फेसबुक पर दो दिन पहले मैंने अपने
शहर हल्द्वानी के कुछ किस्से लगाना शुरू किया है. अभी इनका क्या बनेगा, ऐसी कोई
ठोस सूरत इस विचार ने नहीं ली है. फिलहाल उन्हें यहाँ भी शेयर कर रहा हूँ –
त्रिपाठीजी मेरे पड़ोसी हुआ करते थे
कोई दो साल पहले तक. भारत सरकार के अधिकारी. सामान्य सरकारी अधिकारी की तरह उनकी
कोई विशेष पहचान न थी. विशेष पहचान बनाने के लिए सरकारी अधिकारी को या तो परम
भ्रष्ट होना होता है या मूर्ख समझे जाने की हद तक ईमानदार.
खैर.
दस साल के उनके छोटे बेटे गौतम उर्फ़
पिंटू से मेरा गहरा याराना था - बावजूद इस तथ्य के कि हमारी उम्रों में कोई पैंतीस
साल का फर्क था. पिंटू का एक बड़ा भाई भी था अनिमेष.
अनिमेष का घर का कोई नाम नहीं था.
नवीं का छात्र था और एक दफा मोटरसाइकिल की जिद पूरी न होने पर तीन दिन तक घर में
बिना खाए-पिए विरोध प्रदर्शन कर चुका था. इस विरोध प्रदर्शन का अंत उसके पापा
द्वारा ज़मीन पर अपनी नाक रगड़ कर मोटरसाइकिल दिलाये जाने पर तब हुआ था जब लखनऊ से
आई उनकी मौसियों ने उसे सोता देख अधमरा समझ लिया और बदहवास चीखना शुरू कर दिया था.
मिसेज़ त्रिपाठी उस वक़्त कबाड़ी से रद्दी के भाव को लेकर आधे घंटे से झिकझिक में
संलिप्त थीं. जीवन के मूलभूत अधिकारों जैसे रोटी के स्थान पर केवल पिज़्ज़ा और सब्जी
के स्थान पर केवल गुलाटी या शमा के यहाँ का मुर्गा, मोबाइल फोन के केवल सबसे महंगे मॉडल की उपलब्धता, जब
तक चाहें टीवी पर एकाधिकार, केवल प्यूमा की चप्पल, केवल नेस्ले का दही, केवल लीवाइस की जीन्स, केवल एप्पल के कम्प्यूटर और अन्य सभी केवलों के प्रति उसके घनघोर आग्रह और
कबहूँ न छाड़ें खेत जैसी कर्मठता ने अनिमेष को मोहल्ले भर में पर्याप्त ख्याति दिला
रखी थी. अनिमेष में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी, बल्कि यह
कहना बेहतर होगा कि इसकी उलट बात सच थी यानी मैं उसके किसी काम का न था.
त्रिपाठीजी बिचारे टाइप के भले आदमी
थे,
इसलिए उन्होंने समाज में अपना नाम बचाये रखने की नीयत से एकाध एडल्ट
किस्म की शिकायतों के बाद घर पर इंटरनेट का कनेक्शन कटा दिया था और बड़े बेटे के
तीन ट्यूशन दो कोचिंग लगा दिए. आलम यह था कि अनिमेष सुबह चार बजे पहली कोचिंग के
बाद एक या दो ट्यूशन पढ़ कर स्कूल जाता फिर लौटकर आता तो घर पर दो ट्यूटर एक-एक
कर आते. वह फिर कोचिंग जाता. दस बजे रात डिनर करता था अनिमेष. यदि उसे भूख लगी
होती, तो.
यानी वह आधुनिक समाज का टीनेजर
महामानव था कि इतना सारा कोचिंग-स्कूल-ट्यूशन करने के बावजूद उसके पास टीवी,
फोन, पिज़्ज़ा, चिकन,
प्यूमा, एप्पल और केवल अफवाहों में विद्यमान
एक गर्लफ्रेंड वगैरह सबके लिए समय की इफरात रहती. मुझे लगता है उसका दिन अडतालीस
या सौ घंटे का रहा होता होगा. मिसेज़ त्रिपाठी पड़ोस में कहीं कहती पाई जातीं - “अनिमेष ना अपने पापा के लिए एक नया रेजर मंगाने को कहा रहा था कम्प्यूटर
से. कितना तो टाइम लगाते हैं ये अपनी दाढ़ी सैट करने में. अनिमेष कह रहा था इस नए
रेजर से टाइम बिलकुल नहीं लगता. मैंने इनका एटीम छुपा के दे दिया है उसको. आजकल
बच्चे हमसे बहुत आगे का सोचने वाले हुए. अनिमेष कह रहा था ...”
अनिमेष एक काम और करता था. उसे
बात-बेबात पिंटू गुरु को धुनने का शौक था. पिंटू के सुतने की आवाजें अक्सर मोहल्लावासियों
के कानों में पड़ा करतीं. यही मेरे और पिंटू के पास आने की वजह बना. उसका पिटते हुए
क्रंदन करना मुझसे बर्दाश्त नहीं होता था. त्रिपाठीजी से मैंने एक दफा कहा कि
पिंटू को मेरे पास भेज दिया करें. कुछ ग्रामर वगैरह पढ़ा दिया करूंगा. तो पिंटू एक
दफा आया तो बस आता ही गया. शुरू में मुझे लगा पिंटू मेरे अनलिमिटेड इंटरनेट प्लान
के लालच में मुझसे दोस्ती बढ़ा रहा था. ग्रामर वैसे भी बहाना भर थी. मुझे कोई ऐतराज़
भी न था. उसे स्कूल के प्रोजेक्ट्स बनाने होते थे, घर के इंटरनेटरहित कम्प्यूटर पर अग्रज का एकछत्र रहता था और मेरे कमरे की
चीज़ें उसे लुभाती भी थीं.
पिंटू का दिमाग दुनिया भर की चीज़ों
में मुब्तिला रहता और वह किसी भी तरह के सवाल पूछने से गुरेज़ न करता. ऐसे बच्चे
मुझे अच्छे लगते हैं और उनसे मेरी खूब पट जाती है. एक दिन उसने मुझे बताया कि
अनिमेष भैया सुबह कोचिंग जाते समय मम्मी से पचास रूपये मांग के ले जाता है हर रोज़.
मोमो खाने के लिए.
सुबह चार बजे कोचिंग में जाने वाला
बच्चा पचास रुपये के मोमो खा जाता है, यह
मेरे लिए उतनी हैरानी की बात नहीं थी जितनी यह कि इतनी जल्दी मोमो मिलते कहाँ हैं.
थोड़ी बहुत रिसर्च से पता चल गया कि हल्द्वानी में सुबह साढ़े तीन बजे से नालियों के
ऊपर लगनेवाले कुछ अड्डों में ताज़े मोमो मिलने शुरू होते हैं जिनके ठेले सुबह छः
सात बजे तक पहली पारी निबटा देते हैं. विश्वस्त सूत्र बताते हैं कि तकरीबन कच्चे
मैदे और सड़ी-गली सब्जियों और सस्ते मांस के कीमे से बनने वाले इस तिब्बती व्यंजन
के हल्द्वानी-संस्करण को लेकर हल्द्वानी के टीनएजर-समुदाय में पोर्नोग्राफी और
थिनर-चरस वगैरह से भी ज़्यादा क्रेज़ है.
खैर. इस नयी व्यवस्था में पिंटू
पिटाई से बच जाता था और मेरा मन बहलाव हो जाता था. हमने शामों को अपने बरामदे में
क्रिकेट खेलना शुरू कर दिया. एकाध बच्चे और आ जाया करते. ज़्यादा गर्मी पड़ने लगती
तो हम स्क्रैबल खेलते. कैरम और शतरंज भी. पिंटू ने धीरे-धीरे मेरे घर से किताबे ले
जाना शुरू कर दिया. उसने मेरा एस्टरिक्स और टिनटिन का पूरा संग्रह चाट डाला. बचपन
से संजो कर रखी अमर चित्र कथाएँ भी. एन फ्रैंक की डायरी और लिटल प्रिंस तक उसे
भाने लगी थी.
एक दिन उसके मुझे फुसफुसाते हुए
बताया कि अनिमेष भैया की एक गर्लफ्रेंड है जिसे उन्होंने अपना मोबाइल फोन गिफ्ट कर
दिया है. पापा के पूछने पर उसने खो गया है कह कर झूठ बोल दिया था.
एक दिन उसने यह भी बताया कि भैया की
साइंस की किताब के बीच में पांच-पांच सौ के कुछ नोट छिपाकर रखे रहते हैं जिन्हें
वह पापा के पर्स से निकाल लेता है जो अक्सर भरा हुआ होता है. शाम को पापा भैया से
ही ड्रिंक्स बनवाते हैं और जब वे खूब हंसने लगते हैं तो अनिमेष उनके बाथरूम में
टंगी उनकी पेंट की जेब से एक-दो या तीन नोट पार कर लाता है.
ये सब हमारे सीक्रेट्स थे जिन्हें
किसी और को न बताना हमारी दोस्ती की पहली शर्त थी.
मई का महीना था जब वे एक शाम को
मेरे पास बेहद चिंताग्रस्त चेहरा लिए आया. मेरे पूछने से पहले ही बोल पड़ा - “पेपर में आया है परसों को दुनिया ख़त्म हो जाएगी.”
“मतलब?”
उसने बहुत संजीदा होकर बताया कि
स्कूल और घर में भी इसी बारे में दिन भर बातें होती रही थीं. मेरा मन ठिठोली करने
का हुआ.
“अच्छा तो है न यार. सब ख़त्म हो
जाएगा तो तुम्हें स्कूल नहीं जाना पड़ेगा. होमवर्क भी नहीं मिलेगा. पापा-मम्मी
नाराज़ नहीं होंगे. भैया भी पीट नहीं सकेगा.”
जितना संभव था मैं इस फिजूल की बात
से उसका ध्यान हटाकर शतरंज खेलना चाहता था लेकिन उसे पक्का यकीन था कि दुनिया
परसों को उजड़ जाने वाली है क्योंकि अखबार में आया है.
“तो मैं भी मर जाऊंगा.”
“हां”
“और आप भी”
“हां”
वह चुप हो गया तो मैंने फिर से उसे
स्कूल,
होमवर्क, पिटाई वगैरह से मुक्त हो जाने की
संभावना से ललचाने की कोशिश की. लेकिन उसका मूड बिगड़ा हुआ था.
हम बरामदे में खड़े बातें कर रहे थे
और सामने सड़क पर मोटरसाइकिल घर्राता हुआ रेबैन लगाए अनिमेष निकला,
अपने पीछे महंगे डियोडरेंट का भभका छोड़ता हुआ. पिंटू उसे देर तक
जाता हुआ देखता रहा. उसके चेहरे के भाव बता रहे थे कि अपने बड़े भाई को लेकर उसके
मन में बेतरह गुस्सा और खीझ भरी हुई है.
दुनिया ख़त्म होते को थी और मैं उतना
गंभीर नहीं हो रहा था जितनी उसे आशा थी. मैं ताड़ गया वह इसी वजह से उखडा हुआ था.
अब हमने डीटेल में दुनिया के विनाश
की बातें करना शुरू कर दिया. जब जब अनिमेष और पड़ोस में रहनेवाले एक क्रूर
गेंदप्रेमी बुढ्ढे और उसके सतत भौंकायमान कटखने कुत्ते की बात होती उसके मुंह पर
कमीनी संतोषपूर्ण मुस्कराहट आ जाती. उसे अफ़सोस इतना ही हो रहा था कि वह स्पाइडरमैन
की अगली पिक्चर नहीं देख पाएगा. मैंने पिछले हफ्ते उसके लिए स्पाइडरमैन का पोस्टर
फ्लिपकार्ट से मंगवाकर गिफ्ट किया था. उसे तकलीफ हो रही थी कि वह ढंग से उस पोस्टर
को देख भी नहीं सका है क्योंकि भैया उसे कमरे की दीवार पर लगाने की इजाज़त नहीं दे
रहे.
दुनिया के साथ मम्मी-पापा के भी न
रहने की बात उसे नहीं भाई लेकिन प्रलय तो प्रलय होता है. हमने कुछेक फिल्मों की
बातें करनी शुरू कर दीं.
आधा घंटा बीतते न बीतते पिंटू
सामान्य होकर किसी उस्ताद की तरह कैरम की गोटियाँ पिल कर रहा था और मुझे दो गेम हरा
चुका था.
“एक बात बता यार पिंटू, परसों को हम सब यहाँ नहीं होंगे. मर गए होंगे. मरने से पहले तेरी कोई
आख़िरी इच्छा है क्या?”
वह कैरम छोड़कर फिर तल्लीन होकर
सोचने लगा.
दो मिनट सोचकर कुछ झेंपता हुआ बोला “आप पूरी कर पाओगे?”
“देख लेंगे यार! देख लेंगे. पहले
बता तो क्या है तेरी आख़िरी इच्छा.”
“मुझे मोमो खाने हैं."
कच्चे कीचड़ से बना कोई व्यंजन किसी
के जीवन की अंतिम इच्छा हो सकता है, मेरी
समझ से परे था. मैं हैरत से पिंटू को ताक रहा था.
"... खूब सारे मोमो!”
ध्यान से क्वीन कवर करने के बाद उसने बहुत गंभीर मुद्रा बनाकर अपनी
अंतिम इच्छा पर मोहर लगाई.
(कथाकाल: मई २०१२)
3 comments:
Nice story, it reminded me of my childhood!!!
क्लाइमेक्स इतना दिलफरेब होगा कि दिल की धडकन थम जाएगी , सोचा न था .
Spellbound!
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