हर बार नए अनुभवों से मालामाल करने वाले राजस्थान की यात्रा पर
निकलने से पहले यह पुराना यात्रावृत्त पोस्ट कर रहा हूँ -
1.
इस बार जयपुर में साथ में हमारी मित्र सोनिया भी थी. वियेना में
रहने वाली पेशे से मानवशास्त्री सोनिया ने बाली और थाईलैंड की जनजातियों पर
महत्वपूर्ण शोधकार्य किया है. उसका स्वाभाव एक नैसर्गिक घुमन्तू का है. तीन - चार
दिन जयपुर और आसपास रहने - घूमने की योजना थी.
जयपुर में उस रोज़ सोनिया गांधी की रैली थी. हज़ारों-हज़ार
स्त्री-पुरुष पैदल, बसों
में लदे-ठुंसे सोनिया गांधी को देखने-सुनने की नीयत से राजस्थान के तमाम इलाकों से
पहुंचे थे. जगह-जगह ट्रैफ़िक जाम. हमारी वाली सोनिया को कुछ फ़ोटू वगैरह लेने का
अच्छा मौका मिल गया.
पहला भ्रमण म्यूज़ियम का तय हुआ क्योंकि वह रास्ते में पड़ गया.
संग्रहालय में प्रदर्शित की गई चीज़ें जाहिर है वैसी ही थीं जैसा
उन्हें होना चाहिए था: कुछ परम्परा, कुछ इतिहास,पार्श्व में हल्का राजस्थानी संगीत वगैरह वगैरह. यह सब देखने में मसरूफ़ हो
ही रहे थे कि दिल्लीवाली सोनिया के भक्तों का रैली से छूटा रेला किसी अंधड़ की तरह
संग्रहालय में घुस आया. छः फ़ीट लम्बी ख़ूबसूरत हमारी वाली सोनिया उस रेले को
संग्रहालय में प्रदर्शित अन्य दुर्लभ वस्तुओं जैसी ही प्रतीत हुई. मानवशास्त्री
सोनिया के लिए भी घूंघट कढ़ी ग्रामीण महिलाओं की तनिक सकुचाई भीड़, भिन्न आकारों की मूंछों से सुसज्जित मर्दाना
चेहरे और मांओं का हाथ थामे बड़ी-बड़ी आंखों से अगल-बगल देखते बच्चे, उसकी
सतत -अनुसंधानरत जिज्ञासा के कारण बहुत दिलचस्प विषय थे. क़रीब दस मिनट चले इस
पारस्परिक सांस्कृतिक आदान-प्रदान के उपरान्त स्थितियों के सामान्य होने पर ही
संग्रहालय दर्शन का कार्य पुनः चालू हुआ.
एक जगह बहुत सारी भीड़ जमा हो कर झुकी हुई कुछ देख रही थी. पास
जाकर देखा तो वही चीज़ थी जो मुझे बचपन में तमाम संग्रहालयों में सबसे ज़्यादा आकर्षित
करती थी. मिश्र की ममियां सम्भवतः हमारे देश के हर बड़े म्यूज़ियम में धरी हुई हैं.
क्यों धरी हुई हैं और क्या वे असली हैं - ये सवाल हैं जो निवाड़ सरीखी पट्टियों में
लिपटी सदियों से सुरक्षित मृत मानव देहों (अगर वे देहें ही हैं तो ... अपने मुल्क
में अदरवाइज़ सब कुछ पॉसिबल है) को देखते हुए मुझे थोड़ा-बहुत परेशान करते हैं. यानी
आप अभी अभी मीणा, भोपा, भील
और लोहार इत्यादि जनजातियों की जीवनशैली का मुआयना कर रहे थे और अचानक यह ममी. ...
क्या तमाशा है भाई!
इस से भी बड़ा तमाशा आगे आने को था. एकाध ख़ाली दीवारों को भर
देने की नीयत से ब्रिटिश काल की कुछ बारोक पेन्टिंग्ज़ सजाई गई थीं. आप जानते हैं न
विक्टोरियन काल की बारोक पेन्टिंग्ज़ कैसी होती थीं - किसी सुरम्य भारतीय लोकेशन पर
कोई अंग्रेज़ पार्टी वगैरह हो रही होती थी जिस में लोगों की संख्या एक से लेकर
दर्ज़नों तक हो सकती थी. हाथों में ट्रे लिये साफ़े-पगड़ियां बांधे भारतीय चाकरों की
टोलियां होती थीं और हां इन चित्रों का सबसे ज़रूरी तत्व होता था कुछ गोरी महिलाओं
की उपस्थिति. ये स्त्रियां आमतौर पर तनिक मुटल्ली होती थीं और इन्हें अपने ऊपरी
बदन को ढंकने से किसी डॉक्टर ने मना किया होता था.
म्यूज़ियम के भीतर काफ़ी उमस लगने लगी थी और हम बाहर निकलना चाह
रहे थे. सोनिया ने दबी सी मुस्कान से मुझे उधर देखने को कहा: मूंछों, नंगे
पैरों और सूरज में तपी झुर्रियों वाले साठ-सत्तर की उम्र के कुछ बुज़ुर्ग ग्रामीण
पुरुष उक्त पेन्टिंग्ज़ में पाई जाने वाली उक्त महिलाओं के अंगों के बारीक अनुसंधान
में रत थे. दबे स्वरों में एक दूसरे से कुछ कहते भी जाते थे. हॉल के बीच में खड़ी
महिलाओं के अब ऊबा हुआ दिखने लगे झुंड की तरफ़ चोर निगाह कर एक बुज़ुर्ग सम्भवतः
अपनी पत्नी को ताड़ने की कोशिश करते दिखाई दिए कि कहीं उन्हें तो नहीं ताड़ा जा रहा.
वे निश्चिन्त हो कर पुनः अपने अनुसंधान में लीन हो गए.
मेरे भीतर बैठा शरारती चोट्टा हंसता हुआ मुझसे पूछता है कि ताऊ
जी क्या सोच रहे होंगे.
"पधारो म्हारे देस" - चोट्टा ख़ुद ही जवाब भी
देता है.
2.
नाहरगढ़ के किले की लोकेशन ने मुझे हमेशा बहुत आकर्षित किया है.
जयपुर से कुल छः-सात किलोमीटर दूर एक ऊंचे पहाड़ीनुमा टीले पर मौजूद इस किले से
जयपुर नगर का सुन्दर नज़ारा देखने को मिलता है.
हमसे थोड़ा आगे एक युवक गाइड ऑस्ट्रेलियाई पर्यटकों के एक दल को
किले के बारे में बहुत-सी सच्ची-झूठी जानकारियां दे रहा था (ये जानकारियां आप किसी
भी सम्बन्धित वैबसाइट या ट्रैवलबुक से प्राप्त कर सकते हैं). अपनी वाचालता, बददिमागी
और बदशऊरी के चलते ऑस्ट्रेलियाई बाकी गोरी चमड़ी वालों से अलग पहचाने जा सकते हैं.
किले का शिल्प भी वाकई बहुत अचरजकारी है और इसकी अच्छे से
देखभाल भी की गई है. किले में रहने की इच्छा रखने वालों के लिए कुछेक शाही कमरों
को किराये पर लिया जा सकता है.
हम लोग फ़ुरसत से किले का दर्शन कर के रेस्त्रां की तरफ़ निकल ही
रहे थे कि किले के प्रवेशद्वार के ठीक बग़ल में दो एम्बेसेडर गाड़ियां रुकीं. लाल
बत्ती, गनर
वगैरह. तदुपरान्त बुज़ुर्ग से दिखने वाले एक टाई-सूटधारी सज्जन बड़ी शान से उतरे और
बहुत आधिकारिक मुद्रा धारण किये हुए किले में प्रविष्ट हुए.
ऑस्ट्रेलियाइयों का गाइड फुसफुसाहटभरी आवाज़ में बताता है कि
उक्त सज्जन नाहरगढ़ किले के वर्तमान उत्तराधिकारी हैं. चलिये साहब हम नाचीज़ भी अब
सुकून से मर सकेंगे कि हमने एक जीता-जागता महाराजा देख लिया. यह दीगर था कि महाराज
की शान-ओ-शौकत की अब ऐसी-तैसी फिर चुकी थी.
हाथी-घोड़ों के बदले सरकार ने उन्हें लालबत्ती वाली एम्बेसेडर
गाड़ियां मुहैय्या करवा दी थीं. शेरों के शिकार पर बैन है सो महाराजा को
मुर्गी-बकरियों से काम चलाना पड़ता होगा. उनके ख़ानदानी मकान की बुर्जियों पर
बन्दरों के झुण्ड और अहाते में फ़िरंगी टूरिस्ट काबिज़ हो चुके थे. मुझे बेसाख़्ता
वीरेन डंगवाल की 'तोप' कविता याद आ गई.
जब तक हम रेस्त्रां पहुंचते, ऑस्ट्रेलियाई कुछ मेज़ों पर फैल चुके थे और बीयर
की बोतलों का श्राद्ध कर रहे थे. उनके साथ बैठा गाइड युवक अब उनके सामने पहले से
भी अधिक दुबला लग रहा था. ऑस्ट्रेलियाई पहले से ही टुन्न रहे होंगे क्योंकि एक-एक
बीयर सूत चुकते ही वे मोटरसाइकिलों की सी बीहड़ आवाज़ों में हंसी-ठठ्ठा करने लगे थे.
गाइड बार-बार घड़ी देख रहा था.
इस टुन्नसमूह का नेतृत्व कर रही करीब पचास साला एक महिला ने
गाइड से ऊलजलूल सवाल पूछने चालू किये हुए थे. उसकी आवाज़ रपट रही थी और उसके नथुनों
से निकलता सिगरेट का गाढ़ा धुआं छूटने ही वाले किसी भाप-इंजन का आभास दे रहा था.
उसके इसरार पर गाइड ने अपने बटुए से अपने मां-बाप की तस्वीर
निकाली. "ओकै ... ओखै ... ज़ैट्स हिज़ फ़ैदा एन ज़ैट्स ज़ा मैदा ... स्वीट!
..." टुन्यासिनी देवी की आवाज़ में टाइमपास करने की आजिज़ी और बदतमीज़ी है.
फ़ैदा-मैदा की तस्वीरें कई हाथों से होती हुई वापस गाइड के पास आती है तो टुन्नेश्वरी
माता पूछती हैं "मो फ़ोटोज़?"गाइड अपनी बहन की तस्वीर दिखाता है:
"ग्राएट ... ग्राएट ... शीज़ प्रटी ... वैवी प्रटी ..."
बीयरम्मा की दूसरी बोतल निबट चुकी है और वह खिलंदड़ी - मोड में आ
गई है. "शो मी यो ब्रादाज़ फ़ोटो बडी ... आई वान्ना सी यो ब्रादा ..."
मुझे लगता नहीं गाइड ने इस कदर विकट पर्यटकों के साथ कभी काम किया है. "शो मी
यो ब्रादाज़ फ़ोटो बडी ... आई वान्ना सी यो ब्रादा ..."
हम अवाक इस बेहया कार्यक्रम को कुछ देर झेलते हैं. इसके पहले कि
मेरा गुस्सा फूटे, मैं
बाहर खुले में लगी एक मेज़ का रुख़ करता हूं. खुले में बन्दर-साम्राज्य का स्वर्णिम
काल चल रहा है. एक बन्दर बाकायदा एक कुर्सी पर बैठा हुआ टमाटर कैचप की बोतल थामे
बैठा है. कुछ देर उसे उलटने-पलटने पर उसे बोतल खोलने का जुगाड़ हासिल हो जाता है.
वह इत्मीनान से दो तीन बार कै़चप सुड़कता है और आगामी कार्यक्रम के बारे में
विचारलीन होने ही वाला होता है कि रेस्त्रां के भीतर से आकर एक वेटर उसे डपटकर दूर
भगा देता है. उसके पीछे-पीछे आया, रेस्त्रां का मालिक लग रहा एक बुढ़ाता हुआ आदमी
बन्दरों के साथ अपनी नज़दीकी रिश्तेदारी की घोषणा करता पांचेक ढेले उनकी दिशा में
फेंकता है. उसकी निगाह खुली हुई कैचप बोतल पर पड़ती है. वह झट से वहां जाकर उसे
उठाता है. जेब से गन्दा रूमाल निकालता है और ढक्कन को पोंछ कर उसे बोतल में फ़िट
करता है और उसे पुनः मेज़ पर स्थापित कर देता है.
कालान्तर में हमारी मित्र सोनिया ने टमाटर कैचप को 'मंकी सॉस' कहना
शुरू कर दिया था.
3.
दिल्ली में मयख़ाने वाले मुनीश भाई ने सलाह दी थी कि मौका मिले
तो जयपुर के नज़दीक गलता नामक जगह पर ज़रूर जाऊं. होटल से गलता की तरफ़ चलते हुए
मैंने टूरिस्ट गाइड में उड़ती निगाह डाली:
"जयपुर से दस किलोमीटर दूर स्थित गलता एक छोटा सा सुन्दर
हिन्दू तीर्थस्थल है. विश्वास किया जाता है कि ऋषि गलव ने यहां रहकर साधना वगैरह
करते हुए अपने दिन बिताए थे." टूरिस्ट गाइड में लिखित आखिरी पैराग्राफ़ बताता
है कि गलता तीर्थ का पूरा परिसर अपने सौन्दर्य के कारण ज़्यादा जाना जाता है बजाय
अपने महात्म्य के.
जयपुर बाईपास पार करते ही उचाट किस्म की सड़क शुरू हो जाती है:
कंटीली झाड़ियां, छोटे-बड़े
आश्रमों-मन्दिरों के बोर्ड, अधिकतर बोर्डों के ऊपर विराजमान बन्दर, हल्की
उमस और धूल. करीब दस किलोमीटर निकल पड़ने के बाद भी जब कुछ ख़ास नज़र नहीं आता तो
मुझे शक होता है कि हम किसी गलत रास्ते पर निकल आए हैं. रास्ता पूछे जाने पर ही
इत्मीनान होता है.
चाय-पानी-प्लास्टिक मालाओं के क़रीब दसेक खोखे और उनके आसपास
बिखरा सतत उपस्थित कूड़ा, प्लास्टिक
की हवादार उड़ती थैलियां, उदास पस्त-पसरी गायें, लेंडी
कुत्ते और गोबर इकठ्ठा करते वयोवृद्ध नागर बतलाते हैं कि आप किसी टूरिस्ट-स्पॉट पर
पहुंच गए हैं. गाड़ी से बाहर निकलते ही "यस सर गाइड गाइड वाटर वाटर ..."
की ध्वनियां कान में पड़ते ही याद आना ही होता है कि मेरे साथ दो विदेशी महिलाएं भी
हैं. पिछले क़रीब बीस सालों से मेरे साथ ऐसा होता ही रहता है और ऐसा होने की स्थिति
में या तो मैं फट पड़ता हूं या निखालिस अंग्रेज़ एक्सेन्ट में "न्नो सैंक्स
..." कहता अपनी पानी की बोतल को दुलराने लगता हूं (कभी कभार जब बोतल में भरे
पानी की प्रकृति को अन्य पारदर्शी द्रवों द्वारा पवित्र बना लिया गया होता है, मैं
चढ़ी हुई दोपहरी में भी उस से दो घूंट मार लेने की बहादुरी दिखा लेता हूं).
ऐसा ही कुछ कर के हम श्री गलता जी नामक विख्यात हिन्दू तीर्थ का
रुख करते हैं. हम माने मैं, सबीने
और सोनिया. श्री गलता जी धाम का गेट दूर से ऐसा लगता है मानो स्थानीय नदी पर बने
सरकारी पुल पर चुंगी वसूलने को लगाए गए किसी स्थानीय माफ़िया-राजनेता-राजनेता
ठेकेदार के मातहतों ने कोई बदतमीज़ बैरियर लगा रखा हो.
बैरियर पर पहुंचते ही एक आवाज़ आती है. इस आवाज़ में
लालच-हरामीपन-नंगई-लुच्चापन इत्यादि वे तमाम गुण मौजूद हैं जिनके चलते मैं कई बार
दुर्वासा का पुतला बनने पर मजबूर हुआ हूं. "सार ... सार ... लुक हेयर
..."
"बोल! ..." मैं हिकारत से उस पैंतालीसेक सालों के
कामचोर से कहता हूं. कामचोर मुझे अंग्रेज़ महिलाओं का गाइड समझ कर उनसे मुख़ातिब
होता है: "मैडम मैडम यू लाइक पीनट ... मन्की लाइक पीनट ... यू गिव हिम वन बाई
वन ... मंकी लाइक पीनट ... मंकी मंकी वैरी हैप्पी" (यह पूरा वाक्य इस कामचोर
की ज़िन्दगी में की गई दुर्लभ मेहनत का कुल हासिल था). जब वह दुबारा इसी वाक्य को
तनिक और ऊंची आवाज़ में दोहराता है मेरी इच्छा होती है उस के मुंह पर थूक कर कहूं
कि बेटा कल से मेरे पास आ जाया करना. और कुछ नहीं तो तुझे फावड़ा-गैंती पकड़ना तो
सिखा ही दूंगा. सबीने मेरे इस कोटि वाले गुस्से से परिचित है सो मुझे समझा कर
बैरियर के उस पार घसीट ले जाती है.
एक गेरुवाधारी युवा ठग हाथों में दो मोबाइल थामे हमारी तरफ़ आ
रहा है. बैरियर से अन्दर घुसते ही दांई तरफ़ एक बहुत नया सफ़ेद मार्बल का चबूतरा है
जिसके एक कोने पर हनुमान का हास्यास्पद सा मन्दर चेप दिया गया है. मन्दर के भीतर
चमचम करते प्लास्टिक और लाल-नारंगी रंगों की मनहूसियत बिखरा दी गई है.
अभी मेरा मन उस द्विमोबाइलोन्मुखी रुद्रांश गेरू चोट्टे के
प्रति गुस्से से भरने को ही हो रहा था कि एक और छोटा सा अदमी सामने आ गया जिसकी
सूरत पर बचपन से ही तमाम कुटैव कर चुकने की छापें छपी हुई थीं. "कैमरा है?"उसने बहुत
उद्दंडता से पूछा. "है! बोल!" मेरा गुस्सा अब चरम पर पहुंचा ही चाहता
था.
"फ़ोटो नहीं खींचनी हमें!" मेरा ध्यान अपने कदमों तक
बहती आती गन्दगी भरी अस्थाई नाली पर जा चुका था. "पांच सौ का जुरमाना भरना
पड़ेगा" वह अपनी उद्दंडता का प्रदर्शन जारी रखता है. "आजा मेरे पीछे ...
ले जाना अपना जुरमाना!" मैं एक मोटी गाली दे कर आगे बढ़ता हूं. मेरे साथ की
दोनों महिलाएं भी सामने दिख रही किलेनुमा इमारतों की तरफ़ तनिक बेरुखी से देखती
हुईं कदम बढ़ाने लगती हैं.
ज्यों ज्यों आगे बढ़ते जाते हैं गन्दगी और बदबू बड़ते जाते हैं.
श्री गालता जी धाम में एन्ट्री लेते ही गन्द और गाद से भरे दो बजबजाते कुण्ड दिखाई
देते हैं. "स्नेक स्नेक फ़ोटो फ़ोटो फ़िफ़्टी रुपीज़ ओनली ..." कहती टोकरी
में दयनीय सांप और गोदी में सांप से भी दयनीय बच्चा चिपकाए तीन सींकिया औरतें हम
पर टूट पड़ती हैं. बन्दरों की संख्या एक करोड़ के पार लगती है. भक्त किस्म के कुछ
भारतीय परिवार बिना परेशानी के कीचकुण्ड तक पहुंच चुके हैं. रास्ता प्लास्टिक की
बेशुमार थैलियों और विष्ठा से भरा हुआ है.
पिण्डारी डकैत दिखते पांचेक शोहदे ऊपरी कुंड के पास बैठे
स्त्रीदर्शन में व्यस्त हैं. सबके माथों पर तिलक है, गलों में रुद्राक्ष की मालाएं हैं. उनका नेता
मुझे अंग्रेज़ समझता है और बहुत भद्दी आवाज़ में मेरे साथ चल रही स्त्रियों पर कमेन्ट
करता है. मेरे मुंह से और मोटी गाली निकलती है और पिण्डारी-समूह इधर उधर हो जाता है.
मैं इस जगह एक पल भी नहीं ठहर सकता अब. ऋषि गलव की कर्मभूमि पर
कई सदियों का कीचड़ ठहरा हुआ है. निचले कीचकुण्ड के पानी को अंजुरी में ले कर दो
तोंदू धर्मपारायण आत्माएं जैसे ही उसका कुल्ला करती हैं, मुझे
उबकाई आ जाती है.
मैं अपने वापस लौटने की सूचना जारी करता हूं और तेज़ तेज़ कदमों
से नीचे उतर आता हूं. फ़ोटो के पैसे लेने वाले चोट्टे की निगाहें मुझ पर लगी हुई
हैं. इसके पहले कि वह कुछ कहे मैं उसे घूर कर देखता हूं, सिगरेट
सुलगाता हूं और ढेर सारा धुंआ उसकी दिशा में उड़ाता हूं. एक बार पलट कर देखता हूं.
असल में यह धाम वास्तुशिल्प का इस कदर बेहतरीन नमूना है कि दूर
से देखने पर अकल्पनीय सुन्दर लगता है. पर ऐसा हमारे महान देश की अधिकतर महान चीज़ों
के साथ होता है. मैं इस जगह की बदहाली से कम, सरकार और लोगों की बेज़ारी से अधिक दुखी हूं.
हमारे पीछे कुछ और विदेशी सैलानी आ चुके हैं और बाहरी इमारतों
के अहातों में मौजूद बन्दरों को मूंगफलियां खिला रहे हैं. कामचोर ने कुछ बिजनेस कर
लिया दिखता है और मंकी मंकी बहुत हैप्पी हैप्पी भाव से पीनट्स समझ रहे हैं.
4.
गन्दधाम गलता जी से लौटते हुए मन इस कदर खराब हो चला था कि
मैंने पानी की बोतल में ऐसे मौकों के लिए महफ़ूज़ धरे गए, पवित्र
बना लिए गए पारदर्शी द्रव को सारा का सारा गटक लिया और फ़िटफ़ोर होने का जतन करने
में उद्यत हो गया. हाथों से खिंची कच्ची की जो खेप पहुंची थी उसी की सहायता से
निर्मित था यह पवित्र जल. इस अतीव प्रभावकारी विलयन ने कुछ पलों के लिए मेरे दिमाग
और ज़बान दोनों को टेढ़ा कर देने का महाकार्य कर दिखाया. शीघ्र ही मेरा गुस्सा भी
काबू में आ गया.
साथ की महिलाएं ज़्यादा स्मार्ट निकलीं. उन्होंने अपने बटुए में
दो छोटी छोटी शीशियां सम्हाली हुई थीं. ये शीशियां उन्होंने अपनी हवाई यात्रा से
चाऊ की थीं और मेरे साहस से प्रेरित होकर इस शुभ मुहूर्त में उन्हें खाली कर देने
में तनिक भी समय नहीं गंवाया. 'दोपहर' शब्द को जस्टीफ़ाई करते दो बजे थे. आंखें चुंधियाने
वाली धूप थी और भूख लगी थी. बैरियर से बाहर लगे खोखों के आगे एक बहुत ही बूढ़ा़
बाबानुमा व्यक्ति गोबर एकत्र करने में मसरूफ़ था. उसकी साथिन उससे करीब एक पीढ़ी
छोटी साठोत्तरी किन्तु चुलबुल किस्म की अम्मा थी. हमारे समूह के प्रति बाबा का
नकार और गैरदिलचस्पी बतला रहे थे कि उन्होंने ताज़िन्दगी अंग्रेज़दर्शन करते हुए समय
जाया किया होगा. टूरिस्ट स्पॉट के पास रहने के सारे लुत्फ़ वे अपने बखत में काट
चुके होंगे.
उनकी साथिन अलबत्ता सारा काम छोड़ एकटक सोनियादर्शन में लग गई.
एक मरियल कुत्ता जब हमारी तरफ़ मुंह करके भौंकना ही चाह रहा था, अम्मा
ने एक छोटा पत्थर उस की ओर फेंका. पत्थर बिचारे की मुंडी के बीचोबीच लगा. अपनी दबी
हुई दुम को भरसक और दबाता लेंडी कुत्ता गलताजी धाम की दिशा में भाग चला.
अम्मा सोनिया के पास आकर कहती है "फ़ोटो!" सोनिया कहती
है "ओके". मैं तनिक दूर से इस कार्यक्रम को देख रहा हूं. सोनिया उसकी
फ़ोटो खेंचती है. तभी बाबा जी की खीझ भरी आवाज़ आती है "तंग ना कर बिचारों को.
गोबर सम्हाल!"
ड्राइवर से कहा जाता है कि वह चार-पांच किलोमीटर आगे चला जाए.
हम कुछ देर पैदल चलेंगे.
गलताधाम से लौटते हुए यदि वहां की गन्दगी और विष्ठा से मन खट्टा
हो गया हो तो मेरी राय है कि वापसी में आप चार-पांच किलोमीटर पैदल चलें.
कितनी-कितनी तरह के तो परिन्दे और क्या उनका कलरव. अलौकिक! रेत के टीले! ढूहों से
झांकते गिलहरियों और चूहों के शर्मीले समूह! - जीवन! ज्ञानरंजन जी की कहानी वाला
जीवन!
सिसोदिया रानी के महल बाहर हज़ारों कबूतरों को चारा डाला जा रहा
है. चारा डालने वाला आदमी अपने काम से प्यार करने वाला है. दो कबूतर किसी जुगाड़
टैक्नीक से उसकी खोपड़ी पर कब्ज़ा जमाए हैं और अपने साथियों को लंच करता देखे ही
जाते हैं. सामने की पहाड़ी पर किलेनुमा एक इमारत झांकती है. सबीने को उस के बारे
में जिज्ञासा होती है. मैं सिसोदिया महल के बाहर बैठे एक सज्जन से इस बाबत पूछता
हूं तो वे बताते हैं कि वह कोई जैन मन्दिर है.
जयपुर बाईपास के बाद हम बांई तरफ़ वाला दूसरा रास्ता पकड़ लेते
हैं. नक्शा हमारे पास है और ऐसा हमने ट्रैक जाम वगैरह से बचने की नीयत से किया है.
भारत के सारे छोटे-बड़े नगरों की तरह जयपुर का बाहरी इलाका भी देश की रीढ़ में
अवस्थित निर्धनतम जनसमुदाय से अटा पड़ा है. झोंपड़े, कच्चे मकान, नालियां, छोटी दुकानें, खोखे,सद्यःजात मेमने को गोद में उठाए एक मुदित
बच्ची, टायर चलाता बच्चों
का एक शोरभरा समूह, दाढ़ी खुजाते मौलाना टाइप के बुज़ुर्ग ...
होटल में एक पर्यटक भारतीय परिवार हम लोगों से घुल मिल जाता है.
उनका एक किशोरवय बेटा है जिसे क्रिकेट और शतरंज का शौक है. वह दोनों विदेशी
महिलाओं से भी आकर्षित है. फ़ोटू वगैरह खींचे जाते हैं.
"व्हेयर आर यू फ़्रॉम मैम?" वह हमारी डिनर टेबल पर
सकुचा कर बैठने के उपरान्त पूछता है.
"ऑस्ट्रिया!"
आने वाले रिस्पॉंस का मुझे पता है. बीसेक सालों से यही सुन रहा
हूं.
"ओ! ऑस्ट्रेलिया इज़ अ ग्रेट कन्ट्री. आई एम अ फ़ैन ऑफ़ रिकी
पॉन्टिंग! योर क्रिकेट टीम इज़ फ़ैबुलस मैम!"
उसे यह बताना अनावश्यक लगता है कि पुत्तर ये मैडमें यूरोप
निवासिनियां हैं. विश्व संगीत की राजधानी विएना से पधारी हैं. वह अपने क्रिकेट
ज्ञान का प्रदर्शन जारी रखता है.
सुबह निकलना है दिल्ली वापस. जयपुर में आखिरी शाम के नाम हम
वापस अपने कमरे में आ कर दो-दो गिलास व्हिस्की समझते हैं. बड़ी महंगी है दारू यहां.
हमारे उत्तराखण्ड से भी ज़्यादा महंगी. ऊपर से आठ बजे सारे ठेके बन्द हो जाते हैं.
वापसी यात्रा में हरियाणा बॉर्डर पार कर चुकने से ऐन पहले
ड्राइवर साहब मुझसे पूछते हैं कि मुझे दारू तो नहीं खरीदनी. हरियाणा में दारू बहुत
सस्ती है. हम दोनों चौकस होकर अगले ठेके की टोह में निगाहें सड़क के अगल-बगल चिपका
लेते हैं. मैं पांच बोतलें खरीदता हूं. साढ़े चार सौ रुपए प्रति बोतल की बचत होती
है. मेरा शराबी मन प्रसन्न हो जाता है.
और कोई वजह हो न हो जयपुर आते हुए रास्ते में मिलने वाली सस्ती
दारू का आकर्षण मुझे वापस जयपुर लाता रहेगा.
आमीन!
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