Tuesday, January 20, 2015

कबाड़ख़ाना 4000 - चार हजारवीं पोस्ट


ठीकठाक ही माना जाना चाहिए चार हज़ार पोस्ट्स का सफ़र हिन्दी के एक ब्लॉग के लिए. लेकिन अपने पढ़नेवालों और चाहनेवालों के बगैर ऐसा कतई संभव नहीं हो सकना था. यह आप सब का साझा ब्लॉग है और इस मौके पर आपको धन्यवाद कह रहा हूँ इस यात्रा में साथ बने रहने के लिए.

इस चार हजारवीं पोस्ट की योजना मैं पिछले महीने वीरेन डंगवाल की 'पाखी' में छपी कुछ ताज़ा कवितायेँ पढ़कर कर चुका था. वीरेनदा से कुमाउनी लोकसंगीत, घोड़ाखाल के गोलू देवता के मंदिर, गंगोलीहाट मंदिर की सीढ़ियों वगैरह पर वर्षों से छिटपुट-छिटपुट ज़िक्र होता ही रहा है. गिर्दा के साथ उनका जो अद्वितीय क़िस्म का सम्बन्ध था और शैलेश मटियानी जी के साथ भी, उसे मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूँ. वीरेनदा से जो मेरा अपना सम्बन्ध है वो यह है कि सन १९८८ से वे मेरे गोद लिए बाप हैं. ऐसी किस्मत हर किसी की नहीं होती.

कुमाउनी लोकगाथाओं के संरक्षण में किये गए सरकारी/गैरसरकारी प्रयासों के बारे में मेरी बहुत ज्यादा जानकारी नहीं है लेकिन इसे लेकर इन दोनों के सरोकारों की ईमानदारी उनके कार्य में परिलक्षित होती है. गिर्दा ने झूसिया दमाई के गायन पर लंबा शोध किया था, उसका क्या हुआ यह कुछ महात्माओं को ही पता होगा. लेकिन चम्पावत के बाईस भाई बफौलों की हुड़किया-बौल परम्परा में गई जाने वाली गाथा को शैलेश जी ने अपनी पुस्तक 'मुख सरोवर के हंस' में जिस तरह हिन्दी भाषा में उतारा है, भाषा के लिहाज़ से लोकसाहित्य में उसका सानी खोजना मुश्किल है. आज ये दोनों नहीं हैं.

तो कुमाऊँ के इन्हीं दो दिग्गज लेखकों को याद करते हुए स्वप्न और जागृति के बीच डोलते-सोते-जागते वीरेन डंगवाल ने यह गज़ब की रचना की है. जिन मुश्किल परिस्थितियों में यह मास्टरपीस तप कर निकला है, उसके लिए वीरेनदा के अटूट साहस को मेरे एक हज़ार सलाम. यह ज़रूर है कि अपने कथ्य और कथन की शैली के चलते पूरी तरह से एप्रीशियेट किये जाने के लिए थोड़ा अधिक श्रम की दरकार रखती है यह रचना. लेकिन है तो है. 

लोकगाथाएं और संगीत साथ साथ चला करते हैं - और क्षेत्रों की तरह कुमाऊँ में भी . इसलिए पोस्ट को मुकम्मल सूरत देने के उद्देश्य से कविता के आखीर में मैंने इसी लोकगाथा शैली में गाया विख्यात कुमाऊनी गायक हरदा सूरदास का गाया एक रमौल भी लगाया है. वीरेनदा का आग्रह था कि इस कविता का रस जोर जोर से पढ़ने में ज्यादा निकलेगा. सो आनंद लीजिये.  

[और कविता की टाइप की हुई पांडुलिपि उपलब्ध कराने के लिए भाई अविनाश मिश्र का दिल से आभार.] 
    

परिकल्पित कथा लोकांतर काव्य-नाटिका 
नौरात, शिवदास और सिरी भोग वगैरह 

-वीरेन डंगवाल


गिर्दा

शैलेश मटियानी

(दिवंगत अग्रजों शैलेश मटियानी और गिरीश तिवाड़ी गिर्दा' को
किंचित क्षमा-याचना के साथ याद करते हुए, सादर)

बहुत धुआं है मांऽ
आंखें हुई हैं गुड़हल का फूऽऽल
हे मांऽऽ गुड़हल का लाल-लाल फूऽऽल!
दुंग-दुगुड़-दुंग-दुगुड़-दुंग-दुगुड़
धक्क-धक्क-धक्क
घिंच-निगिन-घिंच-निगिन-घिंच-निगिन
रिगिड़-बिगिड़
...
कौन होगा ऐसा जिजमान
पहले ही नवरात्र को
जो लगा रहा सिरीभोग!
‘‘किस जोग हो महाराजा जिजमान
छवा दी आज ही चांदी की चादर सोने का बूटा
लगा दिया जो सिरी भोग शैलपुत्री को’’
‘‘अरे पंडिज्ज्यू पहला नवरात्र
बालक का आज पहला जनमबार हुआ.
मां की किरपा आपके आशीर्वाद से
पिछले ही बरस नौरात को सिरा गए थे हम लोग.
हल्द्वानी रेलबजार रशीद के बाड़े से
लाया हूं आज ही
तीन हजार का ये पट्ठा
दो सीडी भी हैं माता की भेंटें
हल्द्वानी में ही खरीदीं बस अड्डे से
भेंट स्वरूप स्वीकार हों
बजाई जाएं लाउडस्पीकर पर
नौरात भर’’
...
लाल-गुलाबी साडि़यों में चली आ रहीं नौब्याहताएं
नई माताएं आ रहीं
कोहनी पर टांगे अपने लड्डू गोपाल
सासुएं चली आ रहीं झुलातीं अपनी नथें
विधवा बामनियां सफेद सूती धोती में तिरस्कृत
नाक तक सजीला तीखा पिठ्यां
ठकुराइनें साहुनियां
बामण-शिल्पकार मां-बेटियां
गाती हुई चली आ रहीं
धार पर चढ़ान पर उतार पर
हे मां तेरे सुरीले अटर-पटर गीत :

अगर मैं जल चढ़ाती हूं
तो वो मछली का जूठा है
इसीलिए मन नहि करता है
तेरे मंदिर में आने का।

हे मां कैसे सुरीले अटर-पटर तेरे गीत।
आंखें लाल धुएं से
गुड़हल का फूल
घर से बाहर निकलने की छुट्टी की खुशी से.

दुंग-दुगुड़-दुंग-दुगुड़-दुंग-दुगुड़
दन्-दन्-दन्
निगिड़-नगण-निगिड़-नगण-निगिड़-नगण
किन्-किन्-किन्
...
दमामे पर बैठा है शिवदास
कान से कान तक तिरछी काली टोपी लगाए
ढोल पर पीट रहा नौ साल का पोता
दांय-दांय-दिक्-दिक्-दिक् उत्साह से.
खूब पिठैं अक्षत लगे हैं रे दोनों के माथे पर झकनाझोर
पास ही में दर्मों के धरा
चमाचम गंडासा.
अरे शिवदास आज तो खूब
सिरी-सिरी और अंतडि़यों का भोटुआ पूरे घर को.
कहा, पहले ही नौरात के दिन!
दुंग-दुगुड़-दुंग-दुगुड़-दुंग-दुगुड़
वा-वा-वा
तीन हजार का बकरा तो
ढाई सौ तो हो ही जाएगी बख्शीश
भाई, दुंग-दुगुड़।
...
हैरान है तीन हजार का पट्ठा
मांऽ मांऽऽ हे मांऽऽऽ
कभी खुश्क हो जाती हैं हिरन जैसी आंखें
कभी झरने लगती हैं :
सुबह से कान खा गया
ये काली टोपी वाला नीच बूढ़ा
डुंग-दुगुड़-डुंग-डुंग-डुंग
ऊपर से इतना धुआं मांऽऽ
बीच-बीच में कैसे लालच से ताकता है मुझे
कभी उस धारदार लोहे के बांठे को.
मांऽ मांऽ मांऽ एक बार छूट पाता
इन कमीनों के चंगुल से
तो जा भागता सीधे सर-सर उतर कर
अपनी हल्द्वानी के रेलबजार में
रशीद मियां के बाड़े में
हां जी वही, मशहूर शम्मा होटल वाले...
...
क्षेपक-1

कथा के भीतर एक और कथा लखूदास दर्जी की
जो गांव के लोगों के कपड़े सिलता था सुई-धागे से
शादी-ब्याह में ढोल दमौं बजाता था
और नौरातों में इसी मंदिर में काटता था
बलि के बकरे और कटड़े.
बाद में उसकी दासोचित विनम्रता-सज्जनता देख
उसे राजा के रनिवास में सेवक बना दिया गया.
...

नौ लाख का हारऽ
राणी का मैं सेवक ठैरा पर उसको मुझसे प्यारऽ!
धुकुड़-पुकुड़-जुंग-जुंग
खुसुर-पुसुर-खुसुर-पुसुर
पंग्-पंग्-फटर-फटर

राजा नै बुलायो मुझे अपने कोठार में
गलती नहीं तेरी मगर राणी तेरे प्यार में
बोल रे दास,
मैं क्या करूं, गलती नहीं तेरी कोई.
तू दूर-दूर रहता है पर
वह तुझे नौलखा हार देती है जबरन
तुझे अपने तालाब में नहाने को कहती है
तुझसे ब्रह्म कमल मंगाती है
चढ़ाती है तुझे पके काफलों से लदे छरहरे पेड़ पर
कहती है झकझोर-झकझोर-झकझोर.
पक्-पक्-पक्-खुसुर-पुसुर
खुसुर-पुसुर-धांय-धांय
मुझे सब पता है रे दास
जी तो नहीं करता लेकिन
कैसे तुझे जिंदा छोडू दूं रेऽ, तू ही बोल!
राज की राजा की राजघराने की
इज्जत का है सवाल
इसलिए मारूंगा मैं तुझे अपने हाथ से
मगर इस सोने की तलवार से
जीवन भर भेजूंगा तेरे घर हर माह
बीस पसेरी गेहूं धान तेल दाल
तू चिंता मत करना मरने के बाद भी
हाय धुकुड़, दै धुकुड़, हाय धुकुड़, दै-दै-दै

मेरा मन अपनी सच्चाई
जवानी और राजा की झूठी इज्जत पर हाय-हाय
...
अरे ओ बाघनाथ जी जागनाथ जी
नंदादेवी अल्मोड़ा की गंगोलीहाट की कालिंका
कितना पुकारा मैंने तुम्हें क्रंदन करते हुए पर फिजूल!
उधर पीठ ओट में
राजा पैनी कर रहा अपनी सोने की तलवार
सोचा मैंने अब तो बचना क्या है
सो दन्न एक लात धरी राजा कर पट्ऽऽ
छप्पड़ से खींच धरा
और एक लठ्ऽऽ
उसके बाद उतर-पुतर-दुकुड़-पुकुड़
दन्-दन्-दन्
उतर-उतर-भाग-भाग-दन्-दन्-दन्
दनन्-दनन्।
आगे-आगे भागे हिरन, भाग लखूदास भाग
पीछे खरगोश भागे, भाग लखूदास भाग
ऊपर-ऊपर उड़े तोता लखूदास उड़-उड़-उड़
झाड़ी में चकोर रोता, उड़-उड़-उड़-उड़-उड़-उड़
आंखों में आंसू भर रोएं बन प्राणी
बच जा बच जा कैसे भी रोएं बन प्राणी
भाबर की घास-घाम तराई के जंगल-वन
दुगुन-तिगुन-दुगुन-तिगुन-दुगुन-तिगुन-दुगुन-तिगुन

उधर हल्ला मच गया था पूरी रियासत में
अरे दास ने मारा राज्जा को रे!
दन्-दन्-दन्-दुगुन-तिगुन
घोड़े दौड़े खच्चर दौड़े दौड़े हरकारे
पर न पार पाय सके लौटे हरकारे
लखूदास पहुंच गया देस.

अरे राज्जों बजीरों तुम्हारा नास हो
हे गोलज्ज्यू महाराज गणनाथ जी
भूम्या देवता तैंतीस करोड़ देवताओं
तुम्हारा लाख-लाख धन्यवाद
कभी तो जग बदलेगा महाराज बदलेगी ऋतु
कभी तो भौंरे उड़ेंगे जुन्याली रातों में
छिनेगी राजा की सोने की तलवार
कृपा करना दाहिने रहना
तुम्हारी किरपा बिना सूरज न उगे
नदियां न भरें
फल-फसल न पकें
हवन-बलि-दान-पुण्य न हो दयालू
दया रखना
किरपा करना
यों इसी शिवदास का दादा लखूदास
भागता हुआ पहुंच गया देस!
...
क्षेपक-2

दुंग-दुगुड़-दुंग-दुगुड़
दुंग-दुगुड़-टप-टप-टप
छितिर-पितिर-धम-धड़ाम
टप-टप-टप-टपर-टपर

आज उसी मंदिर में नौरात पर
बकरा काटने का इंतजार करता
शिवदास सोचता है एक नया गीत
बल्कि गाता है, गाता है, गाता है...

सुनो हो मांओ, बौणियो, सासुओ, बौराणियो...
सुनो बामणियो, ठकुराइनो, साहुणियो, शिल्पकारिनो...
तुम भी सुनो रे, पढ़-लिखकर
घाम में मक्खी मारते बेरोजगारो
और तो और कटने के लिए मंदिर लाए जाते
बकरो-कटड़ो तुम भी सुनो:
वे रानियां भी गुलाम थीं
जो सोने की थाली में खाती थीं
गुलाम थीं वे भी लखूदास शिवदास की तरह
इसलिए सुन लो सब यह नया गाना :
राज्जों, बजीरों का शास्त्रों-पुराणों का नाश हो
जिन्होंने हमें गुलाम बनाया।
इन तैंतीस करोड़ देवताओं का नाश हो
जो अपनी आत्मा जमाए बैठे हैं
हिमालय की बर्फीली चोटियों में
और हमारे मनों में।
अरे सुनो डूमो, धुनारो, लुहारो, दर्जियो, कारीगरो, मजूरो
कितना सताया तुम्हें-हमें
इन पोथियों-पोथियारों, ताकतवालों ने
इनका नाश हो
चलो मिलकर करते हैं इन पर घटाटोप.
देखो तो चबा रहे ये हमारे पहाड़ों को...
गुड़ की भेली की तरह
खा रहे सब हमारे जंगल
हमारी भरी-पूरी नदियों को पी जा रहे रेऽऽ
पर इनकी भूख-प्यास मिटती नहीं
असली भूत-प्रेत-मसाण-राक्षस तो यही हुए
इनका नाश हो।
इनका नाश करने को चलो जुटते हैं
सभी एक साथ
करने से सब होगा भाई
करने से सब होगा, बोला
करने से सब होगा :
अरे सखी, अरे मित्र!
‘‘आएगा वह दिन जरूर आएगा दुनिया में
काहे होते हो निराश
मुंडी घुटनों से उठाओ
मत रहो फिजूल उदास
आएगा, वह दिन जरूर आएगा दुनिया में
चाहे हम न ला सकें
चाहे तुम न ला सको
मगर कोई न कोई तो लाएगा
उस दिन को दुनिया में...’’*

जैंता एक दिन त आलो दिन वो दुनी में**
...
_______________________________
*गिर्दा के एक प्रसिद्ध गीत का खड़ी बोली में
कवि द्वारा किया गया भावानुवाद  
**गिर्दा की एक काव्य-पंक्ति  
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आगे सुनिए हरदा सूरदास से रमौल-




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