महाश्वेता देवी (14 जनवरी 1926 - 28 जुलाई 2016) |
वैसा फटकारने वाला अब किसी को कहां मिलेगा
-शिवप्रसाद जोशी
2015 की छायाएं रेंगती हुई 2016 में चली आईं
और अब वे और ऊपर उठने लगी हैं. हत्याएं और हमले जारी हैं और इन्हीं समयों के बीच
वे आवाज़ें भी सदा के लिए हमें छोड़ जा रही हैं जिनकी बुलंदियों ने बर्बरता को उचक
कर हमारी गर्दन पर बैठने की जुर्रत करने से रोके रखा था. भारतीय जनमानस की एक ऐसी
ही बुलंदी थीं महाश्वेता देवी जिनकी आवाज़ ही अब वंचितों की लड़ाई का सबब है.
कहने को महाश्वेता देवी बांग्ला आदिवासी समुदायों के बीच ही सक्रिय
रहीं लेकिन वो सक्रियता इनकी सार्वभौम और उतनी प्रभावशाली थी कि वो आज़ाद भारत के
चुनिंदा सार्वजनिक बुद्धिजीवियों में एक और उनमें इस समय सबसे वरिष्ठ थीं. उनका
निधन सिर्फ़ साहित्य या संस्कृति का नुकसान नहीं है, उनकी
उम्र हो चली थी, वो नब्बे साल की थीं, काफ़ी
समय से बीमार थीं. उन्हें अवश्यंभाविता का पता था, बस नुकसान
ये हुआ है कि उनका जाना ऐसे समय में हुआ है जब चारों ओर विकरालताओं का बोलबाला है
और गरीबों, वंचितों को मारने सब दौड़े जा रहे हैं, उन्हें रोकने वाली माई नहीं होगी. ऐसी शख्सियत होना आसान नहीं. नुकसान ये
है कि लोग और अकेले हुए हैं. दबे कुचलों को खदेड़ने की कार्रवाई बेतहाशा हो जाएगी.
वैसा फटकारने वाला अब किसी को कहां मिलेगा जैसा बंगाल के पूर्व
सत्ताधारी वामपंथियों को महाश्वेता देवी के रूप में मिला. इस फटकार से उन्होंने
क्या ग्रहण किया ये एक अलग शोचनीय कथा है, लेकिन उन्हें
नींद से जगाने का प्रयत्न करते हुए सबसे पहले बाहर निकलने वालों में महाश्वेता भी
थीं. वो आगे थीं.
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