Thursday, March 10, 2016

लफ़्ज़ मेरे, मेरे होने की गवाही देंगे - परवीन शाकिर का जीवन


चौबीस नवंबर 1952 की सर्द रात और रिमझिम बरसती बारिश में जूंही मुअज़्ज़न ने सदाए अज़ान बुलंद की, कराची के एक हस्पताल में एक नन्ही सी किलकारी गूँजी और अफ़ज़ल उन्निसा और सय्यद शाकिर हुसैन ज़ैदी के हाँ एक परी का जन्म हुआ जिसे आज दुनिया परवीन शाकिर के नाम से जानती है.
बख़्त से कोई शिकायत ना अफ़्लाक से है
यही क्या कम है कि निसबत मुझे इस ख़ाक से है
जदीद उर्दू शायरी के अहम नाम परवीन शाकिर के फ़न्नी मुक़ाम से तो लोग आगाह हैं ही, आज हम उनकी ज़ाती ज़िंदगी के चंद औराक़ पर नज़र डालते हैं. उनकी बड़ी बहन नसरीन बानो और परवीन ने अपना बचपन एक साथ हंसते खेलते गुज़ारा. दोनों इकट्ठे स्कूल जाया करतीं. परवीन जब तीसरी क्लास में थीं तो उन्हें डबल प्रमोशन दिया गया यूं दोनों बहनें एक ही क्लास में आ गईं.
उनकी एक आदत ये थी कि वो किसी भी महफ़िल में अपने जूते उतार दिया करतीं और नंगे पैर फिरा करतीं, वापसी पर अक्सर ही जूते गुम हो जाया करते और उन्हें नंगे पैर घर आना पड़ता, वो गाड़ी भी जूता उतार कर चलाया करतीं, एक दफ़ा का वाक़िया है कि वो इस्लामाबाद की जिनाह सुपर मार्कीट में जूतों की दुकान के सामने गाड़ी रोके ज़ोर-ज़ोर से हॉर्न बजा रही थीं ,  शाप से सेल्ज़ मैन बाहर आया तो पता चला कि परवीन शाकिर हैं और नंगे पैर हैं उन्हें जूता चाहिए, असल में वो किसी तक़रीब में अपना जूता खो बैठी थीं और अब जहां जाना था वहां बग़ैर जूते के जा नहीं सकती थीं.
उनके सफ़र में जूते कभी आड़े नहीं आए. कोई चीज़ उनकी राह में हाइल नहीं हुई. सिर्फ 24 बरस की उम्र में उनका पहला मजमूआ ख़ुशबूशाय: हुआ
अक्स-ए-ख़ुशबू हूँ बिखरने से ना रोके कोई
और बिखर जाऊं तो मुझको ना समेटे कोई
इंग्लिश लिटरेचर में मास्टर्ज़ के बाद परवीन शाकिर कुछ अरसा इंग्लिश की लेक्चरर रहीं फिर सी.एस.एस का इमतिहान पास करने के बाद कस्टम में अस्सिटैंट कमिशनर के तौर पर तायिनात हुईं
रात अभी तन्हाई की पहली दहलीज़ पे है
और मेरी जानिब अपने हाथ बढ़ाती है
सोच रही हूँ
उनको थामूँ
ज़ीना ज़ीना सन्नाटों के तहखानों में उतरूं
या अपने कमरे में ठहरूं
चांद मेरी खिड़की पे दस्तक देता है
सन 1976 मैं उन की शादी डाक्टर नसीर अली से हुई और 1978 में उनका बेटा मुराद अली पैदा हुआ और 1987 मे उनकी अपने शौहर से अलैहदगी हो गई.
कोई सवाल करे तो क्या कहूं उस से
बिछड़ने वाले सबब तो बता जुदाई का


कैसे कह दूं कि मुझे छोड़ दिया है उसने
बात तो सच है मगर बात है रुस्वाई की

कौन चाहेगा तुम्हें मेरी तरह
अब किसी से ना मुहब्बत करना
परवीन इस्लामाबाद में सी.बी .आर की सैकण्ड सेक्रेटरी मुक़र्रर हुईं ,उस के बाद कस्टम में ही इन्सपैक्शन और ट्रेनिंग की डिप्टी डायरेक्टर बनी .
कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तिरा ख़्याल भी
दिल को ख़ुशी के साथ साथ होता रहा मलाल भी
छब्बीस दिसंबर 1994 - पीर ही के रोज़ ऑफ़िस जाते हुए इस्लामाबाद में उनकी गाड़ी का एक्सीडेन्ट हुआ और कोमल लहजे वाली शायरा सिर्फ 42 बरस की उम्र में अपने ख़ालिक़ हक़ीक़ी से जा मिलीं. उन्हें इस्लामाबाद के क़ब्रिस्तान में सपुर्द-ए-ख़ाक किया गया. उन के कुतबे पर ये शेअर दर्ज हैं
मर भी जाऊं तो कहाँ ,लोग भुला ही देंगे
लफ़्ज़ मेरे, मेरे होने की गवाही देंगे 


और 

अक्स-ए-ख़ुशबू हूँ बिखरने से ना रोके कोई
और बिखर जाऊं तो मुझको ना समेटे कोई


(http://www.nuqoosh.in/ से साभार)

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