘मार-वा’ मूलरूप से वीर-रस का राग है. क्योंकि इस राग में ‘निषाद’ कई स्थानों पर वक्र-गति से प्रयुक्त होता है. खासकर जब इस राग में ‘अवरोह’ में ऋषभ-वक्र होता है, तो राग की अन्तर्द्युति बढ़ जाती है. इसी ‘चमक’ को ख़ां साहब ने कुछ इस तरह अपने स्वर से व्यक्त किया कि यह अपने ‘रसोद्रेक’ में शांत और सौम्यता के निकट आ गया, जो कि बुनियादी रूप से आध्यात्मिकता की विशिष्टता है. दूसरे ‘मालकौंस’ को लें. यह राग अमूमन शृंगारिक-अभिव्यक्तियों में बहुत खिलकर रूपायित होता है, लेकिन उन्होंने अपनी ख्याल गायकी के सामर्थ्य से उसमें भी आध्यात्मिक गांभीर्य पैदा कर दिया.
कहना न होगा कि अब तक वे एक ऐसे शिखर पर आ गये थे कि मिर्जापुर की महफिल का मान-अपमान बहुत पीछे छूट गया था. अब वह बहुत दूरस्थ और धूमिल था. उन्हें खासतौर ‘मेरुखण्ड’ की गायकी ने जिस रचनात्मक-स्थापत्य पर खड़ा कर दिया, वहाँ उनकी ऊँचाइयाँ देख कर ‘किराना’ घराना से लेकर भिण्डी बाजार तक के लोग उनको अपने दावों के भीतर रखने लगे,. लेकिन वे अपनी कठिन तपस्या के बल पर, अब अपने आप में एक ‘घराना’ बनने के करीब थे. देश भर के संगीत-संस्थानों के आयोजनों और आकाशवाणियों के केन्द्रों परचारों-ओर अब वही पाटदार और ठाठदार आवाज गूँजने लगी. यह ‘इतिहास में हुए अपमान के विरुद्ध’ शनैः शनैः अर्जित प्रसिद्धि का पठार था. मगर, उस्ताद अमीर ख़ां एक गहरी आध्यात्मिक उदारता और दार्शनिकता के साथ अपनी तपस्या में लगे रहे.
उन्हें फिल्मों में भी गाने के लिए आमंत्रित किया, लेकिन वहाँ भी उन्होंने शास्त्रीयता की रक्षा के साथ अपना अवदान दिया. लोगों के लिए वहाँ भी यह विस्मय था, कि कहाँ कैसे कोई श्रुति आयी है ? षड्ज लगा है तो कौन सा लगा है ? दूसरी श्रुति या तीसरी श्रुति का ? गान्धार लगा तो कौन सा लगा ? और इसमें मूर्च्छना से जो जरब लगी, वो ‘जरब’ कैसी लगी ? ‘जरब’ जहाँ तोल कर लगाई, तो लगता है, वह सन्तुलित नहीं अतुलित है ? यह गणित को जानकर गणित से बाहर हो जाने का सामर्थ्य है. मुझे अंग्रेजी के प्रोफेसर और लेखक अजातशत्रु के दिए गए एक साक्षात्कार की याद आ रही है. उन्होंने एक दफा उनके पेडर रोड के उनके फ्लैट में सामने की गैलरी में देखा था. रात गये, जब बम्बई ऊँघ रही थी. वे उस गैलरी में चहल-कदमी करते हुए ऐसे लगे थे, जैसे कोई बैचेन सिंह है, कटघरे में. जो कटघरे के भीतर रह कर भी कटघरे से बाहर फलाँग गया है. वह खामोश है, लेकिन उसकी गर्जना मेरे कानों के भीतर गूँज रही है.’
और सचमुच
ही एकदिन उनकी देह फलाँग गयी. तेज गति से चलते वाहन के बाहर. और वे फलाँग गये, उस दुनिया से, जिसमें
रहकर वे अपने स्वर और तानों में सारा प्राण फूँक रहे थे. वह चौदह जनवरी उन्नीस सौ
चौहत्तर की दुर्भाग्यशाली सुबह थी, जिसमें देशभर के समाचार
पत्रों के मुखपृष्ठ की खबर थी कि कलकत्ता में हुई एक कार दुर्घटना ने शास्त्रीय
संगीत के एक महान गायक को हमसे छीन लिया है. उस्ताद अमीर ख़ां साहब का देहावसान हो
गया है. आज वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन वे अब एक गायक नहीं,
एक पूरे घराने की तरह मौजूद हैं, जिसमें उनके
कई-कई शिष्य हैं, जो गा-गा कर अपने गुरु का ऋण उतार रहे हैं.
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