Thursday, March 10, 2016

कैप्टन एलेग्जेंडर आज़ाद - मिर्ज़ा ग़ालिब का फ़्रांसिसी शायर शागिर्द

एलेग्जेंडर हेडेर्ली 'आज़ाद' 


एलेग्जेंडर आज़ाद 1829 को पैदा हुए. उर्दू अदब में ख़ासी दिलचस्पी रखते थे. फ़्रांस के बाशिंदे होने के बावजूद उर्दू में ऐसे बाकमाल थे कि उन की शायरी से ज़र्रा भर ग़ैरमुल्की होने का शाइबा तक नहीं होता. उन के बारे में कहा जाता है कि उन्हों ने 1857 के बाद इस्लाम क़बूल करके जान मुहम्मद नाम इख़तियार किया. उन्होंने बाक़ायदा शागिर्दी नवाब ज़ीन इला बदीन की इख़तियार की. मिर्ज़ा ग़ालिब से ख़तो किताबत में इस्लाह लिया करते थे. ग़ालिब के बहुत बड़े मद्दाह थे . उर्दू शायरी में ‘आज़ाद’ तख़ल्लुस किया करते थे. नाक़िदीन ने उन्हें आज़ाद फ़्रांसीसी का नाम से भी पुकारा है. आज़ाद उर्दू के क़दीम नाक़िदीन के हाँ ख़ासे नामवर थे, पुराने जराएद में इन का बहुत तज़किरा पढ़ने को मिलता है जो कि ना सिर्फ़ उन के फ़न-ए -शायरी पर है बल्कि उन की शख़्सियत पर भी है. ग़ालिब के रंग में उन की एक ग़ज़ल का मतला कुछ यूं है -
में ना वहशत में कभी सू-ए-बयाबां निकला
वां से दिलचस्प मिरा खाना-ए-वीरां निकला
आज़ाद फ़्रांसीसी का दीवान उन की वफ़ात के दो साल बाद मतबा अहमद नगर से तबा हुआ. ये दीवान 175 सफ़हात पर मुश्तमिल है. जिस के दो दीबाचे तहरीर किए गए. एक फ़ारसी ज़बान में जो कि मुंशी शौकत अली ने तहरीर किया. दूसरा उर्दू ज़बान में थॉमस हीडरली ने तहरीर किया जो कि इस दीवान के मुरत्तिब थे. उन के दीबाचे में से एक इक़तिबास कुछ यूं है
“अशआर उस मरहूम के जो परेशां जाबजा पड़े पाए गोया सोने में ज़मरुद और याक़ूत टिक पाए. ख़्याल आया कि इन जवाहर को बिखरा पड़ा ना रहने दीजीए और इन सब अशआर को रदीफ़ वार जमा करके दीवान मुरत्तिब कीजीए ताकि जो कोई देखे वो ये कहे कि अगरचे उस शख़्स की थोड़ी ज़िंदगी थी मगर वाह इस क़लील मुद्दत में क्या गुहर अफ़्शानी थी.
आज़ाद फ़्रांसीसी के चंद अशआर मुलाहिज़ा फ़रमाएं:
नवेद ए दिल के रफ़्ता रफ़्ता होगया है इस का हिजाब आधा
हज़ार मुश्किल से बारे रुख़ पर से उस ने उल्टा निक़ाब आधा
ख़ुदा की क़ुदरत है वर्ना आज़ाद मेरा और इन बुतों का झगड़ा
ना होगा फ़ैसल तमाम दिन में मगर बरोज़ हिसाब आधा

ग़ालिब के इस शागिर्द ने 7 जुलाई 1861 को वफ़ात पाई.
(http://www.nuqoosh.in/ से साभार)

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