Saturday, February 6, 2016

मजाज़ और मजाज़ - 3

(पिछली क़िस्त से आगे)

'रोम में म्रत्यु शैय्या पर जॉन कीट्स' - कीट्स के दोस्त जोसेफ़ सेवेर्न का पोर्ट्रेट

"मजाज़ इस दौर का कीट्स था ... वह जिस दौर में पैदा हुआ था, उसमें ग़ज़लों और नज़्मों के एक मजमूए की - जिसे शाइर चार-पांच साल में रातों को खूने-दिल के दिए जला-जलाकर तैयार करे - कीमत सर चार-पांच सौ रुपये थी. मगर वह भी उसे उस वक्त मिलते थे जब पब्लिशरों और खरीदारों की खुशामद करता फिरे.

"मजाज़ का सरमाया सिर्फ उसका मज्मूआ 'आहंग' था. उससे कुछ रकम मिली और फिर उसका सोता सूख गया. मजाज़ का सीना आरज़ुओं, तमन्नाओं और हौसलों का बहुत बड़ा गहवारा था. वह घरबार चाहता था, बीवी-बच्चे चाहता था, बा-वक़्त रोज़गार चाहता था, लेकिन ज़माने के पास एक ऐसे शख्स को, जो शाइर और महज़ शाइर हो, देने को कुछ नहीं था. मजाज़ भी कुढ़ता रहा और अपनी इस कुढ़न को उअने शराब में ग़र्क़ करना चाहा.

शराब मजाज़ की कुढ़न को क्या पचा पाती, शराब की लत ने एक और कुढ़न दे दी. फिर इस दोहरी कुढ़न से निजात पाने के लिए डबल मैनोशी करते रहे.

"इस तरह नाकामियाँ, नामुरादियाँ मकड़ी की तरह का जाल उसकी ज़िन्दगी के लिए बुनती गईं. और मजीद नाकामियों और नामुरादियों को दावत देती गईं. ये नामुरादियाँ और नाकामियाँ अगर मजाज़ की शाइरी में आ जातीं तो आज उसने 'आवारा' नज़्म की तरह बहुत सी चीज़ें कह दी होतीं और बहुत से मजमूए छपवा डाले होते. इन मजमूओं ने उसकी माली हालत को किसी हद तक सुधार दिया होता. लेकिन अफ़सोस ऐसा भी न हो सका.

"इसके बहुत से असबाब हो सकते हैं. लेकिन हमको यक़ीन है कि इस बात का इमकान ज़रूर था कि मजाज़ इन नाकामियों और नामुरादियों के झुरमुट में चाँद बनकर चमकता. हमारा ख़याल है कि ऐसा न होने का एक सबब यह भी है कि मजाज़ एक ऐसी जमात से ताल्लुक रखता था जो अदब को अपने रोजाना के मसाइल और एक ख़ास सियासी नज़रिए से मुताल्लिक रखना चाहती थी. और यह रोजाना के मसाइल और सियासी नज़रिए भी उस जामत के बराबर बदलते रहते थे. मजाज़ इस किस्म की शायरी के लिए मौज़ूं न था. वह गहरे जज़्बात, दूररस ख़यालात और हज़ारों साल रहनेवाली क़दरों में सोचता था. वह सहाफ़ी किस्म की शाइरी नहीं कर सकता था. नतीजा ये हुआ कि उसने अपनी पार्टी की राइज बहरों में कुछ-न-कुछ कहना पड़ा. मगर जो कुछ भी कहा अपनी तर्ज़ का कहा और इसके लिए ऐतराजों का आमाजगाह (निशाना) बना.

"न मजाज़ अपने को काट-पीटकर ज़माने के सांचे में ढाल सका और न ज़माना इतना फैय्याज़ था कि वह अपने को मजाज़ के लिए इतना खुशगवार बना लेता. मजाज़ को एक-दो बार मुलाज़मतें भी मिलीं. लेकिन खुश्क फ़र्ज़ और बदमज़ा पाबंदियां उसे कुंजे-कफ़स और सैय्याद का घर लगीं, जिनको वह बर्दाश्त न कर सका और यह कामयाबी भी उसके लिए नाकामयाबी हो गयी.

"अगरचे डाक्टरों की मुत्तफ़िक़ा तशखीस के मुताबिक़ मौत का सबब रगों का फट जाना है मगर मजाज़ के जिस्म पर चोटों के निशानों-जलाए जाने के ऐसे दागों ने जो मैयत के गुस्ल के वक्त दिखाई दिए, सबको शुबहे में डाल दिया. सही तहक़ीक़ पोस्ट मार्टम के जरिये ही की जा सकती थी मगर पोस्ट मार्टम के लिए मजाज़ के ग़मज़दा घराने से इजाज़त लेने की ज़ुरअत किसी को न हुई. मजाज़ के एक साथी जलाल मलीहाबादी के बारे में मालूम हुआ कि वे भी उस रात से बेहोश पड़े हैं और उनके मुंह पर सूजन है. मजाज़ की आख़िरी रात का तीसरा साथी एक पहलवान बताया जाता है, जिसके बारे में अभी तक कुछ भी मालूम नहीं हो सका है."

(जारी) 

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