Thursday, March 10, 2016

दस मार्च को तेनज़िन त्सुन्दू के लिए रीपोस्ट - 4


मेरी मुम्बई कथा

- तेनज़िन त्सुन्दू

मैं तिब्बती समुदाय से बच भागने को मुम्बई आया था. १९९७ में बिना कागज़ात के तिब्बत चला गया था जहां मुझे चीनी सीमा पुलिस ने गिरफ्तार किया था. तीन महीने की पिटाई, अपमान और मानसिक यंत्रणा के बाद मुझे तिब्बत से बाहर फेंक दिया गया. मुझे सहारा देने के बजाय, मेरे रिश्तेदारों ने मुझे बहुत झिड़का कि मैंने जाने से पहले उन्हें सूचित क्यों नहीं किया था. वे मुझ पर चिल्लाए कि मेरी वजह से उन्हें बेहद मानसिक त्रास से गुजरना पड़ा – इस बात का अहसास किये बिना कि जेल में महीनों तक पुलिस की बर्बरता और जांच-पड़ताल के बाद मैं किस अनुभव से गुज़र रहा था. 

मुम्बई कोई टिपिकल तिब्बती अड्डा नहीं है. शहर में बमुश्किल तीस से अधिक तिब्बती रहते हैं जो रेस्तरांओं में काम करते हैं, नूडल बनाते हैं और आजकल सूचना-प्रौद्योगिकी में काम करने वाले युवा इनमें हैं. जाड़ों में करीब दो सौ तिब्बती शहर में आकर स्वेटरें बेचने का काम करते हैं; दो महीने के बाद प्रवासी पक्षियों की तरह वे वापस अपने शरणार्थी कैम्पों में चले जाते हैं ताकि लोसर मना सकें. चंद्रमा पर आधारित पंचांग के अनुसार तिब्बती नववर्ष लोसर फरवरी के आसपास पड़ा करता है. मुम्बई में स्वेटर बेचने वाले तिब्बतियों का आगमन शहर में सर्दियों के आने की घोषणा जैसा होता है, जहाँ अन्यथा केवल दो ही मौसम होते हैं – गर्मियां और बरसातें. जब मैं मुम्बई आया था, फिल्मों के प्रचार के लिए लगे बड़े-बड़े होर्डिंग्स में से रानी मुखर्जी मुझे देखकर मुस्करा रही थी. साधारण तिब्बतियों के लिए बंबई किसी स्वप्न-सरीखी मिथकीय नगरी थी जिसे उन्होंने अमिताभ बच्चन की फिल्मों में देखा था; बड़ा शहर, बड़ा पैसा और ढेर सारे गुंडे. इसे बॉलीवुड अभिनेताओं के लिए भी जाना जाता है, सो लोग मुझसे अक्सर ककगते हैं कि मैं उनके लिए आमिर खां और ऐश्वर्या राय की असली फोटूएं लेकर आऊँ. औसत तिब्बती की समझ में इस शहर को मुम्बई कहे जाने के पीछे के आग्रह का पचड़ा समझ में नहीं आता. सो आज तिब्बती इसे बीच के एक नाम से पुकारते हैं – मुम्बे.

यहाँ पहले तिब्बती १९५० की शुरुआत में आये थे जब यह बंबई ही था और तिब्बत भी एक आज़ाद देश था. दार्जिलिंग और कालिम्पोंग में बस चुके तिब्बती अपने नज़दीक के बंदरगाह-नगर कलकत्ता में अक्सर जाया करते थे. लेकिन बंबई आये हुए तिब्बती चीन में १९४९ की कम्युनिस्ट क्रान्ति के बाद भागे चीनियों के साथ आये थे. वे नूडल व्यवसाय के मित्र थे.

आज भी, मुम्बई के कुछ बेहतरीन रेस्तराओं में नूडल की आपूर्ति शहर की छोटी तिब्बती नूडल फैक्ट्रियों से होती है. कोई बीस नौजवान ‘चाइनीज़’ रेस्तराओं में रसोइये का काम करते हैं. इस प्रत्यक्ष राजनैतिक विरोधाभास पर एक पत्रकार का जवाब एक बार चालीस साल के कुंगा ने दिया था जिन्होंने इस पेशे के लिए कोई तीस तिब्बती युवाओं को प्रशिक्षित किया था. उनका स्पष्टीकरण था: “खाना पकाना एक कौशल होता है, चाहे आप तिब्बती खाना बनें, चीनी या दक्षिण भारतीय.”

बंबई आये पहले तिब्बतियों को लेकर एक मिथकीय किस्सा चलता है, कहानी के मुताबिक़ उनके एक समूह ने एक डबल डेकर बस की ऊपरी मंजिल पर सीटें लीं. बस ने घर्राना शुरू किया और वह स्टार्ट होने को ही थी. तभी सारे तिब्बती हड़बड़ी में नीचे उतर आये. कंडक्टर ने पूछा कि भाई माजरा क्या है. वे सारे एक साथ चिल्लाए: “ऊपर कोई ड्राइवर नहीं है और बस तब भी चल रही है.” पता नहीं यह किस्सा सच है या नहीं लेकिन तिब्बतियों के बीच यह आज तक चल रहा है. और यह किस्सा साबित करता है कि तिब्बती बहुत चौकन्ने होते हैं और हर मामले को लेकर दोहरी सुनिश्चितता रखना चाहते हैं.

इस महानगर में, जो कि मुम्बई है, तिब्बती में बात करना और हंसना किस कदर प्रफुल्लित करने वाला होता है. किसी दुर्लभ मौके पर जैसे परमपावन दलाई लाम के जन्मदिन पर, सभी तिब्बती नाचने-गाने और बढ़िया तिब्बती भोजन के लिए इकठ्ठा होते हैं. ट्रैफिक के शोर और नज़दीकी चाल में बज रहे किसी बॉलीवुड गीत की पृष्ठभूमि में से कोई एक पहाड़ी गीत छेड़ देता है. अपने तिब्बती मेहमानों को हम समुद्र का विस्तार दिखाने मरीन ड्राइव लेकर जाते हैं. वहीं शहर में रहने को नए आने वालों को हम रश आवर्स में मुंबई की लोकल ट्रेनों में प्रशिक्षण दिया करते हैं.

बच भागने के अलावा, मैं यहाँ आगे की पढ़ाई करने भी आया था. बंबई विश्वविद्यालय के कालीना कैम्पस में साहित्य और दर्शनशास्त्र पढ़ने के साथ ही मैंने यहीं लिखना भी शुरू किया. मैंने डॉम मोराईस, निसीम एज़ेकील, आदिल जस्सावाला और अरुण कोल्हटकर जैसे स्थापित लेखकों और कलाकारों से मिलना शुरू किया और उनकी कला और उसके प्रति उनके बर्ताव से प्रेरणा लेना शुरू किया. इसके अलावा मैंने रंगमंच अभिनय, ललित कलाओं और प्रदर्शनियों के व्यवसाय, फिल्म निर्माण की भीतरी कहानियों और मीडिया संबंधों के बारे में बहुत कुछ सीखा.

यह वे वर्ष थे जब मैंने बहुत कड़ी मेहनत की. मेरे पास रहने को कोई जगह नहीं थी क्योंकि मेरे पास पैसा नहीं था. मैं अंधेरी, बोरीवली, कफ परेड, सान्ताक्रुज़ और अम्बोली में दोस्तों के घरों में कैम्प किया करता था. बोरीवली से शहर जाने और  विरार-चर्चगेट की लोकल ट्रेन में पैर जमाने की जगह के लिए जद्दोजहद करना रोज़ की चुनौती था. एक दफा रश आवर में मैं गिरते-गिरते मरने से बचा लेकिन मुझे हैरत हुई कि अगले दिन मैं फिर से उसी ट्रेन में पैर जमाने की जगह खोजने की जद्दोजहद में लगा था. मैं दिनों तक वडा-पाव पर जिंदा रहा, शोक के बारे में कविताएं लिखते मरीन ड्राइव प्रोमेनेड मैं मैंने मूंगफली खाई.

बंबई विश्वविद्यालय से एमए के बाद अपने सहपाठियों से चंदा करके कविताओं की अपनी पहली किताब छपवाई. बाद में हमने उसकी प्रतियाँ कॉलेजों और क्रॉसवर्ड, पृथ्वी थियेटर, एनसीपीए और पोयट्री सर्कल जैसी जगहों पर होनेवाले कविता-पाठ समारोहों में बेचा. २००१ में मुझे पहला आउटलुक-पिकाडोर अखिल भारतीय निबंध लेखन पुरुस्कार मिला; चूंकि तब मैं मुम्बई में रह रहा था, मीडिया में रपट छपी, “मुम्बई के छात्र ने निबंध प्रतियोगिता जीती.” मैं एक मुम्बईकर के तौर पर स्वीकृत किये जाने पर प्रसन्न था.

विश्वविद्यालय के कैम्पस में इकलौता तिब्बती था. मुझे तिब्बतियों की कमी खलती थी पर मैंने ढेर सारे भारतीय मित्र बनाए. सच तो यह है कि आज मेरे भारतीय मित्र ज़्यादा हैं तिब्बती कम. अब मैं यहाँ हिमालय में रहता हूँ, धर्मशाला नाम के एक हिलस्टेशन में जहाँ परमपावन दलाई लामा का निवासस्थान है. मैं तिब्बत से सम्बंधित कई कारणों से मुम्बई अता हूँ और मैं जब भी यहाँ आता हूँ मुझे तमाम दोस्तों से मिलना होता है. मैं मुम्बई में किसी भी जगह पर रह और खा सकता हूँ. मैं मुम्बई की मनःस्थिति, भाषा, संस्कृति और चलता है वाले नज़रिए के साथ कम्फर्टेबल महसूस करता हूँ. इन सब कारणों से मुझे मुम्बई घर जैसा लगता है.

तिब्बत के मामले को लेकर मुम्बई में सहानुभूति पाई जाती है. वर्ष २००२, जब चीन के राष्ट्रपति झू रोंग्ज़ी ने शहर का दौरा किया तो मैंने ओबेरॉय होटल (अब हिल्टन) की स्कैफोल्डिंग पर चढ़कर अपना विरोध दर्ज कराया. चौदहवीं मंजिल से टंगकर मैंने “तिब्बत को आज़ाद करो” लिखा हुआ एक बैनर फहराया. हमें दुनिया भर में मीडिया कवरेज हासिल हुई लेकिन जिस तरह मुम्बई के अखबारों ने उसे पहले पन्ने पर जगह दी और जनता का जैसा समर्थन मिला, वैसा कुछ कहीं और नहीं हुआ. अचानक ही यह हुआ कि तिब्बत के स्वतंत्रता संग्राम में मुम्बई ने अपनी जगह बना ली. उस रात मुझे देर तक कफ़ परेड पुलिस स्टेशन में रहना पड़ा लेकिन मेरे लिए वह मुम्बई में मेरे सबसे यादगार पल थे.

लेकिन खुद तिब्बती समाज के भीतर आन्दोलन को मज़बूत बनाए बगैर किसी भी तरह का बाहरी समर्थन किसी काम का नहीं होगा. उसके लिए मुझे ज़रुरत थी तिब्बती समाज के भीतर काम करने की, सो मैं मुम्बई से चला गया, लेकिन केवल शरीर के तौर पर. मेरा सपना है तिब्बत को चीनी कब्ज़े से मुक्त कराकर वहां अपने घर का पुनर्निर्माण करना. तब तक मैं कहीं भी होऊं मेरे पास अपना घर कभी नहीं हो सकता. कानूनी तौर पर हम एक राष्ट्र्हीन जन हैं, दलाई लामा भी उनमें सम्मिलित हैं. कल, जब हम अपनी आज़ादी के बाद तिब्बत वापस चले जाएंगे मैं आमची मुम्बई आना नहीं छोडूंगा.

एक दफा मैं अपने एक दोस्त की चिठ्ठी लेकर उसकी बूढ़ी माँ के पास जा रहा था. मैं अपने पहुँचने के दिन उस चिठ्ठी को नहीं पहुंचा सका. अगले दिन मुझे बताया गया कि पिछली रात उसकी माँ की नींद में मृत्यु हो गयी. वे ७९ साल की थीं. वे हम छोटों को तिब्बत के जीवन के बारे में बताया करती थीं. उनका जीवनवृत्त मैंने घंटों तक सुना था. मैं उन्हें बताता रहता था कि तिब्बत जल्द ही आज़ाद होगा और हम सब अपने घर वापस लौटेंगे. हमने चन्दनवाड़ी के सार्वजनिक संस्कार गृह में उनका अंतिम संस्कार किया. पिछले ही साल हमने दादर के श्मशान में ८० साल के एक वृद्ध का अंतिम संस्कार किया था. बहुत तेज़ी से हमारी बुज़ुर्ग पीढ़ी गायब होती जा रही है जो तिब्बत में रहा करती थी, जिसने चीनी आक्रमण को देखा था, सो जल्द ही हमारे बीच ऐसा कोई नहीं बचेगा जिसने तिब्बत को आज़ाद देखा था और जो हमें चीनियों के हमारे देश में घुस आने के पहले के जीवन के बारे में बता सके. जब तक हम अपनी धरती को वापस नहीं पा लेते हमें अपनी कहानियों को बताते सुनाते चले जाना है अभी जब हम मुम्बई में रह रहे हैं – अपने पहाड़ी घरों से बहुत दूर.

धर्मशाला, जनवरी २००६ 

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