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परमौत की प्रेम कथा - भाग एक
परमौत
का असली नाम प्रमोद है लेकिन उसे उसके माँ-बाप से लेकर अड़ोसी-पड़ोसी, मामा-मौसी, ताऊ-फूफा और यहाँ तक कि स्कूल में साथ
पढने वाली लड़कियों तक सबने बचपन से ही उसे इस बिगड़े उच्चारण वाले नाम से पुकारा
था. इस बात से कभी किसी को कोई ऐतराज़ नहीं हुआ. खुद परमौत को भी नहीं. परमौत के
बड़े भाई परकास को भी ऐसा कोई ऐतराज़ कभी नहीं हुआ था.
हल्द्वानी
जैसे छोटे शहर में इतनी सी बात को लेकर पहली उल्लेखनीय चर्चा का सम्बन्ध प्रमोद के
पहले इश्क से जुड़ना था. वह भी उसके इक्कीसवें साल में. कम्प्यूटर क्लास में सदैव
अंग्रेज़ी में पढ़ाने वाले उस मास्टर ने जिस दिन उसे झाड़ते हुए कहा था “अपना नाम तो ठीक से बोलना सीख लो यार. इट्स प्रमोद नॉट परमौत” हमारी इस कथा का नायक उस दिन पहली बार एक सलवार सूट की मोहब्बत में
गिरफ्तार हुआ था.
परमौत
के मोहब्बतनामे से पहले उसके बारे में कुछेक बातें जान लेना जरूरी है. परमौत के
पिताजी की परचूने की बहुत बड़ी खानदानी दुकान थी. छोटा और निखट्टू होने के कारण
परमौत की दस साल की आयु से दुकान-सहायक के रूप में अवैतनिक पोस्टिंग कर दी गयी थी.
पिताजी उसके हर शौक और शिकायत का इलाज केवल लात, घूंसे
और लाठी से करने के हिमायती रहे थे सो परमौत ने भी अपने हर शौक इलाज निडर होकर
दुकान के गल्ले से कर लेने में ऐसी महारत हासिल कर ली थी कि पांच सौ रूपये तक एक
बार में गायब कर देना उसके बाएँ हाथ का खेल बन चुका था.
यह
सन सत्तासी-अठ्ठासी की बात है जब हल्द्वानी से सटे ग्रामीण इलाकों में इतने रुपयों
में आधे-पौने बीघे तक का प्लाट खरीदा जा सकता था. ज़ाहिर है गल्ले में खयानत कर
सकने की प्रतिभा ने परमौत को अपनी उम्र के लौंडों में यारों का यार बना दिया. मैं
भी उसकी यारमंडली में था. चौदह-पंद्रह की आयु में उसके जीवन में शराब, चरस और अन्य सद्गुणों का प्रवेश हो चुका था. वह बड़ा होकर बाकायदा स्मगलिंग
का धंधा करना चाहता था और हम सारे दोस्त आज तक इस बात पर एकमत हैं कि परमौत को
हाजी मस्तान बनने से रोक सकने की कूव्वत ईश्वर तक में न थी.
भला
हो उसके पिताजी का जो असमय भगवान के प्यारे हो गए और अपनी लगी-लगाई नौकरी छोड़कर
परकास ने वापस हल्द्वानी आकर परचूने का काम देखने का फैसला किया.
वापस
आते ही परकास ने दुकान से परमौत की छुट्टी कर दी और उसे दुबारा स्कूल जाने पर
मजबूर कर दिया. “साले इंटर पास आदमी तक को ढंग
का आवारा कुत्ता नहीं पूछता” का तकियाकलाम रखनेवाले बड़े भाई
के इसरार का नतीज़ा रहा हो या नक्षत्रों की गति में आया अप्रत्याशित परिवर्तन,
अगले दो सालों में परमौत ने न केवल हाईस्कूल पास किया, इंटर में भी सप्लीमेंट्री हासिल कर दिखाई. यह और बात थी कि क्लास के मामले
में वह हमसे तीन साल पिछड़ गया था.
हमारी
तरह इन परिवर्तनकारी वर्षों में परमौत ने भी लौंडपन से युवावस्था में आने का
नैसर्गिक सफ़र की कम्प्लीट किया. ऐसा नहीं कि इस दौरान वह सिर्फ स्कूल गया हो; भाई ने उसे पढ़ाई के अलावा होटलों में मसाले सप्लाई कराने के धंधे में लगा
दिया था. जहां एक तरफ परमौत के जीवन में भूतपूर्व और उसके पिता के गल्ले के पैसों
के अभाव में यतीम बना दिए गए हम बचे खुचे दोस्तों के जीवन का इकलौता टार्गेट किसी
भी तरह से एक लड़की सैट कर उसके साथ मोहब्बत करना बन गया था, बड़े
भाई के अनुभवी निर्देशन में परमौत हल्द्वानी ही नहीं समूचे कुमाऊँ का मसाला-किंग
बनने की राह लग चुका था.
हम
लोग डिग्री कालिज और ऐसे ही तीर्थस्थलों के बाहर चाय-पान के खोखों के बाहर खड़े खुद
को राजेस्खन्ना और देवानन समझते कैप्स्टन फूंका करते, जबकि छोटे मोटे ट्रक की सूरत दिए अपनी मोपेड पर मसालों से लदी पेटियां
बांधे परमौत कभी काठगोदाम कभी रुद्दरपुर की तरफ जाता दिखाई देता.
हम
लोग नया जूता लेने के लिए माँ-बाप की महीनों से चिरौरी कर रहे होते जबकि परमौत के
बड़े-बड़े और भौंडे आकार वाले पैरों में हमने सालों से हवाई चप्पल के अलावा कोई भी
अन्य पादुका नहीं देखी थी.
हम
लोग फ्री में डेबोनेयर और कोकशास्त्र के अध्ययन के लिए रोडवेज़ के ठेलास्वामियों से
दोस्ती गाँठ रहे थे जबकि कान में अटकाई डॉट पेन निकालकर छोले-ब्रैड पकौड़ा
बेचनेवालों तक से हिसाब-किताब करता परमौत हल्द्वानी के गुप्त-अगुप्त सभी ठीहों पर
नज़र आ जाया करता.
अभिप्राय
यह है कि परमौत बिजनेसमैन बन रहा था और हम गधे.
परमौत
के सपनों में नोटों की गड्डियां आती थीं जबकि हमारे सपने जीनत अमान और दोष से अटे
होते थे. रात को बड़े भाई को हिसाब समझाकर भाई के ही निर्देशन में परमौत इंटर की
किताबों से जूझ रहा होता था जबकि हमारे जीवन में हिन्दी की कचरा फिल्मों ने ख़याली
मोहब्बत को किसी लत की तरह चिपका दिया था जिसका तात्कालिक उपचार केवल मोहम्मद रफ़ी
और मुकेश के दर्दभरे नगमों में खोजा जाना होता था.
बीए
के रिजल्ट की खुशी की में नब्बू डीयर के मामा के परित्यक्त गोदाम में दोस्तों की
मिलौचा पार्टी चल रही थी जब दो-सवा दो बरसों बाद परमौत हमारे अड्डे पर आया.
सप्लीमेंट्री पास होने के एवज़ में उसे दो दिन की छुट्टी मिली थी और वह सात-आठ सौ
रुपये हम पर फूंकने की मंशा रखता था.
आया
तो वह सिर्फ टाइम और पैसा खर्च करने की नीयत से था पर हमारा ऑलरेडी बनाया हुआ परम
रोमांटिक माहौल परमौत के जीवन के तीसरे मोड़ की सर्जना करने में कामयाब हुआ. शमा से
कबाब आये थे, रोडवेज़ वाले भट्ट जी की दुकान से
चांप-भुटुआ, शिब्बन के रिटायर्ड फ़ौजी पिता की आलमारी से चाऊ
की गयी घोड़िया रम की बोतल थी, टू-इन-वन पर मुकेश के धनवान की
दिलतोड़-दामनछोड़ बेटी थी, गोदाम की मटमैली दीवार पर लगा चंद
चीथड़ों में सुसज्जित समान्था फॉक्स का आदमकद पोस्टर था और नब्बू डीयर की पहली
मोहब्बत और दिल के टूटने का नशीला, ग़मगीन महोत्सव.
“तुम तो भौत मौज काटने लग गए बे सालो!” – परमौत ने कई
सालों बाद अपना व्रत तोड़कर तीन पैग खींचने के बाद हमें यह कॉम्प्लीमेंट दिया.
क़िस्सा
यह था कि हाईस्कूल-फेल नब्बू डीयर कॉलेज में पढ़ सकने की अर्हता हासिल न कर पाने के
बावजूद कॉलेज पढ़ने वाली एक बेनाम लड़की की एकतरफ़ा मोहब्बत में तबाह होने के तीसरे
लेवल पर पहुँचने को था और इन दिनों खुद को संगीत और कविता में डुबोये रहता.
संगीत
का मतलब होता था मुकेश के मनहूस गाने और कविता का मतलब मुकेश के और भी मनहूस गाने.
नब्बू
डीयर की ऑंखें सतत डबडबावस्था को प्राप्त रहा करतीं और वह बात-बात पर सुबकने लगता.
दारू पीकर उसका सुबकना चीत्कारों और दहाड़ों में परिवर्तित हो जाता जिसे वापस
नॉर्मल सुबकना बनाने के लिए गिरधारी लम्बू की “चोप्प भैं”
ही इकलौता कारगर उपाय होती. तो उक्त पार्टी में भी जब गिरधारी लम्बू
अपना उक्त डायलाग कहकर नब्बू डीयर को चुपाने की कोशिश कर रहे थे, एक कोने में अपनी दारू समझ रहे परमौत ने एक छलांग सी लगाई और नब्बू डीयर
की ऐन बगल में आकर बैठ गया.
इसके
बाद कोई आधे घंटे तक उसने नब्बू डीयर की प्रेमकथा को फर्स्ट पर्सन में सुना और
उसके भावुकतापूर्ण विवरणों ने उसे बहुत गहरे प्रभावित किया.
पहले
चरस-दारू-चोट्टागिरी और फिर मसाले-इंटर-हईस्कूल के चक्करों ने उसके भीतर के जिस
प्राकृतिक प्रेमसरोवर को लहराने से पहले ही सुखा डाला था, उसके तट पर नब्बू डीयर की आधे घंटे की संगत पाकर कुछेक आवारा कव्वानुमा
परिंदों के अपने नीड़ बसाने शुरू कर दिए.
“साली उसके प्यार के बिना भी क्या जिन्दगी है यार!” जैसी
नब्बू की बातें शुरू में परमौत को अजनबी सी लगीं पर जब गिरधारी लम्बू ने नब्बू की
बातों को ठोस शारीरिक धरातलों पर लाकर उनकी ससंदर्भ व्याख्या करनी चालू की तो
परमौत की कल्पनाओं को जैसे डैने उग आये.
हर
मिलौचा पार्टी की तरह यह पार्टी भी फूहड़ शायरी से होती हुई अश्लील चुटकुलों और
दारू की अतिरिक्त सप्लाई की खोज के निर्णय में समाप्त हुई.
परमौत
को छोड़ बाकी दल दारू के सन्धान में निकल रहा था जब अपनी मोपेड पर बैठते हुए उसने
गिरधारी और मुझे अलग से बुला कर सौ-सौ के कुछ नोट अपने कंट्रीब्यूशन के तौर पर
थमाए और दुबारा से कहा -“तुम तो भौत मौज काटने लग गए बे
सालो!”
***
अगली
शाम परमौत मेरे घर था. वह भीतर नहीं आया. गेट के बाहर से उसने थोड़े-थोड़े अंतराल के
बाद मोपेड के अधमरे हॉर्न को तीन दफा बजा कर परिचित संकेत दिया कि वह माल लेकर आया
है सो तुरन्त रेडी हो जाओ और घर पर कुछ भी झूठ बोलकर बस चल पड़ो. सो आधे घंटे के
उपरान्त श्मशानघाट से थोड़ा सा आगे गौला नदी के तट पर परमौत द्वारा प्रायोजित बीयर
और समोसों का लुत्फ़ उठाते हुए हम सचमुच मौज काटने में मसरूफ हो चुके थे. पिछली रात
के विवरण जब-तब हमारी बातचीत में चले आते और हमारे ठहाकों में वही तीन साल पुरानी
गर्मी लौट रही थी. परमौत की वापसी वाकई आह्लादकारी थी. चूंकि उसके आने से हमारी
सबसे बड़ी समस्या अर्थात पैसों की सतत तंगी का समाधान हो जाना था, हल्द्वानी में नवगुन्डत्व का आधिकारिक सर्टीफिकेट हासिल कर चुकने के
बावजूद गिरधारी लम्बू उसकी चमचागीरी करने तक में गुरेज़ नहीं कर रहा था. वह परमौत
को परमौद्दा कहकर नकली आदर दिखा रहा था. नब्बू डीयर ने परमौतस्कन्ध पर अपना सर
टिका लिया था और वह मुदित बकरियों वाली आवाज़ में चन्दनि सा बदनि चंचलि चितवनि
मिमियाता हुआ धीरे धीरे मुस्काने की कोशिश कर रहा था.
मुझे
यह ताड़ने में ज़्यादा समय नहीं लगा कि पिछले दोएक सालों की अनुपस्थिति के दौरान
परमौत उतना भोला और शरीफ नहीं रह गया था. लम्बे समय से मसालों का व्यापार करते हुए
अब अपना काम निकालने के लिए उसे किसी भी तरह का कोई भी ड्रामा करने में कोई हिचक
नहीं लगती थी. उस दिन वह ड्रामा कर रहा था और नब्बू डीयर को अपना हमराज़ बनाने का
उसका जतन उसकी जिस दूरगामी योजना का हिस्सा था उसका पूर्वानुमान लगा सकना उस समय
कतई असंभव था. जो भी हो इस तात्कालिक रहस्योद्घाटन का मुझ पर यह असर हुआ कि मैंने
बीयर सूतने की रफ्तार कम कर दी और नब्बू डीयर के साथ चल रहे परमौत के वार्तालाप पर
ज़्यादा ध्यान देना शुरू किया.
नब्बू
डीयर जो खुद हाईस्कूल में फेल होने में गिनीज़ बुक में आने की हसरत रखता प्रतीत
होता था,
इन दो घंटों में परमौत का शिक्षा-सलाहकार बन चुका था. उनके बीच हो
रही खुसरफुसर बता रही थी कि अगस्त में सप्लीमेंट्री के इम्तहान का रिजल्ट आते ही
परमौत को डिग्री कॉलेज में दाखिला दिलाने का ज़िम्मा नब्बू डीयर ने सम्हाल लिया था.
उच्च शिक्षा के प्रति नब्बू डीयर और परमौत की आत्माओं में जागृत हुए इस गहन अनुराग
का उत्स उस सार्वभौमिक, जगतसंचालिका, विध्वंसकारी
और आत्महंता भावना में था जिसके चक्कर में मनहूसशिरोमणि गायक मुकेश जीवनभर ये मेरा
दीवानापन और नज़रों का कुसूर करते रहे थे. संक्षेप में कहा जाय तो परमौत को नब्बू
डीयर की सड़ियल प्रेमकथा ने रात भर जगाये रखा था और अब वह भी किसी नाजनीना के साथ
अपनी जवानी को तबाह कर हल्द्वानी के प्रेमीजनों के लिए एक मिसाल के निर्माण की
हसरत रखता था.
तो
परमौत ने इश्क करना था और इस काम के लिए एक लड़की चाहिए थी. और शहर भर की इश्क किये
जाने लायक लड़कियां एक ही जगह जाकर सफ़ेद गधे पर बैठ कर आने वाले अपने सपनों के
राजकुमार की प्रतीक्षा करने का काम किया करती थीं. यह जगह थी डिग्री कॉलेज.
हल्द्वानी जैसे कस्बों में डिग्री कॉलेज खोलने के पीछे देश के नीतिनिर्माताओं की
यह परोपकारी सोच रही थी कि इंटर पास करने के बाद चढ़ती जवानियों को देशहित में
परस्पर सामंजस्य बिठाने के लिए नज़दीक आने के समुचित अवसर दिए जाने चाहिए.
पढ़ाई-वढ़ाई
से वैसे भी कद्दू नहीं उखड़ता – न मास्टरों से न बच्चों
से!
डिग्री
कॉलेज में सितम्बर के महीने में परमौत ने एडमिशन ले लिया. नब्बू डीयर को वैसे भी
तीन साल से वहां ऑनरेरी दाखिला मिला हुआ था और उसने यानी उसकी बेनाम प्रेमिका ने
एमे सोसोलॉजी की क्लास पढ़ना शुरू कर दिया था. परमौत काठगोदाम के क्लाएंट्स निबटाकर
सीधा अस्तबालनुमा कॉलेज की चारदीवारी के भीतर घुसता और एमे सोसोलॉजी की क्लास के
बाहर पर्सनल माशूकादर्शन का धैर्यपूर्वक संचालन कर रहे नब्बू डीयर की बगल में जाकर
स्थापित हो जाता. शुरुआत के दस-पांच दिन तो सलवार-कमीजों के रंगबिरंगे और सतत
लहरायमान महासागर को देखकर परमौत की आँखें चौंधियाई रहीं लेकिन धीरे धीरे उसने अलग
अलग रंगों और आकारों में फर्क करना आ गया और जल्द ही उसने हमारी राष्ट्रीय हॉबी
अर्थात युवतीदर्शन को अपनी भी हॉबी बना लिया. इस राष्ट्रीय हॉबी को कुछ लोग
स्वास्थ्य के लिए बेहद मुफीद मानते थे और इसे विटामिन आई अथवा विटामिन एम कहा
करते. आई माने आँख और एम माने सामान. इस कार्य को दो घंटे अंजाम देने के बाद परमौत
अपनी मोपेड को गोदाम ले जाकर दुबारा से लादता और रुद्दरपुर की राह पकड़ता. लोकल
बिजनेस के लिए शाम के घंटे नियत थे.
डिग्री
कॉलेज में पाई जानेवाली लड़कियों की इफरात ने शुरू में तो परमौत को परमानन्द की
अनुभूति कराई पर उसमें किसी तरह का ठोस परिणाम पाने की संभावना नगण्य के बाराबर
थी. जैसे नब्बू डीयर का मामला लिया लाये. तीन सालों से वह बंशी थामे, डोरी झील में फेंककर मच्छी के अपने आप फंस जाने की राह देख रहा था जबकि अब
तक उसे यह तक पता नहीं चल सका था कि मच्छी में कांटे कितने हैं. परमौत को इंस्टैंट
फ़ायदा प्राप्त करने की आदत पड़ी हुई थी जिसमें इस हाथ माल ले उस हाथ पैसे दे का
सादा-सरल सिद्धांत काम किया करता था. शनैः-शनैः परमौत नब्बू डीयर और उसकी दिल का
कचूमर कर देने वाली प्रेमसाधना से चटने लग गया. भाग्यवश ऐसी नैराश्यपूर्ण स्थिति
को बदल देने के महोद्देश्य से हल्द्वानी नगर के इतिहास में फूलनदेवी-छविराम प्रकरण
घटित हुआ.
ज़ाहिर
है एक लड़की थी जिसका नाम हालिया सामाजिक घटनाओं के परिदृश्य में राष्ट्रव्यापी
ख्याति पा चुकी दस्युसुन्दरी के नाम पर कर दिया गया था. ज़ाहिर है एक लड़का भी था.
और लड़का नब्बू डीयर का बालसखा था. लड़का छिटपुट पॉकेटमारी और रिक्शाचालकों को लूटने
के शौक़ रखता था और फूलनदेवी से मोहब्बत करता था. लड़के का नाम अभी गणेश ही था औ मैं
उसे गणेश ही कहूँगा.
नब्बू
डीयर की तरह गणेश ने भी कॉलेज में ऑनरेरी दाखिला ले रखा था और सलवार-कमीजों के
महासागर में से उसने टेरीकॉट की एक फ्लोरल प्रिंट वाली लहर को अपने लिए चुन लिया
था जिसे छात्रसमुदाय फूलनदेवी कहा करता था. चुनाव के बाद बारी आई अप्लाई करने की.
यह तकनीकी रूप से मुश्किल माना जाने वाला काम था और विशिष्ट कौशल की दरकार रखता
था. और इस मामले में यह काम और भी पेचीदा इस वजह से था कि उपरिवर्णित सुन्दरी
एडवांस होने के साथ साथ फास्ट भी थी. वह जीन्स पहनने का माद्दा रखती थी और काला
चश्मा पहनाकर “हाय ससी रे हाय!” कहकर
अपनी क्लासमेट का सार्वजनिक चुम्मा लेने का भी. उसका भाई काठगोदाम में दारोगा था
और इस इकलौते तथ्य ने गणेश को पहले उससे खौफ़ खाने और बाद में उससे मोहब्बत और शादी
करने की उद्दाम उत्कंठा से लबालब कर डाला था.
पिछले
डेढ़ साल से वह अपनी चचेरी बहनों, उनकी दोस्तों और हरिया
अद्धे से लिखाई दो चिठ्ठियों के माध्यम से फूलन के दरबार तक अपनी उक्त मंशा को
पहुंचा चुका चुका था लेकिन फूलन ने “एक दूंगी सॉट शाले को”
कहकर हर बार उसे रिजेक्ट कर दिया था. गणेश के स्वाभिमान को इन
घटनाओं से ज़रा भी ठेस नहीं पहुँची और एक दिन हिम्मत जुटा कर वह सीधा फूलन के सामने
खड़ा हो गया जब नायिका रायब्रेली से किताबें इश्यू कराकर लाइन छोड़ रही थी. गणेश के
एक हाथ में पान के पत्ते वाला ग्रीटिंग था, दूसरे में कॉलेज
के लॉन से तोड़ा गया गेंदे का एक गंधाता हुआ फूल और हलक में पाव भर ओल्ड मॉन्क.
“मुज्से सादी कल्ले, तुजे हल्द्वानी की रानी बना
दूंगा” कहकर गणेश ने इज़हार-ए-मोहब्बत किया. उस शाम फूलन के
भाई ने काठगोदाम की चौकी में गणेश के साथ अपने इज़हार-ए-मोहब्बत को अभिव्यक्ति देने
में पुलिस ट्रेनिंग में सीखे अधिकाँश गुर आजमाए.
गणेश
नहीं हारा.
इसके
बाद अगले कई महीनों तक वह फूलन से “मुज्से सादी
कल्ले” गुहार लगाता रहा और जगह-जगह पिटता रहा. लेकिन हारा
नहीं. वह घटना जिसे नगर के इतिहास में फूलनदेवी-छविराम प्रकरण के नाम से रेकॉर्ड
किया गया, ऐन दीवाली की छुट्टी घोषित होने के दिन घटी. अपनी
परिचारिकाओं से घिरी फूलन कॉलेज गेट से बाहर निकल रही थी जब सुबह-सुबह आधी बोतल
ओल्ड मॉन्क झाड़ आया गणेश निर्णायक तरीके से किसी ट्रैफिक के सिपाही की तरह
हस्त-संचालन करता उसके रास्ते में खड़ा हो गया. शुरुआती नोंकझोंक के बाद जीवन में
पहली बार सुबकते हुए गणेश ने धमकी दी “मुज्से सादी नहीं
करेगी ना तो समज ले मैं अपनी जान दे दूंगा साली!”
“अरे जा जा खबीश शाले. भौत देख रखे तेरे टाइप के हुड्ड मरने वाले. जाता है
यहाँ से या ददा को बुलाऊँ अब्बी!”
“देख मैं सई कै रा तू सादी कल्ले मुज्से ना.”
“जा तू मर जा पैले फिर करती मैं तुजसे सादी.”
“मर जाऊंगा तो करेगी? पक्का?”
“पैले जाके मर तो सई” फूलन अब उससे मज़े लेने ले मूड
में आ चुकी थी.
मजमा
जुट रहा था और चालीस-पचास हकबकाए, मुंहखुले दर्शकों की
मौजूदगी में इतिहास बन रहा था. दो-तीन मिनट के प्रेमपूर्ण वार्तालाप के बाद गणेश
ने अपनी भारी जैकेट की भीतरी जेब से एक चाकू निकाला और अपने पेट में घुसेड़ लिया.
“मर शाले” कहकर हिकारत की निगाह डालती नायिका ठसके से
मटकती ऑटो को हाथ देने लगी.
गणेश
मरने की कोई प्लानिंग करके नहीं आया था. चाकू की याद तो इस चक्कर में आ गयी कि
सुबह भाभी ने उसे बेतरतीब नाखूनों पर लताड़ लगाते हुए नेलकटर थमाया था जिसे बाद में
इस्तेमाल करने की नीयत से उसने जेब में धर लिया था. तो जब फूलन बार-बार “मर शाले” कह रही थी, उसके
सुन्दर चेहरे पर आ रहे हिकारत के भावों में भी गणेश को अपनी मोहब्बत के लिए थोड़ा
बहुत स्कोप नज़र आ गया और उसने वहीं मरने का फैसला कर लिया. गणेश जैकेट की जेब में
हाथ घुसाए था. नेलकटर के चाकू को खोलने के जतन में लगी उसकी उँगलियों ने गणेश के
मस्तिष्क तक यह सूचना पहुंचा दी थी कि उसकी मंशा के लिहाज़ नेलकटर का चाकू भयानक
तरीके से अक्षम था.
गणेश
मरा तो नहीं पर उसकी हंसी बहुत उड़ी. चाकू इतना खुट्टल था कि उसके पेट को फाड़ना तो
दूर,
उसकी जैकेट के कपड़े तक का बालबांका न कर सका. खाली पेट में आधी बोतल
रम थी, ज़मीन पर गणेश बमय नेलकटर गिरा हुआ था, नायिका जा चुकी थी और पचास लोग हंस रहे थे.
अगले
दिन नायिका अपने छोटे भाई के साथ रामलीला ग्राउंड में पटाखे खरीदने गयी थी जहां
अपने “पिन्दार के सनमकदे” को वीरान कर हमारा नायक पुनः उसी
अर्जी के साथ पहुँच गया ““देख मैं सई कै रा तू सादी कल्ले
मुज्से ना. मुज्से रहा नी जाता. मैं छत से कूद के जान दे दूंगा अपनी बता रहा हूँ.”
नायिका
ने इस दफा उससे तो कुछ नहीं कहा, ग्राउंड की चौकीदारी में
लगे पुलिसवाले को अपना परिचय भर दिया.
गणेश
को उस रात हवालात में अपनी देह के कई उन अंगों और हिस्सों का पता चला जिनके साथ
अकल्पनीय मानवीय प्रयोग किये जा सकते थे.
गणेश
की दीवाली अस्पताल में बीती. उसके बारे में तमाम अपडेट्स हमें नब्बू डीयर की
मार्फ़त प्राप्त होती रहती थीं. अस्पताल से घर लौटने के दो घंटे बाद वह फिर अस्पताल
में था. घर पहुँचते ही वह छत में गया और मुंडेर पर जा कर उसने धरतीमाता की दिशा
में छलांग लगा दी. उसका घर एकमंजिला था और उसके चारों हाथ-पैर टूट गए.
ऐसा
करने के लिए माद्दे की नहीं मोहब्बत के फितूर की ज़रूरत होती है, और मोहब्बत का फितूर गणेश में ठुंसा हुआ था.फूलन मान गयी भाईसाब. फूलन सही
में मान गयी. मोहब्बत में जान की बाज़ी लगाने की बातें तो फिल्मों में होती हैं.
यहाँ तो सचमुच का मजनूँ गणेशावतार में आया था. कैसे नहीं मानती.
हुआ
यह कि अस्पताल में स्वास्थ्यलाभ कर रहे गणेश ने तिकोनिया के फेमस छोले-भटूरे खाने
की इच्छा जताई थी. इस कार्य को अंजाम देकर नब्बू डीयर और परमौत मोपेड से लौट कर
अस्पताल के प्राइवेट वार्ड के द्वार पहुंचे ही थे उन्हें भीतर से एक स्त्रीस्वर
सुनाई दिया.
“तू तो पक्का लाटा है शाले गणेस यार! एकदम भिशौणा!” गणेश
का सदियों बाद प्रसन्न हो आया मुंह खुला हुआ था और फूलन उसे अपने हाथों से
छोले-भटूरे सुतवा रही थी.
इस
दृश्य को देखते ही नब्बू डीयर और परमौत काठमरे उल्लूओं की तरह बाहर रेलिंग से सट
कर खड़े हो गए. उनकी धमनियों में रक्त के प्रवाह का वेग कई लाख गुना तीव्रतर होता
जा रहा था. दोनों के लिए यह प्रेरणा झपट लेने के अविस्मरणीय और दुर्लभ पल थे. अगर
गणेश जैसे पॉकेटमार के भीतर फूलनदेवी जैसी कटीली माशूका सैट कर सकने की ताब थी तो
उनके भीतर भी होनी चाहिए. लेकिन वह ताब उनकी देहों के भीतर कहाँ है यह जानना उनकी
सामर्थ्य से बाहर था.
अपने
लाये-खरीदे तिकोनिया के फेमस छोले-भटूरों को दोनों अस्पताल के लॉन के एक परित्यक्त
कोने में भकोसने में लगे थे जब परमौत ने गणेश को उन्हीं दिनों आत्मसमर्पण कर
विख्यात हुए एक महामुच्छड़ डकैत के नाम से जोड़ते हुए हल्द्वानी के इतिहास में अमर
बनाते हुए स्टेटमेंट जारी किया “नब्बू बेटे, भौत छविराम निकला ये गणिया तो यार. फूलन सैट कर ली साले ने.”
(जारी)
3 comments:
😂😂😂
Hello Ashokji,
After sometime I visited your blog today and was thrilled to find 'Haldwani Ke Kissey'. I love your writing that you know by now. I am waiting for the publication of Lapoojhanna. In the meantime,thanks for this series.
K P Sinha.
Reading this blog after long time. It is still one of the best.
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