मुहम्मद यूसुफ पापा के साथ जिस मुलाक़ात का मैंने यहाँ ज़िक्र किया उसमें हमारे फ़िल्मकार साथी नितिन भी थे और हम इस इरादे से गए थे कि पापा की वीडियोग्राफी कर लेंगे और अगर चीज़ें फेवरेबल रहीं तो उन के बारे में कोई प्रोग्राम बनाने की सोचेंगे. नितिन ने बड़े मनोयोग से शूटिंग की और हम इस मुलाक़ात से खुश तो लौटे पर शायद उनकी स्मृति क्षीण होने से पहले पहुंचते तो उनकी बातें ठीक से दर्ज कर पाते।
वो बार बार अपनी ही लिखी कुंडलियों में से एक कुंडली की लाइने बेतरतीब ढंग से दुहरा रहे थे. मतलब किसी भी वाक़ये का ज़िक्र करते हुए उसके आगे या पीछे या कभी बीच में या कहीं भी कह उठते- 'जब कुछ भी ना बन सको, अध्यापक बन जाव' और चुप हो जाते। फिर इधर उधर की बातें करते हुए बीच मे कहते- 'झूठे युग में कथा सुनाओ, तुम सच्चों की' … और ऐसा हमारी उस मुलाक़ात में उसी तरह हो रहा था जैसा देवेन्द्र सत्यार्थी के साथ इस मुलाक़ात में.
बहरहाल उनकी तस्वीर का एक छोटा सा स्केच उनका यहां पेश है जो उनकी किताब 'पापा की कुंडलियाँ' से लिया गया है. और ये रही उनकी वह कुंडली जिसका ऊपर ज़िक्र है.
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जब कुछ भी ना बन सको, अध्यापक बन जाव।
घाट-घाट पानी पियो, खरिया मिट्टी खाव।।
खरिया मिट्टी खाव, नाक पोछो बच्चों की।
झूठे युग में कथा सुनाओ, तुम सच्चों की।।
कह 'पापा' कविराय, यही केवल कहते सब ।
गर्दन नीची करो, प्रिंसिपल कुछ बोले जब ।।
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जब कुछ भी ना बन सको, अध्यापक बन जाव।
घाट-घाट पानी पियो, खरिया मिट्टी खाव।।
खरिया मिट्टी खाव, नाक पोछो बच्चों की।
झूठे युग में कथा सुनाओ, तुम सच्चों की।।
कह 'पापा' कविराय, यही केवल कहते सब ।
गर्दन नीची करो, प्रिंसिपल कुछ बोले जब ।।
1 comment:
यह स्केच उन्हीं का है? बड़ा मीठा सा है.
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