यह इंटरव्यू उर्दू शायर फ़िराक़ गोरखपुरी के इंतिक़ाल से चंद रोज़ क़ब्ल, इलाहाबाद में उन की रिहायशगाह पर किया गया था. इंटरव्यूनिगार, अनीता गोपेश इलाहाबाद यूनीवर्सिटी में उस्ताद हैं. अफ़सानानिगारी उन की शनाख़्त का मुस्तनद हवाला. उन के वालिद, गोपी चंद गोपेश भी इलाहाबाद यूनीवर्सिटी में रूसी ज़बान पढ़ाते रहे. हिन्दी के बहुत अच्छे शायर थे. इस इंटरव्यू को मशहूर अफ़्सानानिगार, इसरार गांधी और मारूफ़ शायर और माहिर नोबीलयात, बाक़िर नक़वी ने उसे उर्दू रूप दिया.
[3 मार्च 1982 को, अपनी मौत से कुछ रोज़ क़ब्ल फ़िराक़ साहिब आँख के ऑप्रेशन के लिए दिल्ली ले
जाये गए. वो बहुत दिनों से आशूब-ए-चश्म में मुबतला थे. पढ़ने लिखने से क़ासिर. जिस्म
कमज़ोरी की तरफ़ माइल. ख़ुद उनके अलफ़ाज़ में में तो तक़रीबन दीवार हो गया हूँ, हिल-जुल नहीं सकता. लेकिन इस हालत में भी उनका दिमाग़ और आवाज़ दोनों दरुस्त थे. वो किसी भी मौज़ू पर मुसलसल बोल सकते थे.
मैंने बड़ी मुश्किल से उन्हें बातचीत पर राज़ी किया. सियासत पर
उन से थोड़ी बहुत गुफ़्तगू किए बग़ैर बात की शुरूआत नहीं होती थी.]
अनीता: आज सियासत जिस सिम्त जा रही है, उसे आप कैसे देखते हैं?
फ़िराक़: बड़ा मुश्किल है कुछ कहना. आज सियासत पहले की तरह नहीं
रही. कुछ भी Predict नहीं किया जा
सकता. आज अख़बार में भी था, और में भी यही समझता हूँ कि We
shall have to wait and see.
अनीता: आपने नेहरू जी को क़रीब से देखा, उनके बारे में कुछ फ़रमाएं?
फ़िराक़: क्या बात थी उनकी. लोग अक्सर कह देते हैं कि वो जो कुछ
भी थे, इस लिए थे कि वो
बाबू मोती लाल के बेटे थे. लेकिन सच ये है कि जवाहर लाल, मोती
लाल के बेटे होने से जवाहर लाल नेहरू नहीं बने थे. वो मेरे नौकर के बेटे होते,
तो भी जवाहर लाल नेहरू होते. अहलीयत को Luck कभी
ना मानिए. अहलीयत Luck नहीं होती. बहाने से ओहदे तो मिलते
हैं, लीडरशिप आफ़ इंडिया नहीं मिलती.
अनीता: सियासत को आप शख़्सी तस्लीम करते हैं या इजतिमाई?
फ़िराक़: सियासत सब के लिए नहीं. जमहूरीयत ग़ैर पढ़े-लिखों के
लिए नहीं है. हमारे यहां का ग्रुप या Mass
ग़ैर सियासी है. वो सिर्फ़ आराम चाहता है. Comfort चाहता है. आख़िर बात करने के लिए कोई मौज़ू तो चाहिए. सियासत ही सही;
हाँ उस को इन तक पहुंचाने का तरीक़ा मुख़्तलिफ़ हो सकता है. मैं ज़ाती
तौर पर इंतिज़ामिया में थोड़ी सी आमीरियत का क़ाइल हूँ. थोड़ा संग-ए-दिल हुए बग़ैर
मुहज़्ज़ब नहीं हुआ जा सकता. लेकिन इस का बहुत ज़्यादा होना बुरा होगा. देखो,
कोई भी चीज़ अपने आप में बुरी नहीं होती उस की Application अच्छी या बुरी होती है.
अनीता: सियासी और मुल्की सतह पर जब उथल पुथल के हालात हों , तो ऐसे में अदब का रोल क्या हो सकता है?
फ़िराक़: कुछ नहीं. (सवाल ख़त्म होते ही अचानक जवाब उनके मुँह
से तीर की तरह निकला) कुछ नहीं सिवाए इस के कि तस्वीर का अच्छा या बुरा - दोनों पहलू लोगों के सामने रखते
रहे. बीमारी को पकड़ रखे, और आसार बताता रहे,
ताकि डाक्टर बीमारी की नब्ज़ पकड़ सके.
अनीता: यानी क़लम के ज़ोर से इन्क़िलाब की बात आप नहीं मानते?
फ़िराक़: मैं अदब को इतना ऊंचा दर्जा नहीं देता. हर अदीब
मार्क्स नहीं बन सकता. फिर क़लम हिला देने से क्या होता है? तस्लीम करना ना करना तो ज़ाती Conviction
की बात होती है. किसी बात का क़ाइल होना एक बात होती है, और उसे ज़िंदगी में बरतना एकदम दूसरी. ऐसे कितने ही हैं, जो आज लिख रहे हैं, और इसी ज़िंदगी में जी भी रहे हैं.
अब एक बात और भी जान लीजिए. दुनिया में होने वाला हर इन्क़िलाब गवाह है कि इन्क़िलाब
की तैयारी में बरसों की कसक और घुटन होती है. इन्क़िलाब के लिए मुनासिब हालात और
तैयारी होती है. इतना कुछ होता है, तब क़लम कारगर होता है.
अनीता: हिंदुस्तान की
तारीख़ में एक दौर ऐसा भी आया, जब अवाम को
मुतास्सिर करने के लिए शायरी की जाती थी, चाहे रज़मीया शायरी
हो या फिर रोमानी शायरी.
फ़िराक़ : वो दौर ज़रूर मुहज़्ज़ब और तहज़ीब याफताहदौर नहीं रहा होगा. सिर्फ तरक़्क़ी पज़ीर
क़ौमों को शायरी के ज़रिया मुतास्सिर और जज़बाती किया जा सकता है. शायरी सबक़ आमूज़ी
या जज़बातीयत के लिए भी नहीं होती. लेनिन की शख़्सियत किसी शायरी से नहीं बनी. इस ने
तो बग़ैर शायरी के इन्क़िलाब बरपा कर दिया था.
अनीता:
तो क्या शायरी यूं कहें
कि अदब का कोई बड़ा असर समाज पर नहीं होता?
फ़िराक़ : होता क्यों नहीं. बहुत होता है. शायरी आदमी में
आदमियत को बनाए रखने में मदद करती है. शायरी बुराई दूर करने के लिए नहीं होती. इस
का अपना एक मुक़ाम है. ये सबसे ऊंचे मुक़ाम तक नहीं जा सकती. (कुछ देर के लिए फ़िराक़
साहिब ने ख़ामोशी इख़तियार कर ली. ऐसा लगा कि अपने ख़यालों को मुजतमा करने की कोशिश कर रहे हैं. फिर गोया हुए)
शायरी को समाजी इस्लाह का दर्जा देना उस के साथ नाइंसाफ़ी है. शायरी कोई दवा नहीं
है. सोच समझ कर, कोशिश के साथ शायरी नहीं की जा सकती. जैसे
कोशिश के साथ नेकी नहीं की जाती. नेकी हो जाती है. बरगद का पेड़ कुछ सोच कर किसी को
साया नहीं देता.
अनीता: आपके ख़्याल में अच्छी शायरी कैसी होती है?
फ़िराक़: अच्छी शायरी की सीधी सी परख है कि वो आपके दिल में उतर
जाये. शायरी में आसानी ही नहीं क़ुव्वत भी होनी चाहिए, नोक पलक भी चाहिए. मेरी शायरी में हुस्न के
तसव्वुर के इलावा किसी भी चीज़ की एहमीयत नहीं है. अलबत्ता मेरे यहां नए हुस्न के
मानी को अभी समझना होगा.
अनीता: आप ख़ुद ही कुछ बता दीजिए?
फ़िराक़: बड़ा अच्छा किया,
जो तुमने पूछ लिया, वर्ना ये बात अधूरी ही रह
जाती. हुस्न का मतलब शक्ल-ओ-सूरत और नाक नक़्शा नहीं. (एक-एक लफ़्ज़ पर ज़ोर देते
हुए) दिल के अंदर की ख़ूबसूरती जो चेहरे पर चढ़ कर बोले.
तब हुई ख़ूबसूरती. देखिए फ़िराक़ अपने आपको ना जाने क्या कुछ समझता है. पर अभी फ़िराक़
के सिरहाने कबीर आकर बैठ जाये, मालूम होगा कि फ़िराक़ बेकार,
धूल हो गया. मामूली सा.
अनीता:
आपने कबीर का ज़िक्र किया और वो भी इतनी इज़्ज़त के साथ, तो पूछने का मन करता है कि शायर पैदायशी
होता है या ख़ास हालात में बन जाता है?
फ़िराक़: इतना आसान जवाब नहीं है कि हाँ या नाँ में दिया जा सके.
कोई Born Poet या पैदायशी शायर होता है, ये मैं नहीं मानता. इस
में शेरियत के तुख़्म अलबत्ता होते हैं, जो तख़लीक़ी हालात में
खुल कर उसे शायर बना देते हैं. इस के बनने के लिए इज़ाफ़ी माद्दियत का होना ज़रूरी
नहीं. मैं ये मानता हूँ कि जब वो बचा हो, तो इस में थोड़ा
बहुत Aristocratic aloofness ज़रूर होता
है.
अनीता: किसी भी तख़लीक़कार की शख़्सियत साज़ी में माशूक़ के
किरदार पर अक्सर बहस होती है. आप क्या सोचते हैं, क्या तख़लीक़कार के बनने में माशूक़ का कोई
किरदार माना जाएगा?
फ़िराक़: क्यों नहीं माना जाएगा?
माना जाएगा, लेकिन एक हद तक. एक हद के बाद वो
बदल जाता है; शख़्सी जमाल से कायनाती जमाल में. एहसास-ए-जमाल
यानी इशक़ उस की गहिराईयों को एक शक्ल देता है, यहां तक कि
वो फ़र्द-ए-वाहिद से आगे बढ़कर कायनाती तसव्वुरात में बदल जाता है.
अनीता: बहुत से शाइरों की माशूकाओं के नाम आज भी एहतिराम से
लिए जाते हैं, मसलन कीट्स...
फ़िराक़: (बात काटते हुए) लेकिन वहीं कुछ ऐसे भी हैं, जिनकी माशूकाओं का कोई ज़िक्र नहीं है,
जैसे टेनीसन, गोल्डस्मिथ या अपने यहां कबीर.
उन्हें हौसला-अफ़ज़ाई कहाँ से मिली? उनके बारे में तो ऐसे
किसी हवाले का ज़िक्र नहीं मिलता. कीट्स, जिसे मुहब्बत का
शायर माना गया है, इस के अदब को ग़ौर से पढ़िए, पूरी शायरी में सिर्फ Beloved या माशूक़ा ही नहीं,
और भी बहुत कुछ है. दरअसल हौसला बड़ी मुश्किल शै है. किसी पर किसी
औरत की ख़ूबसूरत शख़्सियत ग़ालिब आ जाती है, तो किसी पर ख़ुद
शायरी. अगर माद्दियत से मुतास्सिर हो कर कोई शायर दर्जन भर इश्क़ करे, तो अदब में माशूक़ की मुशतर्का खूबियां ही ज़ाहिर होंगी. में एक वाक़े का
ज़िक्र करता हूँ, जिसका ताल्लुक़ सिर्फ मेरी ज़ात से है. हमारे
यहां शायरा विद्यावती कोकिल आया करती थीं, उनके साथ उनके
शौहर भी आते थे. उनके शौहर की आवाज़ मुझे बड़ी अच्छी लगती थी. उनके आवाज़ के हुस्न को
मैंने माशूक़ाना लहजे में बदल दिया. अपने इस शेअर में:
शाम के साए घुले हों जिस तरह आवाज़ में
ठंडकें जैसे खनकती हों गले के साज़ में
अनीता: इस का मतलब ये है कि प्यार की ताक़त-ए-पर आपका अक़ीदा
है?
फ़िराक़: इस से कौन इनकार कर सकता है, ये तो प्यार की ही ताक़त है कि दुनिया अपने
महवर पर टिकी हुई है. वर्ना तो नफ़रत खा गई होती उसे. आदमी बना ही इसलिए कि
प्यार करे. एक बात जान लीजिये, जो ख़ाली जान देकर किसी पर आशिक़
है, इस से कुछ भी नहीं हो सकेगा. आदमी में Varied Interest होना तो बड़ी बात है. Human Interest तो होना ही चाहिए.
अनीता: फ़िराक़ साहिब इसी बात के सयाक़ मैं आपसे हिम्मत करके एक
सवाल और पूछना चाहती हूँ. आपके बारे में इतनी क़िस्से मशहूर हैं कि लगता है आप
अपने जीते-जी एक लेजेन्ड बन गए हैं. इन
बातों को पस-ए-मंज़र में रखकर देखें तो आप कहें मुतलव्विन मिज़ाज शख़्सियत तो नहीं
हैं?
फ़िराक़: में अनबैलेंस्ड नहीं, अनहैप्पी हूँ, तभी तो
इतनी गालियां बकता हूँ. हैप्पी होता तो ज़ोर से बोलने को गुनाह
समझता. गाली बकना तो गँवारपन ... मेरा आदर्श तो रमेश की मणि (उनके क़रीबी जानने
वाले की आठ बरस की लड़की जो उस वक़्त भी उनके साथ थी) है यानी, Wisdom plus
innocence. (थोड़ी देर को फ़िराक़ आँगन में ख़रगोश से खेलती मुनया में
खो गए. फ़िराक़ साहिब का ये रूप बिलकुल नया और उन जाना था. बहुत देर तक मैंने उन्हें
इस हालत में ही रहने दिया. फिर वो गोया हुए) एक चीज़ को में बहुत पाक मानता हूँ. वो
है घर. इसी लिए घर को जैसे-तैसे बसाने की कोशिश की, लेकिन वो
मेरी ज़िंदगी का सबसे कड़वा और तकलीफ़दह हादिसा साबित हुआ.
अनीता:
क्या हिन्दी पूरी तौर पर क़ौमी ज़बान की जगह ले पाएगी?
फ़िराक़: (सर हिलाते हुए) मुश्किल मालूम पड़ता है. बात ये है कि
हिन्दी के ख़ैर-ख़्वाह ही हिन्दी को बदसूरत बनाकर पेश करते हैं. वो ज़बान भी कोई
ज़बान है जो बोली ना जाये? ज़बान तो वही है जो बोली जाती है.
अनीता:
यानी ज़बान में रवानी होनी चाहिए और मौज़ूनियत भी!
फ़िराक़ : जी नहीं, ख़ुदरवी (Spontaneity) होनी चाहिए. और वो भी मुंतख़ब करदा(Selective) हो.
अनीता: मैं आपका मतलब नहीं समझ पाई.
फ़िराक़ : मतलब ये कि सबसे पहले कुछ मिलते-जुलते हुरूफ़ को कम
करना होगा. जैसे खा, ढा, ड़ा . हाँ कुछ सुनने में अच्छे लगते हैं, उन्हें माफ़
करना होगा. मसलन भ. जैसे तुम भी. दूसरी बात ये कि ढा, टा,
ड़ा, इन तमाम हुरूफ़ को जो कान को बुरे लगते
हैं, काटना पड़ेगा. तीसरी बात संस्कृत के लफ़्ज़ों के
मुतरादिफ़ ग़ैर संस्कृत अलफ़ाज़ जो राइज हों , उन पर-ज़ोर देना
होगा. और फ़ारसी का जो लफ़्ज़ आपकी ज़बान में राइज हो, उसे
क़बूल करना होगा. तो बस ना कहिये, बल्कि ज़ोर कहिये. और फिर
आख़िर में, आपको जो ज़बान पसंद हो इस में बनावटीपन नहीं होना
चाहिए.
अनीता: लेकिन जब ख़्यालात में संजीदगी होगी, तो ज़बान थोड़ी मुश्किल होगी ही.
फ़िराक़: बिलकुल नहीं,
जब आप हर तरफ़ से हारने लगते हैं, तो कहना शुरू
करते हैं, फ़िक्र तो बुलंद है. ख़्यालात जितने सतही होंगे,
ज़बान उतनी ही मुश्किल होगी. We feel that we are greater
than we know, बताइए इस में कौन सा लफ़्ज़ ऐसा है, जो दर्जा सात का बच्चा नहीं समझता. मतलब पूछ लीजिये. या ये कि –
हर लिया है किसी ने सीता को
ज़िंदगी है कि राम का बनवास
इस में कौन सा लफ़्ज़ मुश्किल है बताइए तो? मुश्किल ज़बान वही इस्तमाल करता है, जो संग-ए-दिल होता है. वो बेईमान है, जो लफ़्ज़ों
में उलझाना चाहता है. ज़बान में ज़्यादा से ज़्यादा इन्सानी ज़िंदगी की तहज़ीबी
इक़दार होनी चाहिए. एक बात और जान लीजीए, बच्चा हमेशा ज़बान
माँ से सीखता है. जब औरतें फूहड़ होंगी, तो हम आप क्या
बोलेंगे? इसी पस-ए-मंज़र में आपको एक वाक़िया सुनाऊँ. मेरे एक
शनासा अस्पताल में भर्ती थे. पास के कमरे से एक बच्ची उनके पास आती थी. दो दिन वो
उनके पास नहीं आई. तीसरे दिन आई, तो इन्होंने पूछा - बेटी तुम दो दिन क्यों नहीं आईं? बच्ची ने जवाब दिया - माँ ने मना किया था. कहती थी - रोज़ रोज़ जाओगी
तो अजीरन हो जाएगा. अब आप समझे कि ये अजीरन लफ़्ज़ कहाँ से आया. निकला है; अजी रड़ यानी Chronic से. ऐसे नए लफ़्ज़ों को खुले
दिल से अपनी ज़बान में क़बूल करने से ही ज़बान बनती है .
अनीता: एक ज़बान जो अभी बन रही है, इस के लिए हमें कुछ वक़्त तक तो शऊरी कोशिश के
साथ लिखना ही पड़ेगा. तभी तो वो क़ायम हो पाएगी?
फ़िराक़: आप जान-बूझ कर टोपी को जूते की जगह तो नहीं पहन लेते.
स्कार्फ़ को कमर में तो नहीं बाँधते. भई बीमार की रात आख़िर रोगी की नशा क्यों
नहीं? जब बीमार की रात
अपने आप में बात मुकम्मल कर देता है और फिर ये हिन्दी ही तो है. बोल-चाल की हिन्दी.
कौन था आपसे जो बाहर था
आप आते तो आपका घर था
बताइए इस में से कौन सा लफ़्ज़ अरबी या फ़ारसी का है. अब
बेवजह ही आप हिन्दी के नाम पर ज़बान बिगाड़ के रुख दीजिएगा. क्या ये हिन्दी नहीं है?
अनीता: अच्छा ये बताएं,
आपको हिन्दी में कौन कौन से शायर अच्छे लगते हैं?
फ़िराक़ साहिब: बहुत छोटा था,
तब घर पर रामचरितमानस का सबक़ सुना करता था. तब ही से तुलसी दास बड़े
अच्छे लगते थे. आज भी लगते हैं. उनकी जैसी मूसीक़ीयत दुनिया के किसी शायर में नहीं.
कबीर भी अच्छे लगते हैं. नस्र में मुझे प्रेमचंद अच्छे लगे. उनकी तहरीरें आला
मयार की तो हैं ही, मगर एक बड़ी कमज़ोरी रही है उनकी तहरीरों
में. बता सकते हैं उनके नाविलों की कमज़ोरी क्या है? (थोड़ी
देर इंतिज़ार के बाद बोले) उनके नाविलों में मसाइल तो बड़े वाज़िह तौर पर ज़ाहिर होते
हैं, लेकिन उनका हल कहीं नहीं है. और प्रेम चंद की सतह के
मुसन्निफ़ से ये उम्मीद की जाती है कि मसाइल का हल या उस की एक झलक तो इस तख़लीक़
में देगा ही. ऐसे मौक़ों पर वो गांधीवाद का इस्तमाल ग़लत कर लेते थे. इस के इलावा
वो ज़ाती Good wish पर इतना ध्यान देते थे कि इजतिमाई बेदारी
की बात हो ही नहीं पाती थी. वैसे हल बता पाना सब के बस का भी नहीं. लेनिन जैसी
शख़्सियत कम ही होती हैं, जो कहे कि इस परेशानी का हल यूँ ही होगा,
और मज़े की बात ये है जब काम हो जाएगा तब उस के सबसे बड़े मुआविन ही
उस के दुश्मन बन जाऐंगे.
अनीता: प्रेमचंद से आपकी मुलाक़ातें हुईं. कोई बात, जो आपको याद हो?
फ़िराक़: मुझे याद है कि एक-बार एक नशिस्त में कुछ इश्क़ पर बात
चल रही थी. मैंने पलट कर प्रेम चंद से पूछा;
क्या तुमने कभी इश्क़ किया है? बोले; ऐसा कोई ख़ास तो नहीं, पर हाँ एक ज़माने में एक घास
छीलने वाली मुझे बहुत अच्छी लगती थी. मैंने पूछा; फिर बात
आगे बढ़ी? प्रेम चंद बोले; बस इतनी कि
जब उसे देखता, तो उस के कंधे पर हल्के से हाथ रखकर कहता कि
देखो घास यहां है, और यहां भी घास है, और
वहां भी घास है. वो हर बार देर तक घास छीलती रहती, और मुझे
एक अजीब सा सुख मिलता. (थोड़ी वक़फ़े के बाद) क्या ऐसा कोई प्रेमचंद हमें नहीं चाहिए,
जो कहे - देखो यहां भी घास है, और यहां भी. यही नहीं, दूसरी सतह पर क्या हम कभी
किसी से ऐसा कुछ कह पाने की तौफ़ीक़ रखते हैं? ये जज़बाती
ऊंचाई अपने अंदर पैदा कर सकेंगे?
[अपनी बात कह कर फ़िराक़ साहिब ख़यालों में गुम हो गए. पलंग के
पास लगे सोच से पंखा बंद किया,
सिगरेट जलाई. पंखा फिर चला दिया. दीवार से लगे ही बैठे रहे. वो
बिलकुल हल जुल नहीं सकते थे. ताज्जुब ये है कि बदन का निचला हिस्सा बे-जान होने के
बाद भी उन की आवाज़ में कितना दम था. अपना एक शेर: तुझे ए ज़िंदगी हम दूर से पहचान
लेते हैं गुनगुना रहे थे. निगाहें जैसे दूर कहीं सच-मुच ज़िंदगी को देख रही थीं.
मैं इजाज़त लिए बग़ैर ही चुपके से बाहर निकल आई, इस मकान को
सलाम किया जिसने फ़िराक़ जैसे बड़े शायर को सर छिपाने की जगह देने का मन्सब हासिल
किया, लेकिन इस शायर का घर बन पाने का फ़ख़र हासिल कर सका.]
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