Saturday, March 12, 2016

और मेरी ज़ात को सूखा हुआ जंगल कर दो

सैयद वसी शाह
सैयद वसी शाह की दो  ग़ज़लें –
1.
चूमने दार को किस धज से चला है कोई
आज किस नाज़ से मक़तल में क़ज़ा आती है
न कभी कोई करे मुझसे तेरे जैसा सुलूक
हाथ उठते ही यही लब पे दुआ आती है
तेरे ग़म को ये बरहना नहीं रहने देती
मेरी आँखों पे जो अश्कों की रिदा आती है
उस के चेहरे की तमाज़त भी है शामिल इस में
आज तपती हुई सावन की घटा आती है
घूमने जब भी तिरे शहर में जाती है वफ़ा
बीन करती हुई वापिस वो सदा आती है
है वही बात हर इक लब पे बहुत आम यहां
हमसे जो कहते हुए उनको हया आती है

2.
अपने एहसास से छू कर मुझे संदल कर दो
मैं कई सदियों से अधूरा हूँ मुकम्मल कर दो
ना तुम्हें होश रहे और ना मुझे होश रहे
इस क़दर टूट के चाहो, मुझे पागल कर दो
तुम हथेली को मेरे प्यार की मेहंदी से रंगो
अपनी आँखों में मरे नाम का काजल कर दो
उस के साये में मरे ख़ाब धक उठेंगे
मेरे चेहरे पे चमकता हुआ आँचल कर दो
धूप ही धूप हूँ मैं टूट के बरसो मुझ पर
इस क़दर बरसो मेरी रूह में जल-थल कर दो
जैसे सहराओं में हर शाम हवा चलती है
इस तरह मुझ में चलो और मुझे थल कर दो
तुम छुपा लो मेरा दिल ओट में अपने दिल की
और मुझे मेरी निगाहों से भी ओझल कर दो
मसला हूँ तो निगाहें न चुराओ मुझसे
अपनी चाहत से तवज्जो से मुझे हल कर दो
अपने ग़म से कहो हर वक्त मरे साथ रहे
एक एहसान करो उस को मुसलसल कर दो

मुझ पे छा जाओ किसी आग की सूरत जानाँ
और मेरी ज़ात को सूखा हुआ जंगल कर दो

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