शेफाली फ्रॉस्ट की कविताओं की सीरीज में आज पेश हैं उनकी दो और कविताएँ.
एक था राजा
वो रही,
वो रही, वो रही!
फिर एक बार
इस रुके हुए कागज़ में
बातें कुलकुलायेंगी,
आ आ कर सुनहरी मछली
भुरभुरी मिटटी पर सर मारेगी,
तुम हैरत से देखोगी बिखरना उसका,
खुशबूदार!
सूरज की हर पलट में बदलेगी
सर पटकने की आवाज़,
कभी कानों में झन-झन
कभी दांतों की कर्र-कर,
कभी उस गाने की तरह
जिसे सस्ता समझ कर
टोकरी में फैंक दिया
कूड़े की,
तुमने
तुम ढूँढोगी पता
उस उछलती हुई खाल का,
जो दिल पर धड़कती है तुम्हारे
फिर फड़फड़ाती है सर पर,
कहाँ से आ जाती है यह
हाँफती हुई उँगलियों के हाथ
बींधती हुई पन्ने के बीचों बीच,
डर गयी अगर,
मर गयी कभी,
तो क्या लिख पाओगी तुम?
एक थी रानी
कहाँ से आती है वो ?
निकलती है खदानों से अनगढ़
आवाज़ों की आवाज़,
दो? जाने तीन?
एक,
जो आती है ज़मीन से
कोयले के कपड़े पहन,
झनकाती पैरों में
लोहे का खाली कनस्तर
दूसरी,
जो टूट जाती है
रास्ते में,
आसमान के कोटर से
पाँव रखते ही धरा पर
झींगुर की खँखार सी,
त्रिशंकु के विचार सी,
ज़ुबान तीसरी की
चाटती हैं मुझे
मेरी नमी को पीती है,
गट, गट, गट,
भर लेती है शब्द मेरे
सूखे अक्षरों में अपने
संधियों से मेरी
निकल के उड़ती है फिर,
खदानों के आसमान पर
सलेटी कहानी,
एक था राजा,
एक थी रानी!
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