Wednesday, March 2, 2016

लोककथाओं और किंवदंतियों का एक भोलाभाला, मददगार जादूगर - इब्बार रब्बी

आज वरिष्ठ कवि-पत्रकार जनाब इब्बार रब्बी का जन्मदिन है. इस अनूठे कवि और इंसान को बधाई के साथ साथ उन पर लिखा कबाड़ी शिवप्रसाद जोशी का एक पुराना लेख मैं यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ. थोड़ी देर में उनकी कुछ शानदार रचनाएं भी इस अड्डे पर पेश की जाएँगी -

बरेली में इब्बार रब्बी, 20 फ़रवरी 2016
फ़ोटो - रोहित उमराव

इब्बार रब्बी पर कुछ बिखरे हुए नोट्स

-शिवप्रसाद जोशी

1994-95 का कोई दिन था. गुणानंद पथिक के बारे में लिख कर लाओ. उनसे मिलो. हाल देखो. फिर लिखो. लाकर दो. फ़्रीलांस पत्रकार के तौर पर नवभारत टाइम्स के उत्तरप्रदेश संस्करण के उस पेज के लिए ये एसाइनमेंट मानदेय के लिहाज़ से जितना आकर्षक था, उतना ही ताब भरा कि एक रिपोर्टिग तो मिली. इब्बार रब्बी उस मशहूर आईटीओ में नवभारत टाइम्स में एक पेज के इंचार्ज थे.

फिर उन्होंने देहरादून पर लेख लिखने को कहा. फिर कई और लेख आए. इब्बार रब्बी मेरा इम्तहान लेते थे और सुधार कराते थे और छापते थे. और मुझसे ऐसे बात करते थे कि मुझसे भी कम जानते हो. एक निरीह से लड़के के लिए एक सुकून और राहत की स्पेस उन्होंने छोड़ी हुई थी.

इब्बार रब्बी के बिना आठवें दशक की हिंदी कविता की बात पूरी नहीं होती. या यूं कहें नागार्जुन परंपरा की कविता पर अगर बात करने निकलें तो वो रब्बी की कविताओं के बिना पूरी नहीं लिखी जा सकती. वे उसके सबसे प्रखर कवि हैं. सबसे अलग. रब्बी जैसे निर्विकार रहते हैं वैसी ही उनकी कविता है. अपने समय की हलचलों से किनारे रहने वाले रब्बी अपनी कविता में सबसे बड़े तूफ़ानों से जूझते जहाज पर मस्तूल को संभालने वाले चुपचाप लेकिन मुस्तैद कारीगर हैं.

वह प्रस्ताव हूँ
जो पारित नहीं हुआ
रदी में फेंक दो उसे।

जैसी उनकी कविता है वैसे ही वे उसे पेश भी करते हैं. पेश करने से मतलब उसे सुनाने से. रब्बी का कविता पाठ ज़रा सबसे अलहदा ही है. और उसमें ऐसा पत्थर दिखता है जैसे समंदर किनारे पड़ा रहता है. लहरों की पछाड़ें खाता हुआ भीगता हुआ पछाड़दरपछाड़ खाता हुआ और कमबख़्त टससेमस न होता हुआ. रब्बी की आवाज़ में इस पत्थर का धैर्य असल में उनकी कविता का धैर्य है.

मन्त्रियोंतस्करों
डाकुओं और अफ़सरों
की निकल जाएँ सवारियाँ
इनके गरुड़
इनके नन्दी
इनके मयूर
इनके सिंह
गुज़र जाएँ तो सड़क पार करें

यह महानगर है विकास का
झकाझक नर्क
यह पूरा हो जाए तो हम
सड़क पार करें...

शोरोअसर से दूर, पत्रकारिता की एक बुलंदी नापकर, एक पिता की मोहब्बत और कर्मठता और एक दोस्त का फ़र्ज़ निभाते रब्बी इस मुख्यधारा की हिंदी से बाहर होते हुए भी, एक ज़िद्दी बच्चे की तरह किनारे किनारे यानी मेले के किनारे किनारे या सर्कस ले जाती वैन के किनारे किनारे दौड़ दौड़ कर आ ही रहे हैं. कि भाई हम तो रहेंगे. हम भी मेला देखेंगे. हम मेले में सामान लगाएंगें.

इब्बार रब्बी जैसे यूरोप की कविता से निकलकर हमारे पास हमारी हिंदी हमारे ऐन सामने हमारे पड़पड़गंज में आ बसे हैं.

सर्वहारा को ढूँढ़ने गया मैं
लक्ष्मीनगर और शकरपुर
नहीं मिला तो भीलों को ढूँढ़ा किया
कोटड़ा में
गुजरात और राजस्थान के सीमांत पर
पठार में भटका
साबरमती की तलहटी
पत्थरों में अटका
लौटकर दिल्ली आया

वे हमारे समय के सबसे प्रमुख अंतरराष्ट्रीय कवियों में है. कोई माने या न माने. उनकी कविता के अनुवाद करना शुरू कीजिए. आज के समय में हमें बर्तोल्त ब्रेष्ट किसी के पास देखना है तो वो रब्बी के पास है.

ब्रेख्त की तीखी आंच रब्बी की छोटी कविताओं का मुहावरा है. और वो कुछ ऐसा है कि अगर उसे हिंदी के खानाबरदार या पंडित क़ौम अपनी निहायत ही मशीनी कसौटी में परखने के लिए डाल दे तो शर्तिया धुआं ही निकलेगा. ऐसी लोकभाषा ऐसे उत्ताप ऐसे करेंट और ऐसे आंतरिक वेग से भरी है वो कविता.

असंख्य
नंगे पाँवों को
कुछ जूते
कुचल रहे हैं

इब्बार रब्बी ने साधारणता को जैसे साध लिया है. नए लिखने वालों को कहा जाता है अक़्सर, देखो सीधा लिखो सरल लिखो सहज लिखो..ये टूल्स पत्रकारिता में भी काम आते हैं. रब्बी रघुबीर सहाय की कविता स्टाइल को भी फ़ॉलो करते दिखते हैं. पर अपने ऑब्ज़र्वेशन में और किन विषयों पर कितनी साधारणता और सहजता से लिखा जा सकता है ये तै करते हुए जोखिम उठाते हैं. उठा चुके हैं. 

कितनी स्वादिष्ट है
चावल के साथ खाओ
बासमती हो तो क्या कहना
भर कटोरी
थाली में उड़ेलो
थोड़ा गर्म घी छोड़ो
भुनी हुई प्याज़
लहसन का तड़का
इस दाल के सामने
क्या है पंचतारा व्यंजन
उंगली चाटो
चाकू चम्मच वाले
क्या समझें इसका स्वाद!

इब्बार रब्बी ओरिजेनिलिटी के कवि हैं. उनकी कविताएं दूर से पहचानी जाती हैं. वे जितनी सरल अपनी बनावट में हैं, बुनावट में उतनी ही मुश्किल और कड़े श्रम से निकली कविताएं हैं. उन्हें लिखने के लिए महज़ एक शिल्प साधने जैसी प्रोसेज़ की ही ज़रूरत नहीं, उनके लिए एक तीक्ष्ण दृष्टि और संवेदना की ज़रूरत है. बहुधा शिल्प की कारीगरी वाली कई कविताएं संवेदना के स्तर पर निष्प्राण पाई जाती हैं, रब्बी संवेदना को ही लेकर चलते हैं. इस संवेदना का ज़ाहिर है बहुत अंतरंग संबंध आम मनुष्य के रहनसहन जीवनचर्या और खट्टे मीठे अनुभवो से है.

वो इसी रिश्ते को टटोलते हुए आगे बढ़ते हैं और फिर एक बहुत बड़ी शक्ति के सामने अपने परिचित गर्दन झुकाए भेदती आंखों और दबी हुई मुस्कान और अंततः खिलखिलाहट के साथ प्रकट हो जाते हैं. रब्बी लोककथाओं और किंवदंतियों के एक भोलेभाले और मददगार जादूगर की तरह है. उनके पास बच्चों के लिए मीठी गोलियां हैं और दुष्टों के लिए सबक.
  
एक गरम टोपी, मफ़लर लपेटे और स्वेटर पहने रब्बी एक दिन जाखन में हमारे घर हाज़िर हुए. वो छवि उनकी,ज़ेहन में बनी है. लगा टोपी से कुछ निकलेगा और कोई जादू चलेगा. रब्बी ने कुछ नहीं किया. दुआ सलाम हुई और वो ठिठुरते रहे. अपने ही भीतर और जाते हुए. क्या कवि की यही प्रमुख विशिष्ट पहचान है. वे दबंग नहीं दिखते. उनकी आंखें भेदती हुई सी होती हैं. अपने शरीर को जैसे वे एक गठरी में लिए रखते हैं.

1 comment:

Geeta Gairola said...

इब्बार रब्बी जी को जन्मदिन की अशेष शुभकामनायें