Wednesday, March 29, 2017

शिम्बोर्स्का बता रही हैं कविता कैसे लिखें और कैसे न लिखें

कविता कैसे लिखें और कैसे न लिखें

प्रस्तुति - शिवप्रसाद जोशी

पोलैंड के अख़बार लिटरेरी लाइफ़ में नोबेल पुरस्कार विजेता विख्यात कवि, विस्वावा शिम्बोर्स्का जुलाई 1923 - फ़रवरी 2012) का एक कॉलम छपता था जिसमें वो नवोदित लेखकों, कवियों, अनुवादकों और सामान्य पाठकों के जवाब देती थीं. वे कविता लिखने के बारे में पूछते और अपनी कविता भेजकर राय भी जानना चाहते. अपने अंदाज़ में शिम्बोर्स्का  उनको जवाब देती थीं. शिम्बोर्स्का  के जवाबों का एक संकलन पोएट्री फ़ाउंडेशन डॉट ऑर्ग ने तैयार किया था. पोलिश से अंग्रेज़ी में इनका अनुवाद क्लेयर कावानाघ ने किया है. वहीं से इसे साभार, हिंदी में अनूदित किया गया है. विभिन्न मशहूर अनुवादों में शिम्बोर्स्का  हिंदी पाठकों और लेखकों के बीच पहले से लोकप्रिय है, हिंदी में पहली बार ये उनका एक अलग पहलू पेश है.  

अंग्रेज़ी अनुवाद में शिम्बोर्स्का  से सवाल पूछने वालों के नाम हैं, कुछ के इनीशियल्स हैं, सभी पौलेंड के लोग हैं. सुविधा के लिए सिर्फ शिम्बोर्स्का  के जवाबों को सवाल दर सवाल रखा गया है. शिम्बोर्स्का  के सुझाव, ऑस्ट्रियाई मूल के जर्मन कवि राईनर मारिया रिल्के की उन चिट्ठियों की याद दिलाते हैं जो उन्होंने अपने प्रशंसक एक युवा कवि को बतौर जवाब भेजी थीं और जो लेटर्स टू द यंग पोएटनाम से किताब के रूप में विश्वविख्यात है. हिंदी में कबाड़ख़ाना में ये पत्र उपलब्ध हैं और किताब के रूप में भी आए हैं.



तुमने लिखा, ‘मैं जानता हूं कि मेरी कविताओं में कई कमियां हैं, लेकिन उससे क्या, मैं रुकने वाला नहीं और न ही उन्हें ठीक करूंगा.ऐसा क्यों कह रहे हो, प्यारेशायद इसलिए कि तुम कविता को बहुत पवित्र मानते हो या तुम उसे बहुत हल्के में लेते होदोनों ही तरीक़े ग़लत हैं. और ज़्यादा ख़राब बात ये है कि वे नौसिखिए कवि को अपनी रचनाओं पर काम करने की ज़रूरत से वंचित कर देते हैं.

अनुवादक को सिर्फ़ टेक्स्ट के प्रति ही वफ़ादार नहीं रहना होगा. उसे कविता की समूची ख़ूबसूरती को उद्घाटित भी करना होगा, उसकी फ़ॉर्म को बरकरार रखते हुए और उसकी आत्मा और शैली को यथासंभव पूरा का पूरा बचाए रखते हुए.

पंख निकाल दो, धरातल पर आकर लिखने की कोशिश करो, क्या ऐसा कर सकती हो?”

तुम्हें नई कलम की ज़रूरत है. जो कलम तुम इस्तेमाल कर रहे हो वो बहुत गल्तियां करती हैं. ज़रूर विदेशी होगी.

तुम तुकबंदी में पूछती हो कि क्या ज़िंदगी सिक्के बनाती है. मेरी डिक्शनरी का जवाब ना में है.

तुम मुक्त छंद को ऐसे बरतते हो जैसे वो सबके लिए स्वच्छंद हो, सबके लिए मुफ़्त. लेकिन कविता (जो भी हम कहें) हमेशा एक खेल है, थी और रहेगी. और जैसा कि हर बच्चा जानता है, हर खेल के नियम होते हैं. फिर बड़े लोग ये बात क्यों भूल जाते हैं.

हर बोरियत का एक ख़ुश तबीयत के साथ वर्णन करो. कितनी सारी चीज़ें हो रही होती हैं जब कुछ भी नहीं हो रहा होता है.

तुम्हारी अस्तित्वपरक पीड़ाएं जल्द ही कमतर और निरर्थक हो जाती हैं. हमारे पासे पर्याप्त मायूसी और उदास गहराइयां हैं. हमारे प्यारे टॉमस मान (विख्यात जर्मन उपन्यासकार) ने कहा था, गहरे विचार ऐसे होते हैं जो हममें मुस्कान भर दें. तुम्हारी कविता महासागरपढ़ते हुए, हमें लगता है कि हम किसी उथले तालाब में हाथ पांव मार रहे हैं. तुम्हें अपने जीवन के बारे में ऐसे सोचना चाहिए कि वो एक बेमिसाल कमाल अनुभव तुम्हें हासिल हुआ है. फिलहाल तो हमारा यही सुझाव है.

हमारा एक सिद्धांत है कि बसंत के बारे में तमाम कविताएं  यहां स्वतः ही खारिज कर दी जाती हैं. कविता में ये विषय अब अस्तित्व में नहीं है. वैसे जीवन में ये अब भी मौजूद हैं. लेकिन ये दोनों अलग अलग मुआमले हैं.

स्पष्ट कहने का डर, हर चीज़ को मेटाफ़र बना देने की निरंतर, तक़लीफ़ भरी कोशिशें, और हर पंक्ति में ख़ुद को कवि साबित करने की एक अंतहीन कामनाः ये वे उद्विग्नताएं हैं जो हर उभरते कवि को घेरती हैं. लेकिन वे लाइलाज नहीं हैं, अगर वक़्त रहते पकड़ ली जाएं.

तुमने तो तीन छोटी कविताओं में ही बहुत आला दर्जे के वैसे शब्द ठूंस दिए जितने कि अधिकांश कवि अपनी पूरी ज़िंदगी में इस्तेमाल कर पाते हैं. मातृभूमि, सत्य, आज़ादी, न्याय. ये शब्द सस्ते में नहीं आते हैं. इनमें असली ख़ून बहता है जिसे स्याही से फ़र्ज़ी नहीं किया जा सकता.

रिल्के ने युवा कवियों को सावधान किया था कि वे अतिरंजत विषयों से बचें क्योंकि वे सबसे कठिन होते हैं और महान कलात्मक परिपक्वता की मांग करते हैं. रिल्के ने सुझाया था कि नये कवि वो सब लिखें जो वे अपने आसपास देखते हैं, वे रोज़ाना कैसे रहते हैं, क्या खो गया है, क्या मिल गया है. वो उन्हें प्रेरित करता था कि हमारे इर्दगिर्द उपस्थित चीज़ों को अपनी कविता में लाएं, अपने सपनों से छवियां लाएं, याद में पड़ी चीज़ों को उभारें. रिल्के ने कहा था, अगर रोज़मर्रा का जीवन तुम्हें कमतर लगता है, तो जीवन को मत कोसो. तुम ख़ुद कुसूरवार हो. तुम उसकी संपदा को ग्रहण करने लायक पर्याप्त कवि तो बने ही नहीं हो. ये सलाह तुम्हें नीरस, साधारण और थोड़ा कड़वा भी लग सकती है. इसीलिए तो हमने अपने बचाव में विश्व साहित्य के सबसे गूढ़ कवियों में से एक को याद किया है- और देखो उसने किस तरह उन चीज़ों की प्रशंसा की है जो कथित रूप से साधारण हैं.

एक वाक्य में कविता की परिभाषा ! अच्छा, ठीक है. हम कम से कम पांच सौ परिभाषाएं जानते हैं लेकिन उनमें से कोई भी हमें सटीक या पर्याप्त नहीं लगती. हर परिभाषा अपने समय के स्वाद को अभिव्यक्त करती है. जो ये अपने अंदर धंसा हुआ शंकावाद होता है न, ये हमें हमारी अपनी परिभाषा गढ़ने की कोशिश से दूर रखता है. लेकिन हमें कार्ल सैंडबुर्ग की प्यारी उक्ति याद हैः कविता, समंदर के एक जीव की डायरी है जो ज़मीन पर रहता है और उड़ान भरने की चाहत रखता है. हो सकता है इन्हीं दिनों वो ऐसा कर गुज़रे.” 

हम ऐसे कवि से कुछ ज़्यादा की अपेक्षा करते हैं जिसने अपनी तुलना इकेरस से की है लेकिन अपनी भेजी लंबी कविता से उसकी ये तुलना मेल नहीं खाती. श्रीमान आप इस तथ्य पर ग़ौर करना भूल गए कि आज का इकेरस, किसी प्राचीन समय से नहीं, एक अलग किस्म के लैंडस्केप से उभरता है. वो राजमार्गों को कारों और ट्रकों से भरा हुआ देखता है, वहां हवाईअड्डे, रनवे, विशाल शहर, फैलते जाते आधुनिक बंदरगाह और अन्य वास्तविक दुश्वारियां हैं. क्या कभी किसी समय उसके कान की बगल से कोई जेट धड़धड़ाता हुआ न गुज़रा होगा.

अगर तुम एक मंझे हुए मोची बनना चाहते हो, तो इंसानी पांव के बारे में ही सोचकर ख़ुश होना काफ़ी नहीं. तुम्हें अपने चमड़े, अपने औजार के बारे में भी जानना होगा. तुम्हे एक सही पैटर्न चुनना होगा.......कलात्मक रचना का भी यही सच है.

गद्य में तुम्हारी कविताएं एक महान कवि की छवि में सनी हुई हैं जो अपनी उल्लेखनीय रचनाएं शराब के एक उन्माद में रचता है. हम एक मोटा सा अनुमान लगा सकते है कि तुम्हारे ज़ेहन में कौन रहा होगा, लेकिन हमारे लिए ये नाम की बात नहीं. बल्कि ये एक भ्रामक और गलत धारणा है कि शराब लेखन की कार्रवाई में मददगार होती है, या कल्पनाशीलता को विकसित करती है, तर्क को धारदार बनाती है और मदमस्त कवि चेतना के प्रस्फुटन में अन्य दूसरे उपयोगी कार्य कर लेता है. मेरे प्यारे मिस्टर के, न तो ये कवि, न ही हमसे व्यक्तिगत रूप से परिचित कोई कवि, न ही वास्तव में कोई और कवि- शराब के अछूते प्रभाव में कुछ महान लिख सका है. सभी अच्छी रचनाएं एक दर्द के साथ, एक दर्द भरे संयम के साथ, और ज़ेहन में किसी ख़ुशगवार ठकठकाहट के बिना ही लिखी गयी हैं. विसपियान्सकी ने कहा था, ‘मेरे पास हमेशा विचार रहते हैं लेकिन वोद्का लेने के बाद मेरा सर दुखने लगता है.अगर कवि पीता है तो वो एक कविता और अगली कविता के बीच में ऐसा करता है. ये एक ठोस सच्चाई है. अगर शराब अच्छी कविता को प्रमोट करती, तो हमारे देश का हर तीसरा नागरिक कम से कम होरेस तो बन ही जाता....बहरहाल....हमें उम्मीद है कि आप बरबादियों से पूरी तरह बचकर निकल आएंगें.

तुम शायद गद्य में प्रेम करना सीख सकती हो.

जवानी किसी की ज़िंदगी में वाकई एक लुभावना समय होता है. अगर जवानी की कठिनाइयों में लिखने की चाहतों को भी शुमार कर लिया जाए, तो इससे निबाह करने का एक अभूतपूर्व मजबूत गठन भी करना होगा. इस गठन का हिस्सा होंगे:  एक ज़िद, एक धुन, व्यापक पढ़ाई, जिज्ञासा, पर्यवेक्षण, अपने से दूरी, दूसरों के प्रति संवेदनशीलता, एक आलोचक मन, ह्यूमर की तमीज़, और दुनिया के बने रहने का (नंबर एक) एक पक्का यकीन और (नंबर दो) कि उसकी क़िस्मत पहले से अच्छी है. जिन कोशिशों का संकेत तुमने दिया हैं उनसे मालूम पड़ता है कि तुम्हारी सिर्फ़ लिखने की कामना है और वे सारी बातें जो ऊपर कही गई हैं वे उसमें शामिल नहीं हैं. तुम्हारा काम तय है, पहले उसे करो.

जो कविताएं तुमने भेजी हैं उससे लगता है कि तुम कविता और गद्य के बीच बुनियादी फ़र्क को समझने में नाकाम रहे हो. मिसाल के लिए, ‘यहांशीर्षक वाली कविता एक कमरे और उसके फ़र्नीचर का महज़ एक शालीन सा वृतांत है. गद्य में ऐसे विवरण एक ख़ास कार्य करते हैं- वे आने वाले ऐक्शन के लिए स्टेज तैयार करते हैं. जिस पल दरवाजा खुलेगा कोई अंदर दाख़िल होगा और कुछ होगा. कविता में विवरण को ही घटित होना होता है. हर चीज़ अहम हो जाती है, अर्थपूर्णः छवियों का चुनाव, उनकी जगह, शब्दों मे वे क्या आकार लेगें- सब तय करना होता है. एक साधारण घर का विवरण हमारी आंखों के सामने उस कमरे की खोज बन जाना चाहिए. और उस विवरण में निहित भावना को पाठकों से साझा करना चाहिए. वरना, गद्य गद्य ही रहेगा, तुम अपने वाक्यों को कविता की लाइनों में तब्दील करने की चाहे जितनी मशक्कत कर लो. और इसमें और भी ख़राब बात ये होती है कि हासिल कुछ नहीं निकलता यानी ऐसा करने के बाद भी कुछ नहीं होता.

इस ग्रह की भाषा में  क्योंसबसे महत्त्वपूर्ण शब्द है और शायद तमाम अन्य गैलेक्सियों में ही शायद यही होगा.


Tuesday, March 28, 2017

बाई द वे, एक बात तो है बेबी!

(राहुल पाण्डेय द्वारा प्रस्तुत पिछली पत्र-श्रृंखला से आगे)

तारकेंदर की सातवीं और वर्तमान प्रेयसी रीटा का मिरगेंदर की उन्नीसवीं व वर्तमान प्रेयसी पूजा को पत्र


मेरी जान, मेरी जान की जान पूजी

यू बिच MMuuaaaaahhhh!!! लॉट्स ऑफ लव यू बिच!! कहां थी इतने दिन माई लव?? तुझे पता है इस बीच मैंने तीन नए नेल पॉलिश खरीदे? टिंडर पे भी उनकी फोटो अपलोड की? पूरे नाइन्टी सेवेन इन्ट्रस्ट आए? और एक तू है कि उन सड़े हुए मैकडी बर्गर्स का रोना रोती रहती है! तू एक बार केएफसी का चॉकोलैश क्रशर्स ट्राई मार! मैंने मारा था बेबी!! क्या चीज है? ऐंड यू नो वॉट वॉज द वेरी स्पेशल इन दैट? गेस बेबी गेस ना!! अच्छा सुन! टेकी ने फर्स्ट सिप लि‍या था!. यो! ऐंड द मूमेंट ही गेव मी द ग्लासआई वॉज ऑउट ऑफ ऑल द लॉस! ओह बेबी, माई लव…!

सुन रहे हैं कि इधर तुम्हारे यूपी में ऐसा करने वालों को पकड़ा जा रहा है. ओहबेबी, यहीं क्‍यूं नहीं चली आती? पांच साल इधर शिफ्ट हो जाओ ना! माइ लव, मेरा टेकी और तेरा मिकी, मैं और तू, सब साथ में मस्ती करेंगे ना. वैसे, ये सब तो मैं तेरे को यूं ही पोक कर रही थी. तू तो इधर आने की भी मत सोचियो मेरी जान! अपन को भी यहां से जल्दी ही कुछ एस्टीमेट बनाना पड़ेगा. सुना कि मेरे टेकी और तेरे मिकी के कुछ लेटर्स मीडिया में लीक हो गए हैं. कि‍सी अखबार वाले ने उसे अपने ब्लॉग पे पब्लिकश कर दि‍या है. आग लगे उस अखबार वाले को, कीड़े पड़ेंगे उसे!! अभी सेवेंथ फ्लोर वाली आंटी पता नहीं क्या-क्या बोल रही थीं कि उसमें दोनों मिलकर जानवरों से पता नहीं क्या-क्या .. यू नो, दे कॉल्ड देम समथिंग %$%#&^@!! आई रियली कांट बिलीव इट माइ लव. हाऊ कैन दे डू दैट. ठीक है दोनों बचपन में साथ बड़े हुए हैं, लेकिन हाऊ. वो जानवरों के साथ रहेंगे तो हमारे साथ कौन रहेगा बेबी? तुम रहोगी? नहीं रह पाओगी! हालत नहीं है ऐसी इस देश की!

बता यार, लड़का न तो लड़की के साथ रह सकता है और न लड़के के साथ और लड़की न लड़के के साथ रह सकती है और न लड़की के साथ. अबे रहें तो कहां रहें? घर में ही घुसे रहें? कहीं बाहर न निकलें? लड़के लोग बाहर निकलें, हमी सबको इकलौते ढक्कन नजर आते हैं कि हमीं बंद रहें? ये जो छेड़छाड़ करते हैं, इनको रोज हमीं जवाब भी देते हैं. सुन जानू, तू मि‍की से पूछियो कि उसके गांव में भी यही हो रहा है क्या़? खेत में क्या स्क्वॉड वाले घूम रहे हैं? अभी की सुन, दो दिन पहले ही वॉट्सऐप पे क्या आया, ‘ नब्बे पर्सेंट से ज्यादा रेप जान पहचान वालों में होते हैं.पता नहीं कौन से सर्वे की बात कर रहे थे. यहां कहां है रोमियो स्क्वॉड?

और एक बात बता, उस दिन जब तेरे चाचा ने ही तेरे साथ जो किया था, उसका मेरे अलावा कौन गवाह है? मैं ही तो थी मेरी जान जो उस वक्त पार्क में तेरी आंखों से बरसती धार को अपनी आंखों की लोर के साथ बोर रही थी, तुझे चूम रही थी. सुना उसका विडि‍यो बनाकर किसी ने गंदी वेबसाइट पर डाल दि‍या. वो तो ये मना कि मेरे और तेरे पैरंट्स वैसे नहीं हैं. तो कैसे तेरे और मेरे दुख हमें एक करते हैं कमीनी! तू सच्ची में कमीनी है. ये हमारा कि‍सी और जनम का साथ है रे कि जो हमको एक साथ ले आया है. नहीं तो कहां मैं पीपी और तू अगम के चक्कर में पड़कर अपनी जिंदगी नरक करने जा रहे थे. एक बात बता, ये पीपी आजकल कर क्या रहा है? सुना पिछली बार होटल मैनेजमेंट के पांचवे सेमेस्‍टर में फेल हो गया था? शादी-वादी हुई या अभी तक वैसे ही कोने में खड़ा होकर लेफ्ट-राइट करता है?

बाई द वे, एक बात तो है बेबी! ये पीपी का नाम लेके आज भी मन में तुरंत एक नोटिफिकेशन आता है. झट से मन वॉट्सऐप की उस पहली विडियो पर चला जाता है जो पीपी ने भेजा था. ऑसम यार, इट वॉज जस्ट ऑसम!! वो अडेल नहीं थी जो हेलो बोल रही थी, वो तो वो था जो इतनी जोर से हेलो बोल रहा था. अडेल को जानती है ना तू. खैर तू तो ठहरी यूपी वाली, ऊपर से यूपी बोर्ड वाली. तू नहीं समझेगी. वो पहाड़ का था. ऊपर से सेंट्रल स्कूल का था. अब कनौसा कॉन्वेंट और जीजीआईसी में कुछ तो फर्क रहेगा ही ना? ऐनीवे, डोंट टेक इट अदरवाइज माइ लव! आइ लव यू! गिव मि अ हग प्लीज.
क्या करूं बेबी, इतनी प्रॉब्लम है कि कुछ सूझ ही नहीं रहा. अंग्रेजी भी अब नहीं सूझ रही बेबी रे!!. अब तो इनके साथ निकलते इतना डर लगता है कि क्या बताएं? अभी दोपहर बाद की ही बात सुनो. मैं और ये अनारकली आरा वाली का सेकेंड शो देखकर आ रहे थे. आजकल टेकी को न जाने कौन सा शौक चढ़ा है कि देहरादून से पचास साल पुराना स्कूटर मंगाकर उसको अनारकली बनाकर चला रहे हैं. पूछो तो कहते हैं अविनाश भाई की फिल्‍म है, सपना है अपने भाई का तो हम भी अपनी तरह से पूरा कर रहे हैं. और अगर ज्यादा कुछ कहो तो कहते हैं कि तुम भी हमको स्वरा से कुछ कम नहीं लगती हो, बस पान खाना शुरू कर दो. बेबी, नाम तो मैंने इसका टेकी रख दिया है लेकिन ईमानदारी से यह पूरा ईस्ट मैन कलर है.

खैर, पचास साल पुराने स्कूटर पर पीछे बैठकर मैं तो आरे वाली अनारकली के ईस्ट मैन कलर में डूबी हुई थी कि आगे से सबकुछ ऑरेंज दिखने लगा. पता चला कि चेक कर रहे हैं कि कौन क्या है. पूरे पौन घंटे बाद हमारा नंबर आया. थैंक गॉड टेकी के पास सारे डॉक्युमेंट्स थे. ऐंड यू नो, उसके पास यूआईडी भी था? लास्ट वीक घर जाकर बनवाकर लाया था. उन्होंने टेकी के सारे डॉक्युमेंट्स चेक कर लि‍ए. टेकी ने जैसे ही एक्सलरेटर लि‍या, वैसे ही हैंडल पर एक मोटा सा हाथ पड़ा. ऐंड यू नो बेबी, पहला क्वेश्चन क्या था? ‘तेरे पीछे बैठी ये कौन है?’ जैसे ही इन्होंने पूछा, ‘वॉट डू यू मीनवैसे ही दे लात, दे लाठी. बेबी रे, मार-मार के ऊ अपने यहां कहते हैं ना कि पटरा कर दि‍ए.आह बेबी ओह.

बेबी, अभी बस इतना ही लिखने का टाइम है. तब से अब तक थाने में ही बैठी हूं और तू तो जानती ही है कि अभी तो हम बस साथ रहना सीख रहे थे. थाने में भी साथ रहना सीख रहे हैं. फि‍र भी माइ लव, मिकी को कुछ मत बताना. वो बेवजह चिंता करेगा. इस वक्त उसे खुद की चिंता करनी चाहिए और तुझे भी बेबी. तुम लोग तो यूपी में हो. सुन जान, मेरे लि‍ए बचाकर रखना खुद को. मैं ही तुझे खाऊंगी. मिकी भी कम मुसीबत में नहीं है. सुना है कर्नल का तबादला शिमला में हो गया है. हम लोग भी शिमला चलें क्या? कुछ भी कर लेंगे. तू मिकी से बात करि‍यो.

मुसीबतें सीखती तेरी और सिर्फ तेरी


रीटा टेकी चौहान

मिर्च की चद्दर

एक रंगीन चादर ऐसी भी

-  रोहित उमराव


भारत के मानचित्र में उत्तर प्रदेश जिले का यह कस्बा कोड़ा जहानाबाद अपनी ऐतिहासिकता के लिए विख्यात है. गंगा यमुना के दोआब में जहानाबाद रिन्ध नदी के तट पर आसीत है. यहां की मिट्टी अत्यंत उपजाऊ है. दलहन, तिलहन और मोटे अनाज की सभी फसलों की यहां अच्छी पैदावार होती है. 

मसालों में प्रयोग होने वाली लाल मिर्च की बात ही कुछ और है. यही नहीं नमकीन दालमोठ के लिए प्रयोग की जाने वाली पीली मिर्च की अपनी अलग खासियतें हैं. व्यापारी किसानों से थोक भाव में गीली लाल और गीली हरी मिर्च खरीद लेते हैं. गीली मिर्च को मैदानों में धूप की सेंक देकर सुखाया जाता है. 

यह नज़ारा काफी दर्शनीय होता है. दूर तक धरती रंगीन दिखाई देती है. एक सेंक के बाद अच्छी और खराब मिर्च की छंटनी की जाती है. इस काम में बड़े-बूढे़-बच्चे सभी मिलकर लगते हैं. छंटाई होने के बाद दोबारा मिर्च को खलिहान में फैलाकर अच्छे से सुखाया जाता है ताकि नमी बिल्कुल न रह जाय. पूरी तरह से सूखी मिर्च को चादर में भरकर हवा में उछालकर ढेर में फेंका जाता है. ताकि उसमें मिट्टी और धूल के कण छिपे न रह जायं. 

इसके बाद नकुनेदार मिर्च पटना मिर्च और नकुना टूटी सनौर मिर्च को अलग-अलग कर जूट के बोरों में दबा-दबा कर पैक किया जाता है. पैकिंग के बाद मिर्च के बोरों को आगरा, लखनऊ, कानपुर, दिल्ली, मुम्बई आदि बड़े शहरों में बिक्री के लिए भेज दिया जाता है.

तस्वीरें पेश हैं -
















Saturday, March 25, 2017

प्रेम के विषय पर यूपी के दो दोस्तों की चिठ्ठियाँ

डिजिटल डॉन राहुल पाण्डेय का बेबाक धारदार लेखन मुझे बहुत प्रभावित करता रहा है.  उतर प्रदेश के हालिया घटनाक्रम के परिप्रेक्ष्य में लिखी गयी ये दो चिठ्ठियाँ इसके पहले नवभारत टाइम्स में उनके नियमित कॉलम में छप चुकी हैं. राहुल के लेखन में तमाम तरीकों से उम्मीद देने और बढ़ाने वाला गज़ब का ट्रेडमार्क ह्यूमर होता है. 
पढ़िए मिरगेंदर और तारकेंदर के मध्य हुआ यह संक्षिप्त पत्राचार. राहुल अभी इस पत्राचार के अनेक आयामों पर काम कर रहे हैं. 
प्रमुख रूप से चिंता का वि‍षय निश्‍चित रूप से गधा चिंतन ही है
-राहुल पाण्डेय 

प्रिय मिरगेंदर,
तुमने अपनी चिट्ठी में मुझसे जो सवाल पूछा, यकीन मानो उस सवाल ने क्‍या दिन और क्‍या रात, मुझे बेचैन करके रख दि‍या है. मेरे भाई, मेरे सखा, मुझे पता है कि इन दिनों तुम उत्‍तर प्रदेश में हो और उत्‍तर प्रदेश समूचा तुममें समा चुका है. अन्‍यथा मेरे बाल सखा, तुम मुझसे ऐसा प्रश्‍न न पूछते कि कि‍ससे प्रेम करें. अरे जिन दिनों मैं बाग में बांस की लग्‍गी लि‍ए घूमता रहता था, उन दिनों तुम सकीना, सीमा, नीतू और न जाने किस-किस के साथ प्रेम की पींगे लेते रहते थे. मुझे यकीन है कि आज भी कहीं से कोई उनके कान में मिरगेंदर फुसफुसा दे तो उनकी आह ही निकलेगी. खैर तुम्‍हारा सवाल हमको बहुत बेचैन किए हुए है और मुझे यह भी यकीन है कि मेरे पास इसका कोई न कोई ऐसा उत्‍तर जरूर होगा जो तुम्‍हारे प्रदेश की सामाजिकता को सूट कर सके. बस तुम किसी तरह से अपने हृदय को संभाले रहो मित्र, उसे असामाजिक न होने देना. तुम्‍हारे हृदय के कितने भी उत्‍तर में वह प्रदेश बस गया हो, बाकी की दि‍शाएं प्रेम की हि‍लोरों के लि‍ए तुम खाली रखोगे, यह भी मुझे यकीन है.
मुझे सकीना की कमी खासी खलती है, खासकर ऐसे वक्‍तों में जब मेरे सामने दो सवाल हों और उनमें से कि‍सी एक का जवाब पहले देना हो तो वो दन्‍न से एक उंगली पकड़ लेती थी. मौली को उंगली दि‍खाता तो वह तो पूरा हाथ ही पकड़ लेती तो उसका ऐसे समय में कोई काम नहीं. नाम तो हम बस इसलि‍ए लि‍ए कि कैसे तो हम और तुम कंप्‍यूटर क्‍लास में उसके आगे पीछे घूमते रहते थे. हमारी तरह तुम्‍हारी भी आह छूटेगी, तभी तो हमको चैन मि‍लेगा. अब हमारे सामने दो सवाल हैं. पहला ये कि ये बताएं कि कि‍ससे प्रेम न करो या पहले ये बताएं कि किससे और किस-किस से प्रेम करो. है ना एकदम भीष्‍म समस्‍या. तुम जिस तरह से उत्‍तर प्रदेश से घि‍र चुके हो, धर्मोचित और संभवत: मित्रोचित भी यही होगा कि पहले यह बताया जाए कि तुम किस-किस से प्रेम न करो. और प्‍लीज, अभी अपने महाभारत का ज्ञान न उड़ेलना, पूरी जिंदगी पड़ी है महाभारत के लि‍ए. पहले प्रेम की समस्‍या पर वि‍चार होना चाहि‍ए.
तो मित्र, अपने हृदय पर उत्‍तर प्रदेश से भी भारी वस्‍तु रखकर सुनो. अब तक तुम जिस-जिस से प्रेम करते आए हो, अब तुम उससे प्रेम नहीं कर सकते. तेरह तक तो मित्र मैं ही तुम्‍हारा गवाह रहा हूं, लेकिन जो हाल इस वक्‍त तुम्‍हारे प्रदेश का है, मैं किसी भी तरह की गवाही से साफ मुकर जाउंगा. मैं न किसी नीतू, सकीना, सीमा और मौली को जानता हूं और न ही निधि, पूजा, प्रेरणा, प्रियंका, श्‍वेता, आस्‍था, शांति, समीक्षा या अंजू को जानता हूं. ये भी मुझे नहीं जानतीं, इसका भी मुझे यकीन है. तो मित्रवर, अब जब किसी भी स्‍त्री को देखना तो ऐसे देखना कि कुछ भी नहीं देखा. पुरुष को तो देखना भी नहीं, नहीं तो पूरा का पूरा प्रदेश तुम्‍हारे हृदय में जो हाहाकार करेगा, तुम कहीं के भी रह जाओगे, मुझे पूरा यकीन भरा संदेह है.
अब मेरे बाल सखा, अपने प्रश्‍न का उत्‍तर सुनो. दुनि‍या में कितना कुछ तो है प्रेम करने के लि‍ए. गाय से प्रेम करो. बकरी से भी प्रेम करो. नहीं, बकरी से प्रेम न करो मित्र. आजकल बकरी दूसरे धर्म में शिफ्ट हो गई है. गाय से भी करना तो सफेद गाय से करना, काली गाय से नहीं. काली गाय दूसरे धर्म की है. कुत्‍ते से प्रेम करो. तरह तरह के मोती इधर से उधर चंचल होकर चपल कुलांछे भरते रहते हैं, क्‍या तुम्‍हें उनसे तनिक भी प्रेम नहीं होता. भूल गए कैसे हम लोग बचपन में कनछेदू की कुतिया के तीन पिल्‍ले चुराकर लाए थे. भले बाद में अम्‍मा लात मारकर नि‍काल दी हों, क्‍या हमें उनसे प्रेम नहीं था. बंदरों से प्रेम करो. हमने बंदरों पर बहुत अत्‍याचार कर लि‍या. जहां उन्‍हें देखते हैं, उठाकर पत्‍थर या डंडा या जो भी हाथ में आए, उनपर फेंकते हैं. जरा भी नहीं सोचते कि वह अब उत्‍तर प्रदेश के राष्‍ट्रीय प्रतीक हैं.
राह चलते गाय-भैंस, कुत्‍ता-बिल्‍ली, बंदर-बंदरि‍या, जो कोई भी दि‍खे, सबको प्रेम से सहलाते हुए अपनी मंजिल की ओर बढ़ते रहो. इसकी परवाह बिलकुल न करो कि कौन तुम्‍हें सींग मार रहा है, कौन पंजा और कौन दांत गड़ा रहा है. आखि‍रकार पहले के भी प्रेम में तुमने कम मुसीबतें नहीं झेली थीं. भूल गए कैसे नुपूर के घर की छत कूदने के चक्‍कर में हम दोनों के टखने टूटे थे. टूट फूट उस प्रेम में भी थी, इस प्रेम में भी है मित्र, इसलिए बिलकुल भी हताश होने की आवश्‍यकता नहीं है. और क्‍या तुम्‍हारी प्रेमिकाओं ने तुम्‍हें कभी दांत नहीं काटा. बंदर भी तो सिर्फ दांत ही काटते हैं, कभी कभार थप्‍पड़ भी मार देते हैं तो थप्‍पड़ तो प्रेम की पहली सीढ़ी ही है मित्र. मैंने तुमने मिलकर कितने तो थप्‍पड़ खाए हैं. बंदर के थप्‍पड़ को जैसी सामाजिक स्‍वीकृति मिलती है, क्‍या किसी प्रेमिका के थप्‍पड़ को मि‍ल सकती है.
मि‍रगेंदर, मेरे दोस्‍त, मेरे भाई, इसलि‍ए बि‍लकुल भी निराश न हो. देखो, मैं भी बि‍लकुल भी नि‍राश नहीं हूं और कल ही अपनी कामवाली से दो बिल्‍ली के बच्‍चे लाने को कहा है. मैंने अपनी लाइफ में अजस्‍ट करना सीख लि‍या है और आशा करता हूं कि मेरी लाइफ से लाइन लेते हुए तुम भी अडजस्‍ट करना सीख लोगे. नहीं सीखोगे तो उत्‍तर प्रदेश में सिखा दि‍ए जाओगे, इसका भी मुझे पूरा यकीन है. बाकी प्रत्यक्षा के बारे में जब दिल्‍ली आओगे, तब बात की जाएगी, तब तक चुप रहना भी सीखना होगा दोस्‍त.
तुम्‍हारे बचपन का वेरी अनरि‍लायबल दोस्त
तारकेंदर

प्रिय तारकेंदर,
तुम्‍हारे नाम के आगे जो मैंने प्रिय लगाया है, प्‍लीज इसे अन्‍यथा न लेना और न ही किसी से कहना कि तुम मेरे प्रिय हो. तुम्‍हें तो पता ही होगा कि इन दिनों मेरे प्रदेश में प्रिय, प्रेम, प्रेमी, प्रेमिकादि पर कितनी सख्‍ती चल रही है. ऐसे में किसी पुरुष को प्रिय कहना खतरे से खाली नहीं है, लेकिन पत्राचार की रवायतों से मजबूर होकर मुझे ऐसा कहना पड़ रहा है, इसलिए प्‍लीज, न तो तुम इसे अन्‍यथा लेना और न ही किसी और को लेने देना. लेना-देना एक तरफ मित्र, तुमने अपने पत्र में गाय-बकरी, कुत्‍ता-बिल्‍ली, बंदर-बंदरिया से प्रेम करने की जो सलाह दी, वह तुम्‍हारे जैसा अनरि‍लायबल दोस्‍त ही दे सकता है. अगर वाकई तुम मेरे रिलायबल दोस्‍त होते तो मित्र, तुम मुझे गधे से प्रेम करने की सलाह जरूर देते. इस वक्‍त हमारे प्रदेश में वही इकलौता जानवर है, जो निर्विवाद है.
यह बात तो मित्र हम बचपन से ही सुनते आए हैं कि स्‍त्रियों को प्रेम गधों से ही होता है. वैसे सुनने से कहीं ज्‍यादा तो कहते आए हैं. अभी उस दिन ही जब श्‍वेता गली के संजू के साथ अकब-बजाजा में हंस-हंस ठिठोली करके सैलाराम के सड़े हुए गोलगप्‍पे खा रही थी तो वह कौन था जो बोला था स्‍त्रियों को गधे ही भाते हैं? तुम ही तो थे! जब मैसी साहब की लड़की रीटा उस दो कौड़ी के यूपी बोर्ड वाले राहुल के साथ मटकती हुई गुदड़ी बाजार से चौक जा रही थी तो कौन बोला था कि देखो-देखो, गधा जा रहा है? तुम ही तो थे! और तो और, सकीना की शादी तक में गधा आया-गधा आयाकी जो हुलकारें लगीं, वो किसने लगाई थीं मित्र? तुम ही तो थे! इतना सब याद रखने के बावजूद तुम गधे को क्‍यों भूल गए मित्र? क्‍या सिर्फ इसलिए कि इस बार जो गधा आया है, वह सीधे गुजरात से आया है?
गुजरात हो या गोरखपुर, गधे-गधे में क्‍या भिन्‍नता? लेकिन मूल प्रश्‍न यह नहीं है. मूल समस्‍या भी यह नहीं है. मूल समस्‍या यह है मित्र कि स्‍त्रियां तो गधों से प्रेम कर लेती हैं, हम पुरुष गधों से कैसे प्रेम करें? और फिर ऐसे में क्‍या सेम सेक्‍स का सवाल नहीं उठेगा? मैंने इस सवाल पर गहन वि‍चार कि‍या मित्र. इतना कि जल में तनिक तरल मिलाकर गुप्‍तारघाट किनारे रात भर बैठकर सोचता रहा. वो तो सुबह जि‍यावन निषाद आकर बोले कि झाड़ा पानी करना हो तो घाट के बारे में मन में एक भी गलत विचार न लाना. हमको पता है कि तुम और तारकेंदर कितने बड़े पापी हो. कैसे-कैसे तो लोग हैं मित्र तारकेंदर. एक तरफ हम रात भर तरल में जल मि‍ला भरी बोतल को सीने से सटाकर उदर में उतारकर गंभीर विचार मंथन करते रहे तो एक तरफ जियावन को झाड़ा-पानी की पड़ी है. आने दो इस बार वाला सभासदी का चुनाव. कम से कम सात सौ वोट न कटवाए तो हमारा नाम मिरगेंदर से बदलकर चुगेंदर कर देना. सरयू मैया हमारी गवाह हैं.
तुमने अपने पत्र में बंदर के थप्‍पड़ की सामाजिक स्‍वीकृति की बड़ी ही अर्थपूर्ण विवेचना की थी. तुमसे अच्‍छी विवेचना कोई और कर भी नहीं सकता. मुझे अभी तक वह दिन याद है जब तुम अपने घर के टूटी छत वाले टॉइलट में दिव्‍य निपटान में व्‍यस्‍त थे और कैसे वानर सेना ने तुम पर आक्रमण कर तुम्‍हें थप्‍पड़ों और दंतक्षत का परम प्रसाद दिया था? उसके बाद कैसे उस निधि ने आर्यकन्‍या के पीछे ब्रह्म बाबा की थान पर तुम्‍हें थप्‍पड़ पर थप्‍पड़ लगाए थे? तुम कहते रहे कि बंदर बहुत काटे हैं, पेट में सुई बहुत दर्द कर रही है, फि‍र भी उसके थप्‍पड़ एकदम उसकी साइकिल के पैडल की तरह एक बार जारी हुए तो सीधे सत्‍तर की स्‍पीड में. बावजूद इसके तुमने उससे प्रेम करना नहीं छोड़ा था. जब तक उसकी डोली आर्यकन्‍या वाली गली से नहीं उठ गई, जाने कौन सा विश्‍वास तुम्‍हें उसके थप्‍पड़ छाप प्रेम से चिपकाए हुए था, आज तक मुझे समझ नहीं आया? क्‍या बचपन का एक थप्‍पड़ बीकॉम तक किसी को इस तरह से चिपकाकर रख सकता है?
खैर यह सब तो मजाक की बात हुई मित्र और मुझे पता है कि निधि के लि‍ए तुम्‍हारे मन में सम्‍मान का कौन सा स्‍थान है. तुम्‍हारे मन में मौजूद सम्‍मान को लेकर मुझे कभी कोई कन्‍फ्यूजन नहीं हुई मित्र और न ही तुम्‍हारे प्रेम की पवित्रता को लेकर. तुम तो मेरी गवाही देने से साफ मुकर गए, लेकिन मैं कभी भी और कहीं भी तुम्‍हारे मन में मौजूद प्रेम की गवाही देने के लिए गीता को उठाने को तैयार हूं. वैसे बता दूं कि तिवारी एजेंसी नियावां वाले पंडित जी की लड़की गीता की पिछले साल ही शादी हो चुकी है. हम जाना तो नहीं चाहते थे, ऊपर छत वाले कमरे में पेट के बल लेटकर बेगम फैजाबादी का गाना इतना ना जिंदगी में किसी की खलल पड़ेपूरे शोक से सुन रहे थे, लेकिन मम्‍मीजी जबरदस्‍ती इक्‍कीस रुपये का लिफाफा जेब में ठूंसते हुए बोलीं कि नन्‍हीं के जन्‍मदिन पे पूरे ग्‍यारह रुपये नकद दी थीं. हम कोई उनसे कम थोड़ी ना हैं! लिखा जरूर देना कि इक्‍कीस दिए हैं और खाना पूरा खा के आना, अंत में आइसक्रीम जरूर खाना! कोई पूछे उनसे कि दोस्‍त, इस दिल का दर्द इक्‍कीस रुपया देके और आइसक्रीम खाके कहां दूर होता है. अभी और सुनो, जाते-जाते ऑर्डर दीं कि ये जरूर पता लगा के आना कि गीता का लहंगा कितने का था?
गीता चिंतन बहुत हुआ मित्र, उस चिंतन से लेशमात्र भी लाभ नहीं. अब उत्‍तर प्रदेश में जो भी चिंतन प्रमुख रूप से चिंता का वि‍षय है, वह निश्‍चित रूप से गधा चिंतन ही है. गुजरात हो या गोरखपुर, गोरखनाथ हो या सोमनाथ या फिर तुंगनाथ ही क्‍यों न हो, उसके चिंतन से जीवन की यह नैया उस किनारे नहीं लगने वाली मित्र, जिस किनारे लगने से पहले क्‍या-क्‍या करें के बारे में महाराज भृतहरि बता गए थे. हम सब एक हद तक प्रेमी जीव हैं. इस धरा पर हमने प्रेम करने का ही अवतार लिया है. अब यह भूलोकवासि‍यों पर निर्भर है कि वह हमें किस-किस से प्रेम करने देते हैं. अगर वह स्‍त्री से प्रेम नहीं करने देंगे तो हम गधों से प्रेम कर लेंगे मित्र क्‍योंकि बार-बार बेहूदे बदलाव करना भूलोकवासियों की आदत है, हम प्रेमियों की नहीं. लोग बदल जाते हैं, स्‍थान बदल जाते हैं, काल बदल जाते हैं, सवाल बदल जाते हैं मित्र, किंतु यह प्रेम ही है जो नहीं बदलता. जानता हूं मेरे पत्र का तुम्‍हारे पास कोई जवाब नहीं होगा, इसलिए मैं किसी जवाब के इंतजार में नहीं बैठा हूं. दरअसल थोड़ी देर में बंबे धोबी अपने गधों को मेरी गली से लेकर जाने वाला है, मैं बस अपनी टूटी दीवार पर बैठा उन्‍हीं गधों का इंतजार कर रहा हूं. गधों से प्रेम करने के बारे में सोच रहा हूं!
तुम्‍हारा दूर जाता मित्र
मिरगेंदर


Tuesday, March 21, 2017

इसे बनाते मुसलमान हैं और स्वर फूंकते हैं हिन्दू

यह आलेख और फोटो निबंध हमारे स्टार फोटूकार कबाड़ी रोहित उमराव ने बहुत मशक्कत से तैयार किया है. इस से पहले रोहित ने इस ब्लॉग पर आपको मांझे और सिवइयों के निर्माण पर अद्भुत फ़ोटो-कथाओं से रू-ब-रू कराया है. ऐसी शानदार पोस्ट्स से ही कबाड़खाना वह है जो इतने सालों में बन सका है. थैंक्यू रोहित.

पीलीभीत की बांसुरी
- रोहित उमराव 

बांस की बनी बांसुरी और उसकी मधुर-सुरीली तान आखिर  किसे नहीं रिझाती? बांसुरी भारत वर्ष का ऐतिहासिक वाद्य यंत्र है. महाभारत काल में श्रीकृष्ण-बांसुरी-गोपिका और गायों की लीलाओं से विश्व परिचित है. उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिले में कारीगरों की कई पीढियां बांसुरी बनाने के काम को बखूबी आगे बढ़ा रही हैं. वह इसे अपनी पुश्तैनी विरासत मानती हैं. ज्यादातर मुश्लिम परिवार के लोग इसे बनाते हैं. लेकिन यदि कहा जाय कि "इसे बनाते मुसलमान हैं और स्वर फूंकते हिन्दू है" तो यह एकदम सही होगा.  पंडित हरिप्रसाद चौरसिया, राजेंद्र प्रसन्ना जैसे ख्यातिप्राप्त बांसुरी वादकों की पसंद बनी पीलीभीत की बांसुरी देश-दुनियां में अपना नाम रोशन कर रही है.

पीलीभीत जिले में बांसुरी बनाने का काम बड़े पैमाने पर होता आया है. आज से 10 साल पहले यहाँ करीबन 500 से ज्यादा परिवार बांसुरी बनाते और उसकी आय से ही बसर करते थे. पर अब हालात बदल गए हैं. इनकी संख्या घटकर 100 के करीब ही रह गई है और आने वाले दिनों में कम ही होती जा रही है. हाथ के हुनर का उचित मूल्य न मिल पाने के चलते इस काम से उनका पारिवारिक गुजर-बसर नहीं हो पा रहा है. जीविका और रोजी-रोटी पर संकट के बदल गहराते जा रह है. इस अँधेरे से उबरने के लिए वे दूसरे रोजगार ढूंढ रहे हैं. जिसमे चार पैसे की बचत भी हो सके.

हुनरमंद कारीगर खुर्शीद, अज़ीम, इसरार और गुड्डू का कहना है कि आसाम से आने वाले बांस के यातायात की समस्या है. पहले ये बांस आसाम से ट्रेन द्वारा बड़े लठ्ठे के रूप में आता था. ट्रेने बंद हो गईं उनका बांस अब ट्रक में छोटे टिकड़ों के रूप में बोरों में भरकर आने लगा. कई जगह बदला जाता है. लाने-ले जाने में बहुत सारा बांस टूट जाता है. सरकार इस हैंडीक्राफ्ट इंडस्ट्री की ओर ध्यान दे. राष्ट्रीय प्रदर्शनियों में इन कारीगरों के काम को प्रदर्शित करने को निःशुल्क बढ़ावा मिले. राहत फण्ड यदि की समस्या हल हो. तब तो फिर से कारीगरों को आशा की किरण नजर आने लगे. और वे जी लगाकर इसी पारंपरिक काम को आगे बढ़ाये.

पेश है पीलीभीत में बनायीं जाने वाली बांसुरियों की एक बानगी. देखते हैं -       

आसाम से आये बांस की गोलाई, मोटाई,
लंबाई और सिधाई को परखता कारीगर

बांसुरी बनाने के चार सोपान सामने हैं. पहले कारीगर साधारण बांस को तराश
कर मुहाने को गोलाई देता है.
फिर उसकी जीभ तराशता है. फिर उसमें अरहर की लकड़ी को तराशकर ढाठ बनाता है.
फिर ढाठ को तराशकर जीभ से मिला देता है

बांसुरी के बांस की पेंसिल से सिधाई परखकर, फर्मा के सहारे
सुरों के छेदों के अनुपात पर निशान लगा लिए जाते हैं.
और फिर आग में तपती सुर्ख सलाखों से उसमे छेद किये जाते हैं

साधारण बांस में हांथों के हुनर से
अग्नि की तापिश के बाद स्वरों का गुंजन स्वतः उत्पन्न हो जाता है

परिवार के सभी सदस्य महिलाएं और पुरुष
मिलकर बांसुरियों की पैकिंग करते हैं और यहीं से फिर उन्हें बाजार भेज दिया जाता है

Thursday, March 16, 2017

हल्द्वानी के किस्से - 5 - पंद्रह

(पिछली क़िस्त से आगे)



परमौत की प्रेम कथा - भाग पंद्रह

परमौत ने फ़ोटो वाला लिफाफा वापस गिरधारी को थमाया और जल्दी-जल्दी गुसलखाने में चला गया. दस मिनट में वह बाहर सड़क पर था जहाँ पूरा गोदाम-मंडल उसकी प्रतीक्षा में आतुर था. इस दरम्यान उसकी समझ में यह बात नहीं आई थी कि गिरधारी पिरिया की फोटू कैसे ले आया होगा. अभी तो उसने गिरधारी को बताना था कि पिरिया असल में है कौन. लेकिन उसका चोर मन कहता था कि जिस तरह का संयोग पिछली रात घटा था उसके परिप्रेक्ष्य में गिरधारी का यह जादुई कारनामा कर सकना भी संभव था. इसके अलावा पिछली रात पिरिया और लम्बू अमिताब  के एक ही घर में घुसने के उसने तमाम अर्थ लगाए लेकिन किसी भी ठोस नतीजे पर नहीं पाहुंच सका था. वह पिरिया का घर हो सकता था. वह लम्बू अमिताब का घर भी हो सकता था. वह लम्बू अमिताब के किसी परिचित या रिश्तेदार का घर भी हो सकता था जिसने हो सकता है उन्हें भागने में मदद की हो. वह पिरिया के भी किसी ऐसे ही परिचित या रिश्तेदार का घर भी हो सकता था. जो भी हो पिरिया को हफ्ते भर के लम्बे अंतराल के बाद देखना उसके लिए बेहद खुशी देने वाला रहा था और पिरिया के कम से कम एक स्थाई अथवा अस्थाई अड्डे तक पहुँच सकना भी.

हम तीनों ने जैसे तैसे कहीं से पचास पचास रूपये इकठ्ठा करके जिन की एक बोतल और कुछ चबेना खरीद रखा था और हम परमौत को लेकर सीधे गोदाम जाकर गिरधारी द्वारा अब तक न बताए गए सीक्रेट की पाल्टी करने की नीयत रखते थे.

परमौत के बाहर निकलते ही हमने उसे आँख मारी जिसे अनदेखा करते हुए उसने हमसे तेज़-तेज़ उसके मोहल्ले की सरहद से बाहर निकल चलने का इशारा किया.

दस मिनट के भीतर हम गोदाम के भीतर थे - मोहब्बत, मनहूसियत और मैकशी से सराबोर जिसकी हर शै हमारा इंतज़ार कर रही लग रही थी.

बोतल खुलने से पहले ही नब्बू डीयर बोला - "अबे गिरधारी गुरु आज सुबे-सुबे किच्चक्कर में पाल्टी हो रई साली ... जीनातामान का ब्या तो ना हो रा भलै ..."

"अबे नब्बू वस्ताज, सबर करो जरा सबर. बड़ी वाली पाल्टी का काम हुआ ठैरा आज परमौद्दा का. बड़ी मेनत करी है साली सुबे से इसके लिए" - परमौत से चिपक कर बैठते हुए गिरधारी ने बोलना जारी रखा - "ले यार परमौद्दा ... देख ले भाभी की फोटुक. क्या याद करेगा किस साले गिरधारी ने वादा निभाया अपना और वो भी पैन्चो बखत से पहले ..." परमौत के हाथ में उसने फोटो वाला लिफ़ाफ़ा पुनः थमाया. परमौत ने खोल कर देखने की जगह उसे अपनी कमीज़ की जेब के हवाले किया और बोतल का ढक्कन खोलने लगा.

"मुझको तो पैले ही पता हुआ परमौद्दा कि भाबी कौन हुई. वो तो तेरा लिहाज़ कर रहा हुआ मैं इत्ते दिन से. नहीं तो कब के बता दिया होता इन सब सालों को. नहीं तो अपने नबदा कितने हरामी हुए, सब जानने ही वाले हुए. इनको बताता तो साले ये भी लग जाते वहां अपना मूँ उठाके ..."

"अबे ससुर पैले फोटुक तो दिखाओ साले ... और तुम लम्बुआ गुरु अपनी मत कहना भौत. बता रहा हूँ."

गिलास ढाले जा चुके थे और हम सब की उत्सुकता परमौत की कमीज़ की जेब पर केन्द्रित हो गयी थी जिसके भीतर से उस जादुई लिफाफे को निकालने की उसकी कत्तई नीयत नहीं लग रही थी.

"तू तो सैणियों की चार सरमा रहा हुआ यार परमौद्दा ..." कहते हुए गिरधारी ने लिफाफा परमौत की जेब से बाहर निकल लिया. परमौत ने जरा भी विरोध नहीं किया. 

लिफाफा खोल कर उसमें से दो एक जैसे पासपोर्ट साइज़ फोटो निकले जिनमें से एक मैंने हथिया लिया दूसरा नब्बू डीयर ने.

"सई है लौंडिया वैसे तो मल्लब ... भौत सई है बस फोटूगीराफ़र ने जरा फोटुक सई एंगिल से नहीं खींच रखी. इस चक्कर में जरा ढैणी लग रई गिरुवा की भाबी ..." काइयां नब्बू डीयर अपने पहले कमेन्ट जारी करने लगा था.

मैंने भी एक झलक में ताड़ लिया कि फोटो में सचमुच तनिक ढैणी दिख रही लड़की किसी भी कोण से पिक्चर की हीरोइन तो नहीं दिख रही थी अलबत्ता उसके चेहरे पर एक मूर्ख किस्म की निश्छलता थी जिस पर परमौत जैसे बौड़म के दिल के आ जाने को मैंने कोई अचरज करने वाली चीज़ नहीं जाना.

पिरिया की आँखों के बारे में नब्बू डीयर की राय सुनकर एक पल को परमौत को गुस्सा आ गया - "ढैणी होगी तेरी भाबी नबुआ. तुम क्या जानो सालो खबसूरती! तुम तो बस दारू पियो और मुकिया के गाने सुन के बस ओईजा-ओबाज्यू करते रैना बेटा जिन्दगी भर ... जरा ये देख ... ये पिरिया तुझको ढैणी लग रही है ... हैं? ..." - परमौत ने मेरे हाथ से फोटो छेना और उसे देखते ही जैसे उसके होश गायब हो गए.

करीब दस सेकेण्ड बाद वह गिरधारी पर फटा - "साले गिरधारी ... बहुत स्मार्ट बन रहे हो साले ... जब मैंने कहा था कि पहले मैं लड़की दिखाऊंगा तो सबर नहीं होता था तुझसे ... अबे ये फोटो जो है ..."

"देख यार परमौद्दा नाराज मत हो यार ... मैंने एक बार देखा ठैरा ना तुम्को भाबी के साथ उस दिन जब तुम उसके संग समोसे खा रहे हुए वो क्या नाम कहते हैं घनुवा सौंठ के खोमचे पे ... तो मैं जानने वाला हुआ भाबी को ... तू समझ क्या रहा है यार परमौद्दा ... और साले चापरासी को पचास रुपे दे के कॉलेज के दफ्तर से चाऊ कर के लाया हूँ बिचारी भाबी की फोटुक और तू ऐसे मुझी पे फ़ैल रहा हुआ यार ..."

"भांग की फुन्तुरी है भाभी, कद्दू का टुक्का है माचो ... जड़ है किल्मौड़े की ... अबे ये वो ससी है सालो जो मेरे पीछे पड़ी हुई है इत्ते दिन से बता नहीं रहा था मैं जिसके चक्कर में कप्यूटर जाना बंद कर रखा है मैंने. और ये साले बड़े वो बन रये गिरधारी क्या नाम कहते हैं गोपीचन्दर जासूस - अबे घनश्याम हलवाई की दूकान पे समोसे खाने से कोई भाबी बनने वाली होती तो ये अपने नब्बू डीयर जो हैं ना, पांच तो इनकी शादी हो गयी होतीं ... हटा साले को ..."  - कहते हुए गुस्से में उसने अपना गिलास सामने की दीवार पर पटक दिया. 

परमौत को इतना आक्रामक हमने कभी नहीं देखा था. हम चारों में वही सबसे अधिक शालीन और ठहरा हुआ था लेकिन मेरा मानना था कि मोहब्बत के चक्कर में इंसान का ऐसा हाल हो ही जाना था. गिरधारी लम्बू ने ग़लती की थी पर अपने दोस्त की सहायता करने के लिए उसने जितना रिस्क लेकर कॉलेज के एडमीशन फॉर्म में से ससी का फोटो निकाल दिखाया था उसकी कुछ तो तारीफ़ बनती थी. तारीफ नब्बू डीयर की ओर से आई -

"देख यार परमौती ... एक तो गिलास ऐसे फोड़ते नहीं हैं और दूसरे ये कि जो भी कहो ढैणी होने के बाद भी साली माल तो लग रही है लौंडिया. और तुमको तो थैंक्यू कैना ही पड़ेगा गिरधारी लला जो साले रेगिस्तान में पानी का सोता जैसा फोड़ने को एक फोटुक तो ले के आये ... जरा अपने खुट दिखाओ तो उनको छू के आशिरबाद ले लेते हैं कि कभी हमारे लिए भी ऐसे ही फोटुक ले के आओगे कभी ..."

खासा रुआंसा हो चुका गिरधारी एक कोने में सुबकने को तैयार बैठा था. नब्बू डीयर का मज़ाक उसे ज़रा भी पसंद नहीं आया और वह बिफर कर परमौत से मुखातिब होकर बोला - "साला ऐसे सबके सामने कोई समोसे खाता है यार परमौद्दा ... अबे हल्द्वानी है यार हल्द्वानी. कोई साला बॉम्बे लंदन समझ रखा है ... अबे यहाँ लौंडिया का सपना भी देखो तो लोग कैने लगते हैं साले चक्कर चल रहा है तुम्हारा. बहन के साथ भी रिक्से में जाओ तो साले ऐसे घूर-घूर के देखने लगते हैं हरामी ... और तू जो है परमौद्दा साले समोसा खा रहा हुआ चटनी लगा-लगा के सबके सामने और वो भी घनुवा हलवाई के यहाँ ... अब मैं उसको तेरा चक्कर ना समझता तो तेरी दिद्दी समझता क्या ... उलटे इतने दिन से जो मार यहाँ-वहाँ चक्कर लगा के वो तेरी ससी-फसी के खानदान का पूरा हिसाब-किताब इकठ्ठा कर रखा है, उसको तू एक झटके में भांग की फुन्तुरी बता रहा हुआ पैन्चो ... क्या यार ..."

गिरधारी की आँखों से बाकायदा आंसू बहने चालू हो गए. इससे परमौत हकबका गया. दरअसल हम सब गिरधारी के रोने से हकबका गए थे. परमौत ने उठ कर गिरधारी को कन्धों से थामा और उठाकर गले से लगा लिया. ऐसा करने से गिरधारी का रोना और तेज़ हो गया जिसे चुप कराने के लिए नब्बू डीयर ने पिछले कई सालों का हिसाब चुकाते हुए "गिरधारी चोप्प भैं ..." का उद्घोष किया. गिरधारी चुप हो गया. मैं और नब्बू डीयर गिलास के चूरे उठाने लगे.

"फिर अब ..." मैंने झुके-झुके ही सवालिया निगाह राम-लक्ष्मण बने परमौत और गिरधारी पर डाली.

"अब क्या ... अब घंटा! ... तुम्हारी भाबी जो है वो भाग गयी है उस हरामी लम्बू के साथ और कल ही वो लोग दिल्ली से शादी कर के लौटे हैं .... मैंने अपनी आँखों से देखा है कल रात ..."

"लेकिन कल रात दो बजे तक तो तू मेरे साथ था यार परमौद्दा ... "

माहौल वापस नियंत्रण में आ रहा था और परमौत ने रोडवेज़ से लेकर रामपुर रोड की गली तक के अपने सफ़र की तफ़सीलात बयान कीं.

हमारे पास परमौत के लिए घनघोर सहानुभूति थी लेकिन हम कर कुछ नहीं सकते थे.

"मल्लब भाबी ने घर से भाग के सच्ची-मुच्ची की सादी कर ली और लौट भी आई?" - नब्बू डीयर के स्वर में अविश्वास और अचरज के मिले-जुले भाव थे.

"हाँ यार ... उस से तो ये फोटो वाली मोटी सही हुई ना ... अरे कम से कम भागी तो नहीं ... उलटे हमारे परमौती के साथ समोसे भी खाए और मोब्बत करने वाली चिठ्ठी भी उसको दी ... लेकिन नब्बू वस्ताज ये होने वाली ठैरी आशिकी ... मल्लब मोब्बत ... वो साली सायरी नहीं है एक पिक्चर में कि आग कि नदी होने वाली हुई और उसी में डूब के हिल्ले से लगने का काम होने वाला हुआ. परमौत गुरु को तो वो चइये जो साली किसी और के पास हुई और जिसको परमौत गुरु अच्छे लगने वाले हुए उसको समोसे के अलावा घुत्ती भी नहीं मिलने वाली हुई ... मैं मुकेश के किसी नैराश्यपूर्ण गाने को उद्धृत करते हुए अपनी बात समाप्त करना चाहता था लेकिन उस समय कुछ भी याद नहीं आया. मेरी दुविधा को शायद नब्बू डीयर ने ताड़ लिया और अपनी नक्कू अचारी आवाज़ में उसने गुनगुनाना शुरू किया -  बहारों ने मेरा चमनि लूटिकर खिज़ा को ये इल्जामि क्यों दे दिया ..."

तीस-चालीस सेकेण्ड को गोदाम की कराहती आत्मा को नब्बू डीयर ने मुकेश के अनिष्टकारी गीत की मार्फ़त आवाज़ अता फ़रमाई जिसके बाद परमौत को हाथ जोड़कर उससे गाना बंद कर देने का संकेत किया.

गिरधारी अब नार्मल होता दिख रहा था और सबके लिए गिलास भर रहा था.

"मैंने सोचा कि यार परमौद्दा खुस होगा कि मैंने भाबी के घर खानदान के बारे में सब पता लगा लिया हुआ कि एक तो वो अपने माँ-बौज्यू की इकलौती औलाद हुई और उसके बौज्यू करने वाले हुए पीडबुलडी में घूसखोरी की नौकरी. सुभाषनगर में दोमंजिला घर हुआ और घर में रैनेवाले हुए तीन जने और चार कुकूर-बिरालू. हाईस्कूल में उसके आये रहे तित्तालीस परसेंट और इंटर में आई रही सोसोलौजी में सप्लीमेंटरी. बीए किया ठैरा लौंडिया ने होमसाइंस में सेकिण्ड डिभीजन और अब एमे कर रही इंग्लिस में. और ... लेकिन इस सब को बताने का अब क्या फायदा हुआ भलै ... वो तो कोई और ही निकल गयी पैन्चो ..." - सब कुछ बता चुकने के बाद गिरधारी अब दयायाचना की निगाह से परमौत को देख रहा था.

परमौत और नब्बू डीयर ने इस वार्तालाप के अलग-अलग मानी निकाले - परमौत गिरधारी के भीतर छिपे शोधार्थी से बहुत इम्प्रेस हुआ और सोचने लगा कि जब गिरधारी हफ्ते-दस दिन में ससी के बारे में इतनी बहुमूल्य जानकारी जुटा सकता है तो फोटो का जुगाड़ करने के अलावा वह पिरिया के बारे में भी ऐसा ही कर सकता है. नब्बू डीयर को ससी में भरपूर संभावना नज़र आई. उसकी काल्पनिक प्रेमिका का अब तक कोई पता-पानी नहीं था जबकि यहाँ प्रेम करने को आतुर एक माल टाइप की तनिक ढैणी लड़की बमय फोटू और बायोडाटा के मौजूद थी. नब्बू को बचपन से ही किसी ऐसे ही घराने की तलाश थी जिसमें एक घूसखोर बाप हो और इकलौती लड़की भी. ऐसे खानदान का घरजमाई बन पाना उसके संजीदा सपनों में शुमार था. ससी के फोटू को अपनी आँखों के पास ले जाकर और उसे काफी देर तक ध्यान से देखने के बाद उसने गिरधारी से पूछा - "मल्लब एक महीने में कितना कमा लेता होगा ये क्या नाम कहते हैं ये ससी-हसी का बाप ..."

इस बार गिरधारी ने भ अक्षर से शुरू होने वाली दो गंभीर गालियाँ देकर नब्बू डीयर को कोसना चालू किया तो परमौत बोला - "सॉरी यार गिरधारी वस्ताद ... ग़लती मेरी है साली ... मैंने तुम सब को पैले ही दिखा देना था पिरिया को. पैले बता दिया होता तो ना वो उस लम्बू के साथ भाग कर दिल्ली जाती ना इतना फजीता होता ... माफ़ कर दे यार ..."

गिरधारी परमौत के गले से लिपट गया और तनिक भर्राए स्वर में बोला - "कल को दिखा देना मुजको कि भाबी कौन सी वाली है. बस. आगे का काम तेरा ये चेला कर देने वाला हुआ परमौद्दा ..."     

(जारी)