पहल-97
में छपे प्रियंवद के लेख 'बुत हमको कहें क़ाफ़िर'
जिसे कबाड़खाने ने आज जाने की ज़िद न करो मेहदी हसन’ शीर्षक से पोस्ट किया था, की
प्रतिक्रिया में पहल-98 में दो पत्र छपे हैं.
उनमें से वर्धा से लिखा जीतेंद्र गुप्ता का पहला पत्र, पहल से साभार यहाँ पेश किया जा रहा है. दूसरा पत्र कल -
अक्टूबर 22, 2014
उम्मीद है कि आप अच्छे होंगे. पहल-97 उम्मीद के मुताबिक ही उस वैचारिक संवादधर्मिता को
समाहित किए हैं, जिसके लिये उसे जाना जाता
है. इसी अंक में प्रियंवद का लेख 'बुत हमको कहें क़ाफ़िर' के संदर्भ में कई सारे ऐसे मुद्दे हैं कि यह पत्र लिखना अनिवार्य हो गया
है. प्रियंवद ने अपने लेख में बिल्कुल सही संभावना व्यक्त की है कि 'बात ज़रा नाजुक है, थोड़ी उलझी हुई भी, इसलिए न समझे जाने या गलत
समझे जाने के पूरे खतरे हैं. चिराग की ज़रा सी रगड़ से 'जिन्न' की कोई भी वहशत नमूदार हो
सकती है, फिर
भी...'.
असल में हिन्दू-मुसलमान संबंधों
के विषय में भारतीय उपमहाद्वीप में किसी भी किस्म के विचार के बारे में प्रियंवद
की पूर्वाक्त संभावना बिल्कुल सत्य है. प्रियंवद की फ्रिक को सहज मानवीय संवेदना
के आधार बहुत वरीय माना जा सकता है. 'दूसरा पाकिस्तान' बनना अभी भी कई लोगों के लिए ऐसा
सवाल है कि जिसका जवाब अभी तक मुक्कमल रूप से नहीं मिला है, वहीं
बहुत सारे ऐसे लोग भी हैं, जिनके लिए यह कोई सवाल ही नहीं है.
इसी मुद्दे पर लेखक की मंशा संदेह के घेरे में आ जाती है कि 'दूसरे पाकिस्तान' से उसकी मुराद क्या है? इसके दो ही संभावित मतलब हो सकते हैं. पहला यह कि राष्ट्रीयता और धर्म के
आधार पर यह फैसला किया जा रहा हो, और दूसरा कि मुसलमानों के
सामाजिक स्तर और सामाजिक जीवन के आधार पर. संभवत् 70-80 के
दशक को याद करते हुए स्वयं लेखक का कहना है कि 'चारों तरफ
गरीबी, अशिक्षा, गंदगी थी. पुरपेच
गलियों में नालियों के ऊपर खटोलों पर बैठे बलगम उगलते बूढ़े, बुर्कों में लिपटी औरतें, कमजोर बीमार बच्चे,
खिड़कियों पर लटकते टाट के पर्दे, भट्टियों पर
चढ़ी काली पेंदी वाली देगचियां, उर्दू के साइन बोर्ड,
सब उस इलाके की खास पहचान था. यह सब था, तब भी
उसे कोई दूसरा पाकिस्तान नहीं कहता था.' तात्पर्य यह कि इस
तरह की ज़हालत और गरीबी की स्थिति दूसरा पाकिस्तान बनाने के लिए पर्याप्त है?
खैर, मैं यहां लेखक पर किसी तरह का आरोपण नहीं
करूंगा, बल्कि उसी के शब्दों से समझने की कोशिश ही कर रहा
हूं. परन्तु पूर्वोक्त उद्धत पंक्तियों से पहले कानपुर के इस इलाके में जो तस्करी
की वस्तुओं से लेकर अपराध और ज़हालत व ग़रीबी की स्थिति से 'नैसर्गिक'
रिश्ता है! दूसरी बात इसमें जोडऩी पड़ेगी कि संभव है कि 'दूसरा पाकिस्तान' से आशय मुसलमानों में 'राष्ट्रवाद' के प्रति कम भाव-भक्ति से हो! जो भी आगे
की अपनी प्रतिक्रिया में मैंने इसे नज़रअंदाज किया है, क्योंकि
इस तरह की तर्क पद्धति विचार-विमर्श के बजाए घृणा के भाव को जन्म देती है, जो कहीं से आधुनिकता और तार्किकता का पर्याय नहीं है.
मैं पूरी तरह से सहमत हूं कि भारत की सांस्कृतिक व सामाजिक पृष्ठभूमि के इतिहास-भूगोल से परिचित सामान्य बोध वाले व्यक्ति के लिए यह समझना ही मुश्किल है कि यहां विभिन्न समुदायों के बीच किसी 'अंतर' का निर्माण कितने स्तरों पर हो चुका है. जाहिर सी बात है कि इस अंतर का रिश्ता बाबरी मस्जिद के विध्वंस के साथ जोड़ा जाता है, और सामान्य तथ्य की दृष्टि से इससे किसी किस्म की असहमति की गुंजाइश भी नहीं है. लेकिन यहां मेरी बेचैनी का कारण यह सामान्य तथ्य नहीं है, बल्कि इसके पीछे विद्यमान पूरा वैश्विक परिदृश्य है. क्योंकि यह 'दूसरा पाकिस्तान' केवल भारत में नहीं मौजूद है, चीन से लेकर ब्रिटेन तक और रूस से लेकर अमरीका तक हर कहीं मौजूद है. और यह मौजूदगी 90 के दशक के बाद में आनी दिखाई देती है. तात्पर्य यह कि भारत में हिन्दू मुस्लिम समुदायों के बीच की दूरी को केवल भारतीय तथ्य कहकर नहीं बचा जा सकता है, इसके बजाए इसके वैश्विक कारणों और राजनीति पर ध्यान दिए बगैर किसी भी किस्म के सही कार्य-कारण संबंध को स्थापित करना नामुमकिन होगा.
हिन्दू मुसलमान के बीच सामुदायिक दूरी कोई एकाकी घटना नहीं है कि यह दूरी विद्यमान हुई और मुसलमानों ने अपने आपको किसी 'घेट्टो' में कैद कर लिया. इसके बजाए यहां स्थिति वैसी ही है, जैसी जर्मनी में यहूदियों के साथ हुई. आतंकवाद के आरोपण से लेकर पूरी दुनिया में हर तरह की विकृति के लिए उन्हें ही जिम्मेदार ठहराया जाता है. यह स्थिति का प्रभाव देखिए कि यह व्यक्ति या समुदाय पर आरोपण मात्र तक सीमित नहीं है, इसके बजाए यह आरोपण राज्य (state) जैसी संस्था तक पर है. अफगानिस्तान और इराक के साथ लीबिया इस मामले में सबसे मौजू उदाहरण हैं. अब प्रश्न यह है कि इस आरोपण से बहुसंख्यक समुदाय और दुनिया के शक्तिशाली राज्यों को हासिल क्या होगा. इस प्रश्न का जवाब यहां तो नहीं दिया जा सकता है, लेकिन इशारे के तौर पर इसके लिए वैश्विक आर्थिक क्रमानुक्रम को समझना बहुत ज़रूरी है. इसीलिए प्रियंवद के लेख से आपत्ति इस संदर्भ में यही है कि समग्र रूप से उनका लेख सामुदायिक दूरियों के लिए स्थानीय कारणों को जिम्मेदार मान रहा है और इसे एकदम स्थानीय घटना के रूप में परिभाषित कर रहा है.
स्थानीयता के स्तर पर भी बात करें तो इसमें भी कोई दो राय नहीं कि संघ या दूसरे हिन्दुत्वादी संगठनों ने इस सामुदायिक दूरियों को बढ़ाने में बहुत अहम भूमिका निभाई है. लेकिन मैं इस प्रश्न के साथ अपनी बात को रखना चाहूंगा कि कौन सा सामाजिक आधार या सामाजिक परिस्थितियां हैं, जिसकी वजह से इस तरह के संगठनों को सामाजिक समर्थन प्राप्त हुआ और हो रहा है. प्रियंवद इतिहास के विशेषज्ञ हैं, इसलिए जर्मनी का उदाहरण देना बहुत सामयिक होगा. हिटलर के उदय का मूल कारण आर्थिक विषमता था. हिटलर ने जर्मनी की जनता से यही वादा किया था कि यहूदियों ने उनके आर्थिक संसाधनों पर कब्जा कर रखा है, और उनकी आर्थिक बदहाली व बेरोजगारी के लिए वही जिम्मेदार हैं. उसी तरह के तर्क और नारे वर्तमान समय में भी देखने को मिल रहे हैं.
दूसरी बात प्रियंवद ने प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर कही है. 'जिसे भी मुस्लिम समाज की दहला देने वाली क्रूर और नंगी सच्चाई देखनी हो, उसे एक बार इस (टर्र) के मेले में ज़रूर आना चाहिए. पूरी सड़क दुकानों और इन्सानों से भरी थी, उनमें 80 प्रतिशत दस से बीस साल के बच्चे, लड़के थे. वे झुण्ड में थे. वे सब कुपोषित, बीमार और कमजोर थे. सब एक से दिखते थे. उभरी हड्डियां, धंसा पेट. सब पारंपरिक कपड़े पहने थे.... औरतें भी कुपोषित, एनमिक थीं.' लेकिन यह केवल टर्र मेले या मुस्लिम समाज की सच्चाई मात्र नहीं है. यह निम्न वर्ग के हिंदुस्तान की सच्चाई है. यहां लक्षित होने वाली ग़रीबी, जहालत पूरे हिन्दुस्तान की 80 फीसदी आबादी की सच्चाई है. प्रियंवद बड़े रूमानी ढंग से कहते हैं कि 'मुसलमानों की स्थिति बहुत जटिल थी. वहां सिवाय सैकड़ों साल पुराने ठहराव के कुछ और नहीं था... किसी तरह का कोई पुनर्जागरण, कोई सामाजिक क्रांति, धर्म के विघटन, शंकाएं, प्रश्न, बहसें, राजनीतिक नेतृत्व... ऐसा कुछ भी नहीं घटित हुआ... जमालुद्दीन अफगानी या जिन्ना या खान अब्दुल गफ्फार खां या वामपंथी विचार, साहित्य तक कई संभावनाएं बनी कि किसी बड़ी चेतना की लहर इनमें कोई परिवर्तन ले आए, पर देश के बंटवारे और फिर बाबरी मस्जिद ने सिद्ध कर दिया कि दूसरी जकडऩे बहुत मज़बूत होती हैं.' इससे नाइत्फाकी का तो सवाल ही नहीं पैदा होता है. लेकिन प्रति प्रश्न ज़रूर पनपता है कि क्या ऐसा हिंदुस्तान के हिन्दु बहुसंख्यक समाज के साथ ही हो पाया या दुनिया के धनी शक्तिशाली और औद्योगिक विकास के चरम पर पहुंचे देशों में हो पाया? सिलिकान वैली से लेकर साफ्टवेयर पावर हाउस कहे जाने वाले बैंगलोर शहर तक में भी क्या वैज्ञानिक चेतना से सम्पन्न लोग मौजूद हैं? मंगल ग्रह तक यान को पहुंचाने वाले वैज्ञानिक नारियल फोड़ कर ही उल्टी गिनती की शुरुआत करते हैं और मुहुर्त देखकर ही इसरो अपने यानों या प्रक्षेपास्त्रों का परीक्षण समय तय करता है! तात्पर्य यह कि वैज्ञानिक चेतना का विकास करना वर्तमान समय में धर्म नहीं, बल्कि राज्य की जिम्मेदारी है और यदि राज्य अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाता है, तो उसका फायदा विभिन्न किस्म के मुल्ला मौलवियों से लेकर पंडित ब्राह्मण तक उठाते हैं. इस मामले में मैं तुर्की के अतातुर्क का उदाहरण सामने रखना चाहूंगा, जिसने वैज्ञानिक चेतना से लेकर धर्मनिरपेक्ष शिक्षा प्रदान करने की जिम्मेदारी राज्य की मानी. अभी भी भारतीय इतिहास में खिलाफत आंदोलन को लेकर बड़े रूमानी ढ़ंग से व्याख्यायें की जाती हैं और इसे हिन्दू मुस्लिम एकता के सार्वदेशिक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. लेकिन मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने वैज्ञानिक चेतना की जो मिसाल रखी, क्या उसका पासंग भर भी उस दौर के शक्तिशाली भारतीय नेताओं के पास मौजूद था (नेहरू इसमें अपवाद हैं)?
मध्य युग में विज्ञान और तर्क जब चर्च और मंदिरों के आगे नतमस्तक होकर धूल फांक रहा था, ब्रूनों को जिंदा जलाया जा रहा था, उस समय तक अरबी विज्ञान ने अप्रतिम प्रगति कर ली थी. चिकित्सा से लेकर ज्यामिति तक और फलसफे से लेकर साहित्य तक. बिल्कुल उसी तरह भारत में अकबर तक आते-आते जितनी प्रगति हुई थी, उसकी तुलना में उन्हीं के ब्रितानी समकालीन हेनरी अष्टम का काल तो किसी टुटपुजियां का काल प्रतीत होता है. तो ऐतिहासिक आधार पर भी यह नहीं कह सकते कि किसी धर्म के कारण ज़दीदियत के विचार को क्षति पहुंची. हां, मुल्ले-मौलवी और पंडित-पुजारियों को समाज की नियंता शक्ति मान लें, तो बात ही खत्म हो जाती है. लेकिन याद रखने की बात है कि इनकी बात सुनने वाला कोई होता नहीं है, ऐसा होता तो न ग़ालिब का अस्तित्व होता और न मीर का.
मैं इस पत्र को समाप्त करना चाहता हूं लेकिन एक ऐसा मुद्दा अभी मौजूद है कि जिसके बारे में यदि बात को आगे न बढ़ाया गया तो उसके परिणाम भविष्य में और अधिक भयावह होंगे. प्रियंवद का कहना है कि 'जिसने भी एक बार उर्दू शायरी पढ़ ली उसे कभी हिन्दी कविता अच्छी नहीं लगेगी... कारण यह कि उर्दू के मुकाबले, बनारस के ब्राह्मणों द्वारा एक नकली भाषा गढ़ी गयी जो लोक की भाषा कभी नहीं थी. उसका कभी अपना स्वतंत्र, नैसर्गिक, सहज विकास नहीं हुआ. छायावाद से लेकर अज्ञेय के 'तार सप्तक' तक, हिन्दी कविता की भाषा जन की भाषा नहीं थी.' पहली बात तो यह कि इन पंक्तियों में ग़लत ऐतिहासिक तथ्य मौजूद है. प्रियंवद ने जिन शम्सुरर्हमान फारूकी के भाषण से अपनी बात शुरू की, स्वयं उन्होंने उर्दू और हिन्दी के भेद को नहीं स्वीकार किया है, इसके बजाए एक ही भाषा को दो लिपियों में लिखे जाने जैसे तथ्य को ऐतिहासिक रूप से प्रमाणित किया है. इसके अलावा कि आरंभिक दौर में कभी भी मुस्लिम समाज ने उर्दू पर अपनी भाषा होने का दावा ही नहीं किया. सर सैयद अहमद तक उर्दू के पक्ष में नहीं थे. उनके ही शब्द है कि 'ज्ञान में शक्ति है और अंग्रेजी आधुनिक ज्ञान की कुंजी है.' बिल्कुल इसी तरह से आरंभ में ब्राह्मणों का दावा 'देवभाषा' संस्कृत पर था न कि हिन्दी पर. स्वयं प्रियंवद ने ही अपनी किताब 'भारत विभाजन की अंत:कथा' में मैकाले के प्रसिद्ध मिनट्स का उल्लेख किया है. वहां भी हिन्दुस्तानी छात्रों की त्रासदी का स्रोत उनका संस्कृत अध्ययन है. तात्पर्य यह कि हिन्दी, जिसका हम अभी व्यवहार कर रहे हैं, उस पर किसी जाति या धर्म की बपौती मानना बिल्कुल अनैतिहासिक और अतार्किक है. भाषा संस्कार भले ही वर्गीय चेतना को समाहित किए हों, लेकिन भाषा स्वयं किसी वर्ग या संप्रदाय का प्रतिनिधित्व नहीं करती है. साधारण उदाहरण है कि दुनिया में जहां भी शोषक-शोषित जैसा रिश्ता मनुष्य समाज में मौजूद है, वहां इन दोनों की वर्गों की भाषा एक ही है (यदि एक ही भाषा न होगी, तो शोषण को कैसे अंजाम दिया जाएगा). इंजील में बेबल टावर का जिक्र आता है, जहां ईश्वर ने सभी मनुष्यों की भाषा जुदा कर दी. इसी के चलते लोगों का आपसी संवाद खत्म हो गया और उस सीढ़ी का निर्माण तो बिल्कुल असंभव हो गया, जो मनुष्यों को स्वर्ग के राज्य में ले जाती.
इसी से जुड़ी बात प्रियंवद को हिन्दी कविता के अच्छी लगने न लगने के विषय में. तो यहां पहला सवाल यह है कि क्या तथाकथित उर्दू (प्रियंवद का इससे जिस भाषा से आशय हो) लोक की भाषा है? यह बाज़ार की भाषा है, वहीं इसकी परवरिश हुई है, वहीं इसे संस्कार मिले हैं! यदि लोक भाषा की रचनाएं उन्हें भाती हैं, तो अवधी, भोजपुरी, मैथिली आदि की रचनाएं उनके आस्वाद सीमा में होंगी? यदि नज़ीर को छोड़ दें, तो मीर, ग़ालिब, जौक आदि से लेकर फ़िराक और फ़ैज तक सभी परिष्कृत भाषा का इस्तेमाल करते हैं. असल में प्रियंवद जिसे अच्छा लगना कह रहे हैं, वह शाइरी में मौजूद गेयता को इंगित कर रहे हैं. लेकिन वर्तमान आधुनिक समय में कोई भी विधा सामाजिक दबाबों से अलग रहे, ऐसा असंभव है. और ऐसा विश्व की हर एक भाषा के साथ हुआ है. क्या शाइरी विधा में अब भी ग़ालिब की रचनाओं जैसी गेयता बची है? यदि नहीं, तो फिर इस तरह का आरोप ही निराधार हो जाता है.
और आखिरी बात. प्रियंवद का कहना है कि 'वामपंथ के प्रचंड तुमुलनाद और शिक्षा व साहित्य सत्ता के विभिन्न या समस्त शक्ति केंद्रों पर वामपंथियों के नियंत्रण के कारण कविता में रस और लोकभाषा होने को निरंतर हेय बताया गया. संप्रेषणीयता दुर्गुण और जटिलता प्रगतिशीलता बन गई.' यह भी एक निराधार आरोप है. तथ्यगत स्तर पर इस विचार से गड़बड़ी यह है कि लेखक द्वारा वैचारिक सत्ता और राजनीतिक सत्ता दोनों में अंतर नहीं किया गया है. हिंदुस्तान की बात करें तो वामपंथियों ने अपनी बात मनवाने के लिए कभी भी दमन का सहारा नहीं लिया है, बल्कि लगातार वैचारिक संघर्ष किया है. अकादमिक स्तर पर जिन वामपंथियों ने अपनी वैचारिक प्रतिष्ठा कायम की,उसके पीछे सत्ता नहीं बल्कि उनका अध्ययन और प्रतिभा थी और है. दूसरी बात हिन्दी के सभी वामपंथी आलोचकों ने मध्यकाल को भारत के सांस्कृतिक जागरण के दौर के रूप में चिंह्नित किया है (इरफान हबीब और उनके पिता मोहम्मद हबीब की किताबों में इसके प्रमाण मौजूद हैं). और वह इस कारण कि तुलसी और कबीर से लेकर चैतन्य तक सभी ने लोकभाषा को बरता और जनचेतना को अपनी कविता के माध्यम से व्यक्त किया. यहां तक कि आधुनिक युग में निराला के गीतों को भी वामपंथी आलोचक रामविलास शर्मा ने श्रेष्ठ रचनाओं की श्रेणी में ही रखा है. प्रेमचंद की तारीफ वामपंथी नजरिए से इसीलिए की जाती है कि वहां भाषिक सहजता विद्यमान है और जनयथार्थ को उसी की भाषा में व्यक्त किया गया है. केदारनाथ अग्रवाल से लेकर केदारनाथ सिंह सदृश सभी कवियों की तारीफ़ वामपंथी आलोचकों ने इन कवियों के लोक से जुड़े होने के कारण की है. जिन अमृतलाल नागर की बात प्रियंवद ने लेख में की है, उनकी ही भाषा की तारीफ करते हुए वामपंथी आलोचक रामविलास शर्मा ने लिखा है कि उनके उपन्यासों में लखनऊ के गली मुहल्लों में बोली जाने वाली भाषा का प्रयोग है. लेकिन इसके साथ यह भी कहना ज़रूरी है कि समय का यथार्थ निरंतर जटिल होता जा रहा है और जनप्रतिबद्ध रचनाकारों को समय के अंधकार को बताने के लिए बार-बार मुक्तिबोध की तरह 'अंधेरे में' की तरह की जटिल कविता की रचना करने की जिम्मेदारी आ जाती है, क्योंकि वामपंथी प्रेमचंद के इस सिद्धांत को स्वीकार करते हैं कि साहित्य मनोरंजन की वस्तु नहीं है, बल्कि वह राजनीति को रास्ता दिखाने वाली मशाल है.
ऐसे में लेखक की वैचारिक स्थिति व उसकी सद्भावना के बारे में संशय ज्यादा होकर सामने आ जाते हैं.
जीतेन्द्र गुप्ता,
वर्धा
No comments:
Post a Comment