Saturday, February 6, 2016

मजाज़ और मजाज़ - 4

(पिछली क़िस्त से आगे)

जोश मलीहाबादी
मजाज़ अत्यंत लोकप्रिय और यारबाश आदमी थे. उनकी मौत की ख़बर बिजली की तरह लखनऊ में कौंध गयी. जिसने भी सुना कलेजा थामे हुए बलरामपुर हस्पताल पहुंचा, सज्जाद ज़हीर, हयातुल्लाह अंसारी, ऐहतमाम हुसैन, इस्मत चुगताई, नियाज़ हैदर जैसे ख्यातिप्राप्त साहित्यकार मजाज़ के पास दम साधकर खड़े हुए थे. सरदार ज़ाफरी और मुहम्मद रज़ा अंसारी लिपटकर रोने लगे.

वो घबरा के जनाज़ा देखने बाहर निकल आये
किसी ने कह दिया मैय्यत जवां मालूम होती है

मजाज़ के जनाज़े को कब्रिस्तान में मिट्टी देने के लिए प्रायः सभी वर्ग के उर्दू-हिन्दी साहित्यसेवी, शाइर-कवि, कलाकार, चित्रकार, राजनैतिक, सामाजिक नेता, शिक्षक-विद्यार्थी, अमीर-गरीब, एक हज़ार के लगभग उमड़ पड़े थे. कहते हैं इतनी बड़ी भीड़ इसके पहले लखनऊ में किसी शाइर के जनाज़े में शामिल नहीं हुई थी,

आशिक़ का जनाज़ा है, ज़रा धूम से निकले

मजाज़ भरी जवानी में फ़क़त 46 की उम्र में मर गया. भला ये सिन भी मौत का होता है! अलबत्ता मैनोशी की अधिकता, आवारगी और अस्त-व्यस्त जीवन के कारण दिन-प्रति दिन मजाज़ का स्वास्थ्य गिरता जा रहा था, लेकिन वो इतनी जल्दी उठ जाएंगे, इसका सपने में भी किसी को तसव्वुर न था. लेकिन मजाज़ को शायद अपनी मौत के नज़दीक होने का अहसास हो गया था. तभी तो मौत से दो दिन पहले अपने दोस्तों से, जो एक कांफ्रेंस में शामिल होने के लिए बंबई से आये थे, मजाज़ ने कहा था - "अब तो हर मुलाक़ात ऐसी मालूम होती है जैसी कि आख़िरी मुलाक़ात हो." मजाज़ ने अपने अशआर में भी कहीं-कहीं इसकी और संकेत किया है -

ज़िन्दगी साज़ दे रही है मुझे
सहर-ओ-एजाज़ दे रही है मुझे
और बहुत दूर आसमानों से
मौत आवाज़ दे रही है मुझे

और मजाज़ का ही ये शेर उनकी अकाल मृत्यु पर कितना मौजूं चस्पां होता है -

इस महफ़िल-ए-कैफ़-ओ-मस्ती में, उस अंजुमन-ए-इरफ़ानी में
सब जाम ब-कफ़ बैठे ही रहे, हम पी भी गए छलका भी गए

मजाज़ की मौत से उर्दू संसार को बहुत व्यथा पहुँची. 'जोश' मलीहाबादी ने लिखा - "मर्ग-ए-मजाज़ की ख़बर ने दिल को बरमाकर रख दिया. काश वह जिंदा रहता, मैं मर जाता! हाय, हाय!"  

(जारी)

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