(पिछली क़िस्त से आगे)
राँची
से कुछ ही किलोमीटर दूर मॉनसून से धुले हरे हरे जंगलों के बीच बसे आदिवासी गाँवों
में जगह जगह पर फ़ुटबॉल मैच होते नज़र आते हैं. लेकिन फुटबॉल खेल रहे नौजवानों से
कुछ ही देर बात करने पर पता चला है कि उनके भीतर अपने संसाधनों की लूट को लेकर
कितना ग़ुस्सा दबा हुआ है. ठीक वैसा ही जैसे बारिश की बूँदों में भीगते हुए फ़ुटबॉल
के पीछे भागते अमेज़न के लोगों के भीतर. झारखंड के लोग शिकायत कर रहे हैं कि दुनिया
के सबसे अमीर उद्योगपति लक्ष्मी मित्तल की मित्तल-आर्सेलर कंपनी उन्हें उनकी ज़मीन
से बेदख़ल करना चाहती है. क्योंकि उनकी धरती के भीतर अथाह खनिज संपदा दबी हुई है.
अमेज़न के लोग कारगिल जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं क्योंकि ये
कंपनियाँ उनके जीवन के आधार को ही ध्वस्त किए दे रही हैं. हम सेंटा लूसिया के
प्राइमरी स्कूल के बाहर खड़े हैं. मेरे सामने अमेज़न का विस्तार है और उसके पार से
दौड़ती आ रही हैं - पागल,
मदहोश हवाएँ. पूरे परिदृश्य को एक सलेटी चादर बहुत तेज़ी से ढँकती आ
रही है. हरे, मटियाले, नीले और आसमानी
सभी रंग धूसर पड़ रहे हैं और गहरे सलेटी रंग का झीना परदा उन पर पड़ गया है. छोटे
छोटे स्कूल के बच्चे तेज़ हवाओं से विपरीत दिशा में बढ़ते हुए चिल्लाते हैं और उनका
उनमुक्त शोर दूर दूर तक गूँज उठता है. मेरे एक हाथ में रिकॉर्डर है लेकिन मैं
अचानक सब कुछ भूलकर ख़ुद अपने भीतर की पूरी ऊर्जा जैसे फेफड़ों से बाहर ले आता हूँ.
अब बच्चों की आवाज़ों में मेरी गूँज भी शामिल है. अमेज़न की हवाओं के तिलस्मी शोर के
सामने हमारी आवाज़ों के पाँव उखड़ उखड़ पड़ते हैं. बहुत देर से मुझे ख़याल आता है कि
ये तमाशा देखने बीबीसी की पूरी टीम आसपास जमा हो गई है.
और
फिर बिना चेतावनी दिए लाखों करोड़ों पानी की बूँदें हमारी ओर दौड़ी आती हैं. सभी
लोग भागकर प्रायमरी स्कूल की इमारत के अंदर पहुंचते हैं. टिन की छत पर बारिश
बेतहाशा सिर पटक रही है. एक दूसरे से बात करने के लिए हम लोग लगभग चिल्ला रहे हैं.
पता नहीं कितनी देर तक उहापोह और उत्साह का मिलाजुला भाव हमें घेरे रहता है. अचानक
लगा कि सभी थक गए हैं. सब कुछ शांत हो चला है. लेकिन ये मौसम का ठहराव है. बारिश
बंद हो चुकी है और अमेज़न के वर्षा वनों के ऊपर बादल छँट गए हैं. फिर से सूरज चमकने
लगा है और फिर से उमस हमें कसमसाए दे रही है.
घूप, छाँव
और बारिश का ये चक्र यहाँ लगातार चलता रहता है और इसी मौसम चक्र के कारण हज़ारों
तरह के जीव-जंतुओं के जीवन चक्र चलते हैं. कहा जाता है कि अमेज़न के जंगलों की एक
झाड़ी में जितनी क़िस्म की चींटियां मिलती हैं, उतनी पूरे
ब्रिटेन में भी नहीं मिलेंगी. जितनी जैव विविधता इन जंगलों में पाई जाती है उतनी
पूरी दुनिया में कहीं नहीं है. यहां 17 हज़ार क़िस्मों की चिडिय़ाँ मिलती हैं,
पांच से सात सौ क़िस्मों के साँप और पशु पाए जाते हैं. पेड़ पौधों की
ही पचास हज़ार से ज़्यादा क़िस्में इन जंगलों
में मौजूद हैं. वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि सिर्फ़ एक वर्ग हैक्टेअर जंगल में
480 से ज़्यादा तरह के पेड़ यहाँ मौजूद हैं.
प्रकृति की इस अकूत दौलत के आधार यानी पेड़ पर जब आरे चलते हैं तो सिर्फ़ पेड़ ही
नहीं कटता बल्कि इस जीवन चक्र पर कुठाराघात होता है. बारिश-धूप-बारिश का चक्र
टूटता है. ये जंगल शिव की तरह अपनी जटाओं में कार्बन डाई ऑक्साइड को उलझाए हुए
रहते हैं. जंगल कटेंगे तो ये कार्बन हवा में घुलेगा, जीवन और
दूभर होगा. कार्बन के वातावरण में घुलने का अर्थ है मौसम का असंतुलन बढऩा, धरती का तापमान बढऩा. दिसंबर के महीने में ही अगर उत्तराखंड के पहाड़ों के
पेड़ पौधों के अंखुए फूटने लगे हैं तो इसका सीधा संबंध अमेज़न के जंगलों से हैं.
पिछले
सप्ताह दो दशकों से वैज्ञानिक इन जंगलों और वातावरण के बीच के संबंध का अध्ययन
करने में लगे हुए हैं. मनाऊस शहर से 84 किलोमीटर दूर घने जंगलों के अंदर 54 मीटर
ऊँचे एक टॉवर में मशीनें लगाकर इस संबंध का अध्ययन किया जाता है. और वैज्ञानिक अब
उस प्रक्रिया को समझ चुके हैं जिसके ज़रिए अमेज़न के जंगल बारिश होने में मदद करते
हैं. इसी टावर पर नेशनल इंस्टीट्यूट फ़ॉर अमेज़न रिसर्च की ओर से वातावरण पर अमेज़न
के जंगलों के प्रभाव का अध्ययन कर रहे वैज्ञानिक फ़्लावियो लुइज़ाउँ से हुई मुला क़ात
कई मायनों में आँखें खोलने वाली थी. फ़्लावियो लुइज़ाउँ ही नहीं संतारेन की यात्रा
और फिर मनाऊस लौटने पर तमाम लोग हमें मिले जिन्होंने बताया कि अमेज़न को बचाने की
लड़ाई दरअसल आसान और भ्रष्ट तरी क़े से
ज़्यादा से ज़्यादा पैसा कमाने की
होड़ के ख़िलाफ़ लड़ाई है. ये जलवायु परिवर्तन की लड़ाई नहीं बल्कि जंगलों पर निर्भर
आदमी और जानवरों को बेदख़ल करने की साज़िश का प्रतिकार है. इसे कोई एक समुदाय या एक
संगठन नहीं लड़ रहा है बल्कि मीडिया, पुलिस न्यायालय और सरकारों की
नज़रों से दूर जंगल के वह दावेदार लड़ रहे हैं, जिनकी ज़मीनें
आज भी बंदूक के ज़ोर पर छीनी जा रही है और उनका
क़त्ल किया जा रहा है.
अमेज़ोनिया
के पड़ोस वाले पारा राज्य में ये संघर्ष सबसे मुखर रूप में सामने आया है. हमारी
मोटरबोट अब इसी पारा राज्य के संतारेन शहर की ओर बढ़ रही है. ये अमेज़न और तापाजोस
नदियों के संगम पर सोयाबीन सप्लाई करने के लिए बनाया गया दानवाकार पोर्ट नज़र आता
है. अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनी कारगिल ने 2003 में इस पोर्ट का निर्माण कार्य पूरा
किया. इसके ज़रिए हर साल लाखों टन सोयाबीन जहाज़ों
में लादकर बाहरी मुल्कों में बेचा जाता है. ग्रीनपीस और कुछ स्थानीय
संगठनों का कहना है कि इस पोर्ट के बनने के बाद पूरे इलाके में सोयाबीन की पैदावार
में ज़बरदस्त उछाल आया. मुनाफ़ा देखकर बड़ी कंपनियों ने ख़तरनाक पैमाने पर वर्षा वनों
का विनाश शुरू किया और साफ़ की गई ज़मीन पर पहले मांस के लिए जानवर पाले गए और फिर
इस ज़मीन को सोया फ़ार्मों में बदल दिया गया.
कारगिल में तापाजोस नदी के किनारे कई कई फ़ुटबॉल मैदानों के बराबर बड़े बड़े
वेयरहाउसेज़ बनाए हैं और इन वेयरहाउसेज़ से दिन रात चलने वाली चलनपट्टी के ज़रिए
सोयाबीन चार-पांच सौ मीटर दूर नदी में खड़े जहाज़ों के टैंकरों तक पहुँचाा जाता है.
पूरा काम कंप्यूटर के ज़रिए होता है और ख़ुद कारगिल कंपनी के एक प्रवक्ता ने बताया
कि इतने बड़े प्रोजेक्ट में सिर्फ़ 78 स्थानीय लोगों को रोज़गार मिल पाया है. जबकि
पहले कारगिल ने बड़े पैमाने पर स्थानीय लोगों को रोज़गार देने का वायदा किया था.
संतारेन
पहुँचने के अगले दिन हमें फ़ादर एलबेर्तो सेना से मुला क़ात करने जाना था. फ़ादर सेना
कैथलिक पादरी हैं और दूसरे पादरियों की तरह वो सिर्फ धर्म और आध्यात्म को ही अपनी
जिम्मेदारी नहीं मानते. पहली मंज़िल के उनके छोटे से दफ़्तर में मेरी नज़र सबसे पहले
उनकी मेज़ पर रखी महात्मा गांधी की पीतल की मूर्ति पर पड़ी. छोटे कद और मुस्कुराते
हुए चेहरे वाले फ़ादर सेना आम लोगों की तरह पैंट
क़मीज़ ही पहनते हैं,
हालांकि मैं किसी लंबे चोग़ाधारी ईसाई पादरी से मिलने की कल्पना किए
हुए था. उनके पहुंचने पर मैंने पहला सवाल यही किया - भारत से हज़ारों मील दूर यहाँ
अमेज़न के इस शहर में गाँधी की मूर्ति कैसे? फ़ादर सेना ने कहा,
''मेरे तीन हीरो हैं - ईसा मसीह, चे ग्वेवारा
और महात्मा गाँधी.''
फ़ादर सेना ने इस तंत्र को बहुत आसान शब्दों में समझाया. उन्होंने बताया कि सबसे पहले टिम्बर कंपनियाँ जंगलों में घुसती हैं और महोगनी जैसे बेश क़ीमती पेड़ों को ग़ैर क़ानूनी तौर पर काटकर इमारती लकडिय़ों का व्यापार करती है. साफ़ की गई हज़ारों हेक्टेअर ज़मीन पर फिर पशु पाले जाते हैं, जिनके माँस का निर्यात पूरी दुनिया में किया जाता है. जब ये ज़मीन उनके काम की भी नहीं रहती तब इसमें सोयाबीन उगाया जाता है.
(जारी)
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