मिर्ज़ा
यास यगाना चंगेज़ी के हालात
- मुहम्मद वारिस
यास यगाना चंगेज़ी (1883 पटना - 1956 लखनऊ) |
यगाना एक क़ादिर-उल-कलाम शायर थे लेकिन जब वो पिछली सदी के
अवाइल में अज़ीम आबाद से हिज्रत कर के लखनऊ आए तो लखनऊ वालों ने उन की बिलकुल ही
क़दर ना की. उस वक़्त लखनऊ वाले अपने बुरे से बुरे शायर को भी बाहर वाले अच्छे से
अच्छे शायर के मुक़ाबले में ज़्यादा एहमीयत देते थे और यगाना चूँकि बाहर वाले
थे सौ लखनऊ वालों को एक आँख ना भाए.
बाक़ौल मजनूं गोरखपोरी, लखनऊ के लोगों में इतना ज़र्फ़ कभी ना था कि किसी बाहर के बड़े से बड़े शायर
को लखनऊ के छोटे से छोटे शायर के मुक़ाबले में कोई बुलंद मुक़ाम दे सकीं. (ग़ज़लसरा,
नई दिल्ली 1964-ए-बहवाला चिराग़-ए-सुख़न अज़
यगाना, मजलिस-ए-तर्के-ए-अदब, लाहौर,
1996-ए-).
और यहीं से यगाना और लखनऊ के शोअरा के दरमयान एक ऐसी चशमक शुरू हो गई जो यगाना की मौत पर भी ख़त्म ना हुई, मज़ीद बरआं ये कि उस वक़्त लखनऊ के शोअरा ग़ालिब के रंग में रंगे हुए थे और अपने हर इस शायर को मस्नद-ए-इलम-ओ-फ़ज़ल पर बिठा देते थे जो ग़ालिब के रंग में कहता था चाहे जितना भी बुरा कहता था सौ यगाना की अपनी महरूमी के सबब ग़ालिब से भी दुश्मनी पैदा हो गई और आख़िरी उम्र तक ग़ालिब के कलाम में नुक़्स तलाश करते रहे और उन का इज़हार करते रहे.
लेकिन हमेशा की तरह, अदबी चशमकों में सिर्फ़ धूल ही नहीं उड़ती और काग़ज़ सामने रख कर एक दूसरे के
मुँह पर सिर्फ़ स्याही ही नहीं मली जाती बल्कि उन चशमकों से कुछ ऐसे नवादिर का भी
ज़हूर होता है जो शायद आम हालात में कभी मस्नद-ए-शहूद पर ना आते और इन्ही में यगाना
की इल्म-ए-उरूज़ पर लाज़वाल और अथार्टी का दर्जा हासिल करनेवाली किताब
चिराग़-ए-सुख़न है जो उन्हें मारकों की यादगार है जिस के सर-ए-वर्क़ पर मरहूम
ने लिखा था.
मज़ार-ए-यास पे करते हैं शुकर के सजदे
दाये ख़ैर तो क्या अहल-ए-लखनऊ करते
दाये ख़ैर तो क्या अहल-ए-लखनऊ करते
काग़ज़ों पर स्याही ख़ैर मली ही जाती है, लेकिन इस मज़लूम अलशारा के साथ एक ऐसा
वाक़िया भी हुआ कि किसी अहल-ए-क़लम के साथ ना हुआ होगा. उन्हों ने एक अख़बार में एक
मज़मून लिखा जिस में एक फ़िरक़े के ख़िलाफ़ कुछ तुंद-ओ-तेज़-ओ-मुतनाज़ा जुमले थे सो क़लम
की पादाश में धर लिए गए, जिस मुहल्ले में रहते थे वहां इसी
फ़िरक़े की अक्सरीयत थी, और चूँकि थे भी बे यार-ओ-मददगार,
सौ अहिल्या न-ए-मुहल्ला ने पकड़ लिया, मुँह पर
स्याही मली, जूतों का हार पहनाया, गधे
पर सवार किया और शहर में जलूस निकाल दिया.
मुदीर नुक़ूश, मुहम्मद तुफ़ैल ने यगाना से उन के आख़िरी
दिनों में मुलाक़ात की थी, इस मुलाक़ात की रूदाद उन्हों ने
अपनी किताब जनाब में यगाना पर ख़ाका लिखते हुई लिखी है, मज़कूरा
वाक़िया का ज़िक्र कुछ यूं आया है.
बैठे बैठे हँसने लगे और फिर मुझ से पूछा. आप ने मेरा जलूस देखा था?
कैसा जलूस?
अजी वही जिस में मुझे जूतों के हार पहनाए गए थे, मेरा मुँह भी काला किया
गया था और गधे पर सवार कर के मुझे शहर भर में घुमाया गया था.
अल्लाह का शुक्र है कि मैंने वो जलूस नहीं देखा.
वाह साहिब वा, आप ने तो ऐसे अल्लाह का
शुक्र अदा किया है जैसे कोई घटिया बात हो गई हो, सोचो तो सही कि आख़िर
करोड़ों आदमीयों में से सिर्फ़ मुझी को अपनी शायरी की वजह से इस एज़ाज़ का मुस्तहिक़
क्यों समझा गया? जब कि ये दर्जा ग़ालिब तक को नसीब ना हुआ, मीर तक को नसीब ना हवा
में चाहता था कि मीरज़ा साहिब इस तकलीफ़देह क़िस्सा को यहीं ख़त्म कर दें मगर वो मज़े
ले लेकर बयान कर रहे थे जैसे उन्हों ने कोई बहुत बड़ा कारनामा सरअंजाम दिया हो और
इस के बदले ये गिरां क़दर इनाम पाया हो.
ये वाक़िया बयान करने के बाद फ़ौरन दो ग़ज़ला के मूड में आ गए. जी हाँ जनाब, आप के लाहौर में भी गिरफ़्तार हुए थे.
वो क़िस्सा किया था.
जनाब क़िस्सा ये था कि मीरज़ा यगाना चंगेज़ी यहां से कराची का पासपोर्ट
ले के चले थे और लाहौर पहुंच कर अपने एक दोस्त के साथ पंजाब से निकल कर सरहद पहुंच
गए थे, वापसी
पर गिरफ़्तार कर लिया गया. (एक दम जमा से वाहिद के सीगे पर आ गए). इक्कीस रोज़ जेल
में बंद रहा, हथकड़ी लगा कर अदालत में लाया गया, पहली पेशी पर मजिस्ट्रेट
साहिब ने नाम पूछा. मैंने बढ़ी हुई दाढ़ी पर हाथ फेर कर बड़ी शान से बताया. यगाना.
साथ खड़े हुए एक वकील साहिब ने बड़ी हैरत से मुझ से सवाल किया. यगाना चंगेज़ी?.
जी हाँ जनाब.
ये सुनते ही मजिस्ट्रेट साहिब ने (ग़ालिबन आफ़ताब अहमद नाम बताया था)
मेरी रिहाई का हुक्म सादर फ़र्मा दिया.
जब रहा हो गया तो जाता किधर? और परेशान हो गया, मजिस्ट्रेट साहिब ने मेरी
परेशानी को पढ़ लिया, मैंने उन से अर्ज़ क्या, मेरे तमाम रुपय तो थाने वालों ने जमा कर लिए थे, अब मुझे दिलवा दीजीए. इस
पर मजिस्ट्रेट साहिब ने कहा, दरख़ास्त लिख दीजीए. मेरे पास फूटी कौड़ी ना थी, काग़ज़ कहाँ से लाता और
कैसे दरख़ास्त लिखता, इस पर बह कमाल-ए-शफ़क़त मजिस्ट्रेट साहिब ने मुझे एक आना दिया और मैंने
काग़ज़ ख़रीद कर दरख़ास्त लिखी जिस पर मुझे फ़ौरन रुपये मिल गए. आप लाहौर जाएं तो
आफ़ताब अहमद साहिब के पास जा कर मेरा सलाम ज़रूर अर्ज़ करें.
और हाँ आप भी लाहौर जा कर अब ये कहेंगे कि यगाना से मिले थे,
आप यगाना से कहाँ मिले हैं? यगाना को गोश्त
पोस्त के ढाँचे में देखना ग़लत है, यगाना को इस के शेअरों में
देखना होगा, यगाना को इस टूटी हुई चारपाई पर देखने की बजाय
इस मस्नद पर देखना होगा जिस पर वो आज से पच्चास बरस बाद बिठाया जाएगा.
यगाना की
मज़लूमियत यहीं ख़त्म नहीं होती, उन को
मौत के बाद भी ना बख्शा गया, उनका जनाज़ा पढ़ना हराम क़रार दे
दिया गया और कहा जाता है कि फ़क़त कुछ लोग ही उन के जनाज़े में शामिल थे.
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