Thursday, January 12, 2017

हल्द्वानी के किस्से - 5 - नौ


(पिछली क़िस्त से आगे)

परमौत की प्रेम कथा - भाग नौ 

एक होते थे हरुवा भन्चक. पहाड़ की शैली में कहा जाए तो इस कहानी में उनका प्रवेश करना अब मस्ट हो गया था.

हरुवा भन्चक का असली नाम हरीश कुछ था लेकिन यह ख़िताब उन्हें उनके समकालीनों ने तब दे दिया गया था जब वे कुल जमा बारह साल के हुए थे. उस साल स्कूल में स्वतंत्रता दिवस के दिन फहराने तो झंडा तैयार करने का जिम्मा उन्हें मिला था क्योंकि वे स्काउट टीम के कप्तान बना दिए थे. देश-प्रदेश के अन्य सरकारी स्कूलों की तरह इस स्कूल में भी स्काउट-गाइड का एक मास्टर होता था जो सबसे निखिद्द और हौकलेट माने जाने वाले कार्यों के प्रतिपादन और यदा-कदा अरेंजमेंट मास्टरी लिए नियुक्त किया जाता था और उक्त स्कूल के उक्त मास्टर हरुवा के मामा हुआ करते थे. ज़ाहिर है कप्तान हरुवा ने बनना था.

तो साहब तीन दिन तक मामाजी ने हरुवा को झंडा तैयार करने की रिहर्सल करवाई लेकिन ऐन स्वतंत्रता दिवस के दिन मास्साब अपने काबिल भांजे के दिशानिर्देशन के लिए उपलब्ध नहीं हो सके अर्थात उन्हें अपने मकोट हो रहे एक निकट संबंधी का पीपलपानी अटैंड करने के चक्कर में छुट्टी जाना पड़ गया था. मामाजी द्वारा करवाए गए अभ्यास की बदौलत हरुवा ने झंडे की रस्सी में ऐसी गाँठ बांधी कि प्रिंसिपल साहब के दसियों बार खेंचे जाने पर भी वह नहीं खुला. सारे बच्चे झंडा खुलने और उसके बाद मिलने वाले बूंदी के लड्डुओं की थैली का इंतज़ार कर रहे थे. राष्ट्रध्वज की ऐसी हालत होते देख पूरन चन्द्र उर्फ़ पुरिया गुरु नामक विज्ञान ने मास्टर ने प्रिंसिपल साहब की मदद करने की पेशकश की जिसके मान लिए जाने पर उन्होंने रस्सी को थोड़ा जोर से खींच दिया. झंडा खुला तो नहीं, झटका लगने से उसका दुबला सा बांस बीच से एक कड़ाक के साथ दो हिस्सों में टूट गया. ऊपर का हिस्सा हवा में उड़ा और मय झंडे के प्रिंसिपल की खोपड़ी पर लगा. जब तक वे कुछ प्रतिक्रिया करते, पुरिया गुरु ने चपलता के साथ झंडे को कैच कर लिए और देश का अपमान होने से बचा लिया. करीब दस मिनट तक रस्सी की भयानक तरीके से उलझ गयी गांठों को जब तक पुरिया गुरु सुलझाते और झंडे को फहराने के लिए प्रिंसीपल साहब को हैण्डओवर करते, बाकी मास्टरों ने हरुवा के मामा को अनन्त बार कोसते हुए पर्याप्त मौज काट ली थी. अंततः झंडे को प्रिंसिपल साहब द्वारा हाथ में लेकर इस तरह फहराना पड़ा जैसे जल्दीबाज़ी में  तौलिया सुखा रहे हों.

देश का सम्मान बच जाने के बाद लड्डू वितरण हो रहा था जब एक बच्चे ने, संयोगवश जिसके मामा पुरिया गुरु थे, अपने मामा को बता दिया कि गाँठ असल में स्काउट-गाइड मास्टर बाँध कर नहीं गए थे बल्कि उनके भांजे-कम-शिष्य हरुवा ने बांधी थी. बात प्रिंसिपल साहब तक पहुँची जिन्होंने वहीं खड़े-खड़े फरमान सुनाया कि सजा के तौर पर हरुवा को लड्डू न दिए जाएं. हरुवा वैसे ही शर्म और भय से भरा हुआ था. अपनी नाकामी उजागर हो जाने और दंड मिल जाने से उसे उतनी परेशानी नहीं हुई जितनी इस विचार से कि रात को लौटने पर मामाजी उसका क्या हाल बनाएँगे. प्रिंसिपल साहब लड्डू सूत रहे थे, पुरिया गुरु और सारे मास्टर लड्डू सूत रहे थे, चपरासी और तमाम बच्चे लड्डू सूत रहे थे - बस लड्डूहीन हरुवा ही धरती से निगाहें चिपकाए था. प्रिंसिपल साहब ने अचानक उसे अपने पास बुलाया और दो बढ़िया थप्पड़ रसीद करने के उपरान्त स्टाफ का मनोरंजन करते हुए कहा - "भन्चक है साला अपने मामू की तरह." ज़ाहिर है सारा स्टाफ हंसा. खुलकर हंसा और हरुवा को असह्य ग्लानि का अनुभव हुआ.

भन्चक कुमाऊँ में प्रचलित एक शब्द है जिसका अर्थ हरुवा को नहीं आता था. किसी भी तरह के शुभ या आवश्यक कार्य के संपन्न होने में आ जाने वाली अप्रत्याशित बाधा के लिए इस शब्द का प्रयोग किया जाता है. इसे भन्चक लगाना कहते हैं. यदि यह बाधा सीधे सीधे किसी व्यक्ति के कारण उत्पन्न हुई हो तो उसे इस उपाधि से लाद दिया जाता है कि फलां आदमी तो भन्चक हुआ.

प्रिंसिपल साहब का आशय भी इसी बात से था कि हरुवा के मामा अर्थात स्काउट-गाइड मास्साब को जो भी काम सौंपा जाय वह कभी पूरा नहीं हो सकता चाहे उसमें भगवान भी अपनी पूरी ताकत लगा दें. गाँव में प्रचलित लोकगाथाएं बताती थीं कि एक साल हरुवा के मामा को आठवीं के बोर्ड इम्तहान की मैथ्स की कापियों का गट्ठर अल्मोड़ा पहुंचाने की ड्यूटी मिली. कापियों को अगले दिन शाम के पांच बजे तक अल्मोड़ा दफ्तर में जमा कराया जाना अनिवार्य था. प्रिंसिपल साहब जानते थे कि कार्य समय पर न हो सकने की स्थिति में उनकी नौकरी भी खतरे में आ सकती है सो उन्होंने इस काम के लिए हरुवा के मामा को ज़िम्मा सौंपा जिसके पास और कोई काम नहीं था. अल्मोड़े पहुँचने के लिए पहले गाँव से पांच किलोमीटर पैदल चलकर मुख्य मार्ग तक पहुंचना होता था जहाँ द्वाराहाट से रानीखेत जाने वाली वाली केमू की बस पकड़ी जा सकती थी. पहली बस साढ़े सात बजे उनके अड्डे से गुज़रती थी. रानीखेत से अल्मोड़ा जाने को दिन में कोई आधा दर्ज़न केमू और रोडवेज़ की गाड़ियां मिल जाती थीं. गाँव से अल्मोड़े का सफ़र यह सफ़र करीब साढ़े चार-पांच घंटे का माना जाता था. प्रिंसिपल साहब ने हरुवा के मामा को अपनी और उनकी नौकरियों के धार पर लग जाने का हवाला देकर उन्हें इतनी हिदातें दे दी थीं कि वे रात को गलत अलार्म लगा बैठे.

अलार्म लगाए गए समय के मुताबिक़ डेढ़ बजे बजा और वे उसे साढ़े चार मान कर खटाक से उठे. रोशनी करने को मोमबत्ती जलाने को माचिस ढूंढी तो उन्होंने पाया कि माचिस पिछली रात से ख़त्म थी. प्रिसिपल को इस आपदा का ज़िम्मेदार मानते हुए उन्होंने उसे दस बारह मोटी गालियाँ समर्पित कीं और अँधेरे में ही जस-तस नहाने-धोने के पश्चात कर पूजा वगैरह निबटाकर उन्होंने रात की बचाई गयी दो रोटियों को किसी तरह निगलकर नाश्ता समझा और पुनः प्रिसिपल को गालियाँ देते और झींकते हुए गाँव से मुख्य सड़क की पैदल यात्रा पर निकल पड़े. हालांकि वह भूतों के मिलने का समय था लेकिन रास्ते में रहनेवाले किसी भी भूत ने उन्हें परेशान नहीं किया अलबत्ता उनके जूते के तले ने उखड़ना शुरू कर दिया. अँधेरे में वे गलती से पुराना और बदरंग जूता पहन आये थे. उन्होंने फिर प्रिंसिपल का स्मरण किया और किसी तरह तीन-सवा तीन बजे मुख्य मार्ग पर पहुँच गये. ज़ाहिर है चाय का खोखा अभी नहीं खुला था. वहां पर मौजूद श्वान समुदाय ने उनका स्वागत किया जिसका जवाब हरुवा के मामा ने पत्थर-ढेलों और प्रिंसिपल की दिशा में प्रक्षेपित गालियों की सहायता से दिया. अगले दो-ढाई घंटे उन्होंने सर्दी और हैरत में ठिठुरते और बस का इंतज़ार करने में काटे. पौने छः के आसपास जब खोखे वाला ऊंघता हुआ वहां पहुंचा तो मास्साब को देखकर हैरान हुआ. मास्साब को तब तक अलार्म में हुई गड़बड़ी समझ में आ चुकी थी और वे कुछ भी कह सकने की हालत में नहीं थे. झेंपते हुए उन्होंने किसी तरह अपनी शर्म छुपाई और चाय बनाने का आर्डर दिया. उस दिन खोखे में न दूध था न चीनी क्योंकि खोखामालिक पिछली शाम जुए में सारे पैसे हार गया था और अगली सुबह चाय बनाने को दूध-चीनी खरीदने को उसके उसके पास अठन्नी तक नहीं बची थी. हाँ माचिस थी. जीवन में पहली बार हरुवा के मामा ने   इतनी सुबह कड़वी चाय पी. केमू की गाड़ी समय पर आई और जैसे ही वे उसमें चढ़े उनके जूते का तला शेष जूते से पूरी तरह जुदा हो गया और सड़क पर ही रह गया.

हरुवा के मामा की इस अल्मोड़ा यात्रा की तफ़सीलात के अनंत संस्करण अब तक शिक्षा विभाग के उनके समकालीन मास्टरों और चपरासियों के दरम्यान सबसे अधिक सुने-सुनाये गए मनोरंजक किस्से का हिस्सा बन चुके हैं. इन तफसीलों में रानीखेत जा रही बस के टायर का पंक्चर होना, रानीखेत के मोची द्वारा उनके जूते में किये गए अभिनव प्रयोग, अल्मोड़ा जाने को बस का न मिलना, उनका ट्रक पर बैठकर आधे रास्ते कोसी तक जाना, फिर कोसी से पैदल अल्मोड़ा पहुंचना, अल्मोड़े में सम्बंधित दफ्तर का बंद मिलना और कॉपी जमा करवाए जाने के एवज में चपरासी द्वारा बीस रूपये की घूस ऐंठ लिया जाना इत्यादि तत्वों ने इस किंवदंती को जन्म दिया कि स्काउट मास्साब दुनिया के सबसे बड़े भन्चक हैं. हरुवा के मामा को अपनी इस ख्याति की भनक थी लेकिन शांतिप्रिय होने के कारण वे चुपचाप अपनी निठल्ली नौकरी बजाते रहे.

सो उस रात जब वे वापस ठीहे पर पहुंचे तो उन्होंने पाया कि हरुवा ने सब्जी तक काट कर नहीं रखी थी और वह मुर्दा सूरत बनाए उनकी बाट तक रहा था. उनके आते ही हरुवा ने पूछा - "मामू ये भन्चक क्या होने वाला हुआ?"

पीपलपानी और सफ़र की चिल्लपों से थके हुए मामू ने हरुवा को इतना मारा कि उसकी नाक से खून निकल आया. जब मामला शांत हुआ तो खुट्टल चाकू से आलुओं के छिलके उतारते और अब भी सिसकते हरुवा ने पव्वा खेंचकर निढाल पड़े अपने मामू को अपनी औकात के हिसाब से उलाहना देते हुए कहा - "तुमको भी तो भन्चक बता रहे हुए प्रिन्स्पुल सैप. जो होता होगा साला ठीक तो नहीं होता होगा.  मामू ने कोई जवाब नहीं दिया.

हरुवा को भन्चक का अर्थ जानने के लिए अगले दिन स्कूल पहुँचने का इंतज़ार करना पड़ा जहाँ क्लास में थोड़ा देरी से उसके घुसने पर अक्सर शांत रहनेवाले तारी मास्साब ने उसका खैरमकदम करते हुए "कां रै ग्या था रे भन्चकौ?"

उस दिन के बाद से हरुवा को हर किसी ने हरुवा भन्चक कह कर ही पुकारा. हरुवा ने कालान्तर में नाम के अनुरूप ही महात्मा जैसे कर्म भी किये और उनकी उपलब्धियों को भी इलाके में लोकगाथाओं का दर्ज़ा हासिल हुआ. मसलन वे आटा पिसाने गए तो आटे की चक्की के मालिक का हाथ पट्टे में फंस गया. उन्होंने हाईस्कूल में आर्ट ली तो स्कूल के आर्ट मास्टर ने अपना तबादला करा लिया और अगले दस साल तक वहां किसी आर्ट मास्टर की नियुक्ति नहीं हुई. हरुवा की शादी जिस लड़की से तय की गयी थी वह गाँव में आये रूई धुनने वाले एक बिजनौरी धुनिये के साथ भाग गयी. हरुवा अपनी माँ को इलाज की खातिर हल्द्वानी लेकर आया तो हल्द्वानी में उस दिन डाक्टर हड़ताल पर चले गए.

हरुवा भन्चक और उसके स्काउट मास्टर मामा की कथाओं को यहाँ संक्षेप में बताना इस लिए ज़रूरी था क्योंकि हीरोइन फूलन और गणिया छविराम की शादी वाले दिन हरुवा हल्द्वानी पहुंचा और उसके सतनारायण मंदिर परिसर में घुसते ही लाईट चली गयी और समूचे हल्द्वानी नगर में अगले तीन दिन तक लाईट नहीं आई.  

ऐसे परमप्रतापी हरुवा भन्चक नामक ये महापुरुष परमौत के दूर के रिश्ते के चचा लगते थे और अगले दो सप्ताह हल्द्वानी रहकर परकास के दिशानिर्देश में किसी रोज़गार का संधान करने नीयत से उसके घर जा पहुंचे थे. परमौत की भाभी द्वारा परमौत के व्हेयरअबाउट्स दिए जाने के बाद वे उसकी तलाश में सतनारायण मंदिर आये. ऐसा नहीं था कि हरुवा भन्चक परमौत से मिलने को मरे जा रहे थे. शाम हो चुकी थी और उनकी देह के पोर पोर से "दारू दो दारू दो" की पुकारें उठना शुरू हो चुकी थीं. हल्द्वानी आने का वह उनका चौथा या पांचवां इत्तफाक था लेकिन नगर का जुगराफिया उनकी समझ में अब तक नहीं आया था. वे अपने प्रिय भतीजे को तलाशकर उसके साथ पौने चार सौ मिलीलीटर की एक भूरी शीशी खाली करने की मंशा में परमौत को खोजते हुए उक्त घटनास्थल पर पहुंचे थे.

हमारी मंडली थोड़ा आगे एक वीरान गली में एट होम अटैंड करने की शुरुआती रस्म के तौर पर अद्धे से अपने गलों को भिगोकर सतनारायण मंदिर के गेट पर पहुँची ही थी कि परमौत की निगाह अपने हरुवा चचा पर पड़ी.  'भ' अक्षर से शुरु होने वाले दो सम्मानसूचक शब्द एक साथ निकालकर वह स्वतःस्फूर्त तरीके से बोला - "अबे यार लग गयी भन्चक ... ये साले चचा कहाँ से आ गया."

परमौत के ऐसा बोलते ही इधर चचा-भतीजे की नज़रें एक दूसरे से टकराईं  उधर लाईट चली गयी.

इस घटना के चालीस मिनट के भीतर बमय हरुवा भन्चक हम चारों सरकारी अस्पताल में थे.  

(जारी)

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