Tuesday, March 10, 2015

अभी और चढूँगा इमारतें और मीनारें

2002 में तत्कालीन चीनी राष्ट्रपति झू रोंग्जू भारत के दौरे पर आये थे. इस सिलसिले में वे बंबई के ओबेरॉय टावर्स में भारतीय कूटनीतिकों और व्यापारियों के साथ मीटिंग कर रहे थे जब एक युवा तिब्बती ने अपने दुस्साहस से न केवल ओबेरॉय में उस दिन मौजूद लोगों को हकबका दिया, तिब्बत की आज़ादी का संघर्ष कर रहे लोगों की आवाज़ को नए सिरे से अंतर्राष्ट्रीय मंच भी मुहैया कराया. वह युवक था तेनज़िन त्सुन्दू. 

अपने उसी अनुभव के बारे में बता रहे हैं तेनज़िन. 


अभी और चढूँगा इमारतें और मीनारें 

बचपन की बात है, एक बार मेरे माता-पिता मुझे मेरे दादा-दादी के पास छोड़कर पड़ोस के गाँव में फिल्म देखने चले गए. उनका तर्क था कि मैं रात को चलकर वापस नहीं आ सकूंगा. सो मैंने घर पर पानी रखने वाले बर्तन को फोड़ डाला. मेरी मंशा अपना विरोध जतलाने की थी न कि रसोई में छोटी-मोटी बाढ़ ला देने की.

पिछले महीने, चीन के राष्ट्रपति झू रोंग्ज़ी ने भारत का दौरा किया. यह मेरे लिए ऐसा था जैसे मेरे दुश्मन मुल्क का बड़ा गुंडा टहलता हुआ नज़दीक आ पहुंचे. मैं उन्हें आमने-सामने कहना चाहता था “मेरे देश से बाहर निकलो.” सो मैं स्कैफोल्डिंग चढ़ता हुआ ओबेरॉय टावर्स की चौदहवीं मंजिल तक जा पहुंचा जहाँ झू भारतीय कूटनीतिकों और बड़े व्यवसाइयों को सम्बोधित कर रहे थे. वहां पहुँच कर मैंने तिब्बत का राष्ट्रीय ध्वज फहराया और एक लाल बैनर भी जिसपर लिखा था “तिब्बत को मुक्त करो”, मैंने हवा में करीब ५०० पर्चे भी उड़ाए जिनमें मेरे विरोध और नारों के पक्ष में तर्क दिए गए थे. बहुत समय नहीं लगा जब समूची चौदहवीं मंजिल पर परदे उठाये जाने लगे और चीनी चेहरे मुझे ताकने लगे थे. वह एक क्षण ही उस सब से कहीं अधिक मूल्यवान है. भाग्यवश मैंने कॉन्फ्रेंस रूम में जाकर झू को थप्पड़ मारने का अपना इरादा बदल दिया. बाद में पुलिस की हिरासत में मैंने यह पंक्तियाँ लिखीं:

“वह लम्बा था
कमर पर एवरेस्ट जैसी
उसकी बाँहें
मैंने आरोहण किया एवरेस्ट का
और मैं अधिक ऊंचा था
मुक्त मेरे हाथ थे.”

मेरे उद्देश्य को लेकर पुलिस का रवैया सहानुभूतिपूर्ण था. यह उनके भी फायदे की बात थी. वे जानते थे कि अगर एक बार तिब्बत आज़ाद हो गया तो उन्हें मुझ जैसे छोटे-मोटे प्रदर्शनकारियों और उन एक लाख तिब्बती शरणार्थियों के बारे में फ़िक्र करने की ज़रुरत नहीं रहेगी जो अपने तब देश लौट जाएंगे. उसके साथ एक औए अच्छी बात जो होगी वो यह कि हिमालय से लगी हुई भारतीय सरहद सुरक्षित हो जाएगी. यह १९४९ के बाद इतिहास में पहली बार हुआ था कि तिब्बत पर चीन के कब्ज़े के बाद भारत को अपनी सरहद चीन के साथ साझा करनी पड़ी थी. एक पुलिस अफसर ने मुझसे कहा: “हमें साथ काम करना चाहिए.”  

निर्वासन में तिब्बत की आज़ादी की लड़ाई तिब्बत में चल रही आमने-सामने की लड़ाई के मुकाबले सांकेतिक ज़्यादा है. पिछले चालीस सालों में हम इतना ही कर सके हैं कि असल तिब्बत को एक ऐसे देश की तरह प्रस्तुत कर सकें जहाँ हाड़-मांस के बने वास्तविक लोग रहते हैं और दर्द और क्रोध को महसूस करने की जिनके भीतर समान क्षमता होती है.

हम लोग तिब्बत को एक ऐसे रहस्यमय स्थान के तौर पर समझे जाने के घिसे-पिटे मिथक को ध्वस्त कर सकने में कामयाब रहे हैं जहाँ लामा ज़मीन से दो इंच ऊपर चला करते हैं. लेकिन ऐसा लगता है कि हमारा स्वतंत्रता संग्राम सहानुभूति के उस उच्चबिंदु पर पहुँच चुकने के बाद विकसित होना बंद हो गया है, जहां वह १९८९ में परमपावन दलाई लामा को नोबेल पुरूस्कार मिलने पर पहुँच गया था.  १९७९ से यानी जब से हमारी निर्वासित सरकार ने चीन से बात करना शुरू किया है, तिब्बती स्वतंत्रता संग्राम एक जनांदोलन नहीं रह गया है. जब तक यह एक मज़बूत जनांदोलन नहीं बनता, मैं नहीं समझता कि चीन के साथ संवाद करने का स्वप्न देखने वाली हमारी निर्वासित सरकार तिब्बत को उसकी आजादी दिला सकेगी. तीस साल हो चुके हैं और पाने के नाम पर हमें “बातचीत के बारे में सोचे जाने” के लिए सिर्फ कुछ अस्वीकार्य शर्तें मिली हैं.

हाल ही में तिब्बत से वापस लौटे मेरे एक मित्र का कहना है कि इन दिनों तिब्बत में विश्वस्त दोस्तों का मिलना बहुत मुश्किल है. हर दूसरा आदमी चीनियों का मुखबिर हो सकता है. कार्यकर्ताओं को रात के अँधेरे में उठा लिया जाता है और उनकी मृत देहें शहरों के बाहरी इलाकों में पुनर्प्रकट होती हैं. कुछ को लकवा पड़ने तक पीटा जाता है. मानवाधिकारों के लिए आवाज़ उठाने का कोई भी प्रयास आत्महत्या का पर्यायवाची हो गया है. तिब्बती अपने ही देश में अल्पसंख्यक हैं. आतंक और उत्पीड़न के घने बादल तिब्बत के ऊपर मंडरा रहे हैं.

वर्तमान में उत्तरपूर्वी तिब्बत से ल्हासा के लिए दो रेलवे लाइनें बिछाई जा रही हैं. इससे तिब्बत में चीनियों की बाढ़ आ जाने वाली है जो उसके संसाधनों का भरपूर दोहन करेंगे; पारिस्थिकीय असंतुलन के चलते संसार की छत ढह जायेगी. वह दिन दूर नहीं जब गंगा, ब्रह्मपुत्र यांग्त्से और मेकोंग में रक्त और मृत शरीर बहा करेंगे. तिब्बत में जमा किया जा रही हथियारों और नाभिकीय मिसाइलों का ज़खीरा चीन ने शस्त्रहीन तिब्बतियों के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए इकठ्ठा नहीं किया होगा.

तिब्बत को लेकर एक आम संवेदनहीनता और यह ‘अहिंसक स्वतंत्रता संग्राम’ धीरे-धीरे आन्दोलन को ख़त्म कर रहे हैं. हालांकि एक्ज़ोटिक तिब्बत पश्चिम में अच्छा बिकता है, जब भी वास्तविक मुद्दों की बात आती है, ज्यादा लोग पक्ष में खड़े होते नज़र नहीं आते. वास्तविक मुद्दा आज़ादी का है.

अभी जब मैं यह लिख रहा हूँ, मैं सुन रहा हूँ कि परमपावन गुरु दलाई लामा ने अपने खराब स्वास्थ्य के कारण कालचक्र धार्मिक उत्सव को रद्द कर दिया है. मैं खुश हूँ कि एक लाख से अधिक तिब्बती निराश हुए हैं. अचानक केंद्र खिसक गया है, परिधि गड़बड़ा गयी है और उन सब को दुबारा से चीज़ों को व्यवस्थित करना है. कई लोगों के लिए यह आने वाले समय की और भी बुरी स्थितियों के लिए जाग जाने का आह्वान है.

अगले बीस साल तिब्बत के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं. इन सालों में तिब्बत के भाग्य पर मोहर लग जाएगी: जीवन या मृत्यु. एक बार केंद्र गायब हो गया तो परिधि में उथलपुथल मचेगी. ‘अहिंसक और शांतिप्रेमी तिब्बती’ एक देश की तरह, एक सभ्यता की तरह बचे रहने के लिए एक आख़िरी कोशिश करेंगे. यह सब कितना हिंसापूर्ण होगा?

तिब्बती समस्या की मूल प्रकृति राजनैतिक है और इसका समाधान भी राजनैतिक ही होना चाहिए. भारत ने हमें जो भी सहायता और सहारा दिया है उसके लिए हम उसके आभारी हैं लेकिन अगत तिब्बत की समस्या का समाधान निकाला जाना है तो उसे हमारे स्वाधीनता संघर्ष को समर्थन देना होगा.

अभी बीत कल की बात है जब “हिन्दी-चीनी भाई-भाई” का नारा लेकर आये माओ त्से तुंग ‘मित्रता के बंधन’ से भारत को फंसाने में कामयाब हो गए थे, और उन्होंने ही १९६२ में भारत की पीठ पर छुरा भोंका था. प्रधानमंत्री नेहरू इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर सके थे. और आज झू रोंग्ज़ी “हिन्दी-बाई-बाई-चीनी” कहकर भारत को ‘आर्थिक बन्धनों’ का प्रस्ताव दे रहे हैं. 

चीन को हम लम्बे समय से एक मुश्किल पड़ोसी के रूप में जानते रहे हैं. हम एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं, जब दुनिया हमसे उम्मीद छोड़ चुकी है. हो सकता है हम नष्ट हो जाएं लेकिन यह भारत के लिए कैंसर जैसा एक ज़ख्म छोड़ जाएगा और अपने साथ चीन के साथ ३५०० किलोमीटर की एक स्थाई सीमा भी.

क्या भारत जागृत होकर इस वास्तविकता को पहचानेगा? समय आ है जब हम मिलकर तिब्बत की आज़ादी के लिए और भारत के लिए एक सुरक्षित सीमा के उद्देश्यों के वास्ते संघर्ष करें.


धर्मशाला, मार्च २००२   

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