Saturday, November 18, 2017

ज़िंदगी का शऊर और नेकनामी की राह - मौलवी इस्माईल मेरठी


नौनिहालों का अज़ीम शायर: इस्माईल मेरठी 

- राजकुमार केसवानी

('पहल'- 106 से साभार)

हिंदुस्तानी अदब के इतिहास में एक से एक आला और कद्दावर किरदार मिल जाते हैं, जिन्होने अपने ज़ोरे-कलम से इंक़लाबी कारनामे अंजाम दिए हैं. ऐसे ही एक इंक़लाबी शायर का नाम है मौलवी मुहम्मद इस्माईल मेरठी. जिस वक़्त दिल्ली में मिर्ज़ा ग़ालिब और मिर्ज़ा दाग़ देहलवी जैसे मायानाज़ शायर इस फ़न को एक  बुलंदी दे रहे थे, उसी वक़्त बेहद ख़ामोशी और आहिस्तगी से इस्माईल मेरठी, उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर मेरठ में बैठे एक ऐसी शमा रोशन करने की कोशिश में जुटे थे जिसकी रोशनी में आने वाली अनगिनत नस्लों का मुस्तक़बिल संवरने वाला था.

उन्नीसवीं सदी से इकीसवीं सदी तक के सफ़र में न जाने कितनी पीढिय़ां गुज़री होंगी जिन्होंने इस्माईल मेरठी की आसान राह दरसी (स्कूली) किताबों के ज़रिए उर्दू पढऩा-लिखना और जीना सीखा है. जहां अदब में ऊंचे मकाम की तलब में आसान को भी मुश्किल बनाने की होड़ लगी हो, वहां इस्माईल मेरठी ने मुश्किल को आसान और आसान को बेहद आसान बनाने का एक बेमिसाल कारनामा अंजाम दिया है. हालांकि उर्दू में भी उनकी ख़ास पहचान बच्चों के शायर के तौर पर है लेकिन गुज़रते वक़्त के साथ उनकी क़द्र-शनासी का नज़रिया बदल रहा है और उनको अपने वक़्त का एक मुमताज़ शायर तस्लीम किया जाने लगा है. मौलवी साहब मिर्ज़ा ग़ालिब के ज़बरदस्त मुरीद थे और ख़ुद को ग़ालिब का शागिर्द भी बताया है. आज उनका शुमार जदीद उर्दू अदब के उन अहम तरीन शायरों में होता है जिनमें मौलाना अल्ताफ़ हुसैन हाली, मौलवी मुहम्मद हुसैन आज़ाद के नाम आते हैं.

फ़िराक़ गोरखपुरी भी इस्माईल मेरठी को उनके इस काम की दाद देते हुए कहते हैं; 'इस्माईल साहब का ख़ास कारनामा बच्चों के लिए छोटी-छोटी सरल और सुबोध नज़्में नयी परिपाटी में लिखने का है. मौलवी साहब ने बहुत सी उर्दू रीडरें लिखी थीं. उनकी सरलता के साथ भाषा का प्रवाह और बंदिश की चुस्ती भी देखते बनती है.'

फ़िराक़ जिस आसान ज़बानी की बात करते हैं, उसकी एक मिसाल है उनकी नज़्म 'गाय'.
            गाय
            रब का शुक्र अदा कर भाई
            जिसने हमारी गाय बनाई
            उस मालिक को क्यूं न पुकारें
            जिसने पिलाईं दूध की धारें
            ख़ाक़ को उसने सब्ज़ा बनाया
            सब्ज़े को फिर गाय ने खाया
            कल जो घास चरी थी बन में
            दूध बनी अब गाय के थन में
            सुब्हान-अल्लाह दूध है कैसा
            ताज़ा, गर्म, सफ़ेद और मीठा
            दूध में भीगी रोटी मेरी
            उसके करम ने बख़्शी सेरी
            दूध, दही और मीठा मस्का
            दे न ख़ुदा तो किसके बस का
            गाय को दी क्या अच्छी सूरत
            ख़ूबी की है गोया मूरत
            दाना, दुन्का, भूसी, चोकर
            खा लेती है सब खुश होकर
            खा कर तिनके और ठठेरे
            दूध है देती शाम सवेरे
            क्या ही गऱीब और कैसी प्यारी
            सुबह हुई, जंगल को सिधारी
            सब्ज़े से मैदान हरा है
            झील में पानी साफ़ भरा है
            पानी मौजें मार रहा है
            चरवाहा चुमकार रहा है
            पानी पी कर, चारा चर कर
            शाम को आई अपने घर पर
            दूरी में जो दिन है काटा
            बच्चे को किस प्यार से चाटा
            गाय हमारे हक़ में है नेमत
            दूध है देती खा के बनस्पत
            बछड़े उसके बैल बनाए
            जो खेती के काम में आए
            रब की हम्द-ओ-सना कर भाई
            जिसने ऐसी गाय बनाई

रब का शुक्र तो इस बात के लिए भी किया जाना चाहिये कि हमारी दुनिया में इस्माईल मेरठी, जैसे अदीब भी पैदा होते हैं. आख़िर कौन सा ऐसा बच्चा होगा जो इस आसान लहजे में कही गई बात को भी न समझ सके?

इस्माईल मेरठी की असल फ़िक्र का मरकज़ भी ऐसे ही बच्चे थे, जिनके लिए बाकायदगी से तालीम हासिल करने के ज़रिए मौजूद न हों. दुनिया के मुश्किल हालात और मुश्किल सवालात को समझाने वाला कोई रहनुमा न हो.

मौलवी साहब ने जहां इंसानियत और मुहब्बत का सबक पढ़ाया तो उसी वक़्त क़ुदरत और क़ुदरत से जुड़ी पेचीदा चीज़ों, जिसे साइंस भी कहा जा सकता है, को अवामी ज़बान में हर आम-ओ-ख़ास के लिए सहज बनाकर बच्चों की राईमिंग वाली शैली में पेश किया है. जैसे पानी को लेकर उनकी एक लंबी नज़्म है -

            आब-ए-ज़ुलाल

            दिखाओ कुछ तबीयत की रवानी
            जो दाना (बुद्धिमान)हो तो समझो क्या है पानी
            ये मिलके दो हवाओं से बना है
            गिरह खुल जाए तो फ़ौरा हव्वा है
            नज़र ढूंढे मगर कुछ भी न पाए
            ज़बान चखे, मज़ा हरगिज़ न आए
            हवाओं में लगाया ख़ूब फंदा
            अनोखा है तेरी क़ूदरत का धंधा
            नहीं मुश्किल अगर तेरी रज़ा हो
            हवा पानी हो और पानी हवा हो

जहां एक तरफ़ इस्माईल मेरठी की यह सादा ज़बान नज़्में है तो उनके कुछ अशआर तो बोलचाल की भाषा का हिस्सा भी हैं.
            ज़ुल्म की टहनी कभी फलती नहीं
            नाव काग़ज़ की सदा चलती नहीं
            *****
            बिगड़ती है जिस वक़्त ज़ालिम की नीयत
            नहीं काम आती दलील और हुज्जत
            *****
            मिले ख़ुश्क रोटी जो आज़ाद रहकर
            तो है ख़ौफ़-ओ-जिल्लत के हल्वे से बेहतर
            *****
            आग़ाज़-ए-इश्क़ उम्र का अंजाम हो गया
            नाकामियों के ग़म में मेरा काम हो गया
            *****
            कुछ मेरी बात कीमिया तो न थी
            ऐसी बिगड़ी कि फिर बनी ही नहीं
            *****
            क्या हो गया इसे कि तुझे देखती नहीं
            जी चाहता है आग लगा दूँ नज़र को मैं
            *****
            क्या कोहकन की कोह-कनी क्या जुनून-ए-क़ैस
            वादी-ए-इश्क़ में ये मक़ाम इब्तिदा के हैं
            *****
            बद की सोहबत में मत बैठो इस का है अंजाम बुरा
            बद न बने तो बद कहलाए बद अच्छा बदनाम बुरा
            *****
            शैख़-ओ-बिरहमन में अगर लाग है तो हो
            दोनों शिकार-ए-ग़म्ज़ा उसी दिल-रुबा के हैं
            *****
            सुब्ह के भूले तो आए शाम को
            देखिए कब आएं भूले शाम के
            *****
            है आज रुख़ हवा का मुआफ़िक़ तो चल निकल
            कल की किसे ख़बर है किधर की हवा चले

प्रोफ़ेसर गोपीचंद नारंग कहते हैं; बच्चों का अदब इस्माईल मेरठी की अदबी शख़ि्सयत का महज़ एक रुख़ है. उनका शुमार जदीद नज़्म के बनेती तजुर्बों के बुनियाद गुज़ारों में भी होना चाहिये. आज़ाद और हाली ने जदीद नज़्म के लिए ज़्यादातर मसनवी और मुसद्दस (नज़्म की एक किस्म जिसमे चार मिसरे एक क़ाफ़िये में और दो मिसरे अलग दूसरे क़ाफिये में होते हैं, और यह छह मिसरों का एक बंद कहलाता है. ऐसे बहुत से बंदों का समूह मुसद्दस होता है. अक्सर इसमें कोई उपदेश या किसी घटना का वर्णन होता है.) के फ़ार्म को बरता है. इस्माईल ने इनके अलावा मसलत, मुरब्बा, मख़मस और मसमन से भी काम लिया है. तरक्की पसंद शायरों ने आज़ाद नज़्म और आज़ाद मारले के जो तजुर्बे किए, उनसे बहुत पहले अब्दुल हलीम शरर, नज़्म तबातबाई और नादिर काकोरवी और उनसे भी पहले इस्माईल मेरठी इन राहों से कांटे निकाल चुके थे.

12 नवम्बर 1844 को मेरठ के मुहल्ला मशाइ ख़ान में जन्मे मौलाना मुहम्मद इस्माईल के ख़ानदान का ताल्लुक़ हज़रत अबू बकर से बताया गया है. वह मुहल्ला जहां कभी उनका घर था अब इस्माईल नगर कहलाता है.

इस्माईल साहब के ख़ानदान के एक बुज़ुर्ग क़ाज़ी हमीदउद्दीन, बाबर के साथ उस वक़्त हिंदुस्तान आए थे जब बाबर ने 1527 में अपने तीसरे हमले में कामयाबी हासिल कर हिंदुस्तान पर हुकूमत कायम कर ली थी. बाद को उनके ख़ानदान के लोगों ने मेरठ में सुकूनत कायम कर ली.

इस ख़ानदान के अफ़राद अपने इल्मो-फ़ज़ल की बिना पर मुमताज़ रहे और और उनमे से अक्सर मुग़ल बादशाहों के यहां आला ओहदों पर मुक़रर्र हुए. (हकीम नईमउद्दीन ज़ुबेरी - बच्चों के इस्माईल मेरठी)

उस दौर के चलन के मुताबिक ही मौलाना इस्माईल की शुरुआती तालीम घर पर ही हुई. उनके वालिद शेख़ पीर बख़्श, उनके पहले उस्ताद थे. मौलाना क्योंकि घर भर में सबसे छोटे थे सो सबके चहीते भी थे. शुरूआत फ़ारसी और अरबी ज़बान सीखने से हुई. दस बरस की उम्र तक आते-आते क़ुरान मजीद की तालीम शुरू हो गई. आपने पांच महीने में पूरा कलाम पाक नाज़िरां ख़त्म कर लिया, इस वाक़िये से उस ख़ुदादाद ज़हानत (ईश्वर प्रदत बुद्धि)और हाफ़िज़े (स्मरण शक्ति) का पता चलता है जो क़ुदरत ने आप में वदीअत किया था और उसके कमालात आईंदा नमूदार हुए. (मुहम्मद असलम सैफ़ी - कुलियात-ए-हयात-ए-इस्माईल-बा-तस्वीर-1939) 

आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें मेरठ के ही एक दानिश्वर आलिम मिर्ज़ा रहीम बेग की शागिर्दी में भेज दिया गया. मिर्ज़ा जी उस वक़्त एक बड़े कारनामे को अंजाम देने में लगे थे. फ़ारसी का एक शब्द कोश है, 'फ़रहंग-ए-फ़ारसी: बुरहान-ए-क़ाते.' मिर्ज़ा ग़ालिब ने इस किताब में हुई ग़लतियों पर एक जवाबी किताब लिखी 'क़ात-ए-बुरहान.' अब बारी मिर्ज़ा रहीम बेग की थी. उन्होने ग़ालिब के 'क़ात-ए-बुरहान' के ख़िलाफ़ 'रिसाला बुरहान क़ाता' के नाम से रचना की. इस वक़्त उस्ताद ने शागिर्द को बाक़ायदा पढ़ाई के साथ ही साथ अपने इस कारनामे का भी हिस्सेदार बना लिया.

उनके ज़िम्मे यह काम था कि वो भाषा की अलग-अलग पुस्तकों और शब्द कोशों से उन फ़ारसी शब्दों के अर्थ और जिन मायने में उनका इस्तेमाल हुआ है, उनको एक जगह, पूरे संदर्भों के साथ एक काग़ज़ पर लिखकर उस्ताद मिर्ज़ा रहीम बेग के हवाले कर दें.

शागिर्द के काम से मुतासिर होकर मिर्ज़ा जी ने उसको यह सलाह दी कि वो इस काम में थोड़ा और आगे बड़कर मसविदा लिखने की कोशिश करें. इतने बड़े और इतने अहम काम के दौरान हुई इस पूरी कसरत से मौलाना को बेहद फ़ायदा हुआ, जो आगे चलकर उनके अपने काम में मददगार साबित हुआ.

शुरूआत में घर पर हुई फ़ारसी की पढ़ाई के दौरान ही शेख़ सादी की 'बोस्तां' और फ़िरदौसी का 'शाहनामा' की पढ़ाई से जो दिमाग रोशन हुआ तो मिर्ज़ा रहीम बेग की संगत ने उस रोशनी का फ़लक और बढ़ा दिया.

अब इसके आगे की पढ़ाई का मसला दरपेश आया तो पहला सवाल उठा कि आख़िर पढ़ाई किस मक़सद से की जाए. नतीजा निकला - सरकारी नौकरी हासिल करने के लिए पढ़ा जाए. सो उनका दाख़िला सरकारी स्कूल में करवाया गया जहां उनके उस्ताद ईश्वरी प्रसाद थे, जिनकी काबलियत के बड़े चर्चे थे. उन्होने इस्माईल को भरपूर शफक़त और मुहब्बत के साथ कोर्स की किताबों से आगे के सबक भी सिखा डाले. यहीं पर उन्हें अंग्रेज़ी सीखने की अहमियत का अहसास हुआ और बड़ी मेहनत से अंग्रेज़ी पर भी महारत हासिल की.

घर वालों का इरादा उन्हें ओवरसीयर बनाने का था, लिहाज़ा उन्हें स्कूल के बाद  रुड़की के इंजीनीयरिंग कालेज में दाख़िला दिलवाया गया. कुछ अरसे तो जी लगाकर पढ़ाई की लेकिन घर की याद ने इस क़दर बेताब किया कि पढ़ाई अधूरी छोड़कर चले आए.

इस्माईल मेरठी को बच्चों की तालीम से बेहद लगाव था. वो आने वाली नस्लों को पूरी तरह तालीम याफ़्ता देखना चाहते थे. इसी सोच के चलते उन्होने नहरें बांधने और पुल खड़े करने की बजाय स्कूल में मुदर्रिस बनकर बच्चों के मुस्तक़बिल को संवारना बेहतर समझा.

सरकारी नौकरी का सिलसिला बतौर क्लर्क इंस्पेकटर्स आफ़ स्कूल से शुरू हुआ. 1864 में जाकर उनकी मुराद पूरी हुई और बतौर फ़ारसी टीचर सहारनपुर के ज़िला स्कूल में नियुक्त हुए. उनके पढ़ाने के दोस्ताना अंदाज़ से वो जल्द ही अपने शागिर्दों और स्कूल के इंतज़ामिया में बेहद मक़बूल हुए. नतीजतन उनको तरक़्क़ी देकर फ़ारसी के हेड मौलवी का ओहदा दे दिया गया. 1870 तक वे यहीं बने रहे, बाद को मेरठ तबादला हो गया. 1888 आगरा के सेंट्रल स्कूल में तबादला हुआ. 1899 में उनकी पिंशन लग गई, जिसके बाद वो लौटकर मेरठ आ गए.

दफ़्तर में क्लर्की के वक़्त उनका दिल भले न लगता हो लेकिन यहां उनकी मुलाक़ात एक बेहद दिलचस्प इंसान से हुई. नाम था क़ल्क़ मेरठी. क़ल्क़, मोमिन ख़ान 'मोमिन' के शागिर्द थे. मेरठ से दिल्ली जा बसे थे, लेकिन 1857 की मार-काट से घबराकर दिल्ली का दामन छोड़ मेरठ की राह पकड़ लौट आए थे.

            क़ल्क़ क्यों छोड़ता दहली को, क्यों मेरठ में आ रहता
            गदाई के भरोसे पर लुटाया बादशाही को
            मेरठ में है क़ल्क़ तो मगर बुलबुले ग़रीब,
            अफ़सोस है कि तेरा कोई हमज़बां न हुआ 

मेरठ में क़ल्क़ को अंग्रेज़ी की अख़लाक़ी नज़्मों का उर्दू तर्जुमा करने के प्रोजेक्ट पर लगाया गया. इस काम को उन्होंने बेहद ख़ूबसूरती से अंजाम दिया. उन्होंने बड़े सलीके से निहायत सादा और सहज ज़बान में इन अंग्रेज़ी नज़्मों को ऐसी उर्दू शक्ल दी कि पढ़ते हुए किसी को यह अहसास ही न हो कि वो तर्जुमा है. इसे जब किताबी शक्ल में छापा गया तो उसका नाम रखा गया - 'जवाहिर मंज़ूम.'

इस मंज़ूम (छंदबद्ध) तर्जुमे की इल्मी और अदबी दुनिया में ख़ूब तारीफ़ें हुईं.  इस्माईल मेरठी की ज़िंदगी पर क़ल्क़ की इस किताब ने गहरा असर डाला. उन्हें अपनी मंज़िल की राह दिखाई दे गई. इसके बाद न सिर्फ उनकी शायरी में बल्कि जदीद उर्दू नज़्म में वह इंक़लाब बरपा हुआ कि उर्दू अदब जदीद नज़्म के नादिर ख़ज़ाने से मालामाल हो गया.

इस्माईल मेरठी जैसे ही चंद लोग थे जिन्होने उस वक़्त उर्दू ज़बान-ओ-अदब की नींव पर एक मज़बूत इमारत तामीर करने का काम किया जिस वक़्त फ़ारसी ज़बान-ओ-अदब का ही बोलबाला था. घर से लेकर मदरसों तक फ़ारसी का ही बोलबाला था. बच्चों की तालीम की शुरूआत ही इसी ज़बान से होती थी.

1857 से पहले उर्दू ज़बान के शाइरों ने ख़याली मैदानो में घोड़े दौड़ाने के सिवा कोई मुफ़ीद ख़िदमत कम ही अंजाम दी थी. अपने दूसरे हम असरों मिसला हाली और शिबली की तरह मौलाना मेरठी ने अपनी शायरी को बड़ों और बच्चों के लिए तालीम-ओ-तरबियत का ज़रिया बनाया. (हकीम नईमउद्दीन ज़ुबेरी)

मौलवी इस्माईल मेरठी ने अपनी अदबी ख़्वाहिशात पर बच्चों की शायरी को तव्वजो दी. पहली से पांचवी तक के लिए उर्दू की किताबों के साथ ही साथ कच्ची पहली के लिए उर्दू ज़बान का कायदा भी तैयार किया.

उन्होने क़वाइद-ओ-ज़बान पर भी कई किताबें तसनीफ कीं. उन्होने लोअर प्राईमरी, अपर प्राईमरी और मिडिल प्राईमरी के लिए अलहिदा दरसी किताबें तैयार कीं. जिनमे बच्चों की नफ़्सीयात (मनोविज्ञान) के मुताबिक असबाक़ (सबक) शामिल करते हुए उनकी उम्रों का भी ख़ास ख़याल रखा गया. उनकी दर्सी किताबें हज़ारों मदारिस और उर्दू मीडियम स्कूलों के निसाब (पाठ्यक्रम) में शामिल हैं.

मौलवी साहब के किरदार के कई रंग थे. जहां वो नौनिहालों की तालीम के लिए फ़िक्रमंद थे तो दूसरी तरफ़ अपने तरक्की पसंद नज़रिए से समाज की बेजा रिवायतों और रूढ़ीवादी सोच के ख़िलाफ़ खुलकर बोलते थे.

19 वीं और 20 वीं सदी के उस दौर में धर्म और रिवाज के नाम पर जारी रस्मों के बोझ से पिसते समाज के ग़रीब तबक्के में एक नया शऊर पैदा करने के लिए इस्माईल मेरठी ने अपने इल्म और अपनी मौलवी वाली हैसियत का बख़ूबी इस्तेमाल किया. किसी शादी-ब्याह में शामिल होते तो वहां मौजूद लोगों के बीच शादियों में होने वाली फ़िज़ूूल-ख़र्ची और नतीजे में होने वाले कर्ज़ के बोझ और उसके नताइज के बारे में अपने दिलचस्प अंदाज़ में समझाइश देते.

मौलाना की नसीहत और उनके ख़ुलूस का असर था कि ऐसे बहुत से ख़ानदानो ने इन फ़िज़ूल बातों को छोड़ दिया और बाज़ दफ़ा यह भी हुआ कि इन तक़रीबात पर ख़र्च होने वाली रक़म इन लोगों ने मौलाना के कहने पर ग़रीब लोगों की मदद और उनके बच्चों की तालीम के लिए या क़ौमी ख़िदमत के इदारों को दे दी. (हकीम नईमउद्दीन ज़ुबेरी)

'जैसी कथनी, वैसी करनी' - इस्माईल साहब के किरदार की सबसे बड़ी ख़ूबी थी. जिन अख़लाक़ी उसूलों की सीख वो अपनी लेखनी से या कथनी से दूसरों को देते थे, उनकी ज़िंदगी उसकी मिसाल ख़ुद थी. उनके रहने-सहने का अंदाज़, लिबास और उनकी आदतें सब में सादगी थी.'

इस्माईल मेरठी के बारे में लिखने वालों ने उर्दू में ख़ूब लिखा है, जिसमे उनकी नेक ख़िदमात और आला किरदार का भी ज़िक्र आता है, लेकिन गुज़र-बसर के लिए ज़रूरी रुपए पैसे की हालत का ज़िक्र नहीं मिलता. 1939 में प्रकाशित 'कुलियात-ए-हयात-ए-इस्माईल-बा-तस्वीर' में इससे जुड़ी एक कहानी ज़रूर है, जिससे उनके माली हालात का कुछ अंदाज़ा तो होता ही है साथ ही उनकी पत्नी के बारे में ख़बर मिलती है.

यह कहानी पढ़कर यक-ब-यक, अपनी ही मां या फ़िर बीबी बल्कि ख़ुद अपनी ही गुज़री-गुज़राई सी कहानियां याद आती हैं. यूं इस कहानी में 'अल्लादीन के चराग़' का सा एक फ़ैंटेसी वाला तत्व भी है जो इसे बेहद पुरकशिश बनाता है. यह अकेले मौलवी जी की अहलिया की नहीं बल्कि हर गृहस्थ औरत के उस आला किरदार की हक़ीक़त भी बयान कर जाता है जिसकी हिकमत अमली, किफ़ायतशारी और अहसासे ज़िम्मेदारी घर के सर्द-गर्म होते मौसम के संतुलन को बनाए रखता है.
कहानी इस तरह बयान की गई है.

मौलाना का अक़्द बीबी नईम-उन-निसा के साथ जो शेख़ महबूब बख़्श साहब की साहिबज़ादी थीं, 1862 में हुआ था.... अगरचे मौलाना की अहलिया तालीम याफ़्ता न थीं मगर शौहर और बीबी के दर्मियान मुकमिल इतिफ़ाक़-ओ-इतिहाद-ए-ख़याल (आपसी तालमेल) था. मौलाना की आदत थी कि सुबह चार बजे उठते. मौलाना की अहलिया का दस्तूर था कि (मौलाना के) उठने से पहले अपने हाथ से हुक़्क़ा भरकर तैयार रखती थीं.

मौलाना की अहलिया ने सब्र-ओ-सुकून, बुर्दबारी और तहम्मुल की औसाफ़ अपने दादा से विरसे में पाई थी. अपनी मां के यहां से एक चराग़ लाई थीं. जब ऐसा इतिफाक़ पेश आता कि सिक्का-ए-राइज (प्रचलित मुद्रा) अल-वक़्त पास न होता तो यह चराग़ उलट कर रख दिया जाता. थोड़ी देर बाद उठाकर देखते तो उसके अंदर से हस्ब ज़रूरत (ज़रूरत के मुताबिक) रुपया, दुअनी, चवन्नी, अठ्ठनी निकल आती. चराग़ पीतल का था. और मुद्दतों आपके पास रहा. आपके इंतक़ाल के बाद जो यकुम (एक) दिसम्बर 1899 को आगरा में वाक़े हुआ, यह चराग़ भी ग़ायब हो गया.

            न पूछो कुछ ग़रीबों के मकां की
            ज़मीं का फ़र्श है छत आसमां की
            न पंखा है न टट्टी है न कमरा
            ज़रा सी झोंपड़ी मेहनत का समरा
            अमीरों को मुबारक हो हवेली
            ग़रीबों का भी है अल्लाह बेली (गर्मी का मौसम - इस्माईल मेरठी)

1 नम्बर 1917 इंसानियत के ख़िदमतगार इस अल्लाह के बंदे मौलवी इस्माईल मेरठी ने भी वफ़ात पाई.

सौ बरस बीते जाते हैं, इंसानी नस्ल की कारवां पीढ़ी दर पीढ़ी चला जा रहा है और मौलवी इस्माईल मेरठी की नौनिहालों के लिए रची गई शायरी आज भी ज़िंदगी का शऊर और नेकनामी की राह दिखाती चली आ रही है. 

1 comment:

सुशील कुमार जोशी said...

गाय पर कैसे? हद है सजा भी नहीं हुई और लिख गये?