Saturday, April 8, 2017

अथ गणित कथा

मित्र ललित मोहन रयाल भीमताल में रहते हैं. सरकारी सेवा में हैं. उनसे परिचय बहुत पुराना नहीं है अलबत्ता जितना भी है वह इस बात की तसदीक करने को पर्याप्त है कि उनसे लम्बी दोस्ती की खासी संभावना है. उम्दा क़िस्सागोई का मैं प्रशंसक हूँ और ललित मोहन रयाल इस कला में सिद्धगस्त हैं. इन दिनों वे 'खड़कमाफी की स्मृतियों से' शीर्षक एक संस्मरण श्रृंखला पर कार्यरत हैं. उन्होंने इस सीरीज में से इस टुकड़े को यहाँ पोस्ट करने की अनुमति दी है. उनका आभार. आनंद लीजिये! 


'गणित में विद्यार्थियों का हाथ तंग है' - प्रायः सुनने को मिलता था. गणित-फोबिया से कई छात्र पीड़ित रहते थे. तत्कालीन कालखंड में हमारे अंचल में गणित विषय का हाहाकार मचा रहता था. प्रथम प्रयास में मैट्रिकुलेशन परीक्षा पास करना दुर्लभ समाचार होता था. प्रथम प्रयास में इस परीक्षा को उत्तीर्ण करना अभीष्ट भी नहीं माना जाता था. तीसरे से पाँचवें प्रयास तक को सहजता से लिया जाता था. प्रयासों की संख्या कितनी भी हो जाए, पास होना महत्त्व रखता था. पाँचवें प्रयास तक भी इस परिणाम के लिए उपयुक्त निगरानी व मार्गदर्शन की जरूरत महसूस की जाती थी.

'मैट्रिकुलेशन' शब्द की ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी मीनिंग 'रजिस्टर' दी गई है. इसमें यह भी स्पष्ट किया गया है कि पाश्चात्य शिक्षा- व्यवस्था में इस परीक्षा के अंक रजिस्टर में इंद्राज किए जाते हैं. इसके अंक रजिस्टर में 'एंट्री' किए जाने से ही इसे 'मैट्रिकुलेशन' कहा जाता है.

प्राच्य विद्वान पी. एन. ओक इस धारणा का खंडन करते हैं. उनका दृढ़ मत है कि रजिस्टर में तो अन्य परीक्षाओं के अंकों की भी प्रविष्टि की जाती है. 'गजट' भी तो रजिस्टर ही है. इस विधान से तो समस्त परीक्षाएं ही मैट्रिकुलेशन कहलानी चाहिए.

उनका मत है कि 'मैट्रिकुलेशन' प्राचीन संस्कृत शब्द 'मातृकुलीनेषु' का पाश्चात्य संस्करण मात्र है. इस परीक्षा को उत्तीर्ण करने के बाद शिक्षार्थी को उच्चतर शिक्षा प्राप्त करनी होती थी. इस उद्देश्य से उसे 'मातृकुल' से दूर जाना पड़ता था.
ज्योमिट्री की क्लास थी. वृत्त का आरेख खींचने को कहा गया था. मैं भी वृत्त का आरेख खींच रहा था. आरेखण की प्रक्रिया में कंपास बार-बार फिसलता जा रहा था. ज्योमिट्री पेपर स्निग्ध (चिकना) था. अतः मैने कंपास पर बलाघात् किया व ज्योमिट्री पेपर के घूर्णन से आरेख खींच लिया था.

यह जुगत प्रक्रिया को सुकर बनाने के उद्देश्य से की गई थी. आरेखण के इस दुर्लभ-प्रदर्शन को संभवतः गुरुजी ने भी देख लिया था.

उन्होंने पीछे से आकर धौल जमाकर मुझे धराशायी कर दिया था. बड़े कष्ट में मैं उठा. तो उन्होंने दूषित तरीका अपनाने का कारण पूछा. हमने भी भोलेपन में कह डाला-" बन तो गया है गुरु जी. आम खाने से मतलब होना चाहिए. पेड़ गिनने से क्या होगा." प्रकारांतर से हमने साध्य पा लेने की धौंस दिखायी थी. व साधन की पवित्रता-अपवित्रता के फेर में न पड़ने की दुहाई भी दी थी. गुरु तो गुरु ही होता है. उन्होंने हमें दीवार के सामने खड़ा कर दिया और हमें आदेश दिया-"इस दीवार पर सर्कल का आरेख खींचो. दीवार घुमाकर खींचो. याद रहे, कंपास नहीं घूमना चाहिए." उसके बाद उन्होंने जो किया वह वर्णनातीत है.

वे ज्यामितीय तरीके से साठ अंश, पैंतालीस अंश, साढ़े बाईस अंश के कोणों का अभ्यास कराते थे. छोटे डिनोंमिनेटर्स के कोणों का अधिकाधिक अभ्यास कराते थे. फोबियाग्रस्त विद्यार्थी बहुतायत में थे. मुंशी प्रेमचंद जी तक को गणित हिमालय-सी ऊँचाई का लगता था.

हमारे एक सहपाठी अग्रज थे. स्कूल और घर दोनों स्थलों पर वे इस विषय के सताए हुए थे. एक दिन उनके फूफाजी आए हुए थे. फूफा जी ने उन्हें 'मल्टीप्लीकेशन' का सवाल हल करने को दिया. भाई ने सवाल पर निगाह डाले बिना ही हथियार डाल दिए थे. लानत-मलानत सुनकर वह हाँफते हुए बाहर आए. मित्रों को आपबीती सुना रहे थे-" यार! फूफाजी ने एक सवाल की 'मट्टी पलीद' करने को दी. तो हमारी ही 'मट्टी पलीद' हो गई."

हालांकि लॉन्ग जंप में इनका प्रदर्शन उत्कृष्ट रहता था. एक बार लॉन्ग जंप की प्रैक्टिस चल रही थी. ये कूदने के लिए खोदे गए अधिकतम स्ट्रेच मार्क से बाहर अर्थात् साढ़े तेईस फीट कूदकर फ्रैक्चर करवा बैठे थे. उत्तर प्रदेश का स्टेट रिकॉर्ड तत्समय चौबीस फीट था.

गुरुजी कक्षा में वृक्ष का समूल तना लेकर आते थे. उसको वे शस्त्र के रूप में प्रयोग करते थे. उनके इस शस्त्र से दुर्ग-द्वार भी आसानी से ढ़हाया जा सकता था. उनके दर्शन होते ही त्रेता युग की याद आने लगती थी. किष्किंधा के दंडधरों के हाथों में भी यही शस्त्र रहा करता था. उसी से वे लंका के परकोटे तोड़ने में सफल होते थे. छात्र डरे-सहमे-से रहते थे. उनमें यह भय व्याप्त रहता था कि पाठ्यक्रम समाप्ति से पूर्व गुरुजी हमें ही समाप्त न कर दें.

साप्ताहिक टेस्ट लिए जाते थे. परिणाम में कमतर प्रदर्शन वालों को वे पूर्ण शक्ति से बाहर फेंक देते थे. एक 'असवाल' सरनेम वाले सहपाठी भी थे. उनका हाथ अक्सर तंग ही रहता था. वह अक्सर प्रक्षेपित किए जाते थे. फेंकते समय गुरुजी यह अवश्य दोहराते थे कि -"तुम्हारा तो सरनेम की असवाल है.वह इसलिए है क्योंकि तुमको सवाल आते ही नहीं हैं." वे प्रायः छात्र को बस्ता-बही सहित उठाकर पलायन वेग से प्रक्षेपित कर देते थे. प्रक्षेपण-यान व मानव-शरीर की सीमा-सामर्थ्य में व्यापक अंतर बताया जाता है. इस अंतर से गुरुजी की इच्छा अपूर्ण ही रह जाती थी. उनका प्रक्षेपित शिष्य केले की सघन वृक्षों की जद तक ही पहुँच पाता था. यह कदली वन वहाँ पर था, जहाँ पर स्कूल की सीमा समाप्त होती थी. वे स्थानच्युत शिष्य को भी यहीं से उच्च स्वर में आदेश देते थे. उन्हें निर्मेय की रचना व प्रमेय का अभ्यास करने की छूट अवश्य दे देते थे. कदली वन के अभ्यासी छात्रों मे से कुछ गणित में मेधावी होकर निकले थे. कुछ गणित के योग्यतम शिक्षकों में लब्धप्रतिष्ठ हुए तो कुछ लोक सेवाओं में भी चुन लिए गए थे.  

अर्द्ध वार्षिक परीक्षाओं के उपरांत कक्षा में कापियाँ दिखाई जाती थी अर्थात् छात्रों का प्रदर्शन दिखाए जाने की प्रथा थी. अधिक स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो 'आइना दिखाने' का चलन भी था.

हमारे एक सहपाठी कक्षा में दुर्लभ आसन में विराजते थे. वे बिना हत्थे की कुर्सी पर, कुर्सी की पीठ से वक्ष हटाकर वह उसके ऊपर चिबुक टिकाकर बैठते थे. इस दुर्लभ आसन वाले सहपाठी का प्राप्तांक सौ में से चार अंक था.  इन अंकों को देखकर अकस्मात् उन्हें पितृ-स्नेह का स्मरण हो आया था. फिर किसी अज्ञात प्रेरणा ने उन्हें ढ़ाढ़स बँधाया था.

उन्होंने लाल रोशनाई से एक रचनात्मक कार्य करने की ठान ली थी. कॉपी के शीर्ष पर 'चार' अंक के सम्मुख 'एक और चार' टिका दिया था. वैसे तो यह साहसिक कृत्य था. पर इस रहस्य को उन्होंने रहस्य ही रहने दिया था.

इन अंको की ब्रॉड-शीट में एंट्री की जाती है. इस अवसर पर गुरुजी ने अपनी स्मरण-शक्ति पर सारा जोर लगा डाला था. तो भी उनके स्मृति-कोष ने उन्हें सूचना दी कि-"उन्होंने उच्चतम स्कोर चालीस तक ही तो लुटाए हैं. फिर ये चवालीस का चमत्कार कैसे संभव हो सकता है." इस झोल को वे कुछ-कुछ समझ चुके थे. उन्होंने कॉपी की पुन: संवीक्षा की. कूटरचना का अनावरण हो चुका था. इस उद्विग्नता में उन्हें रात भर नींद नहीं आई थी.

अगले दिन असेंबली हो चुकी थी. दुर्लभ आसन वाले शिष्य कक्षा की ओर जा रहे थे. सहसा उसने अपने हाथ में एक फंदा-सा महसूस किया था. वह रुका, मुड़ा, मुड़कर देखा तो गुरुजी उसका पाणि ग्रहण चुके थे. वे खींचते हुए उसे प्राचार्य कक्ष की ओर ले जा रहे थे. जल्दी-जल्दी सीढ़ियाँ चढ़कर प्राचार्य कक्ष के दरवाजे से वे अलक्षित हो चुके थे. भीतर प्राचार्य उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे. प्राचार्य ने इससे बड़े प्रेम से पूछा, "घबराने की कोई बात नहीं है. अपने मतलब के लिए तो क्या-क्या नहीं करना  है." ये सटासट-सटासट अपनी कार्रवाई का सारांश बता चुके थे. गुरुजी की विजयी मुस्कुराहट प्राचार्य की सूझ-बूझ की प्रशंसा कर रही थी. संक्षिप्त अभियोग चला था. 'समरी ट्रायल' टाइप का.

उसके पश्चात् जूरी ने छापामार युद्ध संहिता का पैंतरा अपनाया था. संयुक्त आक्रमण कर शत्रु को धराशायी किया जा चुका था. वैद्य नें इन्हे सप्ताह भर का विश्राम सुझाया था. औषध-पथ्य का नियमित सेवन भी कराया था. अगले सप्ताह सहपाठी दुर्लभ आसन पर पुनः विराजे हुए थे.

किसी छोटी कक्षा में तो इससे भी बड़ा चमत्कार हुआ था. यह 'दुर्लभ में दुर्लभतम्' टाइप का नवाचार था. किसी छात्र का प्राप्तांक सौ में से एक अंक था. पितृ-स्नेह का स्मरण होने पर उसने दाईं ओर एक शून्य बढ़ा दिया. उसके हितेषी मित्र ने उसे समझाया, "जुर्म करने पर भी ये मार्क्स, पासिंग मार्क्स नहीं बने हैं." इन वचनों को सुनकर वह अत्यंत हर्षित हुआ. इस वाणी ने उसे नितांत कलात्मक प्रयोग के लिए प्रेरित किया था. अतः उसने एक ही झटके में एक और शून्य बना लिया था. इस प्रकार एक नवीन प्रतिमान स्थापित तो हो गया था. 'बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी.' इनकी बात भी बहुत दूर तक गयी थी. अत: अगले दिन इनका अभियोग फुल बेंच के द्वारा सुना गया था. सूत्रों के अनुसार इन्हें बारी-बारी से धोया गया था. परिणाम सुनकर यह कक्षा में आए. तो ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानो चौदहवीं शताब्दी के हों और अभी-अभी उत्खनन में प्राप्त हुए हों.


 गणित को भाषा में भी उच्च स्थान प्राप्त है. सद्भावना में एक और एक ग्यारह, दिन दूनी रात चौगुनी, चौदहवीं का चाँद का प्रयोग सुनने को मिलता है. विपरीतार्थक फेहरिस्त ज्यादा लंबी है. नौ दो ग्यारह होना, तीन में न तेरह में,  तिया-पाँचा करना, छत्तीस का आंकड़ा, दो और दो पाँच करना, आठ-आठ आँसू रोना व निन्यानबे के फेर में, बहुश्रुत उदाहरण है.

ललित मोहन रयाल 

3 comments:

Krishna said...

could not stop smiling all through the reading!! Enjoyed.

Anonymous said...

संस्मरण शानदार है, लेकिन जिस तरह हम एक पेज पर गणित का रफ काम करते है और दूसरे पर असली सवाल। संस्मरण में रफ और असली सवाल एक ही पेज पर है। इसलिए स्पष्ट नहीं हो रहा है कि हम गणित की कठिनाइयों की बात करना चाहते है या छात्रों की।

Unknown said...

Really outstanding Rayal ji mathsfobia among students was very common that time