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(पिछली क़िस्त से आगे)
परमौत की प्रेम कथा - भाग दस
लाईट
जाते ही नब्बू डीयर बोला - "लाईट चली गयी". अँधेरे में आसपास से गुज़र
रहे तीन-चार त्रिकालदर्शी महात्माओं ने भी कहा "लाईट चली गयी". इन सभी
के तीसरे नेत्र खुल चुके थे और ये लाईट जाते ही जान जाते थे कि लाईट चली गयी है और
आम जनता को इसकी सूचना देना अपना कर्तव्य समझते थे.
"हल्द्वानी
वालों को पता भी तो लगना चाहिए कि शहर में भन्चक आ गया है. अब तुम लोग यहाँ से फूट
लो वरना चचा तुम्हें इतना चाटेगा कि तुम्हारे दिमाग की खाल उतर जाएगी ..."
आगामी
कार्यक्रम की रूपरेखा बनती इसके पहले ही मंदिर के गेट की तरफ से "ओईजा ... ओ
बाज्यू ... मार दिया सालों ने रे ... मर गया रे परमौत मैं ... मर गया रे ..."
की हरुवा भन्चक की दर्दभरी पुकार उठी. हम उसी तरफ को भागे - कोई जाकर एक
पेट्रोमैक्स ले आया था जिसकी मरी हुई भकभक रोशनी में हमें दिखाई दिया कि परमौत के
चचा ज़मीन पर गिरे हुए थे. उनके ऊपर क्रमशः एक स्कूटर, एक मोटा व्यक्ति, एक
नौकरनुमा छोकरा और बर्फी की दो ट्रे स्थापित थे. इनमें जो जंगम थे उस के मुखमंडलों
हाल में घटे एक्सीडेंट और उसके बाद की बेतरतीब और नासमझ बदहवासी विराजमान थी.
स्थावरों का भूसा भरा हुआ था - स्कूटर का पिछ्ला पहिया अब भी घूम रहा था, उसकी
हैडलाईट लटक कर बाहर आ चुकी थी और घटनास्थल पर बर्फी बिखर गयी थी जिसके लालच में
इतनी देर में उम्मीद में पूंछ हिलाते, जीभ बाहर निकाले दो कुत्ते भी आ गए थे.
हरुवा भन्चक अर्थात परमौत के चचा का हाल सबसे खराब दिख रहा था और उन्हें तुरंत
बाहर निकाला जाना आवश्यक था.
ऐसे
मौकों पर आ जाने वाले दर्ज़नों लोग वहां खड़े हुए तमाशा देखने का राष्ट्रीय धर्म
निभा रहे थे.
"हटो
पैन्चो ... सब हटो सालो ..." कहते हुए गिरधारी लम्बू ने कमान सम्हाली और
हरुवा चचा को बाइज्ज़त बाहर निकालकर खड़ा करने की कोशिश की. "खुट टुट गो ...
खुट टुट गो ..." अर्थात मेरा पैर टूट गया है दोहराते हुए वे बार-बार नीचे बैठ
जा रहे थे.
दर्द
से कराहते हरुवा भन्चक की एक चप्पल घटनास्थल से नदारद थी और चप्पलविहीन पाँव
से खून निकल रहा था. मैंने और परमौत ने उसकी बगल में बैठकर चोट का संक्षिप्त
मुआयना किया और फ़ैसला किया कि चचा को जल्दी से पहले अस्पताल पहुंचाया जाना होगा.
इतनी देर में परमौत एक दफ़ा चचा को घर पर ही बैठ कर उसका इंतज़ार न करने और यहाँ आकर
अपनी ऐसी-तैसी कराने के चक्कर में थोड़ी सी डांट भी पिला चुका था.
स्कूटर
वाला इस बीच में नदारद हो चुका था. कोई भला आदमी एक रिक्शा बुला लाया. हरुवा भन्चक
को जस-तस उस में लादा गया. नब्बू डीयर ने झटपट सीट झपट ली और चचा का सर अपनी गोदी
में रख कर दिखावटी स्वयंसेवक-कम-अभिभावक बन गया. परमौत ने पैरों वाली जगह पर लगी
जुगाड़ बच्चा सीट खोल ली और उसमें बैठ गया. रिक्शा चला तो हरुवा भन्चक ने ऐसी कराह
निकाली जैसे उसकी शवयात्रा निकल रही हो. उसी अंदाज़ में भीड़ ने हुतात्मा वाहन को
विदाई भी दी. "बच्चों की तरे डुडाट पाड़ना बंद कर यार चचा." - परमौत अपने
तकरीबन हमउम्र चचा से तू-तड़ाक में ही बोलता था.
इस
तरह दस मिनट के भीतर ही सुख की अनुभूति से परम झन्डावस्था को प्राप्त होकर, जीवन
और मौज की क्षणभंगुरता पर विचार करते, दार्शनिक मुखमुद्रा बनाए गिरधारी लम्बू और मैं पीछे-पीछे
आने लगे. सतनारायण मंदिर से अस्पताल करीब एक मील की दूरी पर था. इसमें थोड़ी चढ़ाई
भी पड़ती थी. रिक्शेवाला विकट तरीके से मरगिल्ला था और इतना बोझा खेंचने उसके बस का
नहीं दीखता था. इसके बावजूद परमौत रिक्शे से नहीं उतरा. नब्बू डीयर से ऐसी उम्मीद
करना व्यर्थ था. मेन रोड तक जस-तस पहुँचने के बाद रिक्शे ने रफ़्तार पकड़ी और हमने पीछे
रहकर आराम आराम से चलना बेहतर समझा.
गिरधारी
झींक रहा था - "सीजन की पहली शादी में ऐसी भन्चक लग गयी साली. एक्क लौंडिया
भी ना देख पाए यार पंडित. दारू उतर गयी नफे में ..."
दारू
का नाम सुनते ही ख़याल आया कि बाईं तरफ को हल्का सा दिशापरिवर्तन करके हम लोग ठेके
पहुँच एक पव्वा समझ सकते थे और यही हमने किया भी. आसपास मच्छी की पकौड़ी तली जा रही
हो तो पव्वे को खाली झाड़ लेना पाप होता है - वर्षों में अर्जित किये गए इस ज्ञान के प्रभाव में हमने
मच्छी के ठेले पर ही छोटी-मोटी पाल्टी जमा ली. ठेलेवाला परिचित था और उसने " आज
रामनगर से रोहू आई है साब" कहकर हमें आधी की बजाय फुल प्लेट मच्छी सूतने को
विवश किया. अस्पताल पहुँचने की हड़बड़ी और अकेले मौज काट लेने से पैदा हुए अपराधबोध के
कारण जल्दी-जल्दी गटकी गयी दारू ने अपना असर दिखाया और गिरधारी लम्बू ने मच्छी
वाले को बचे हुए पैसे रख लेने को कहते हुए एक मिनट की शहंशाही लूट ली. हम लहराते
हुए अस्पताल को मुड़ने वाले चौराहे पर पहुंचे तो देखा थोड़ी भीड़ लगी हुई है. बगल से त्रिनेत्रधारी
कुछेक और धर्मात्मागण 'कोई एक्सीडेंट हो गया है' कहते हुए अपने राजमहलों की तरफ़ जा
रहे थे. उनके थैलों में सब्जियों के नाम पर कद्दू और लौकी जैसे कलंक लदे हुए थे और
वे 'सिबौ सिब' अर्थात 'हे भगवान ... बिचारे ... च्च्च्च ...' का जाप करते हुए परमपिता का धन्यवाद
कर रहे थे जिसने उन्हें इस एक्सीडेंट में भी कोई रोल नहीं दिया था.
मोड़
काटने के चक्कर में रिक्शेवाले से न तो झोंक ही सम्हल सकी थी न ही सवारियों
का बोझ. फलस्वरूप वह चकरघिन्नी खाता हुआ पलट गया था. एक्सीडेंट की बाबत इतनी
जानकारी हमें बिना किसी से पूछे मिल गयी थी. घटनास्थल पर पहुंचे तो पाया कि नब्बू
डीयर और परमौत अपने-अपने हाथ-पैरों का मुआयना करते हुए उठने की कोशिश कर रहे थे
जबकि भन्चक चचा और भी घायल होकर रोड इस मुद्रा लंबायमान पड़े थे जैसे उन्हें अब
चिता पर लिटा दिया गया हो और माचिस भर लगाने की देर हो. दिहाड़ी मारी जाने की आसन्न
संभावना से निराश दिख रहा मरियल रिक्शे वाला अपनी कोहनी थामे कभी अपने रिक्शे को
देखता कभी भीड़ को.
रेस्क्यू
ऑपरेशन नंबर दो के लिए एक हाथठेले की सेवाएं ली गईं. हरुवा भन्चक और नब्बू
डीयर ठेले पर आलू के बोरों की तरह लादे गए और परमौत ने हमारे कन्धों का सहारा ले
लिया. परमौत ने ही हाथ के इशारे से रिक्शेवाले को भी अपने पीछे पीछे अस्पताल आने
को कहा. सरकारी अस्पताल में न डाक्टर मौजूद था न कोई नर्स. एक
वार्डबॉय-कम-कम्पाउन्डर ने बड़े क्रूर तरीके से बेकाबू कराहते-रोते हरुवा भन्चक के
चोटिल पैर को मोड़-माड़ कर देखा और "टूट भी सकने वाला हुआ, नहीं भी टूटा होगा
क्या पता ... " कहकर बेतरतीब पट्टी बांधी. नब्बू डीयर और परमौत की चोटों को
पट्टी बांधे जाने लायक भी नहीं समझा गया. नौ-साढ़े नौ बजे हम पांच लोग अस्पताल से
बाहर निकल सके. इस तरह अपने हल्द्वानी-आगमन के दो घंटों के भीतर ही हरुवा चचा ने अपने
व्यक्तित्व और ग्रहों के प्रताप से हमारी ज़िंदगी और नगर की बिजली पर डबुल भन्चक
लगा दी थी. "ओईजा ... ओबाज्यू" अर्थात 'हे मातुपिता' करता हमारे साथ
लंगड़ा कर चलता हुआ हरुवा भन्चक बेहद दयनीय लग रहा था और हमें उसके लिए रिक्शा करना
चाहिए था पर हमने वैसा नहीं किया.
उसके
दोनों पैरों में चप्पलें नहीं थीं. गिरधारी लम्बू ने जब इस बात का ज़िक्र किया तो
अक्सर ज़रुरत से ज़्यादा सिपला बनने वाले
नब्बू डीयर ने अपनी जेब से एक चप्पल निकालते हुए शाबासी पाने की उम्मीद में कहा -
"चौराहे पर रिक्शा जैसेई पलटा ना तो चचा की चप्पल निकल गयी रही. मैंने कहा
नबुवा अपनी चोट की क्या है, चप्पल नहीं खोनी चइये, बाकी चाए कुछ हो जाए. समाल ली थी
मैंने ..."
"दूसरी
कां है?" परमौत ने बिना ज़्यादा दिलचस्पी दिखाए पूछा.
"मुझे
क्या पता. अपने चचा से पूछ परमौद्दा ..."
"दूसरी
पैले ई हरा आया हुआ चचा सतनारायण में ... अब इस दूसरी वाली को भांग में डालके चार
दिन घर के बाहर गाड़ देना. पांचवें दिन नई जोड़ी निकलने वाली हुई बल ..." नब्बू
डीयर की मज़ाक बननी शुरू हुई तो हम सब अपनी रंगत में आने लगे. हरुवा भन्चक भी
नवोत्साहपूरित होता दिखने लगा था और अपने प्रिय भतीजे-कम-सखा से कह रहा था -
"परमोदौ ... तीस जैसी लग रई हुई यार ... तुम लौंडे तो साले दो घंटे से भबक रे
हो ... कुछ हो जाता जरा ..."
हरुवा
चचा के आग्रह के बाद "अब आगे क्या करना है?" की निगाह एक-दूसरे पर डालने
के उपरान्त हमने कोटा खरीद कर पहले एक निगाह सतनारायण मंदिर जाकर डालने का निर्णय
लिया - हो सकता है किसी भी तरह का कुछ माल वहां अब भी बचा हो!
माल समझकर हमने तीन रिक्शे कर लिए. अड्डे पर पहुंचकर एक चोर निगाह एट-होम के वेन्यू पर
डाली तो पाया कि खाना निबट चुका था और भीतर बेशुमार कागज़-प्लास्टिक की प्लेटें और
गिलासेत्यादि बिखरे हुए थे. एक कोने में दूल्हा-दुल्हन और उनके परिवारों के लोग इकठ्ठा
होकर लगभग अंतिम अधिवेशन में संलग्न दिख रहे थे. बिना दुबारा सोचे तुरंत गोदाम जाने का
फैसला किया गया. दुल्हन बनी फूलन और उसकी बगल में खड़े अपने नगर के गौरव और अब
'मोहब्बत का मसीहा' कहलाये जाने वाले गणिया छविराम को साथ फोटू खिंचाते देखने का हमारा कितना मन था
लेकिन वह हमारे भाग्य में बदा न था.
पहले
यह तय हुआ कि एक बोतल में सैट करा कर हरुवा चचा को घर पर नत्थी कर आया जाएगा लेकिन
वहां भाई-भाभी का सामना हो जाने का खतरा था. परकास की कर्री अनुशासनप्रियता के
चलते हरुवा भन्चक को भी उससे डर लगता था.
खैर.
एक बोतल के बाद समां जैसा बंध गया. हरुवा का कराहना बंद हो गया था और उसे कोने
वाले बिस्तर पर लधर जाने को कह दिया गया. दूसरी बोतल के आधा निबटने तक उसने
बाकायदा हलके हलके खर्राटे भी निकालने शुरू कर दिए थे. लाईट न होने के वजह से बहुत
साफ़ साफ़ तो नहीं देखा जा सकता था लेकिन लग रहा था कि वह सो चुका.
"कैसी
चल्ली परमौद्दा लैला-मजनू वाली पिक्चर कहा" नब्बू डीयर ने परमौत को साधिकार
छेड़ते हुए पूछा.
"सई
चल्ली नबदा. तुमने बताया रहा कि डरना नईं हुआ किसी से तो परमोद ने डरना छोड़ दिया
ठैरा सबसे. सई चल्ला ... सब्ब सई चल्ला ..."
"कुछ
बात-हात चलाई मेरी ... वो मोटी वाली से ... क्या नाम कै रा था तू ... उस से ...
मल्लब ..."
"तू
भी यार नबदा हुआ साला एक नंबर हरामी. ये नईं कि साला परमोद जिंदा कैसे है. साले की
ज़िन्दगी नरक हो गयी पिरिया के बिना. उससे मिला या नहीं तो पूछ नहीं रहा अपने चक्कर
में लगा हुआ ... अरे पैले मेरा होने दे तेरा भी हो जाएगा ... क्या कैने वाले हुए
मुकेस गुरु तेरे कि भगवान के घर ..."
परमौत
और नब्बू का शास्त्रार्थ शुरू हो चुका था. इस की बारम्बारता और मनहूसपंथी से चट
चुके गिरधारी और मैं हाँ-हूँ करते और कोटा समझते जाते. पता नहीं कब दोनों विद्वज्जनों का शास्त्रार्थ एक दूसरे की काल्पनिक प्रेमिकाओं और उनके काल्पनिक मिलन
की सतही बातों से होता हुआ प्रेम यानी इश्क़ यानी मोहब्बत यानी आशिकी की परिभाषा और
प्रकार जैसे तकनीकी विषय पर पहुँच गया था.
"प्यार
का मतलब होने वाला हुआ लभ - एल ओ भी ई - लभ - और लभ जिससे होने वाला हुआ उसे कैने
वाले हुए लभर. और जो तुमारा लभर हुआ उसके साथ तुमारे लभ के बाद तुम वो हो जाने
वाले हुए और वो तुम हो जाने वाला हुआ ...
आई समझ में ... मल्लब दो बॉडी होने वाली हुई लेकिन लाइफ उस में ठैरी एकी. एक को
पत्थर मारो तो साली दूसरे की नकसीर फूट जाने वाली हुई ... मुकेस गुरु का गाना भी
हुआ ऐसे में कि जिन्दगी और कुछ बी नईं तेरी-मेरी कहानी हुई बस ..." - नब्बू डीयर
की फिलॉसफी की क्लास चालू थी.
परमौत
ने निरंतरता बनाए रखने की गरज से पूछ लिया - "जब दो लोग एक हो जाने वाले हुए
नबदा यार तो फिर सादी का क्या मल्लब हुआ? सादी करने की जरूअत ही क्या हुई
साली..."
"ल्ले!
इसमें तो एक गाना कै गए हुए उस्ताज .... " कहकर नब्बू डीयर ने अपनी पतली सी
मरियल आवाज़ में पहले तो थोड़ा सा "हुँ हुँ" किया, उसके बात बाकायदगी से
मिमियाना शुरू कर दिया -
अरिमां किसिको जन्नति की रंगी गलियों
का
मुजिको तेरा दामनि है बिस्तरि कलियों
का
जहाँ परि हैं तेरी बाहें, मेरी जन्नति भी वईं है"
गला
खंखार कर उसने संदर्भ और व्याख्या शुरू कर दी - "मल्लब कि लभर को फूल पत्ती
जो क्या चैये ठैरी - उस बिचारे को तो अपने लभर की बांह में लेट के मर जाने का मन होने वाला
हुआ ... और मुकेस गुरु कैने वाले हुए कि मेरे जैसे तो लाखों हुए लेकिन मेरे
मैबूब जैसा जो क्या कोई ठैरा ... तबी तो मैं कैता हूँ ... "
"बस
लेट के मर ही जाना हुआ तो साला दारू पी के मरना ज़्यादा ठीक हुआ. है नहीं? और साला
बांह में लेट के मरने को जो चूतिया करता
होगा सादी ... सादी तो यार परमौद्दा उस के ई चक्कर में करने वाले हुए सब ....
मल्लब उसके ...." शास्त्रार्थ में अश्लीलता फैलाने के उद्देश्य से गिरधारी
लम्बू में दो उंगलियाँ टेढ़ी कर के परिचित निशान बनाया.
परमौत
इस व्यवधान से उखड़ने ही वाला था कि कोने से हरुवा भन्चक ने, जिसे हम सो चुका समझ रहे
थे, बोलना शुरू किया - "तुम शब शाला ब्लैडी गंवाड़ी मैन ... लभ के बारे में
क्या जानता ... जितना जानता जानता लेकिन कन्नल हरीस चन्न के बराबर नईं जानता
..." परमौत के हवाले से हमें ज्ञान था कि मदिरा के अतिरेक में हरुवा भन्चक के
भीतर फ़ौज के कर्नल की आत्मा आ जाया करती थी और वह अंग्रेज़ी में बोलने लगता.
"लभ
मल्लब आई एम टैलिंग यू मिस्टर परमोड एंड मिस्टर गिरढारी - आर यू ए पतंगा ऑर ए भौंरा?"
जिसे
हमने मरा हुआ जान लिया था वह कब से हमारी बातें सुनकर हमें गधा समझे हुए था और
बाकायदा चैलेन्ज कर रहा था - "पतंगा या कि भौंरा?"
परमौत
कभी अपने चचा-कम-सखा को देखता, कभी मित्रमंडली को.
"माई
डीयर भतीजा. आई एम ए टैलिंग यूवर ब्लैडी फुकसट दोस्त्स दी मोस्ट भैन्कर सीक्रेट
ऑफ़ दी इन्डियन आर्मी एज़ दी लभ." अब भन्चक ने गुरु का आसन ग्रहण कर लिया था -
"लभ
इज दी टाइप ऑफ़ ए टू - वन इज ऑफ़ दी पतंगा टाइप एंड वन इज ऑफ़ दी भौंरा टाइप ..."
3 comments:
नब्बू डियर की 'लभ-फिलोसफ़ी' महोब्बत के मारों के लिये मिशन-स्टेटमेंट सी बन पड़ी है. बहुत ही शानदार!
अद्भुत। अनुपम । अविस्मरणीय । अद्वितीय ।
अद्भुत। अनुपम। अविस्मरणीय। अद्वितीय।
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