Thursday, July 13, 2017

हल्द्वानी के किस्से - 5 - सत्रह



हालांकि पिछली रात की लम्बी मानसिक उठापटक के बाद मैं इस हालत में नहीं था कि अगले हफ्ते भर तक घर से बाहर निकल सकूं लेकिन इतने सालों की दोस्ती और गोदाम में बिताई असंख्य लुत्फभरी रातों का तकाजा था कि नब्बू डीयर पर पड़ी विपदा और उसके अचानक हल्द्वानी से चले जाने का ज़रूरी समाचार किसी भी तरह परमौत और गिरधारी दोनों तक पहुंचाया जाए. 

पहले मैं गिरधारी की खोज में सरकारी हस्पताल गया. जनरल वार्ड में भरती रोगियों में सभी चार या पांच बूढ़ी औरतें सब गिरधारी की बुआएं लग रही थीं लेकिन वह उनमें से किसी के पास नहीं था. उसके मिलने की संभावना तिकोनिया में थी जहां वह अपने एक दूर के रिश्तेदार की दुकान में बखत जाया करने जाता था. वह वहां भी नहीं था.मैं उसके घर की दिशा में मुड़ ही रहा था कि आंखें गोदाम की तरफ़ उठ गईं. गिरे हुए जंग खाए शटर के बाहर नाली ढंकने के लिए बनाए गए स्लैब के ऊपर तीन-चार कुत्ते मीटिंग कर रहे थे. मुझे यकायक नब्बू डीयर की याद आई और गले में कुछ अटकता सा महसूस हुआ. 

यह उसी के चलते हुआ था कि हमें पिछले अनगिनत सालों से यह अद्भुत ठिकाना मुहैय्या हुआ था. नब्बू डीयर के निःसंतान मामा फ़ौज से ऑनरेरी कैप्टन रिटायर हुएथे और उन्होंने न जाने किस फितूर में अपने रिटायरमेंट से पहले हल्द्वानी की सबसे नेस्ती नज़र आने वाली इस बस्ती में गोदाम का निर्माण करवाया था. ऐसी ही एक और बस्ती में उन्होंने दो कमरे का बगैर पलस्तर वाला मकान भी बना कर रख छोड़ा था जिसमें आज सुबह तक नब्बू और उसकी बूढ़ी माँ रहा करते थे. नब्बू डीयर की मामी को न नब्बू पसंद था न नब्बू की माँ और उनकी इसी नापसंद के चलते उनकी अपने पति से लगातार झाँय-झाँय होती रहती थी.पत्नी के नित्य कुकाट-डुडाट से खीझ कर कप्तान मामा ने एक दिन तकरीबन संन्यास लेकर हल्द्वानी को उन्हीं के अनुसार “आग हालने” और बागेश्वर के सामा-भराड़ी या ऐसी ही किसी जगह पर बसे अपने पैतृक गाँव में एक दुकान खोल वहीं रहकर वृद्धावस्था काटने का निर्णय ले लिया था. उनकी टेक थी कि पत्नी की गालियों पर मरहम लगाने का सबसे बड़ा साधन अर्थात शिव जी का हैडक्वार्टर माना जाने वाला हिमालय पर्वत उनके पैतृक गाँव से ही देखने को मिल सकता था हल्द्वानी से नहीं.

नब्बू के पास गोदाम की चाभी छोड़ दी गयी थी. पहले उसे एक कबाड़ी को किराए पर दिया गया जो महीने भर का किराया दिए बगैर भाग गया और अपने साथ वहां धरी रहने वाली पटखाट, पंखा और पानी का पाइप और नल इत्यादि भी ले गया. चारेक महीने बाद सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान चलानेवाले एक सज्जन गोदाम के अगले किरायेदार बने लेकिन तीसरे ही दिन वहां चोरी हो गई. इन दो वाकयों के बाद गोदाम को मार्केट में मनहूस मान लिया गया और कप्तान मामा ने खराब इन्वेस्टमेंट. ठीकठीक याद नहीं पड़ता हमने गोदाम को पहलेपहल कब आबाद किया था.

गोदाम इतनी जल्दी जीवन का इस कदर अभिन्न हिस्सा बन गया था कि हमारे घर उसके सामने धर्मशाला लगा करते. अपने जीवन के सबसे सुखद लम्हे हमने यहीं देखे थे. हमारे सारे उत्सव और गमियाँ यहीं मनाए जाते रहे थे. गोदाम हमारा अपना निजी संसार था. तमाम आपसी विवादों और टंटों के बावजूद हज़ार ज़ुल्मों से भरी दुनिया से दूर हमारी शरणस्थली. नब्बू डीयर के मनहूस गायन का रियाज़ भी यहीं होता था और हमारे सभी सफल-असफल प्रोजेक्ट्स का पारायण भी. यहीं हमने मेहदी हसन को पहले दफा सुना और यहीं शराब के दिव्य मज़े का अनुसंधान किया.

मैं ज़रुरत से ज्यादा इमोशनल होता हुआ बजाय गिरधारी के घर वाली गली की दिशा में जाने के गोदाम के सामने जाकर खड़ा हो गया. मुझे करीब आता देख कुत्तों ने अपनी मीटिंग का वेन्यू बदल लिया और वे एक तरफ पड़े कूड़े के ढेर पर शिफ्ट हो गए. डुप्लीकेट चाभी छिपाकर रखने के वास्ते शटर के नीचे एक ईंट हम लोगों ने कुछ अरसा पहले उखाड़ दी थी. मगर डुप्लीकेट चाभी मुझसे एक बार कहीं खो गयी थी और इकलौती बची चाभी नब्बू डीयर या गिरधारी लम्बू के सुपुर्द रहा करती. नब्बू डीयर पिछली रात देर तक मेरे साथ था और सुबह उसने बागेश्वर चला गया होना था. गिरधारी पहले ही हस्पताल जाचुका था. अर्थात चाभी नब्बू डीयर के साथ ही हमेशा के लिए चली गयी थी. अपने मन को झूठमूठ की तसल्ली देने को मैंने उखड़ी हुई ईंट को ज़रा सा हटाकर देखा. प्लास्टिक की पन्नी में हिफाज़त से लपेट कर चाभी रखी हुई थी.

ज़ाहिर है पिछली रात रोते-कलपते अपने घर जाने और सुबह चार-पांच बजे की बस पकड़ने बमय माँ और सामान के साथ स्टेशन पहुँचने के बीच के ज़रा से अंतराल के दौरान किसी उपयुक्त समय नब्बू डीयर ने हमारे वास्ते इतनी मशक्कत की होगी.अब तक मेरा कलेजा गले में अटका हुआ था, सो अब आँखों के रास्ते बाहर आने को हो गया. एकतरफा प्यार करने वाला लालची और हरामी नब्बू जिसे इतने सालों में अपनी काल्पनिक प्रेमिका का नाम तक पता नहीं चला सका था असल में यारों का यार था और अपनी अचारी आवाज़ में मुकेश के खौफनाक  गीत सुनाने का उसका कुटैव हमारी महफिलों से लत के तरह चिपक चुका था. मुझे नब्बू डीयर की बेतरह याद आनी शुरू हो गयी. मैंने अपने को खासा अकेला महसूस किया. चाभी जेब के हवाले कर मैं गिरधारी लम्बू के घर के बाहर पहुंचा तो देखा वह एक रिक्शेवाले से बहस में उलझा हुआ था. मुझे आता देख उसने मुझे भी वादविवाद में शामिल कर लिया.रिक्शेवाला हस्पताल से उसके घर तक के डेढ़ रुपए मांग रहा था और लम्बू एक से ऊपर जाने को तैयार न था. मैं नब्बू डीयर के चले जाने का गम मना रहा था और इस निहायत फ़िज़ूल बहस का हिस्सा नहीं बनना चाहता था. मैंने नज़रें इधर-उधर कर लीं, भाग्यवश मामला बहुत जल्दी निबट गया और गिरधारी फ़टाफ़ट मेरे नज़दीक आकर फुसफुसाया:

"आज सुबे सुबे दर्शन कैसे पंडत? कोई खज़ाना लूट के लाये रहे जो अभी से पाल्टी का जैसा मूड दिख रा तुमारा."

"यार गिरधर ..." मैं उसकी अनसुनी करते हुए उसके गले से लग गया और फफक पड़ा.

"आरे ... अरे ... अरे ..." कहता वह हकबका सा गया.

"नबुवा चला गया यार ..." मेरे मुंह से इतना ही निकला और मैं उसे घसीटता सा हुआ गोदाम ले गया. शटर आधा खोल कर हम भीतर घुसे और मैंने उसे पिछली रात के सारे घटनाक्रम से अवगत कराया.

गिरधारी लम्बू ने भी मेरी तरह सारे कार्यक्रम मुल्तवी कर दिए. हम दोनों दिन भर परमौत को तलाशते रहे. उसके घर पर अब भी ताला लगा हुआ था. दूकान पर मुनीम था जिसने बताया कि सेठजी अर्थात परकास अपनी ससुराल बिलासपुर गए हैं. परमौत के बारे में उसे कोई जानकारी नहीं थी. शहर भर के ढाबे-चाट वालों से हमने पूछताछ की, कम्प्यूटर सेंटर के आसपास एक-दो चक्कर काटे, काफी देर नैनीताल रोड पर चौकन्ने खड़े रहे लेकिन परमौत का कोई निशान नहीं मिला. शाम होते-होते हमारे ऊपर घनी उदासी छा गयी और हम दोनों अपने-अपने घरों को चले गए. चाभी मैंने गिरधारी के हवाले कर दी क्योंकि उसे इसका पुराना अनुभव था.

मेरे लिए अगले कुछ दिन भारी ऊहापोह में गुज़रे. मैं घर से बाहर नहीं निकला और खाट पर पड़ा-पड़ा ऊंघता रहता. लम्बे समय से हितैषियों-घर वालों का प्रेशर था कि मैं हल्द्वानी में अपना जीवन जाया करने के बजाय दिल्ली-बंबई जाकर कुछ ढंग की नौकरी वगैरह करूं. अब तक मिली सारी नसीहतों को मैंने ज़रा भी अलसेट नहीं दी थी लेकिन अंदर ही अंदर  पहली बार अपना बायो डाटा बनाने जैसा निकृष्ट काम करने की योजना बनने लगी थी.

उधर परमौत ने अपने आप से किये गए सारे वादों को निभाते हुए सबसे पहला काम यह किया कि भाई को बताकर रुद्दरपुर में मार्च की उसी ग्यारह तारीख को एक कमरा किराए पर ले लिया और अगले पूरे सप्ताह वहीं रहा. रुद्दरपुर भी हल्द्वानी की तरह पसर रहा था और बिजनेस का स्कोप बढ़ाने के उद्देश्य से वह भी हल्द्वानी-काठगोदाम जितने समय डिमांड करता था. परकास ने प्रसन्न होकर उसके इस कदम का स्वागत ही नहीं किया, उसके हाथ में दस हज़ार की गड्डी थमा कर रुद्दरपुर वाले कमरे को "आदमियों के रहने लायक" बनाने की हिदायत भी दी.

तो परमौत ने अपनी पिरिया के लिए सुबह के शुरुआती और रात के आख़िरी घंटे नियत कर दिए. इन घंटों में वह नितांत अकेला हुआ करता और नए खरीदे गए टू-इन-वन पर फ़िल्मी गाने सुना करता. परमौत ने पाया कि संगीत सुनते समय वह सबसे ज़्यादा खुश हो जाया करता था. उसे पिरिया की याद आती थी लेकिन इन यादों में वह तमाम तरह की अदाओं के साथ उपस्थित तमाम फ़िल्मी गानों की काल्पनिक नायिका होती - कभी घास का तिनका होंठों के कोने से चबाती हुई, कभी पेट के बल बिस्तर पर लेटी हुई गृहशोभा टाइप की किताब पढ़ती मंद-मंद मुस्कराती हुई, कभी बारिश को हाथों से पकड़ने की कोशिश करती, कभी खित्त करके हंसती और शरमाकर दुपट्टे में मुंह छुपाने का असफल प्रयास करती हुई. पिरिया की रोज़ नई इमेजेज़ बनाने के लिए उसे बस टू-इन-वन को ऑन करना होता था. बाकी काम गानों के बोल और परमौत की उर्वर कल्पना कर दिया करते. उसकी छवियों में अब सिर्फ पिरिया आती थी. अमिताब लम्बू को उसने माफ़ कर दिया था और परिणामतः अमिताब ने इन छवियों को बाधित करने का काम छोड़ दिया था. बस कभी-कभी ही इन सपनीली छवियों में पिरिया और परमौत साथ-साथ हुआ करते थे.

एक सप्ताह बाद जब वह हल्द्वानी आया तो उसने पाया कि वह बहुत अधिक बदल गया था. उसके भीतर गोदाम का रुख करने की ज़रा भी इच्छा नहीं हुई. हल्द्वानी-काठगोदाम मार्केट का काम सुबह की शिफ्ट में निबटा कर दिन के खाने के बाद का समय उसने भाभी और बच्चों के साथ लूडो-कैरम खेलने में बिताया. भाभी ने रात को उसकी पसंद का खाना बनाया और बहुत दिनों बाद बेवजह हाहाहीही कर रहे परकास को उसने स्टील के गिलास में छिपाकर दारू पीते हुए देखा. रात का अकेलापन और उसका कमरा और उसका संगीत और उसकी कल्पना - सब कुछ पिरिया के लिए आरक्षित था.

गोदाममंडल में आए इस बिखराव के कारणों से सबसे अधिक बेखबर गिरधारी ने कुछ दिन गोदाम और इधर-उधर हमारा इंतज़ार किया. एक कमरे के अपने घर में दिन के समय पसरे रहने की शाही सुविधा उसे उपलब्ध नहीं थी सो वह आवारागर्दी करता ऐसे ही यहाँ-वहाँ भटका करता. बीच में एक बार वह मेरे घर भी आया था लेकिन मेरी हिदायत पर उससे झूठ बोल दिया गया कि मैं घर पर नहीं हूँ. 

पैसे की किचकिच उसके घर में लगातार रहती थी सो बहुत सोच-विचार के बाद एक दिन उसने राका के ठेले का रुख किया. राका ने गिरधारी की खूब आवभगत की और उस रात की पिक्चर वाली बात पर वे दोनों खूब हँसे. उन्होंने हरुवा भन्चक को बहुत याद किया और उसकी जैसी अंग्रेज़ी में चार-छः डायलॉग भी बोले. पिक्चर से बात वीसीआर और कैसेटों के धंधे से होने वाली कमाई पर आ गयी और दोनों के मध्य एक लंबा परामर्श चला जिसके समाप्त होते न होते राका ने गिरधारी लम्बू को अपना बिजनेस पार्टनर बना लिया. वीसीआर और टेलीविज़न राका खरीद कर देगा और उसे किराए पर चलाने का ज़िम्मा गिरधारी का होगा. बिजनेस को सुचारू रूप से चलाए जाने के लिए नए पार्टनर को वीसीआर चलाने ने तकनीकी नुस्खों को सिखाने के प्रयोजन से राका ने तीसरे दिन पड़नेवाले  मंगलवार को दारू कार्यक्रम तथा क्रैश कोर्स के लिए गिरधारी को अपनी खोली में आमंत्रित किया. सप्ताह ख़त्म होते न होते गिरधारी ने पहली कमाई करना शुरू कर दी.


गोदाम के जीवन को न जाने किस की बुरी नज़र लगी कि वह उस मनहूस रात के बाद बहुत-बहुत लम्बे समय तक आबाद न हो सका. 

(जारी)