Saturday, December 10, 2016

अमेज़न! अमेज़न!! - 3


(पिछली क़िस्त से आगे)

जिस जगह हम पहुंचे हैं वहां का नाम उवा टुमा है. ये आदिवासी इंडियन भाषा का शब्द है. सरकार ने 2004 से इस इला क़े में वनरक्षण परियोजना शुरू की. इस परियोजना को ब्राज़ीली भाषा में बोल्सा फ़्लोरेस्ता कहते हैं. इससे जुड़े सुपरवाइज़र रुडनी संताना हमारी नाव में आ चुके हैं ताकि सरकार की योजना के बारे में कुछ जानकारी दे सकें. वो बताते हैं कि इस इला क़े में बीस अलग अलग समुदायों के 280 परिवार आबाद किए गए हैं. लेकिन ये एक जगह नहीं बल्कि अमेजन नदी के दोनों किनारों पर एक काफ़ी विस्तृत इलाके में बसे हुए हैं. लाइफ जैकेट बाँधकर सभी लोग दो छोटी छोटी नावों पर सवार होते हैं और ये नावें नदी की मुख्यधारा छोड़कर छोटी धाराओं की ओर मुड़ती हैं. हमारे दोनों तरफ़ कुछ झाडिय़ां सी हैं. पूछने पर पता चलता है कि ये झाडिय़ाँ नहीं बल्कि पानी में डूबे हुए ऊँचे पूरे पेड़ हैं. हमारे दोनों ओर उनकी फुनगिया दिख रही हैं. पानी की गहराई जानकर रूह काँप उठती है हालाँकि लाइफ़ जैकेट देखकर कुछ राहत मिलती है.

पंद्रह बीस मिनट के बाद नदी किनारे जंगल के बीच सिर्फ़ एक घर नज़र आता है. बियाबान में ठहरा हुआ सा अकेला घर. आसपास कहीं बस्ती का दूर दूर तक कोई नाम निशान नहीं. यही हमारी मंज़िल है. नाव किनारे लगाकर लकड़ी और छप्पर के बने इस घर तक पहुँचने के लिए हम ऊपर चढ़ते हैं. घर में पति पत्नी और उनके चार बच्चे रहते हैं. शहरों में रहने के आदी पत्रकारों के लिए अजूबा है कि आख़िर कोई इस वियाबान में अपनी इच्छा से क्यों रहना चाहेगा? वो पूछते हैं - डर नहीं लगता? बच्चे जंगल में खो तो नहीं जाते? नीचे नदी है, बच्चों के डूबने का डर नहीं होता? इतनी गर्मी और उमस में यहाँ मच्छर नहीं काटते? क्या आपने कभी शहर में बसने के बारे में सोचा ही नहीं? जंगली जानवरों से डर नहीं लगता?

इन सभी सवालों को घर के मालिक ओज़ीमार ब्रूनो वियेरा शांति से सुनते हैं और फिर जवाब देते हैं, ''जंगल में नहीं शहरों में रहने वाले आदमियों से डर लगता है. वो  ज़्यादा ख़तरनाक होते हैं. बच्चों को मालूम है कि जंगल में कहाँ तक जाना सुरक्षित है. सभी बच्चों को अच्छी तरह तैरना आता है इसलिए नदी से भी कोई डर नहीं. सरकार ने जंगल उपज का इस्तेमाल करने की अनुमति दी है और हम जहाँ तक चाहें वहाँ तक जंगल में जा सकते हैं.''

पर्यावरण की चिंता ब्रूनो के लिए कुछ ख़ास मायने नहीं रखती. वो कहते हैं कि मैं एक लकड़हारे के परिवार में पैदा हुआ और बचपन से मैंने लकड़ी काटना ही सीखा है. पर अब सरकार कहती है कि जंगल मत काटो.  क़ानून बना दिए हैं. उन्हें इस बात का बहुत पता नहीं है कि ऐसे  क़ानून क्यों बनाए गए हैं लेकिन अब वो इन  क़ानूनों का पालन करते हैं क्योंकि उन्हें और उनके परिवार को इसी जगह पर रहना पसंद है.

जंगल बचाने के लिए किया जा रहा ये प्रयोग क्या सफल होगा? जहाँ बड़े बड़े जंगल माफ़िया भारी आरा मशीनों से जंगल के अंदर तबाही मचाते हों, जहाँ जंगल के अंदर पेड़ काटकर उनके तख़्ते चीरकर गोदाम भरे जाते हों, जहाँ सरकारी छापा पडऩे पर असली लकड़ी व्यापारी कभी हाथ न आता हो बल्कि छोटा मज़दूर सब काम करता हुआ पकड़ा जाए, वहां ऐसे प्रयोग कितने कारगर हो सकते हैं? ये सवाल बहुत सारे लोग उठाते हैं. इस प्रयोग को निरर्थक बताने वाले भी कई हैं.
दोपहर ढलने से पहले हमें ऐसी ही एक और बस्ती सेंटा लूसिया पहुंचना हैं. अभी तो आसमान साफ़ है, धूप है और उमस है मगर पता नहीं अमेज़न के मौसम का मिज़ाज कब बदल जाए. हमारी नावें एक बार फिर से महानद की ओर लौट रही हैं. 

वियतनामी सर्विस के पिंग कैमरे की तस्वीरें अपने लैपटॉप पर डाउनलोड कर रहे हैं और स्पानी सर्विस की विलेरिया अपने वीडियो फ़ुटेज को लैपटॉप पर एडिट कर रही हैं. सेंटा लूसिया पहुँचते पहुँचते धूप की तुर्शी थोड़ा और बढ़ गई है. मोटरबोट किनारे लगा दी गई है और हम सभी लोग नदी किनारे बनाए गए दस-बारह घरों की इस बस्ती में दाख़िल होते हैं.


एक बड़े से शेड के नीचे दो बड़ी बड़ी भट्टियों पर कड़ाह चढ़े हुए हैं जिनमें कई आदमी और औरतें मिलकर बेसन की तरह का कोई पिसावन भून रहे हैं. नये मनयोका कहा जाता है और ये अमेज़न में मिलने वाली शकरकंदी जैसी एक जड़ को पीसकर बनाया जाता है. आदमी थक जाते हैं और औरतें और लड़कियाँ बड़ी बड़ी लकडिय़ाँ थाम लेती हैं और मनयोका को उलटने पलटने लगती हैं. तभी एक लड़का बहुत ही सुर में एक उदास गीत गाने लगता है. मुझे बाद में इसका अर्थ बताया गया: 

            आज मैं अपनी नाव
            समुद्र में ले जा रहा हूँ
            पतवार चलाते हुए....
            मैं हरे क्षितिज में
            सूरज की रोशनी को देखना चाहता हूँ.
            मैं एक टापू पर नाव रोकूँगा और चट्टानों से कूदूँगा...
            वहाँ जहाँ मेरा दूसरा मन रहता है.

देखते ही देखते अमेज़न के आसमान पर फिर बादल घिरने लगे हैं. गहरे सलेटी रंग के उमड़ते घुमड़ते बादल, जिनके पीछे से आसमान रहस्यमय ढंग से आलोकित हो रहता है. ठीक वैसे ही जैसे आषाढ़ की पहली फुहार पडऩे से पहले भारत का आकाश आलोडि़त और बेचैन होने लगता है और रह रहकर घनगर्जना सुनाई पडऩे लगती है. पहले कुछ हिचक सी दिखाते हुए और फिर अचानक एक तीखी कड़क के साथ बादलों से पीछा छुड़ाकर बारिश की मोटी मोटी बूँदें प्यासी धरती की ओर दौड़ पड़ती हैं. बारिश की बूँदें पडऩी शुरू ही हुई हैं कि लोग - छोटे बच्चे, नौजवान और यहाँ तक कि पकी उम्र के लोग भी - चटख रंगों की टी-शर्ट, निक्कर पहने फ़ुटबॉल के मैदान में पहुँच गए हैं. ऐसा लगता है कि ब्राज़ील के लोग ऑक्सीजन के बिना रह सकते हैं लेकिन फुटबॉल के बिना नहीं. अमेज़न के घने जंगलों के बीच नदी किनारे बसी सैंटा लूसिया नाम की इस छोटी सी बस्ती में पहुँचकर मुझे झारखंड के गाँवों की याद क्यों आई थी?

(जारी)

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