Friday, January 16, 2015

तोड़ देना उनकी दूरबीनें तेरी आबादी घट रही है

‘पहल’ के अंक 97 में ‘नये कवि/पहली बार’ स्तम्भ के अंतर्गत फरेन की कविताएँ प्रकाशित हुई थीं. कवि के बारे में मेरी मालूमात भी उनकी ही हैं जितनी ‘पहल’ के संपादक मंडल की थीं. कवि का परिचय देते हुए लिखा गया है – उत्तराखंड से निकले 'पहल' के एक पुराने साथी सुरेन्द्र सिंह विष्ट ने हमें ये कविताएं उपलब्ध कराई हैं. सुरेन्द्र सिंह एक कविता प्रेमी टेक्नोक्रेट हैं और आस्ट्रेलिया के पर्थ शहर में बस गये है. कवि जिला नैनीताल में अध्यापक हैं और साहित्य की दुनिया से किनाराकशी कर चुके हैं, कभी कभी आते जाते हैं. हमारी कोशिश है कि फ़रेन को गुमनामी से बाहर लायें.

फिलहाल इसी कवि की एक रचना यहाँ साझा की जा रही है-


प्रख्यात ब्रिटिश पेन्टर जॉन एवरेट मिलाईस की कृति
'जेम्स वायट एंड हिज़ ग्रैंडडॉटर मैरी' (१८४९)

पोती को दादा का खत

-फ़रेन

उठ!!
उबाल आने वाला है
शताब्दी और सभ्यता करवट लेती है
तुझे नींबू निचोडऩा है।

अगर नींद आने लगे माँ को
तो जगा देना, गर्भ से ही हाथ हिला
तुझे पूरा सुनना है चक्रव्यूह!

ऊँट की तरह बनानी होगी
तुझे अपनी जगह, तँबू में
रात के रेतीले तूफ़ान में

जानकार तो तू हो ही जाएगी
इन्तज़ार करूँगा मैं
तेरे अक्ल की दाढ़ का

चीजों को भार नहीं सार से तोलना
लब हार जाएँ तो आँख से बोलना
तुझे आगाह कर दूँ
संसार तुझे स्त्री होना सिखाएगा
गलत और सही मिला कर पिलाएगा
तू मानसरोवरी हँस बनना

मधुमक्खियों की तरह
ऊन धीरे-धीरे जमा करना
माँ की रंग-बिरंगी डिज़ाइन सीखना

महाराणा की तरह भाग जाना
अपनी हार की महक मिलते ही
घास की रोटी और आस का पानी पीना
फिर लौटना, शत्रुओं पर
परशुराम का कहर बनकर

दादा की दादागिरी और बाप की बिसात
के बीच होगा तेरा ज़ेहाद
पँखों में हवा नहीं लोहा भरना
फूल नहीं अंगार झरना

दर्पणों से घबराकर प्रसाधन नहीं
साहस का धन ओढऩा 
विपक्ष के दिल नहीं
करारी दलीलें तोडऩा

दर्शकों के चले जाने के बाद
खाली मंचों पर रियाज़ करना
ज्ञान हार जाए तो कयाश करना

अपने स्वभाव के विरुद्ध
प्रयत्नों को चूम लेना
तमगों पर मूत देना
औरत होकर औरत का साथ देना!

जब तेरा यौवन बसन्तोत्सव मनाता हो
पुरुष खटखटाएगा साँकल
समझाना, कितनी नफ़रत करती हो
लपलपाते वेग से

फिर विज्ञान की टार्च लेकर 
वे झांकेंगे तेरी रसोई में
तोड़ देना उनकी दूरबीनें
तेरी आबादी घट रही है!!

अपनी औलाद को आशीर्वाद नहीं
आईने देना,
शब्द नहीं, शब्द की शालीनता देना
और प्रकाश के लौटने पर
मोमबत्तियों को फूक से नहीं
माफीनामे से बुझाना
अंधकार के खिलाफ़
वे अकेली आवाज होती हैं

परिजनों और पंचामृत के मध्य नहीं
सफ़र में होनी चाहिए मौत!

यही जानना है बस तुझे!

इसके अलावा कोई तथ्य नहीं
और पूरा हो, ऐसा कोई सच नहीं!

10 comments:

santoshkumar mishra said...

मेरे साथी फ़रेन की कविताएँ गज़ब की हैं ....पहाड़ के महाविद्यालय में रहते हुए की गयी रचना --बेजोड़ ....अभी अर्थशास्त्र विभाग में हमारे साथ एम बी पी जी हल्द्वानी में ...
आपका आभार ...यादें ताज़ा करने के लिए

Onkar said...

बहुत सुन्दर

mohan intzaar said...


वाह बहुत खूब ...क्या कुछ कह दिया ....

अपनी औलाद को आशीर्वाद नहीं
आईने देना,
शब्द नहीं, शब्द की शालीनता देना
और प्रकाश के लौटने पर
मोमबत्तियों को फूक से नहीं
माफीनामे से बुझाना
अंधकार के खिलाफ़
वे अकेली आवाज होती हैं

कविता रावत said...

फरेन जी की सुन्दर रचना प्रस्तुति हेतु आभार!
चित्र भी बहुत बहुत सुन्दर है देखते ही बनता है

Pratibha Verma said...

बहुत सुन्दर ...

रचना त्यागी 'आभा' said...

अद्भुत भाव और शब्द हैं..!!

प्रतिभा सक्सेना said...

झकझोरती हुई कविता-धन्य है यह लेखन !

अनिल जनविजय said...

परिजनों और पंचामृत के मध्य नहीं
सफ़र में होनी चाहिए मौत!

santoshkumar mishra said...

आप चाहे तो फ़रेन से बतिया सकते हैं ....
उनका मोब न उनकी अनुमति से
9760259733

Tanuja Melkani said...

फरेन सर आपने तो कमाल ही कर दिया ,नया नाम और नई पहचान बहुत-बहुत मुबारक हो!