यह
लेख छोटे फ़ॉर्म में नवभारत टाइम्स में छप चुका है. पूरा लेख एक्स्क्लूसिवली कबाड़खाने
पर छपने के लिए कबाड़ी दिलीप मंडल ने मेल से भेजा है. शुक्रिया दिलीप भाई!
डांस
बेबी डांस, क्योंकि घुँघरू टूट गए हैं!
दिलीप
मंडल
नाचने
की तमन्ना रखने वाली लड़कियों और महिलाओं के लिए भारत में इससे बेहतर समय शायद कभी
नहीं था. यहां नाचने का मतलब देवता की मूर्ति के सामने या शादी के संगीत कार्यक्रम
में परिवार के बीच नाचने से नहीं है. यह नाचना पब्लिक के बीच है. कई बार पब्लिक
परफॉर्मेंस के लिए है. पैसा और शोहरत कमाने के लिए है. पापा या मम्मी आज अपनी बेटी
को घर आए गेस्ट के सामने कह सकते हैं कि
बेबी, जरा नाच कर दिखाना. मोबाइल या टैबलेट
पर वे बेटी के लिए कोई गाना भी बजा सकते हैं. वे अपनी बेटी को डाँस क्लासेस में
भेज सकते हैं, टैलेंट हंट शोज़ में डाँस ऑडीशन के लिए
प्रेरित कर सकते हैं और फ़िल्मों और टीवी में नाचने को प्रोफ़ेशन बनाने के लिए कह
सकते हैं.
नाचना
अब बुरा काम नहीं है. अब भले कहे जाने परिवारों की लड़कियां भी नाचने लगी है.
सिर्फ निजी सेटिंग्स में नहीं, पब्लिक में भी. स्टेज पर भी और कैमरे के सामने भी. अगर ड्रेस बॉडी हगिंग हो
और स्किन दिख भी जाए तो अब आसमान नहीं टूटता. मांसल सौंदर्य या बॉडी फिटनेस को
दिखाने वाली चीज के रूप में मान्यता मिल चुकी है. यह सब दिखाने के लिए नृत्य से
बेहतर भला और कौन सी कला है. यह सब करने से परिवार मना नहीं कर रहा है. न तो पड़ोसी हाय-हाय करते हैं, न ही लड़की विवाह के लिए अयोग्य करार
दी जाती है.
पब्लिक
में डांस करना अब स्टेटस सिंबल बनने लगा है. लोग ठीक ठाक रुपए खर्च करके परिवार के
बच्चे-बच्चियों को डांस क्लासेस भेज रहे हैं. यह चलन मेट्रो शहरों से उतरकर छोटे
शहरों और कस्बों तक पहुंचने लगा है. जो नाचना नहीं जानते, वे हीन भावना यानी इनफेरियॉरिटी
कॉम्प्लैक्स के शिकार हो सकते हैं. सीधी सी बात है कि, और कहीं नहीं भी तो, जब घर परिवार में कभी किसी आयोजन में
डीजे बजेगा, तो नाचना पड़ेगा. लोग देखेंगे, इसलिए ठीक से नाचना आना ही चाहिए.
जब यह
कहा जा रहा है कि नाचना अब बुरी बात नहीं है तो सीधा मतलब है कि कभी यह बुरा काम
था. क्या यह बहुत पुरानी बात है जब पब्लिक के सामने नाचने का मतलब होता था कि
लड़की नाचने को तैयार है तो देह बेचने को भी तैयार होगी? पहले देवदासियां नाचती थीं, गणिकाएं नाचती थीं, तवायफें और बाईजी नाचती थीं. नट, बेड़िया, कोल्हटी और कंजर बिरादरी की औरतें
नाचती थीं. इलीट परिवार की औरतों का नाच से इतना सा रिश्ता होता था कि उन्हें कई
बार परदे के पीछे बैठकर नाच देखने की इजाजत होती थी. रामलीलाओं से लेकर नौटंकियों
तक में महिलाओं के रोल पुरुष निभाते आए हैं.
जो
लोग पुरानी फिल्मों के शौकीन हैं. वे आसानी से बता पाएंगे कि काफी समय तक फिल्मों
में हीरोइनें पब्लिक में नहीं नाचती थीं. लोगों के बीच नाचने का काम आम तौर पर
वैंप यानी खलनायिकाओं के हिस्से आता था. अच्छी औरतों हद से हद तक देवताओं के सामने
नाचा करती थीं. शोले में बसंती ‘कुत्तों’के सामने तब नाची, जब उसके प्रेमी की जान पर बन आई.
हीरोइन को नाचने के लिए एक पवित्र उद्देश्य की जरूरत थी. तेज़ाब में माधुरी
दीक्षित भी डाँस फ़्लोर पर ‘एक दो तीन’ की ताल पर अपनी मर्ज़ी से नहीं, बल्कि लालची बाप के मजबूर करने पर नाची. प्रेमी के साथ एकांत में
नाचने-थिरकने की बात छोड़ दें तो, भली लड़कियों का रोल करने वाली हीरोइनें डांस का पब्लिक परफॉर्मेंस नहीं
करती थीं.
फिल्मों
में नाचने वाली किरदार, वास्तविक जीवन में भी, अच्छे परिवारों की नहीं मानी जाती थीं. काफी समय तक नाच का पेशा करने वाले
परिवार की लड़कियां ही फिल्मों में नाचती थीं. एंग्लो इंडियन या यहूदी परिवार की
लड़कियाँ फिल्मों में नाचती थीं. लेकिन भले माने जाने वाले परिवारों के लिए यह काम
लंबे समय तक वर्जित बना रहा. कई हीरोइनों ने अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि को ज़ाहिर न
होने देने के लिए ख़ासा जतन किया. क्या यह मामूली बात है कि हिंदुस्तानी फिल्मों
के सबसे शाही खानदार कपूर परिवार में करिश्मा कपूर से पहले कोई लड़की पर्दे पर
नहीं नाची?
भारत
में सार्वजनिक तौर पर नाचना हमेशा से नीच काम माना जाता रहा है. लंदन यूनिवर्सिटी
की रिसर्चर ऐना मॉरकम ने लंबे समय तक रिसर्च के बाद लिखी गई अपनी किताब कोर्टिसांस, बार गर्ल्स एंड डांसिंग ब्यॉज में
बताती हैं कि एक समय तक सिर्फ छोटी माने जानी वाली जाति की लड़कियां और तवायफें ही
सार्वजनिक तौर पर नाचती थीं. इनमें से कई जातियों को पारंपरिक रूप से देह का धंधा
करने वाली जातियां कहा जाता है. मंदिरों में शास्त्रीय नृत्य भी देवदासियां या
देवदासियों की संतानें ही करती थीं. नाचना-गाना-बजाना और देह बेचेने के बीच
अनिवार्य न भी हो तो ढीला-ढाला सा एक रिश्ता रहा है. इसी की छाया थिएटर और फिल्मों
से लेकर आम जीवन तक में रही है.
नाचनेवालियों
को लेकर एक खास तरह की छवि को टूटने की यात्रा बेहद दिलचस्प है. यह बिल्कुल ताजा
इतिहास है और पिछली दो जेनरेशन में यह सब हो गया, नृत्य के सार्वजनिक प्रदर्शन के साथ
मोटी आमदनी का जुड़ना शायद इसकी सबसे बड़ी वजह है. भारतीय नृत्य कला को लेकर
पश्चिम में आकर्षण पैदा होने के साथ भारतीय नृत्यकर्मियों की यूरोप और अमेरिका के
सांस्कृतिक आयोजनों में मांग बढ़ी. इस मांग को पूरा करने के लिए भले परिवारों का
आगे आना स्वाभाविक था. इस तरह के आयोजनों के साथ देह व्यापार जैसा कोई ब्लैक स्पॉट
भी नहीं था. शास्त्रीय नृत्य शैलियाँ को भारतीय संस्कृति के प्रतीक के रूप में
मान्यता मिलने से इन्हें लेकर रहा सहा द्वंद्व भी जाता रहा.
देखते
ही देखते नृत्य की शास्त्रीयता की ऐसा इलीट घेराबंदी हुई कि परंपरागत नर्तक
जातियां इस काम से बाहर हो गई. आधुनिक भारतीय शास्त्रीय नृत्य विधा के प्रमुख
शिक्षक नारायण भातखंडे ने तो यहां तक व्यवस्था दे दी कि संदिग्ध पृष्ठभूमि वाली
लड़कियां उनके यहां नृत्य सीखने नहीं आ सकतीं. उन्होंने तवायफों से मिलने से इनकार
कर दिया था। कला जब शास्त्रीय हुई तो कलाकार भी बदल गए। 1954 में तत्कालीन सूचना
और फ्रशारण मंत्री बी वी केसकर ने तो यहाँ तक कह दिया कि आकाशवाणी में ऐसी महिला
कलाकारो के लिए जगह नहीं है जिनका निजी जीवन कलंकित है। एच आर लूथरा ने इंडियन
ब्राडकास्टिंग नामक किताब में इसका ज़िक्र किया है. यह एक बड़ा बदलाव था. खासकर
शास्त्रीय नृत्य अब भले लोगों के परिवारों तक सिमटने लगा.
इसके
अगले चरण को बॉलीवुड ने अंजाम दिया. एनआरआई ऑडियंस का मार्केट बढ़ने के साथ ही
फिल्मों में भांगड़ा और गिद्दा के दृश्य लाने की जरूरत पड़ी क्योंकि ओवरसीज ऑडियंस
का सबसे बड़ा हिस्सा पंजाबी प्रवासियों का था. कल हो न हो, दिल तो पागल है, दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे से लेकर
कुछ कुछ होता है, और इसके बाद तो एक के बाद एक फिल्मों में लीड रोल में हीरोइनों के डांस
सिक्वेंस डाले जाने लगे. इसके साथ ही मान लिया गया कि भले रोल में भी लड़कियां
पब्लिक में नाच सकती हैं. मर्दों के साथ नाच सकती है और बदन दिख भी जातकोंफिल्मों
में नाच को मिली यह स्वीकृति, ज्यादातर शहरी और कस्बाई परिवारों में छन-छन कर, कहीं-कहीं तो बेरोकटोक पहुंच गई. सिर्फ
शादी और ऐसे ही आयोजनों में घर वालों के बीच नाचने वाली लड़कियां डांस क्लासेस
करने लगी और ऑडिशन देने जानी लगीं.
नृत्य
का फिटनेस के साथ संबंध जुड़ना भी इस बदलते चलन का एक रूप है. फिल्मों में भी आप
पाएंगे कि कोरस डाँस करने वाली स्थूल देह वाली महिलाओं की जगह फिट और तंदरुस्त
लड़कियों ने ले ली है. इसे श्यामेक डावर इफेक्ट भी कहा जा सकता है. खाते पीते
परिवार की संतानों को मॉडर्न डांस सिखाने वाले भारत के इस सबसे लोकप्रिय उस्ताद ने
अपनी डांस क्लासेस में फिटनेस पर काफी जोर रखा है. फिल्मों की कोरियोग्राफी से
जुड़े होने के कारण वे इस चलन को फिल्मों में भी ले गए. कई फिल्म कलाकार और कोरस
के डांसर श्यामेक डावर क्लासेस से ही निकले हैं. अब तो डांस इंडस्ट्री में कई
उस्ताद हैं और वे बेहद कामयाब भी हैं.
डांस
को सामाजिक मंजूरी मिलने का सबसे नया रूप फिल्मों में डांस से जुड़े रिएलिटी शोज
और टैलेंट हंट की शक्ल में सामने आया. टीवी पर इन शो के लिए देश भर में प्रतिभाओं
की तलाश होती है. इस तरह डांस के पब्लिक परफॉर्मेंस का चलन छोटे-छोटे शहरों तक में
पहुंच गया. परिवार अपने बच्चों को इसके लिए प्रोत्साहित करते हैं और डांस सिखाने
के लिए पैसे खर्च करते हैं.
जाहिर
है नाचना अब बुरी बात नहीं है. और जो "बुरी औरतें" हैं, उन्हें अब नाचने के काम से दूर कर दिया
गया है. वे पहले नाचने का पेशा करती थीं. अब उनमें से कई सिर्फ पेशा कर रही हैं.
भारतीय
समाजशास्त्र का यह एक दिलचस्प विषय है, जिसपर काफी कम लिखा गया है. इस बारे में और शोध की ज़रूरत है.
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