इब्ने
सफ़ी (26.07.1928 - 26.07.1980) पर कबाड़खाने में एक परिचयनुमा लेख हिन्दी ब्लॉगिंग के
शुरुआती महीनों में वीरेन डंगवाल के आग्रह पर लगाया गया था. जासूसी लेखन के बेताज
बादशाह पर जिस उस्तादी से जनाब राजकुमार केसवानी ने लिखा है, उसके बारे में जितना
कहा जाय उतना कम. प्रस्तुत लेख 'पहल' से साभार लिया गया है)
इब्ने सफ़ी
- राजकुमार केसवानी
इस
एक नाम - इब्ने सफ़ी - के साथ ही न जाने कितने भूले-बिसरे ज़मानों की याद आती है. न
जाने कितने नर्मो-नाज़ुक हवा के झोंकों में घुली यादों के दरीचे खुल जाते हैं, और न जाने कहां खोए हुए लडक़पन और जवानी के बेसुराग़ रास्तों पर उजाले ही
उजाले हो जाते हैं.
1947
में देश की आज़ादी और उसी के साथ बंटवारे के बाद के अंधेरों-उजालों से जूझते इंसानो
के लिए हिंदी-उर्दू अदब में एक तरफ़ देश और समाज के हक़ीक़ी हालात की मुस्सविराना
तस्वीरें पेश की जा रही थीं, तो दूसरी तरफ़ इब्ने सफ़ी
जैसा लेखक थके-मांदे ज़हनों के लिए हल्की-फ़ुल्की लेकिन बामक़सद कहानियां लिखकर
प्रसिद्धि के शिखर पर जा बैठे थे.
इब्ने
सफ़ी के बारे में सबसे दिलचस्प बात यह है कि उन्होने अपनी साहित्यिक यात्रा की
शुरूआत रूमानी लेकिन संजीदा किस्म की कहानियों से की. तबीयत की मस्ती ने करवट ली
तो शाइराना रंग भी नमूदार हो गया. उनके कलाम को अदबी हलकों में बड़ी गंभीरता से
सुना और सराहा गया. बाद को ‘कुछ और’ की बेचैनी हुई तो हास्य-व्यंग लिखने लगे.
उनकी
शाइरी का ज़िक्र करते ही यक-ब-यक तीन चीज़ें एक साथ याद आती हैं : एक है वह नज़्म जो
उन्होंने अंदाज़न 16-17 बरस की उम्र में लिखी होगी. इस नज़्म से उनकी शाइराना
सलाहियत और मुल्क से मुहब्बत के साथ ही साथ इंसानी हुक़ूक़ के लिए लडऩे का एक अख़लाक़ी
जज़्बा बख़ूबी ज़ाहिर होता है.
अब छोड़ दो मेरा दामन, लिलाह न रोको जाने दो
वह देखो उफक़ के सीने पर लहराए शहीदों
के दामन
बन जाएगा लाला-ज़ार वतन कुछ देर शुहदा
का मदफ़न
गर राहे वफ़ा में काम आऊं, सेंदूरी मांग भरे रहना
बिंदी न मिटाना माथे की, तुम मेरी राह तका करना
मैं ख़्वाब में अक्सर आऊंगा, सीने में आस रखे रहना
अब छोड़ भी दो मेरा दामन, लिलाह न रोको जाने दो !
दूसरी
चीज़ ऐसी है जिसे मशहूरे-ज़माना वाले ख़ाने में रखा जा सकता है. इस ग़ज़ल को सुना बहुत
लोगों ने है, लेकिन इब्ने सफ़ी के साथ जोडक़र नहीं देखा.
और यह ठीक भी है. क्योंकि बतौर शाइर वो असरार नारवी थे. इस ग़ज़ल को हबीब वली
मुहम्मद ने गाया है.
राह-ए-तलब में कौन किसी का अपने भी
बेगाने हैं
चांद से मुखड़े रश्क-ए-ग़ज़ालां सब जाने
पहचाने हैं
तन्हाई सी तन्हाई है कैसे कहें कैसे
समझाएं
चश्म-ओ-लब-ओ-रुख़्सार की तह में रूहों
के वीराने हैं
उफ़ ये तलाश-ए-हुस्न-ओ-हक़ीक़त किस जा
ठहरें, जाएं कहां
सेहन-ए-चमन में फूल खिले हैं सहरा में
दीवाने हैं
बिल-आख़िर थक हार के यारों हमने भी
तस्लीम किया
अपनी ज़ात से इश्क़ है सच्चा बाकी सब
अफ़साने हैं
और
एक शेर जो उस अनदेखे-अंजाने, इंसानी जज़्बात से भरे एक
हसास इब्ने सफ़ी के दीदार कराता है, जिसे बहुत कम जाना-पहचाना
जा सका. यह एक शेर है जो उन्होने 1948 में महात्मा गांधी की क्रूर हत्या से विचलित
होकर लिखा है. इस शेर को पढ़ते हुए इब्ने सफ़ी का वह ग़मज़दा चेहरा भी साथ ही दिखाई
देता है जो बीस बरस की उस उम्र में समाजी हालात की फ़िक्र में डूबा है.
लौ-एं उदास, चराग़ों पे सोग़ तारी है
आज की रात इंसानियत पे भारी है
यही
वह वक़्त था और यही वह हालात थे, जिसमें दोस्तों की सलाह
से उन्होने गंभीर लेखन की बजाए हास्य-व्यंग को अपनी बात कहने का ज़रिया बनाया. इसी
1948 में इलाहाबाद से इब्ने सफ़ी के दोस्तों अब्बास हुसैनी और शकील जमाली के साथ एक
अदबी रिसाला, माहनामा ‘निकहत’ शुरू किया था. इब्ने सफ़ी इस रिसाले के एडीटर भी थे. शुरू में यहां उनकी एक
कहानी प्रकाशित हुई ‘फ़रार’ लेकिन
साथियों ने उनमें हास्य-व्यंग के बहते धारों को कलमी शक्ल देने पर ज़ोर डाला तो
उन्होने ‘तग़रुल फ़ुरग़ान’ और कभी ‘सनकी सोल्जर’ के छद्म नामों से तंज़-ओ-मज़ाह और
पेरोडीज़ भी लिखीं. इन तमाम कोशिशों को पाठकों ने ख़ूब सराहा लेकिन आगे एक और मोड़
था. और इस मोड़ के बाद असरार अहम नारवी को हमेशा-हमेशा के लिए इब्ने सफ़ी हो जाना
था.
‘निकहत’ के साथ काम करते हुए ही सन 1952 में इब्ने
सफ़ी ने समाज के एक बड़े तबके तक पहुंचने के लिए रिवायती अदबी रास्तों से एकदम अलग
और एकदम नई राह ईजाद की - जासूसी कहानियों की राह. इस साल पहली बार उनका लिखा पहला
जासूसी नाविल ‘दिलेर मुजरिम’ इसी ‘निकहत’ में प्रकाशित हुआ, जिसकी
मक़बूलियत को देखते हुए बाद में किताब की शक्ल में छापा गया. यहां काबिले-ज़िक्र बात
यह भी है कि जिस वक़्त उन्होने जासूसी दुनिया वाला सिलसिला शुरू किया था उस वक़्त वह
डी.ए.वी. स्कूल, इलाहाबाद में (1949 से 1952) टीचर भी थे.
इस
फ़ैसले पर पहुंचने के पीछे सबसे बड़ी और मज़बूत वजह यह थी 1947 में आज़ादी के बाद से
समाज में लगातार बढ़ती और बेकाबू होती आपराधिक प्रवृतियां. हर सोचने-समझने वाले इंसान की पेशानी पर इसको
लेकर चिंता की रेखाएं खिंच रही थीं. इब्ने सफ़ी भी इन्हीं लोगों में शामिल थे.
‘‘मैं सोचता...सोचता रहा. आख़िरकार इस नतीजे पर पहुंचा कि आदमी में जब तक
क़ानून के एहतराम का सलीक़ा नहीं पैदा होगा यही सब कुछ होता रहेगा. ये मेरा मिशन है
कि आदमी क़ानून का एहतराम करना सीखे. जासूसी नाविल की राह मैने इसीलिए मुंतिखब की थी.
थके-हारे ज़हनों के लिए तफ़रीह भी मुहैया कराता हूं और उन्हें क़ानून का एहतराम करना
भी सिखाता हूं. फ़रीदी मेरा आईडियल है जो ख़ुद भी क़ानून का एहतराम करता है दूसरों से
क़ानून का एहतराम कराने के लिए अपनी ज़िंदगी तक दांव पर लगा देता है.’’
इब्ने
सफ़ी से पहले हिंदुस्तान में जासूसी उपन्यास की कोई स्थापित परंपरा मौजूद नहीं थी.
उनसे पहले कुछ कोशिशें ज़रूर हुईं है लेकिन वो कोशिशें या तो बेनतीजा सबित हुईं या
फिर अंग्रेज़ी उपन्यासों के सीधे-सीधे अनुवाद से आगे नहीं निकल पाईं. 19वीं शताब्दी
के आख़िर में ‘‘उमराव जान अदा’’ जैसे
उपन्यास के लेखक मिर्ज़ा हादी ‘रुस्वा’ ने
भी मेरी कोरीली के अंग्रेज़ी उपन्यास ‘‘Wormwood: A Drama of Paris’’ को ‘ख़ूनी आशिक़’ के नाम से
अनुवाद लिया था. लेकिन यह कोशिश कुछ रंग न ला सकी.
20वीं
सदी वाले दौर में इस तरह के और भी कई नाम सामने आए, लेकिन
इन सब नामों के बीच एक ही नाम ऐसा था, जिसने जासूसी कहानियों
की विधा को ख़ासी इज़्ज़त और शोहरत दिलाई. यह
नाम था उस दौर के बेहद मक़बूल लेखक-अनुवादक तीर्थराम फ़िरोज़पुरी. लाहौर के इस
बाशिंदे ने भले ही मौलिक जासूसी कहानियां न लिखी हों, लेकिन
अंग्रेज़ी के अनेक प्रसिद्ध जासूसी उपन्यासों का उर्दू में जमकर अनुवाद किया और
अपने लिए ज़बरदस्त प्रसिद्धि और अपने प्रकाशक के लिए भरपूर दौलत पैदा की. तीर्थराम
फ़िरोज़पुरी के आगे की कड़ी के तौर पर ही इब्ने सफ़ी ने जासूसी कहानियों की दुनिया
में कदम रखा और देखते ही देखते ताज़ा-ताज़ा अलग हुए दो मुल्कों हिंदुस्तान और
पाकिस्तान के लोगों को एक ही धागे से बांधकर अपनी कलम की जादुई गिरिफ्त में ले
लिया. इस शुरूआत के 64 बरस बाद भी आज तक न सिर्फ इब्ने सफ़ी का नाम बल्कि उनका काम
भी ज़िंदा है.
इब्ने
सफ़ी का जन्म हुआ 26 जुलाई 1928 को उत्तर प्रदेश के ज़िला इलाहाबाद के एक गांव नारा
में. मां का नाम नुज़ैरा बीबी और बाप का नाम सफ़ीउल्लाह. उनके पुरखों में कायस्थ कुल
के राजा बशेशर दयाल सिंह का नाम आता है जो बाद के सालों में इस्लाम धर्म को अपनाकर
बाबा अब्दुन नबी कहलाए.
पैदाइश
के वक़्त नाम रखा गया असरार अहमद. नारा की पैदाइश से वह नारवी भी हो गए. शुरूआती
स्कूली तालीम गांव में ही हुई और बाद को डी.ए.वी. स्कूल इलाहाबाद में पहुंचकर
मेट्रिक पास किया. और आख़िर में आगरा यूनीवर्सिटी से वह डिग्री हासिल की, जिसे उन्होंने उम्र भर अपने नाम और अपनी पहचान का हिस्सा बनाए रखा - ‘बी.ए.’
इब्ने
सफ़ी की तमाम ज़िंदगी उनके जासूसी उपन्यासों की ही तरह, अजब किस्म के योग-संयोग, रहस्य-रोमांच, विचित्र-निराली और कहीं-कहीं अविश्वसनीय सी घटनाओं से भरी हुई है. सबसे
पहली अनूठी बात उनकी पहली कहानी से जुड़ी है. यह कहानी उस वक़्त प्रकाशित हुई,
जब वो सातवीं कक्षा के छात्र थे. वह भी बम्बई के एक प्रतिष्ठित
उर्दू साप्ताहिक ‘शाहिद’ में जिसके
संपादक थे प्रसिद्ध लेखक आदिल रशीद.
इस
कहानी के छपने और उसके बाद के नतीजों को लेकर इब्ने सफ़ी ने ख़ुद अपने अल्फ़ाज़ में इस
दिलचस्प अंदाज़ में बयान किया है.
‘‘फिर एक दिन मैने भी एक कहानी लिख डाली. ये उस वक़्त की बात है जब मैं
सातवीं जमात में था. ये अफ़साना मैने हफ़्ता रोज़ा ‘शाहिद’
बम्बई में छपने के लिए भेज दिया. जनाब आदिल रशीद इस जरीदे के एडीटर
थे. उन्होने मुझे कोई मुअमर (बड़ा) आदमी समझकर कुछ इस तरह मेरा नाम कहानी के साथ
शाया किया था -
‘नतीजा-ए-फिक्र, मुसव्विर-ए-जज़्बात हज़रत असरार नारवी.’
कहानी
छपते ही मेरी शामत आ गई. घर के बड़ों ने कुछ इस अंदाज़ में मुख़ातिब करना शुरू कर
दिया -
‘अबे ओ मुसव्विर-ए-जज़्बात ! ज़रा एक गिलास पानी लाना.’
वक़्ता-फ़-वक़्ता
‘शाहिद’ वीकली में मेरी कहानियां छपती रहीं. ज़्यादातर
रूमानी कहानियां होतीं. मेट्रिक तक पहुंचते-पहुंचते शायरी का चस्का लग गया. ’’
(इस कहानी का शीर्षक था - ‘‘नाकाम आरज़ू.’’)
इस
कम उम्री में लिखने के ऐसे बेकाबू जज़्बात की पृष्ठभूमि में था घर में ही मौजूद
बेशकीमती किताबों का वह ज़ख़ीरा जो उनके वालिद साहब का बड़ा सरमाया था.
‘‘वह एक भरा पूरा कस्बा था जहां मैने आंखें खोलीं थीं. ख़ुशहाल ज़मींदारों की
बस्ती थी. हर तरफ़ फ़ुरसत नज़र आती थी. ताश, शतरंज और गंजफ़े की
बाज़ियां जमतीं. कुछ लोग सरो-शिकार से जी बहलाते. बाज़ घराने ऐसे भी थे जहां
ज़्यादातर इल्मो-अदब के चर्चे रहते.
वालिद
मग़फ़ूर (स्वर्गीय) को मुताले से दिलचस्पी थी, लिहाज़ा
नाविलों और क़दीम दास्तानों के ढेर लगे होते थे. लेकिन मुझे इजाज़त नहीं थी कि इनको
हाथ भी लगाऊं. बस चोरी-छिपे कोई किताब खिसकाई और ये ज़ाहिर करते हुए कि बाहर खेलने
जा रहा हूं, छत पर हो लिया.
सारा-सारा
दिन गुज़र जाता. आख़िर एक दिन पकड़ा गया और वालिदैन में ठन गई. लेकिन फ़ैसला मेरे हक़
में हुआ. वालिद ने कहा - ‘‘उन बच्चों से तो बेहतर ही है
जो दिन भर गली में गिल्ली-डंडा या गोलियां खेलते फिरते हैं.’’
इस
हंगामे के बाद बाप की शह मिली तो आठ बरस की उम्र से पहले ही असरार ने ‘तिलिस्म-ए-होशरुबा’ की सातों जिल्दें पढ़ डालीं. अब
वो फ़ारसी की इस अमर दास्तान के किरदारों को अपने ख़्यालों की दुनिया का किरदार
बनाकर शतरंज के मोहरों की तरह इस खाने से उस खाने में रखकर उनके कारनामों, उनकी हार-जीत और उनकी किस्मतों के फ़ैसले अपने हिसाब से बदलता रहता.
जब
इस खेल से जी न भरा तो असरार अहमद ने कहानी की अपनी ही एक बिसात बिछाई, जहां वह अपने किरदारों को अपनी तरह से बेख़ौफ़ यहां-वहां के हालात में रखकर
अपनी मनचाही मंज़िल की तरफ़, मनचाहे रस्ते से ले जा सकते थे.
इसी कसरत का नतीजा थीं उनकी शुरूआती कहानियां.
बाद
को जब आख़िरी तौर पर ज़माने ने इब्ने सफ़ी बी.ए. के नाम और उनकी जासूसी दुनिया को
अपनी रोज़-मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बना लिया तो उन्होने भी ख़ुद को पूरी तरह इसी
काम में लगा दिया.
‘‘1948 के अद आख़िर तक ज़हन वीरान-वीरान सा रहा. फिर अचानक बाज़ दोस्तों की
तहरीक पर वह ब$र्फ पिघली और मैने माहनामा ‘निकहत’ इलाहाबाद के लिये तंज़ियात (व्यंग) का सिलसिला
शुरू कर दिया. ‘तग़रुल फ़ुरग़ान’ के नाम
से तंज़िया मज़ामीन लिखे. कुछ पैरोडीज़ भी लिखीं. लेकिन मैं इससे मुतमईन नहीं था.
कुच्छ और करना चाहता था.
थोड़े
ही दिनों के बाद एक जासूसी माहनामा की दाग़-बेल डाली गई. और मैं उसके लिए हर माह एक
मुकमिल नाविल लिखने लगा.
इससे
क़ब्ल उर्दू में सिर्फ मुंशी तीर्थराम फिरोज़पुरी के तराजिम (अनुवाद) पाए जाते थे या
दो-तीन नाविल ज़फ़र उमर के.
बहरहाल
‘जासूसी नाविल’ मेरे लिए बिल्कुल नई चीज़ थी. लिहाज़ा
पहली बार मुझे भी अंग्रेज़ी ही के दामन में पनाह लेनी पड़ी.’’
यह
इब्ने सफ़ी के आला किरदार का ही एक सुबूत है कि उन्होने बिना झिझक और बिना किसी
दबाव ख़ुद ही आगे आकर इस हक़ीक़त का ख़ुलासा किया कि उन्होने अपने पहले उपन्यास ‘दिलेर मुजरिम’ का प्लाट अंग्रेज़ी से लिया था. इसके
बाद भी उन्होने सात मर्तबा और ऐसा किया तो इस बात को भी खुले आम स्वीकार किया कि
उन्होने आठ उपन्यासों के प्लाट अंग्रेज़ी से लेकर अपने किरदार फ़रीद और हमीद के ज़रिए
कुछ ‘दिलचस्प इज़ाफ़ों’ के साथ इस्तेमाल
किए हैं. इस बात का खुलासा उन्होने अपने नाविल ‘ज़मीन के बादल’
की भूमिका के ज़रिए किया था.
इस
सिलसिले में कराची के मेरे एक नौजवान दोस्त राशिद अशरफ़ का ज़िक्र करना चाहूंगा
जिसने न सिर्फ इब्ने सफ़ी पर ज़बरदस्त रिसर्च किया है बल्कि एक तरह से इब्ने सफ़ी के
नाम और काम को इब्ने सफ़ी के बेटे अहमद सफ़ी के साथ मिलकर रिवाईव कर दिया है. राशिद
का कहना है कि इब्ने सफ़ी के दो मशहूर किरदार कर्नल फ़रीदी और सार्जेंट हमीद सर
आर्थर कानन डायल के शर्लक होम्ज़ और वाटसन की जोड़ी की तर्ज़ पर रचे गए थे. बाद को
इमरान (हिंदी में राजेश) सीरीज़ शुरू की तो वह एकदम मौलिक था.
इब्ने
सफ़ी हर नई विधा में काम करने के लिए लगभग हर बार एक नया नाम इस्तेमाल करते थे.
पहले असरार अहमद नारवी, फिर ‘तग़रुल
फ़ुरग़ान’, उसके बाद ‘सनकी सोल्जर’. अब जो जासूसी दुनिया वाली सीरीज़ का आग़ाज़ हुआ तो उन्होने एक नया नाम अपना
लिया. उर्दू में इब्न के मायने पुत्र से है, सो उन्होने अपने
पिता सफ़ीउल्लाह के नाम को लेकर यह नया कलमी नाम अपनाया - इब्ने सफ़ी.
देखते
ही देखते ज़माने ने इस नए नाम और इस नए नाम के साथ जुड़े काम को सीधे सीने से लगा
लिया. इब्ने सफ़ी ने अपनी कहानियों में रहस्य-रोमांच के साथ ही साथ अपने समाजी
सरोकारों को बाकायदा ज़िंदा रखते हुए कहानी कहने का एक ऐसा दिलचस्प अंदाज़ अपनाया जो
कभी हंसाता, कभी गुदगुदाता तो कभी सोचने पर मजबूर कर
देता.
जुर्म
और मुजरिमों की दुनिया को इस तरह पेश किया कि पढऩे वाला कहीं डर या ख़ौफ़ तो नहीं
खाता लेकिन उसे सनसनी का अहसास ज़रूर होता. इब्ने सफ़ी के मुजरिम कभी भी पढऩे वाले
के दिल में किसी तरह की हमदर्दी नहीं पा सकते थे, अलबता
फ़रीद जो कि हिंदी अनुवाद में विनोद हो जाता था, उसके आला और
बेदाग़ किरदार से बेहद मुतासिर होकर उसे अपना हीरो मानने को मजबूर हो जाता.
1952
में शुरू हुआ इब्ने सफ़ी का यह जासूसी कारनामा, देखते ही
देखते, आज की भाषा में ‘वायरल’ हो गया. हर ख़ासो-आम इसकी ज़द में आ चुका था. पढऩे-पढ़ाने के शौक़ से परे
लोगों पर इब्ने सफ़ी के आम होते किस्से-कहानियों ने इस बला का असर किया कि उनमें यह
ज़ौक़-ओ-शौक पैदा हो गया. अवाम ने खुले आम इब्ने सफ़ी को अपना हीरो तस्लीम कर लिया तो
ख़ुद को अवाम से आला मानने वाले तबके ने ज़माने से नज़र बचाकर ही सही, इब्ने सफ़ी को पढ़ा ज़रूर. इस तबके के लोगों के बारे में इब्ने सफ़ी ने अपने
एक रेडियो इंटरव्यू में एक बड़ा ख़ूबसूरत जुमला इस्तेमाल किया था ‘‘...ऐसे घरों में कुछ
किताबें शेल्फों पर और कुछ किताबें तकियों के नीचे पाई जाती हैं.’’
अपनी
उम्र के उस दौर को याद करूं कि जिसे कुछ बचपन, कुछ लडक़पन
की उम्र कहा जाए, यानी 1960 के आसपास का दौर, तो मेरे मुहल्ले में जलाऊ लकड़ी का टाल और चाय की दुकान एक साथ चलाने वाले
साबिर मियां की तस्वीर सामने आ जाती है. यह साबिर मियां इब्ने सफ़ी की जासूसी
दुनिया के इस क़दर दीवाने थे कि वो ‘जासूसी दुनिया’ के हाथ आते ही अपने सारे नफ़े-नुक्सान को भूल जाते थे. उस वक़्त इब्ने सफ़ी
की दुनिया में गुम साबिर भाई गर्दन उठाकर यह देखना भी गवारा नहीं करते थे कि एक
पसेरी लकड़ी ख़रीदने वाले गाहक ने उसे सवाया या ड्योढ़ा तो नहीं कर लिया. जब गाहक
आवाज़ लगाकर उनसे कहते - ‘‘साबिर भाई, कांटा
देख लो’ तो बिना किताब से नज़र हटाए, नाक
को ज़रा नाराज़गी से मोड़ते, तीखे अंदाज़ में कह देते ‘उतार लो न !’. गाहक ख़ुश-ख़ुश लकड़ी कांटे से उतारकर,
अपनी बाहों में भरकर चल देता.
इन्हीं
साबिर भाई की बदौलत यह चस्का उस कम उम्री में मुझे भी लग गया. साबिर भाई हमारे
मुहल्ले के सबसे पापूलर इंसान थे. कम उम्र बच्चों से लेकर हम उम्र और उम्र-रसीदा
लोगों तक उनकी पापूलरिटी यकसां थी. जब वो शेरो-शायरी की बातें करते तो बड़े और जब
वो अपना बेंजो निकालकर उस पर ‘हमें तो लूट लिया मिलके
हुस्न वालों ने’ बजाते तो उनके गिर्द हम बच्चों का एक छोटा
सा मजमा लग जाता. उस दौर और उस उम्र में रेडियो की बजाय एक जाने-पहचाने चेहरे का
नज़रों के सामने इस तरह एक छोटे से साज़ के टाईपराईटर जैसे बटन दबाकर संगीत पैदा
करने वाला किसी जादूगर से कम नहीं लगता था. उन्हीं को फ़ालो करने की चक्कर में ही
एक दिन इब्ने सफ़ी का चस्का भी लग गया.
अब
नतीजा यह हुआ कि घर के नज़दीक बनी जामा मस्जिद के नीचे आबाद दुकानों में कायम एक
किताबों और रिसालों को बेचने और किराए पर पढऩे को देने वाली छोटी सी हमीदिया
लाइब्रेरी से जासूसी दुनिया का नया शुमारा लेकर पास ही के एक घने पीपल के नीचे
बैठकर पूरी किताब पढ़ डालता और फिर मुहल्ले में जाकर दोस्तों पर नई कहानी सुनाकर
रौब ग़ालिब करने की कोशिश करता. दोस्तों की नाराज़ी का सामना करता कि पहले ही कहानी
सुनाकर उनका मज़ा ख़राब कर रहा हूं. लेकिन तमाम लड़प-झड़प के बावजूद होता हमेशा ऐसा
ही था.
इब्ने
सफ़ी अपने पढऩे वालों को अमरीका, फ़्रांस, इटली, अफ्रीका और दुनिया के न जाने कितने
जाने-अंजाने मुल्कों की न जाने किन-किन जगहों से वाकिफ कराते जहां वो ख़ुद भी कभी
नहीं गए. उनके इस हुनर की दाद देनी होगी कि उनकी कहानियों में आने वाले बाहरी
मुल्कों के लोकेशंस, उनके विवरण एकदम सौ फ़ी सद सही होते थे.
उन्हें इस सिलसिले में उनके पाठकों के तारीफ़ी ख़त भी मिलते थे जो या तो उन मुल्कों
की सैर कर चुके थे या फ़िर वहीं आबाद थे. इस बात के जवाब में कि क्या वो इतने सारे
मुल्कों का सफ़र कर चुके हैं तो उनका जवाब था - ‘‘मेरी चारपाई
मुझे सब जहानो की सैर करा देती है.’’
उनकी
यह चारपाई सचमुच ही बड़े कमाल की चीज़ थी. अपने वालिद साहब के राईटिंग प्रोसेस को
साझा करते हुए अहमद सफ़ी, जो लाहौर में रहते हैं,
इस चारपाई को केंद्र में रखकर इस तरह बयान करते हैं.
‘‘अब्बू को कभी मेज़-कुर्सी पर बैठकर लिखते नहीं देखा. उनकी चारपाई ही उनकी
जाए-तहरीर (लिखने की जगह) थी. बाईं करवट लेटकर बाज़ू के नीचे तकिया दुहरा करके रख
लेते थे और इसी हालत में लिखा करते थे. चारपाई ख़ुद एक जहान थी. तकिए के नीचे कारईन
(पाठकों) के ख़ुतूत इस तरह बिछे रहते थे कि अगर गद्दा निकाल दिया जाता तो भी तकिया
ऊंचा ही रहता. एक तरफ़ एजंटों के ख़ुतूत का ढेर होता तो दूसरी तरफ़ रसीदों और दूसरे
काग़ज़ात का.
दफ़्तर
और अलमारी की चाबियां भी यहीं पाई जाती थीं. बाज़ औक़ात अम्मी इन चीज़ों को तरतीब से
रख देती थीं तो बहुत उलझते थे. उनकी बेतरतीबी में भी एक तरतीब थी. सिरहाने, तकिए की बाईं तरफ़ उर्दू या अंग्रेज़ी अदब की कोई न कोई किताब ज़रूर पड़ी
रहती थी. क्लिप वाला गश जिसमे फुल स्केप काग़ज़ों का दस्ता और कार्बन पेपर लगे रहते
थे, सिरहाने ही रखा रहता था. इसी गशे पर हज़ारों नाविल लिख
डाले गए. गशे और तकिए के नीचे से खु़श रंग बटुआ झांकता रहता था. जिसमे कटी हुई
छालिया, तम्बाकू, ख़ुश्क कथा और चूने की
डिबिया होती थी.
इस
बटुए में हम भाइयों के लिए बहुत कशिश थी. अबू ने सिगरेट 1971 में छोड़ दी थी. पान
भी तकरीबिया इसी दौर में छोड़ दिया वरना एक डिबिया उसकी भी साथ रहती थी. ईसार भाई
को छोडक़र अबरार भाई, इफ्तिख़ार भाई और मैं छालिया
बहुत शौक़ से खाते थे. अब्बू की नज़र बचाकर बटुए पर भी हाथ साफ़ कर जाते थे.’’
(अहमद सफ़ी)
हक़ीक़त
यह है कि जिस तेज़ रफ़्तारी से वे लिखते थे (एक दौर में हर महीने दो उपन्यास और फिर
लगातार 28 साल तक हर महीने एक उपन्यास), उसी रफ़्तार
से दुनिया भर की किताबें पढ़ते भी थे. इनमे किस्से-कहानी से लेकर इतिहास-भूगोल से
लेकर तरह-तरह के ज्ञान-विज्ञान की किताबें शामिल होतीं.
आज
के इंटरनेट और ई-मेल वाले दौर की बात तो अलग है लेकिन यह भी एक बड़ी दिलचस्प बात
है कि इब्ने सफ़ी महज़ डाकिए वाले दौर में भी अपने पाठकों से सीधा संबंध बनाए रखते
थे. इब्ने सफ़ी अपने हर नाविल के साथ प्रस्तावना लिखते थे जिसे उर्दू में पेश लफ़्ज़
कहा जाता है. लेकिन वे इसे ‘पेश रस’ के शीर्षक से लिखते थे और अपनों पाठकों के ख़तों को आधार बनाकर उनसे
बाकायदा एक संवाद सा स्थापित कर लेते थे. इस ‘पेश रस’
में उनकी कहानियों के बारे में सवाल-जवाब के अलावा, प्रशंसा और आलोचना के ख़त भी शामिल रहते थे. कमाल की बात यह है कि वो
प्रशंसा से गदगद और आलोचना से विचलित हुए बिना अपने बेपनाह सेंस आफ ह्यूमर को
इस्तेमाल करते हुए हर बात का जवाब दे देते थे.
इस
सिलसिले में नमूने के तौर पर एक ख़त को ही ले लें जो उन्हें पाकिस्तान के सिंध
प्रांत के एक शहर टंडो आदम से लिखा गया था. वहां से एक टेलीफ़ोन आपरेटर ने अपने ख़त
में इब्ने सफ़ी की इस बात के लिए आलोचना की थी कि उनकी कहानी का शीर्षक और कहानी का
प्लाट आपस में मेल ही नहीं खाते.
इस
आलोचनात्मक ख़त का जवाब इब्ने सफ़ी ने भरपूर मज़ाहिया अंदाज़ में दिया. जवाब लिखने से
पहले अर्ज़ कर दूं कि यहां उन्होने शब्द ‘आदमी’
का प्रयोग उसी तरह किया है जिस तरह भोपाल का रहने वाला ‘भोपाली’ या फ़िर सुल्तानपुर वाला ‘सुल्तानपुरी’. ख़ैर, तो इब्ने
सफ़ी ने इन नाराज़ टेलीफ़ोन आपरेटर महोदय को जवाब दिया - ‘यार !
टंडो आदमी साहिब, ख़ुद ही लिख कर पढ़ लिया करो.’’
इब्ने
सफ़ी को जानने की कोशिश में मैं जितना उन्हें जानता गया उतना ही यह अहसास मुझमे घर
करता गया कि इब्ने सफ़ी के ‘काग़ज़ी पैरहन’ के भीतर एक ऐसी पाकीज़ा रूह मौजूद थी जिसकी सरपरस्ती में इलाहाबाद के छोटे
से गांव नारा का छोटा सा असरार तब भी अपने खेल-कूद और शरारतों में मशगूल रहता था.
वरना वो क्या आलम होता होगा कि ‘आधा तीतर, आधा बटेर’ जैसी कहावत के दो टुकड़े करके वो दो
उपन्यास - पहले ‘आधा तीतर’ उसके पीछे ‘आधा बटेर’ लिख जाते थे.
जिस
‘काग़ज़ी पैरहन’ की बात मैने छेड़ी है वह असल में उर्दू
के एक मशहूर कालम निगार - नसरुल्ला ख़ान - के लिखे ख़ाक़े का एक इशारा भर है.
‘‘अगर आपने इब्ने सफ़ी को नहीं देखा है तो आपको दिखा दें. दर्मियाना क़द,
रंग सियाहे माइल (हल्का काला), चेहरे पर चेचक
के हल्के-हल्के दाग़ जो चेहरे के सियाह रंग में घुल मिल गए हैं. आंखें स्याह,
बड़ी-बड़ी और रोशन, अहसान बिन दानिश की जवानी
की तस्वीर, किसी कारख़ाने के मज़दूर मालूम होते हैं. ये है
इब्ने सफ़ी की ज़ाहिरी तस्वीर. आईये अब इस काग़ज़ी पैरहन में जो इब्ने सफ़ी है, उसे भी झांक कर देख लें.
चेहरे
के दाग़ दिल के दाग़ हैं. रूह बड़ी रोशन है. बातिन (भीतर) का क़दो-क़ामत (डील डौल)
ज़ाहिरी क़दो-क़ामत से बहुत ऊंचा है. ढेरों दौलत कमाई. कुछ धोकेबाज़ दोस्तों की नज्ऱ
हो गई और कुछ हमदर्दी में निकल गई और अब यूं लगता है ये (19)48 है और इब्ने सफ़ी
अभी महाजिरों के एक क़ाफ़िले के साथ आए हैं और अभी-अभी इन्होने अपना घर जमाना शुरू
किया है.’’
(अलिफ़ लैला डाईजेस्ट, कराची ज़ुलाई 1972)
इब्ने
सफ़ी 1952 तक इलाहाबाद में ही बने रहे. लेकिन इस साल देश में कुछ ऐसे हालात पैदा
हुए कि उन्हें हिंदुस्तान छोडऩे पर मजबूर होना पड़ा. पाकिस्तान के जिओ टीवी पर
प्रसारित इब्ने सफ़ी पर एक ख़ास शो में उनके हिंदुस्तान छोडऩे की वजह का इस तरह
खुलासा किया गया है.
‘‘कुछ और दिन बीते कि हिंदुस्तान में ‘तेलंगाना तहरीक़’
ज़ोर पकड़ गई. बरसरे इक़तिदार (शासक) कांग्रेस और तरक़्क़ी पसंदों के
दर्मियान तज़ादात (विरोध) शदीद हो गए. और यूं तरक़्क़ी पसंदों की पकड़-धकड़ शुरू हो
गई. इब्ने सफ़ी अपने ख़यालात की वजह से तरक़्क़ी पसंदों के काफ़ी क़रीब थे. उनका
उठना-बैठना भी ज़्यादातर इन्हीं लोगों के साथ हुआ करता था. लिहाज़ा उन्हें मशविरा
दिया गया कि वह पाकिस्तान चले जाएं’’
इस
तरह वे पाकिस्तान चले गए. पहले कुछ बरस लालूखेत और बाद में कराची पहुंच गए. यहां
पहुंचकर भी जासूसी दुनिया का सिलसिला बराबर कायम रहा. अलबता उन्होने जासूसी दुनिया
वाली सीरीज़ के लिए कराची में अपना एक प्रकाशन - असरार पब्लिकेशंस के नाम से ज़रूर
शुरू कर दिया.
हर
नई किताब के साथ इब्ने सफ़ी की शोहरत बढ़ती चली जाती थी. 26-27 साल की उम्र में ही
यह नाम घर-घर पहुंच चुका था. ज़माने की रिवायत के मुताबिक जब बाज़ार में असली माल की
क़द्रो-कीमत बढ़ती है तो नकली माल पीछे-पीछे आ जाता है. इस मामले में भी नक्कालों
ने देर न की. देखते ही देखते बाज़ार
में कोई इब्ने सफ़ी, कोई जासूस दुनिया तो कोई कुछ और जैसे मिलते-जुलते नामों का इस्तेमाल करते
हुए अपना माल बेच ही जाता था. इन नक्कालों में से कोई भी उनके अंदाज़ तक नहीं पहुंच
पाता था.
इब्ने
सफ़ी अपनी अपराध कथाओं के बीच में ही मौके निकाल कर गंभीर से गंभीर स्थितियों के
बीच में भी हल्की-फ़ुल्की जुमलेबाज़ी से चीज़ों को बोझिल होने से बचा ले जाते थे. अब
ज़रा इसके कुछ नमूने मुलहिज़ा फ़रमाएं.
जैसे
एक कहानी में नाम गुलज़ार को लेकर ही उनकी छेड़ शुरू हो जाती है.
‘‘गुलज़ार नाम था’’
‘‘क्या दाढ़ी गुलाब के फूल सी थी?’’
‘‘नहीं तो’’
‘‘अबे ! तो फिर गुलज़ार नाम क्यों था?’’
ललित
कला
इसी
तरह उनके एक उपन्यास ‘मोनालिसा की नवासी’ में लिखे गए इस संवाद को ही लें लें. शायद याद आ जाए कि किसी ने आपको इसे
लतीफ़े की तरह ही सुनाया था.
‘‘फ़नूने-लतीफ़ा (ललित कला) से मज़बूत होने के लिए थोड़ी तक़लीफ़ भी उठानी पड़ती
है’’ फौज़िया ने तंज़िया लहजे में कहा.
‘‘शायद आपको फनूने-चच्चीजान से दिलचस्पी नहीं है’’ इमरान
बोला.
‘‘यह कौन सी फ़नून होती है?’’ मुश्की उसे घूरते हुए
बोली.
‘‘मैं बुज़ुर्गों के नाम नहीं लेता’’ इमरान शरमा कर
बोला.
‘‘क्या बात हुई?’’
‘‘फ़नून के साथ आप जो लफ़्ज़ बोलीं वह मेरी चच्चीजान का नाम है’’
‘‘ओह! लतीफ़ा’’ फौज़िया हंस पड़ी.
‘‘जी हां’’ इमरान मज़ीद झेंप कर बोला.
‘‘ओह ! तो आप कोई लतीफ़ा सुनाते वक़्त लोगों से कहते होंगे कि अब एक चच्ची जान
सुनिए’’
‘‘इस दुश्वारी की बिना पर सुनाता ही नहीं हूं’’
यूं
नहीं कि इस तरह की लतीफानुमा बातें ही करते थे, उनकी फ़िक्र
के दायरे में पूरा समाज था. उन्होने एटम बम और हाईड्रोजन बम बनाकर तबाही के सामान
बनाने वालों की ख़बर ली है तो सियासत दानों और तथाकथित प्रजातंत्र जिसे इब्ने सफ़ी
लोकशाही की जगह ‘गोबरशाही’ कहते हैं
उसकी भी जमकर ख़बर ली है.
एटम
बम
‘‘लेकिन इसका मक़सद क्या है डाक्टर डिसडिल’’ फ़रीदी ने
बेहद नर्म लहजे में पूछा.
‘‘किसी किस्म का तजुर्बा ब-जाए ख़ुद एक मक़सद होता है’’
‘‘भला, इस तजुर्बे की ज़रूरत क्यों पेश आई?’’
‘‘मौजूदा इंसानी नस्ल बेकार हो चुकी है. तुम मुझे देख रहे हो, मैं आदमी से ज़्यादा आदमी की परछाईं मालूम होता हूं. मेरे क़ुवा (क़ुव्वत का
बहुवचन) मज़बूत नहीं. मेरा बाप भी ऐसा ही था. दादा उससे कुछ तवाना था लेकिन परदादा
के मुतलिक़ सुना है कि वह बड़े-बड़े दरख़्तों को जड़ से उखाड़ दिया करता था.’’
‘‘महज़ इतनी सी बात के लिए डिसडिल ?’’
‘‘तुम इसे इतनी सी बात कह रहे हो. हालांकि आज दुनिया में इसी बिना पर तबाही
फैली हुई है. एटम और हाईड्रोजन बम बन रहे हैं. ज़हरीली गैसिज़ दरियाफ़्त की जा रही
हैं. क्या यह सब इसी लिए नहीं हो रहा कि दुश्मन से निपटने के लिए अपनी
क़ुव्वत-ए-बाज़ू ऐतमाद नहीं रहा. इब्तिदा में आदमी एक दूसरे से इस तरह गुथ जाते
होंगे जैसे कुत्ते लड़ पड़ते हैं. फ़िर जैसे-जैसे वहशत और ताक़त घटती गई वह दुश्मन
से ज़रा दूर रह कर वार करने की सोचता गया. इस तरह वह लठों और डंडों से बदतरी...
एटमी दौर तक आ पहुंचा. (देव पेकर दरिंदा)
सुपर
पावर (अमरीका)
‘‘एटम बमों और हाईड्रोजन बमों के तजुर्बात उनकी समझ से बाहर थे. वह नहीं समझ
सकते थे कि जब एक आदमी पागल हो जाता है तो उसे पागलख़ाने में बंद कर देते हैं और जब
पूरी क़ौम पागल हो जाती है तो वह ताक़तवर कहलाने लगती है.’’ (अनोखी
रक़्क़ासा)
प्रजातंत्र
(लोकशाही)
शहंशाहियत
में तो सिर्फ एक नालायक़ से दो-चार होना पड़ता है लेकिन जम्हूरियत में नालायक़ों की
पूरी टीम बवाले जान बन जाती है.
(भयानक
जज़ीरा-जून 1953)
कामयाबी
के इस सफ़र में अचानक एक ज़बरदस्त हादसा पेश आया. दिन-रात की दिमाग़ी कसरत ने आख़िर
दिमाग़ पर असर दिखाया. 1960 में इब्ने सफ़ी सीज़ोफ़्रेनिया के शिकार हो गए. अगले तीन
साल तक उनका सारा वक़्त अस्पतालों और हकीमों के साए में गुज़रा. उन हालात में जबकि
ज़माने की हर चीज़ पर फ़तवे देने वालों नें इब्ने सफ़ी के बारे में अपना आख़िरी फ़तवा
सुना दिया, उनके ख़ानदान और उनके लाखों चाहने वालों की
दुआओं ने असर दिखा दिया.
1963
में वे पूरी तरह से तंदुरुस्त होकर घर आ गए. हकीम इक़बाल हुसैन के आदेश पर कुछ
अर्से पूरी तरह आराम किया. इस बात का ऐलान जासूसी दुनिया के पाठकों के लिए एक
ख़ुशख़बरी के तौर पर इस तरह प्रकाशित किया गया था.
‘‘जासूसी दुनिया के लाखों क़ारईन (पाठकों) के लिए - अज़ीम
मुसनिफ़ मुहतरम इब्ने सफ़ी ख़ुदा
के फ़ज़लो-करम से अब बिल्कुल सेहतमंद हैं और मुआलजा (चिकत्सक) की हिदायत के मुताबिक़
सिर्फ चंद दिनो के लिए मुकमिल आराम फ़रमा रहे हैं. इसके बाद वह बहुत जल्द अपना नया
शाहकार ‘डेढ़ मतवाले’ पेश करेंगे. मुहतरम
इब्ने सफ़ी के इस नए, लाफ़ानी और तहलकाख़ेज़ शाहकार के
लिए तैयार रहिए.’’
सेहतयाबी
हासिल करने के बाद घोषणा के अनुसार जब ‘डेढ़ मतवाले’
प्रकाशित हुआ तो उसके विमोचन के लिए इलाहाबाद में एक बहुत बड़ा जलसा
हुआ. उस वक़्त देश के गृह मंत्री लाल बहादुर शास्त्री के हाथों इस पुस्तक का विमोचन
हुआ.
इस
बीमारी से मुक्ति पाने के पूरे 16 साल बाद एक और जानलेवा बीमारी की शुरूआत 1979 के
सितम्बर महीने में हो गई. इस बार पैनक्रियाटिक कैंसर का हमला था. इस बार जो हालत
बिगडऩा शुरू हुई तो फ़िर न सम्हली. आख़िर इस बीमारी ने इस अनोखे इंसान इब्ने सफ़ी को
ऐन उनके 52वें जन्मदिन 26 जुलाई 1980 को इस दुनिया से छीन लिया. लेकिन क़ाबिले-दाद
बात यह है कि इस ख़तरनाक बीमारी के बावजूद उन्होने लिखना नहीं छोड़ा. इसी बीमारी के
दौरान उनकी लिखी किताबें छपती भी रहीं और आख़िरी वक़्त में भी वो ‘आख़िरी आदमी’ नाम का उपन्यास पूरा करने में लगे थे,
जो आख़िर अधूरा ही रह गया.
इसी
बीमारी के दौरान इब्ने सफ़ी को अपने अंजाम का इल्हाम सा हो गया था. लेकिन उन्होने
नज़रों के सामने खड़ी इस हक़ीक़त को भी अपने ख़ुसूसी इब्ने सफ़ीयाना वाले ज़िंदादिली भरे
अंदाज़ में गले लगा लिया.
‘‘मेरा नज़रिया-ए-हयात ये है कि जब मरना होगा मर जाऊंगा. पहले से बोर होते
रहने की क्या ज़रूरत है. न अपनी कोशिश से पैदा हुए और न अपने इरादे से मर सकूंगा.
लिहाज़ा एश करो’’ ( 23 मई 1979 को लिखे गए नाविल ‘लरज़ती लकीरें’ में अली इमरान की क़ुबानी)
ऐसे
ख़ुश-बाश तबीयत वाले इब्ने सफ़ी के दिल में एक बात को लेकर अफ़सोस और ग़ुस्सा दोनों ही
बने रहे कि ख़ुद को ‘क्लासिक अदीब’ मानने वालों की जमात ने उनको अपनी जमात का हिस्सा नहीं माना.
‘‘मुझे उस वक़्त बड़ी हंसी आती है जब आर्ट और सख़ाफ़त के अलमबरदार मुझसे कहते
हैं कि मैं अदब की ख़िदमत करूं. उनकी दानिस्त में शायद मैं झक मार रहा हूं.
हयात-ओ-कायनात का कौन सा ऐसा मसला है जिसे मैने अपनी किसी न किसी किताब में न
छेड़ा हो. लेकिन मेरा तरीका-ए-कार हमेशा आम रविश से अलग-थलग रहा है. मैं बहुत
ज़्यादा ऊंची बातें और एक हज़ार के एडीशन तक महदूद रह जाने का क़ाइल नहीं हूं. मेरे
अहबाब का आला-व-अरफ़ाह अदब कितने हाथों तक पहुंचता है. और इनफ़रादी या इज्तिमाई
ज़िंदगी में किस िकस्म का इंक़लाब लाता है ?
बहुत
ही भयानक किस्म के ज़हनी अदवार से गुज़रता हुआ यहां तक पहुंचा हूं, वर्ना मैने भी आफ़ािकयत के गीत गाए हैं. आलमी भाई-चारे की बातें की हैं.
लेकिन 1947 में जो कुछ हुआ उसने मेरी पूरी शख़ि्सयत को तहो-व-बाला करके रख दिया.
सडक़ों पर ख़ून बह रहा था और आलमी भाई-चारे की बातें करने वाले सूखे-सहमे अपनी
पनाहगाहों में दुबके हुए थे. हंगामा फर्व (ख़त्म) होते ही फिर पनाहगाहों से बाहर आ
गए और चीख़ना शुरू कर दिया ‘‘ये न होना चाहिये था. ये बहुत
बुरा हुआ.’’
‘‘लेकिन हुआ क्यों?’’ तुम तो बहुत पहले से यही चीख़ते
रहे थे. तुम्हारे गीत दीवनगी के इस तूफ़ान को क्यों न रोक सके?’’ ( इब्ने सफ़ी)
आज
वक़्त बदला है. हिंदुस्तान-पाकिस्तान में तमाम सारे साहित्यकार और साहित्यिक
संस्थाए इब्ने सफ़ी की याद में बड़े-बड़े जलसे आयोजित कर रहे हैं. पत्र-पत्रिकाओं
के इब्ने सफ़ी विशेषांक छप रहे हैं. और तो और उनके जीते जी उनका जो काव्य-संग्रह ‘मताए क़ल्बो नज़र’ न छप पाया था वो भी 2013 में छपकर आ
गया.
डा.
गोपीचंद नारंग ने साहित्य अकादमी के अपने कार्यकाल में 2007 में इब्ने सफ़ी के
व्यक्तित्व और कृतित्व पर आयोजन किया तो उनके साहित्यिक योगदान की ख़ूब सराहना हुई.
उसके बाद से कभी जामिया मिलिया (2012),उस्मानिया
यूनीवर्सिटी (2013), उर्दू अकादमी दिल्ली (2014) में एक के
बाद एक सेमीनार्स की श्रंखला सी चल पड़ी है. उर्दू के नामचीन अदीब जनाब
शम्स-उर-रहमान फ़ारूक़ी ने तो न सि$र्फ इब्ने सफ़ी की अदबी
हैसियत को बख़ूबी क़ुबूल किया है बल्कि आगे बढक़र इब्ने सफ़ी की जासूसी दुनिया के 62
नम्बर के नाविल ‘लाश का कहकहा’ का
अंग्रेज़ी में ‘लाफिंग कार्प्स’ की तरह
अनुवाद किया है.
यह
एक हक़ीक़त है कि इब्ने सफ़ी की जासूसी दुनिया में जगह-जगह एक ऐसी अदबी चाशनी मौजूद
है कि एक दुनिया से बेख़याली में दूसरी दुनिया में पहुंच जाने का अहसास पैदा करती है.
मसलन आप सोच देखें कि यह जो आप पढ़ रहे हैं वो 1955 के एक जासूसी उपन्यास ‘बर्फ के भूत’ का एक अंश है.
‘‘मोमी शमों की ठंडी रोशनी, महात्मा बुद्ध की पुर
सुकून मुस्कराहट के साथ उसकी रूह की गहराइयों में उतरती जा रही थी. वह ये भी भूल
गया कि वह किसी का क़ैदी है. कुछ अजनबी उसे अपने साथ किसी नामालूम मंज़िल की तरफ़ ले
जा रहे हैं. मालूम नहीं वह कौन हैं और उससे क्या चाहते हैं. उसे अपने अंजाम का भी
अंदेशा नहीं था. उसकी रूह अब से हज़ारों साल पहले की दुनिया में भटकने लगी थी. उसे
ऐसा महसूस हो रहा था जैसे वह इस ग़ार में तन्हा हो. जैसे वह भी मोमी शमों की तरह
पिघला जा रहा हो.....तन्हाई .... हल्की सुर्ख रोशनी, बुद्ध
का मलकूती तब्बसुम इनके अलावा वहां कुच्छ भी नहीं था. उसके हमसफ़र का चेहरा हल्की
सुर्र्ख रोशनी में चमक रहा था. हमीद के ज़हन में क़ई मंदिरों और मठों की देवदासियों
का तसव्वुर उभरा ... और वह उसे तक़दुस आमेज़ रोशनी में कोई मुक़द्दस कंवारी मालूम
होने लगी.’’
इब्ने
सफ़ी आज इस दुनिया में जिस्मानी तौर मौजूद नहीं है लेकिन अपनी लेखनी के दम पर आज भी
ज़िंदा हैं.
इब्ने
सफ़ी के परिवार में उनके बेटे अबरार अहमद सफ़ी(अमरीका), डा.अहमद सफ़ी (लाहौर) और इफ़ि्तख़ार अहमद सफ़ी (सऊदी अरब) में रहते हैं. उनकी
पत्नी सलमा ख़ातून का 2003 और बड़े बेटे डा. ईसार अहमद का 2005 में देहांत हो चुका
है. तीन बेटियों के नाम नुज़हत अफ़रोज़,
सरवत असरार और मोहसिना सफ़ी हैं. इनमे से डा. अहमद सफ़ी, जो मेकेनिकल इंजीनयरिंग का एक रोशन नाम हैं, अमरीका
में कई साल काम करने के बाद अब लाहौर में आबाद हैं. आपने अपने वालिद साहब के हक़
में ख़ुद को पूरी तरह समर्पित कर रखा है.
अहमद
सफ़ी की यादों में इब्ने सफ़ी सिद्धांतों और नैतिकता की बात नहीं करते थे बल्कि बड़ी
सख़्ती से उस पर अमल भी करते और करवाते थे. इस हद तक कि जब ‘जासूसी दुनिया’ का नया अंक छपकर आता था तो वो उस अंक
को तब तक अपने ख़ानदान में किसी को देखने तक की इजाज़त नहीं देते थे जब तक कि वह अंक
बाज़ार और पाठकों तक नहीं पहुंच जाता था. उनके लिए उनका पाठक सबसे पहले और सबसे ऊपर
था.
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