Tuesday, January 3, 2017

हल्द्वानी के किस्से - 5 - चार



परमौत की प्रेम कथा - भाग चार

नब्बू डीयर के मामा के परित्यक्त गोदाम में उस घटनापूर्ण मिलौचा पाल्टी वाली रात पहली दफ़ा मोहब्बत की रहस्यमय दुनिया के बारे में जानने से लेकर सात लड़कियों के साथ समोसा पाल्टी मनाने तक का स्पृहणीय कारनामा कर लेने परमौत ने पर्सनल डेवलपमेंट के कई मरहले पार कर लिए थे. बहुत ही अल्प समय में वह एक बौड़म फेलियर दुकानदार लौंडे से एक सफल बिजनेसमैन, दानवीर सह्रदय सखा, कम्प्यूटरज्ञानी और सबसे ऊपर एक कामयाब आशिक बन चुका था. उसके ठीक उलट हम लोग यानी उसके मित्रमंडल के जाहिल सदस्य चैंटू और दहल पकड़ जैसे भुच्च खेलों में समय बर्बाद करने और फ़िज़ूल की फ़िलॉसफ़ी झाड़ने में एक्सपर्ट बन रहे थे. शराब के घनघोर लालच और आलस्य ने हमें गनेल बना दिया था.

जिस समय हम लोग अपने दैनिक परमौत-निंदा कार्यक्रम का आगाज़ कर रहे थे, वह ससी और छः पिरियाओं के साथ समोसे खाने का लुत्फ़ लूट रहा था. उसकी सहपाठिनियों को उसकी जेब से निकले पैसे देखकर सदमा जैसा लगा था क्योंकि उनमें से किसी ने भी एक साथ इतनी रकम नहीं देखी थी. महीने भर से जिस परमौत को वे नगर का सबसे गया-बीता इंसान समझकर पीठ पीछे उसकी खिल्ली उड़ाती रही थीं और जिसका नाम उन्होंने घिनौड़ा रख छोड़ा था, वही असल में सबसे काम का आदमी निकला. बाजार जाकर समोसे भी वही लाया और सारे समोसों के पैसे भी उसी ने दिए. वह किलो भर गरमागरम जलेबी भी ले आया था.

क्लास से बाहर जाने, समोसे-जलेबी खरीदने और वापस लौटने के बीच का अंतराल परमौत के जीवन का उस समय तक का सबसे आह्लादकारी समय बन गया था - यह विश्वास उसके भीतर दृढ़ से दृढ़तर होता जा रहा था कि बहुत जल्द उसे उन सभी झूठों को सच्चाई का जामा पहना देने का मौका हाथ लगने वाला है जो वह पिछले महीने भर से हम लोगों से बोलता रहा था. उसकी कल्पना को डैने उग आये थे और समोसे-जलेबी खरीदता वह सोच रहा था कि ऐसे ही किसी दिन पिरिया के साथ बाजार में घूमता हुआ शॉपिंग कर रहा होगा और सामने से आ रहे नब्बू डीयर से उसे मिलवाता हुआ कहेगा - "ये हमारे दाज्यू लगने वाले हुए पिरिया! पैर छुओ तो जरा." उसने नब्बू डीयर के चेहरे पर आने वाले भावों के बारे में सोचा और उसकी हंसी छूट गयी. इस विषय पर विचार करने से उसे गुदगुदी सी महसूस हुई कि शादी के बाद पिरिया के साथ ज़िन्दगी कितनी खुशनुमा बीतने वाली है. 

फिलहाल समोसा पाल्टी सफल रही जिसके समापन तक लडकियां उसकी सम्पूर्ण जीवनगाथा जानने के अलावा उसका आर्थिक-सामाजिक आकलन भी कर चुकी थीं. वे मिर्चीदार चटनी में डुबो-डुबो कर समोसे खाती हुई अपनी नाक को सुड़कती-पोंछती जातीं और परमौत पर सवालों की बौछार करती जातीं -

"आप की भाबी कहाँ की हुई? राम्पुर रोड में आपका घर कहाँ पर हुआ? वैसे रहनेवाले कहाँ के हुए आप ... मल्लब  गाँव कौन सा हुआ? आपको सबसे अच्छा क्या लगने वाला हुआ? आप रोज जाने वाले हुए रुद्रपुर?" जैसे सामान्य ज्ञान वाले सवालों का अंत परमौत के लिए आई संवेदना की बाढ़ में हुआ -

"अरे इनकी तो ईजा भी नहीं हुई. हाय! ..."

"सिबौ सिब ... आपके बाबू कैसे जो मर गए ठैरे इतनी जल्दी ... छी रे ..."

पर्वतश्रृंखलाओं द्वारा उसे सामूहिक धन्यवाद-ज्ञापन किया गया और समूची कम्प्यूटर पहली बार क्लास से एक साथ  बाहर निकली. मतलब परमौत भी पहली बार इन खिलखिल करती लड़कियों के साथ ही बाहर निकला. परमौत ने झुकी हुई आँखों से भी ताड़ लिया कि अगल-बगल के दुकानदार उसे ज़रुरत से ज़्यादा घूर रहे थे. उनकी बदतमीजी और असभ्यता को अपने कद्दू के हवाले कर परमौत अपनी मोपेड पे बैठा तो लौंडियासमूह ने उसे सामूहिक "बाई कहा बाई ... कल मिलते हैं ... ओक्के ..." कहकर हकबका दिया.

इस अप्रत्याशित आयोजन के बाद परमौत गोदाम जाने की जगह सीधा घर गया और बिस्तर पर लेट कर विचारमग्न हो गया. उसे अपना सीने में अभूतपूर्व फैलाव का अहसास हुआ और बौनों से भरे हल्द्वानी शहर में उसने अपने आप को कोई महामानव जाना. इन डेढ़-एक घंटों में मामला बन गया था पर एकाध पेंच थे जिनका जल्दी समाधान निकाला जाना था. उसने सभी सहपाठिनियों के चेहरे मोहरों को अच्छी तरह देख लिया था पर उसे अब भी सब के नाम नहीं मालूम थे सिवाय ससी के. ससी अच्छी थी पर  उसके साथ मोहब्बत नहीं की जा सकती थी क्योंकि वह थोड़ी सी मुटल्ली थी. इसके अलावा ससी से चिपकी रहने वाली और हमेशा चपर-चपर करती रहने वाली उसकी वह लम्बी वाली दोस्त भी लिस्ट से आउट कर दी गयी क्योंकि वह ज़रुरत से ज्यादा लम्बी थी. 

बाकी बची पांच पिरियाओं में से शीघ्र ही किसी एक को अपना बनाने का प्रोजेक्ट तत्काल उठाया जाना था. उसे जल्दी जल्दी किसी भी पिरिया के साथ और उस के लिए वे सारे गाने गाने थे पिछले एक महीने से जिन्हें गुनगुनाते हुए उसके चेहरे पर नवेली दुल्हनों जैसी शर्म खिंच आ जा रही थी. परमौत का सीमित फ़िल्मी गीत ज्ञान, ज़ाहिर है महामना नब्बू डीयर की संगत में अर्जित किया गया था और उसे अपनी कल्पना में रंग भरने को सिर्फ मुकेश का सहारा था. उसने 'हूँ हूँ हूँ ...' करते हुए गुनगुनाना शुरू किया और 'चाँद सी मैबूबा हो मेरी' पर जाकर अटक गया. जीवन बहुत सुन्दर था और जीवन प्यार करने लायक था और प्यार करने को उसके चारों तरफ उपलब्धता की इफरात थी. 

मुकेश के गाने ने उसे गोदाम में इंतज़ार कर रही मित्रमंडली की याद दिला दी और वह बमय साज-ओ-सामान दस मिनट से पहले हमारे साथ था. समोसा पाल्टी की बाबत जितनी डीटेल्स वह हमें मुहैय्या करा सकता था उसके कराईं और हमारे ज़ख्मों पर प्रचुर नमक छिड़का. जैसे ही नब्बू डीयर को पता चला कि सारे समोसों के पैसे परमौत ने दिए थे, उसने हिकारत से कहा - "सब सालियाँ तेरे पैसे के पीछे पड़ी हैं परमौतिए. और क्या ज़रुरत पड़ रही थी तुझे ऐसा करने की? अपने पांच रुपये देता और मगन रहता. और वो तेरी ... क्या नाम बताया था तूने लौंडिया का ... हां पिरिया ... उसने नहीं रोका तुझे कि मिलौचा करके चलना चाहिए ज़िन्दगी में. क्या साला ..."

नब्बू की बात में दम था. आज परमौत ने पचास रुपये लड़कियों पर फूंक डाले थे, सन्डे को पिकनिक पर दो ढाई सौ और खपा देगा. इतने में तो दो-तीन बोतल आ सकती हैं. अब वह इस हिसाब से चलेगा तो हमारी फ्री फ़ोकट दावतें जल्दी ही बीते समय की बातें हो जायेंगी. मेरे और गिरधारी के विचार में परमौत ने पिरिया को छोड़कर बाकी छोकरियों पर पैसे खर्च करने बंद कर देने चाहिए थे. हमारी दावत थोड़ी तल्खी पर ख़त्म हुई क्योंकि नब्बू डीयर की बातों और तानों से उकताकर चिढ़ा हुआ परमौत बिना अपना आखिरी गिलास निबटाये अपने घर चला गया.

रास्ते भर परमौत सोचता रहा कि उसका मन अब तक किसी एक पिरिया पर नहीं थम रहा. वह हमसे बहुत झूठ बोल चुका था और अब उसे मजबूरन उन पांच में से किसी एक को नहीं बल्कि असली वाली पिरिया को ही सैट करने की जुगत लगानी होगी. नशे के हलकोरों के बीच रात को सोते-सोते तक 'चाँद सी मैबूबा हो मेरी' गुनगुनाता रहा था

अगले दिन कम्प्यूटर की क्लास में माहौल बिलकुल बदला हुआ था. उसकी कुर्सी रोज़ ही तरह अलग नहीं की गयी थी. उसे देखकर सभी लड़कियों ने "हैलो रे परमोद" कहा जिसके जवाब में वह बस झेंपता हुआ मुस्करा भर सका. "अरे ससी, बिचारे परमोद को लड़कियों से बोलने में सरम लगती है सायद रे ..." - लम्बी वाली रिजेक्टेड पिरिया ने कहना शुरू किया ही था कि मास्टर आ गया. 

पहली बार परमौत ने पूरी क्लास के दौरान निगाह नीचे नहीं की और सभी सहपाठिनियों को तरीके से ताड़ना शुरू किया.

फीरोज़ी रंग के सलवार सूट वाली एक पिरिया को जैसे ही उसने गौर से देखना शुरू किया उसके भीतर समाधिस्थ मुकेश की आत्मा ने  'मैबूब मेरे मैबूब मेरे तू है तो दुनिया कितनी हसीं है' गाना शुरू कर दिया. पिरिया अगली कतार में बैठी हुई थी और परमौत उसके चेहरे को प्रोफाइल में देख पा रहा था. उसके गोरे गाल पर बेहद हलके भूरे रंग के रोयें थे जो ट्यूबलाईट की रोशनी में दिपदिप कर रहे थे. उसके होंठ जैसे किसी कलाकार ने सधे हुए हाथों से तराशकर उनमें दुनिया का सबसे खूबसूरत गुलाबी रंग भर दिया था. उसकी तीखी नाक और मुलायम गोलाई लिए हुए उसकी ठोढ़ी उसके चेहरे अप्रतिम बना रहे थे. उसकी पतली-पतली उँगलियाँ पेन को थामे हुए थीं जिसका कोर उसने अपने दांतों के बीच दबाया हुआ था. बीच की उंगली पर हीरे की कनी लगी सुनहरी अंगूठी. उसने अपने कान में फीरोज़ी ही नग वाली बाली पहन रखी थी. कान से नीचे उसकी गर्दन का सुडौल ढलान शुरू होता था. और उसके आगे ... उफ़! ... परमौत को नशा हो गया. उसे हैरत हो रही थी कि उसने महीने भर से इस कन्या को कैसे नहीं देखा. फिर उसे याद आने लगा कि पिछली शाम सिर्फ उसी लड़की ने समोसा लेने के बाद उससे "थैंक्यू" कहा था और सिर्फ एक ही समोसा खाया था. चटरपटर करते झुण्ड में सबसे कम बोलने वाली वही थी.

"मिस्टर प्रमोद, लुक हेयर एंड पे अटेंशन" कहकर उसे लौंडमास्टर ने झिड़का तो वह वापस क्लास में आ गया. उसे अपनी खुली कापी में इस फीरोज़ी पिरिया का ही चेहरा दिखना शुरू हुआ. उसने देखा कि वह फीरोज़ी पिरिया के साथ गौला बैराज के पास रेलिंग का सहारा लेकर खड़ा है और 'मैबूब मेरे' गा रहा है. फूल खिले हुए हैं, तितलियाँ बेवजह उड़ रही हैं, नीचे नदी हमेशा की तरह कलकल करती बह रही है और फीरोज़ी पिरिया उससे उसी तरह "मेरे लाटे" कह रही है जैसे उस दोपहर अस्पताल में टूटे हाथ-पैरों वाले गणिया छविराम को छोले भटूरे सुतवाती फूलन कह रही थी.

परमौत फीरोज़ी पिरिया की प्रोफाइल पर चोर निगाह करता और उसकी धड़कन बढ़ने लगती. "क्या यही प्यार है?" - उन्हीं दिनों हिट हुए एक फ़िल्मी गाने की पहली लाइन की मार्फ़त वह अपने मन से सवाल पूछता. उसके मन की खोह से फीरोज़ी पिरिया का उत्तर गुंजायित होता - "हां, हां यही प्यार है."

क्लास पूरी होते होते परमौत के मनमंदिर में फीरोज़ी पिरिया उसी तरह प्रतिष्ठित हो गयी जिस तरह कैलेंडरों में हनुमान जी के ह्रदय में भगवान राम और सीता माता को दिखाया जाता है. हाँ भाईसाब, लव हो गया था हमारे नायक परमौत को - सच्ची मुच्ची का, ज़िंदगी का भूसा भर देने वाला प्यार जिसकी कल्पना भर ने नब्बू डीयर के जीवन का कचूमर निकाल कर उसे कहीं का नहीं छोड़ा था.

उधर मास्टर सवाल पूछ रहा था जिनका जवाब सिर्फ फीरोज़ी पिरिया दे पा रही थी. बाकी क्लास को गधों के झुण्ड से बदतर समझते हुए उसकी ओर शाबासी और हसरत से देखते हुए लौंडे मास्टर ने ऐटमबम फोड़ा - "वेरी गुड. एक्सीलेंट मिस प्रिया!"

क्या इसे संयोग कहा जा सकता है? क्या इसे देवताओं की बनाई अलौकिक बीजगणित की किसी समीकरण का उतना ही अलौकिक हल कहा जा सकता? क्या इसे मनहूस मुकेश के "चाँद सी महबूबा हो मेरी" की कराहनुमा हसरत का वास्तविकता में तब्दील होना कहा जा सकता है? क्या इसे मोहब्बत की पहली छुअन के पक्ष में हुआ पोयटिक जस्टिस कहा जा सकता है कि असली पिरिया वही लड़की निकली जिसके पैरों के नाखूनों की गुलाबी नेलपालिश की चकाचौंध ने पहली कम्प्यूटर क्लास के दौरान परमौत के उजड़े गुलशन में बहार आने की पहली आहट दी थी? 

पिरिया की मोहब्बत मोहब्बत में सर से पैर तक गिरफ्तार होकर उड़ता हुआ सा वह क्लास से बाहर निकला और सीधा हमारे पास पहुंचा.

परमौत की आशिकी का असल किस्सा तो अब शुरू होने को था.


(जारी)

3 comments:

Rahul Gaur said...

अशोक जी
लप्पूझन्ना वाली ख़ुमारी फिर तारी है, परमौत की "मुग़ले-आज़म" के लिये दम साधे पड़े हैं. .
कमाल. . .

rishi upadhyay said...

maamlaa bigadte hi jaa riya hai daajyu...hum log Parmot ki paratee parikatha ke bhanvar me fanste jaa riye...Lapujhanna ka naya avtaar aapke apne khalis aur behetreen andaaz me...bahot khoob!...aapki ek paltee baaki!!! kabhi bhi cash karwa leeje!!! :)

के सी said...



एक रोज़ जब क़स्बे बड़े होकर, बूढ़े होते हुए मर जायेंगे. तब इन्हीं क़िस्सों में उनको भरा-पूरा तलाशा जा सकेगा. पाठ जारी है और प्रतीक्षा भी.
धन्यवाद.