इधर के कुछ वर्षों में लचर
और करीब-करीब रीढ़हीन हो चुकी भारतीय पत्रकारिता ने अनेक गौरवशाली दौर देखे हैं. नवीन
जोशी ऐसे ही एक दौर के एक दिग्गज सम्पादक अशोकजी को याद कर रहे हैं. यह लाजवाब और आत्मीय संस्मरण नए समय के पत्रकारों-संपादकों के लिए कई मायनों में एक
तरह की दिशानिर्देशिका साबित होगा. इसे यहाँ प्रकाशित करने हेतु भेजने के लिए नवीनदा
का धन्यवाद.
‘हिंदुस्तान’ के पूर्व
सम्पादक और जाने-माने पत्रकार नवीन जोशी कबाड़खाने के पाठकों के लिए बेहद परिचित
नाम हैं. चिपको आन्दोलन पर आधारित उनका उपन्यास ‘दावानल’ लम्बे समय से चर्चित रहा
है.
अशोकजी : हमने पकड़ी पत्रकारिता
की वह अंगुली
- नवीन जोशी
वह 16 फरवरी, 1996 का दिन था. 20, विधान
सभा मार्ग पर ‘स्वतंत्र
भारत’ का दफ्तर खाली किया जा रहा था. एल एम थापर
ग्रुप ने पायनियर लिमिटेड का यह हिंदी अखबार किसी अनाम एग्रो फिनान्स नामक कम्पनी
को बेच दिया था, हम हिंदी पत्रकारों की सेवाओं समेत. एग्रो
ग्रुप ने जॉपलिंग रोड पर नया प्रेस और कार्यालय खोला था. उस दिन सुबह अचानक आदेश
हुआ कि आज रात से ‘स्वतंत्र भारत’ जॉपलिंग
रोड में छपेगा और पायनियर लिमिटेड वाला दफ्तर तुरन्त खाली करना होगा.
जरूरी सामान समेटा जा
रहा था. हड़बड़ी और बेतरतीबी से सामान गाड़ियों में लदवाया जा रहा था. हम सम्पादकीय
विभाग का जरूरी सामान छांट रहे थे. अफरा तफरी मची थी. अचानक किसी पुराने रैक में
ठुंसी फाइलें, शब्दकोश, रजिस्टर, वगैरह लुढ़क कर फर्श पर छितरा गये. कई
छोटी-छोटी पर्चियां रजिस्टरों के पन्नों से निकल कर उड़ने लगीं. पुराने पीले नेपा
कागज के टुकड़ों में चीटीं की चाल जैसी लाल-नीली लिखावट चमक उठी. हम सब कुछ छोड़ कर
वे रजिस्टर और पर्चियां बटोरने लगे. कुछ प्रमोद जी ने, कुछ
मैंने और मनोज तिवारी ने जितनी जल्दी था, उन्हें बटोरा और
अपनी-अपनी स्कूटर की डिक्की में सम्भाल लिया.
वह अखबारी दुनिया की
जमीन थी जिसमें हमने ससंकोच पांच धरा था. पत्रकारिता की वह अंगुली थी जिसे हमने डरते-डरते लेकिन कसकर पकड़ा था. वह एक
सम्मानित परम्परा का हमारा हिस्सा था, हमारी विरासत. वह
हमारे दिल-ओ-दिमाग में था लेकिन कागज के उन चिंदों में इतिहास के रूप में साक्षात था.
उसे हम कैसे कबाड़ में जाने दे सकते थे.
वह अशोक जी हैं, आज भी हमारे साथ मौजूद, अपने हाथ से लिखे उन पुर्जों के रूप में, जिनमें
डांट-फटकार है, सम्पादकीय निर्देश हैं, सही शब्द और वर्त्तनी हैं, भाषा-शैली है, विदेशी शब्दों-नामों के सही उच्चारण और मायने हैं. और
तो और, हमारी लिखी या अनूदित-सम्पादित खबरों का बहुत ध्यान
से किया गया सम्पादन है, दुरस्त की गयी गलतियां हैं और
हाशिये पर लिखा हमारा नाम है ताकि वह हम तक पहुंचे और हम सीखें.
अशोक जी मेरे पहले सम्पादक
थे. वे मिल गये तो मैं पत्रकार बन गया, पत्रकारिता में टिक गया. इस पेशे से प्यार कर सका. चालीस साल बाद भी बिना
किसी अफसोस के.
***
अगस्त, 1977 में
दो दिन के लिए नैनीताल से लखनऊ आये शेखरदा (आज के हिमालयविदऔर ‘पहाड़’ के सम्पादक प्रो शेखर पाठक) के हाथ में एक नई
किताब थी- “भारतीय जेलों में पांच साल.” लेखिका- मेरी टाइलर, वह अंग्रेज युवती जो नक्सल आंदोलन के दौरान अपने बंगाली मित्र अमलेंदु के
साथ कलकता आयी थी. पुलिस ने उन्हें बंगाल के एक गांव से नक्सलवादी बताकर गिरफ्तार
करके जेल में ठूंस दिया था.
मेरी ने बंगाल की जेलों
में पांच साल बिताये और इमरजेंसी के दौरान ब्रिटिश सरकार की पहल पर जेल से रिहा की
गयी. लंदन लौट कर मेरी ने यह किताब लिखी जो भारतीय जेलों के अमानवीय हालात का
जीवंत दस्तावेज है. वास्तव में,
कैदियों के हालात के बहाने यह तत्कालीन भारतीय समाज और उसे नियंत्रित करने वाले
तंत्र की हृदय-विदारक तस्वीर है. उस दौर में यह किताब बहुत चर्चित हुई थी.
अंग्रेजी से आनन्द स्वरूप वर्मा के अनुवाद में हिंदी में किताब तभी आयी ही थी.
मैंने शेखरदा से यह किताब पढ़ने के लिए मांग ली. वह खुद उसे नैनीताल की परिचित
दुकान से पढ़ने के लिए मांग लाया था और अगली शाम उसे वापस लौटना था. सो, मैंने रात भर जाग कर वह किताब पढ़ी. वह बहुत विचारोत्तेजक किताब थी और
मैंने उसके कई उद्धरण भी डायरी में नोट किये.
अगली रात शेखरदा के
नैनीताल चले जाने के बाद मैंने मेरी टाइलर और इस किताब पर एक लेख लिखा. सुबह
विश्वविद्यालय जाते समय वह लेख में ‘स्वतंत्र भारत’ के कार्यालय में समाचार सम्पादक
चंद्रोदय दीक्षित की मेज पर रख गया, जहां उस समय झाड़ू लगायी
जा रही थी. साल-डेढ़ साल पहले ‘स्वतंत्र भारत’ कहानी प्रतियोगिता में मेरी कहानी पुरस्कृत हो चुकी थी. इसी कारण चंद्रोदय
जी से थोड़ा परिचय था. प्रमोद जोशी से भी ‘स्वतंत्र भारत’
में तभी पहचान हुई थी जो कविता-कहानियों के साथ रेखा-चित्र भी बनाया
करते थे.
1975 में बीएससी करने के
बाद मैंने एमए (अर्थशास्त्र) में प्रवेश लिया था. इरादा था कि पहाड़ लौट कर मास्टर
बनूंगा. बहुत मन से पढ़ाई की जा रही थी लेकिन विश्वविद्यालय का माहौल बहुत अराजक हो
गया था. इमरजेंसी उठने के बाद हुए चुनाव में केंद्र और राज्यों में जनता पार्टी की
सरकारें बन गयी थीं. तरह-तरह
के ‘छात्र-नेता’ विश्वविद्यालय में
अपनी राजनीति चमकाने में लगे थे. कक्षाओं से अध्यापकों को खदेड़ कर वे अपनी
जेल-यातनाओं के किस्से बढ़-चढ़ कर सुनाते. परीक्षाएं शुरू हो चुकी थीं लेकिन उनमें
भी व्यवधान पैदा किया जा रहा था. अर्थशास्त्र प्रथम वर्ष के एक पर्चे के दिन कई
उद्दण्ड लड़के नारे लगाते हुए परीक्षा-कक्ष में घुस आये और उन्होंने हमसे कॉपियां
छीन कर फाड़ दी थीं. इन वजहों से मन बहुत खिन्न रहा करता था.
दोपहर बाद विश्वविद्यालय
से लौटते हुए मैं फिर ‘स्वतंत्र
भारत’ के कार्यालय गया. मेरी टाइलर पर अपने लेख के बारे में जानने
की बड़ी उत्सुकता थी. चंद्रोदय जी अपनी कुर्सी पर नहीं थे. साथ लगे सम्पादक के कक्ष
से जोर-जोर से बोलने की आवाज आ रही थी जिसमें मेरी टाइलर का नाम भी सुनाई दे रहा
था. समझ गया कि भीतर मेरे ही लेख पर चर्चा हो रही है. थोड़ी देर में चंद्रोदय जी
बाहर निकले तो मैंने हाथ जोड़े. उन्होंने फौरन मेरी बांह पकड़ी और लगभग घसीटते हुए
सम्पादक के कमरे में ले गये- ‘यही है नवीन जोशी.’
सफेद कुर्ते, सफेद टोपी और चश्मे में छोटे कद का एक
व्यक्ति अपनी कुर्सी में धंसा हुआ था. वह अशोक जी थे, जिनके
माथे पर बल और तनाव था, जो हमने बाद में जाना कि सदा बना
रहता है. उन्हें हंसते हुए देखने की याद ही नहीं. उनके सामने पड़ते ही हम सहम जाते थे. उस समय तो उनसे पहला सामना हो रहा
था. इस अकस्मात मुलाकात से मेरी घिग्घी-सी बंधी हुई थी. नमस्कार करना क्या याद
रहता.
-‘मेरी टाइलर की किताब कहां पढ़ी, किसने बताया?’ उन्होंने पूछ तो मैंने अटकते-अटकते
बता दिया.
-‘तुम्हारा लेख छापेंगे. क्या करते हो?’
-‘जी, एमए कर रहा हूँ.’
-‘हमारे साथ काम करोगे?’ उनके सवाल ने मुझे चौंकाया ही नहीं भारी असमंजस में भी डाल दिया था.
-‘जी, अभी परीक्षा देनी है.’
-‘ठीक है.’ उन्होंने
कहा. साथ ही मेज पर रखी ‘द पायनियर’ (स्वतंत्र
भारत का सहयोगी अंग्रेजी दैनिक) की इतवारी मैगजीन की प्रति मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा-
‘जनार्दन ठाकुर का लेख अनुवाद कर लाइए,
कल-परसों में.’
मैं दीक्षित जी के साथ
चुपचाप बाहर आ गया. उन्होंने शायद पीठ ठोकी हो, या कुछ कहा हो, मुझे याद नहीं. घर आकर एकांत में
धीरे-धीरे ही अहसास हुआ होगा कि कुछ अच्छी बात हुई है.
चर्चित पत्रकार जनार्दन
ठाकुर ने इंदिरा गांधी और इमरजेंसी के दिनों पर एक किताब लिखी थी- “ऑल द प्राइम
मिनिस्टर्स मेन.” पुस्तकाकार
प्रकाशन से पहले वह ‘द पायनियर’ में धारावाहिक
छपना शुरू हुई थी. उसी की पहली किश्त अशोक जी ने मुझे अनुवाद करने को दी थी. मैंने
बहुत मेहनत से सारी क्षमता झौंक कर वह अनुवाद किया, दो बार ‘फेयर’ किया और दूसरी ही दोपहर अशोक जी के कमरे के
बाहर खड़ा हो गया. अशोक जी को अनुवाद पसंद आया. बाकी हिस्से अनुवाद को मिले और अगले
रविवार से वह साप्ताहिक परिशिष्ट में धारावाहिक छपने लगा.
-‘परीक्षा देने के बाद तुम हमारे साथ काम
करोगे.’ अगली मुलाकात में अशोक जी ने फैसला सुना दिया और डेढ़
सौ रु महीने पगार बता दी. खुद ले जाकर मैनेजिंग एडिटर केपी अग्रवाल से भी मिला
दिया.
पत्रकार क्या होता है, यह मैं जानता न था लेकिन बिल्कुल अचानक
पत्रकार बन गया था. सबसे बड़ी खुशी डेढ़ सौ रु महीने की थी, जो
अभी हाथ में नहीं आये थे लेकिन जिसने पंख उगा दिये थे.
मैंने जैसे-तैसे परीक्षा
निपटाई और सितम्बर, 1977 के पहले या दूसरे सप्ताह से ‘स्वतंत्र भारत’ की डेस्क पर नियमित काम करने लगा.
पत्रकारिता के रोमांच में ऐसा रमा कि एमए भी पूरा नहीं किया. पहाड़ लौट कर मास्टरी
न कर पाने की कसक आज भी होती है लेकिन चालीस साल की पत्रकारिता में इस पेशे पर कभी
पछतावा नहीं हुआ.
***
‘स्वतंत्र भारत’
में अशोकजी की यह दूसरी पारी थी और 1977-78 में वे नयी टीम तैयार कर
रहे थे. 15 अगस्त, 1947 को लखनऊ से ‘स्वतंत्र
भारत’ का प्रकाशन उन्हीं के सम्पादन में शुरू हुआ था. 1953
में वे इसे छोड़कर केंद्र सरकार के सूचना
विभाग में दिल्ली चले गये. प्रकाशन विभाग में उप निदेशक होते हुए 1971 में फिर ‘स्वतंत्र भारत’ लौट आये. 1977 में नॉदर्न इण्डिया
पत्रिका ने इलाहाबाद से ‘अमृत प्रभात’ अखबार
निकालने का फैसला किया. ‘स्वतंत्र भारत’ तब हिन्दी के अच्छे पत्रकारों की नर्सरी-जैसा था ही. सत्यनारायण जायसवाल
के नेतृत्व में सात-आठ पत्रकारों की टीम ‘अमृत प्रभात’
के लिए चुन ली गयी थी. उस टीम के जाते-जाते अशोक जी नयी टीम बना रहे
थे. मेरी नियुक्ति इसी का हिस्सा थी.
युवा शचींद्र त्रिपाठी, प्रमोद जोशी और विजयवीर सहाय करीब दो-ढाई
साल से वहां काम कर रहे थे. मेरे आगे पीछे विनोद घिल्डियाल, ताहिर
अब्बास, मनोज तिवारी, रवींद्र जायसवाल,
दीपक पाण्डे, आदि अशोक जी की नजरों से गुजर कर
आये. बीच-बीच में और भी युवा साथी आते रहे. अशोक जी की पैनी नजर हम युवाओं पर
रहती.
अशोक जी का लिखित
निर्देश था कि नये लड़के जो भी खबर बनाएं, लिखें या सम्पादित करें, उसकी मूल प्रति उनके देखने
के लिए रख दी जाए. हर कॉपी पर बनाने वाले का नाम लिखा हो. जब भी समय मिलता,
बल्कि वे इसके लिए निश्चित ही समय निकालते कि हमारी कॉपी (खबरों को
इसी नाम से पहले भी जाना जाता था) देखें, उसे अपने हाथ से
संशोधित-सम्पादित करें, उस पर अपनी टिप्पणी दर्ज करें और
हमारे पास वापस भेज दें. हमसे अपेक्षा होती थी कि हम अशोक जी से वापस आयी अपनी
खबरों को ध्यान से देखें और सीखें.
यह सिलसिला चलता रहता था
मगर उनकी कोशिश होती थी कि वे हमें अपने कक्ष में बुला कर सामने बैठा कर हमारी
कॉपी जांचते. तब होती थी असली कक्षा. वे शब्दों, उनके प्रयोग, मुहावरों,
अंग्रेजी और हिंदी की प्रकृति के अंतर, आदि की
व्याख्या करते. समझाते कि खबर किस बारे में है, उसमें समाचार
क्या है, उसे किस तरह लिखा जाए ताकि समाचार सटीक सम्प्रेषित
हो. भाषा अपनी हो, सरल हो, बोलचाल के
शब्द हों लेकिन इस प्रयास में समाचार का मूल आशय जरा भी इधर-उधर न हो और न कोई
तथ्य छूटे .
यह आसान न था. वर्षों
बाद समझ सका कि जो सबसे आसान है, उसे
कहना-लिखना सबसे कठिन है. कठिन और उलझाऊ लिखना सबसे आसान है. तब तो हमें लगता था
कि जरा-सी बात के पीछे अशोक जी क्यों पड़े हैं, अपना और हमारा
समय क्यों खराब कर रहे हैं. एक शब्द को काट कर उसी तरह का दूसरा शब्द लिख कर क्या
फर्क पड़ गया. वाक्य की संरचना बदल कर क्या नयी बात कर दी.
आज जब शब्द, भाषा, व्याकरण सब
गड्ड-मड्ड हो गये हैं, यह समझा पाना मुश्किल है कि तब
पत्रकारिता में इनको कितना महत्त्वपूर्ण माना जाता था. भाषा ही पत्रकारिता यानी
अभिव्यक्ति का औजार है. औजार ही सही और सटीक नहीं होगा तो अभिव्यक्ति कैसे सही
होगी. बात शुद्धता की नहीं, सटीकता की है जो किसी भी भाषा की
पत्रकारिता का प्राण है.
उस समय की स्थितियां आज
से बहुत ही बहुत भिन्न थीं. समाचार-स्रोतों के नाम पर सिर्फ एजेंसियां थीं और
आकाशवाणी के समाचार बुलेटिन. अंग्रेजी में पीटीआई और यूएनआई की विश्वसनीयता थी.
हिंदी में ‘हिंदुस्थान समाचार’
और ‘समाचार भारती’ नाम
की एजेंसियां संसाधन-गरीब ही नहीं, सूचना एवं ज्ञान-दरिद्र
भी थीं. उनके भरोसे अखबार निकाला ही नहीं जा सकता था. (आपातकाल में सेंसर बोर्ड ने
अपनी सुविधा के लिए चारों को मिलाकर ‘समाचार’ नाम से एक एजेंसी बना दी थी, जो आपातकाल हटने के बाद
फिर स्वतंत्र हो गयी थीं). मुख्य उप-सम्पादक या डेस्क प्रभारी एजेंसियों के टेलीप्रिण्टर
से निरंतर आते समाचारों (तार कहा जाता था इन्हें) को छांटता और अपने अखबार में
प्रकाशन योग्य तारों का बण्डल उप-सम्पादकों को देता रहता.
एक खबर बनाने के लिए
हमारे पास तीन एजेंसियों के तार होते. ‘स्वतंत्र भारत’ में अंग्रेजी की दोनों और हिंदी में
हिंदुस्थान समाचार की सेवा थी. अंग्रेजी तारों के बिना काम न चलता. तार पढ़ना,
खबर को समझना और फिर अलग कागज पर अपने शब्दों में खबर लिखनी होती.
कुछ काबिल मुख्य उप-सम्पादक सारा संदर्भ और सार समझा देते. बाकी तारों का ढेर पकड़ा
कर कहते- सिंगल (एक कॉलम), डी सी (दो कॉलम) या टीसी (तीन
कॉलम) बना दो. हम सब हिंदी माध्यम से पढ़े थे. पारिवारिक पृष्ठभूमि में भी अंग्रेजी
कहीं नहीं थी. पीटीआई-यूएनआई के तार हैरान करते. खबर विदेशी या आर्थिक हो तो कई
बार आकाश-देखनी हो जाती. डेस्क पर अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश रखे रहते, जिनके लिए आपस में खींचातान मचती. अनेक बार शब्दकोश में दिये गये अर्थ खबर
के संदर्भ से मेल न खाते. देश-दुनिया के बारे में अध्ययन ही मददगार होता. इसलिए
अखबार-पत्रिकाएं पढ़ना और रेडियो पर समाचार सुनना जरूरी लगता.
इतनी मेहनत के बाद जो
खबर हम बना पाते, अक्सर
संशय रहता कि सही बनी है या नहीं. जल्दी भी करनी पड़ती थी, वर्ना
टोके जाते थे. और उम्र क्या थी! सन 1977 में मैं 21 साल का था. बाकी भी आस-पास. जिंदगी के तमाम आकर्षण अखबार के
दफ्तर के बाहर थे. किसी से सिनेमा में मिलने का वादा है. कोई गेट पर चाय की दुकान
में कबसे इंतजार कर रहा है. किताबों की दुकान में जाना है,
रवींद्रालय में नाटक भी, आर्ट्स कॉलेज में एक प्रदर्शनी लगी
है, पता-नहीं क्या-क्या.
अब सोचिए, इन हालात में बनायी खबर अशोक जी मुझे अपने सामने
बैठा कर जांच रहे हैं. उनसे हमारी सिट्टी-पिट्टी वैसे ही गुम रहती थी. सुबह उनकी
फिएट कार नीचे पोर्च में रुकती तो ऊपरी मंजिल पर सम्पादकीय विभाग में बैठे वरिष्ठ
साथियों में भी सन्नाटा छा जाता. वे घर से अपना अखबार लाल कलम से रंग कर लाते थे.
हर पेज पर ढेरों संशोधन, सुझाव, टिप्पणियां.
सीढ़ियों से चढ़कर सीधे सम्पादकीय डेस्क पर आते और क्लास शुरू हो जाती.
मैं सहमा-सा उनके सामने
बैठा रहता. उनकी लाल कलम मेरी बनायी खबर पर चलती रहती. शब्द बदले जाते, वाक्य तराशे जाते और बीच-बीच में तीखी
नजरें मेरे चेहरे पर भी गड़ जातीं कि ध्यान दे रहा हूं कि नहीं. संशोधन करते जाते
और बताते जाते- “ ‘मिक्स्ड रिएक्शन’ के
लिए ‘मिश्रित प्रतिक्रिया’ लिखने से
अर्थ स्पष्ट नहीं होता. मतभेद या भिन्न-मत या समर्थन और विरोध ज्यादा समझ में आएगा.
तो, ‘मिस्र-इसरायल समझौते पर मिश्रित
प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि ‘मिस्र-इसरायल
समझौते का समर्थन और विरोध’... ठीक ?”
(जारी)
4 comments:
बहुत सुन्दर।
पहली लाइन में 16 फरवरी, 1996 होना चाहिए, 1986 हो गया है. उनका नाम नाम अशोक नाथ नहीं, अशोकजी है. स्कूल के प्रमाणपत्र भी अशोकजी के नाम से हैं. टैग में अशोकजी ही डालें.
बाकी खूब सारा धन्यवाद.
- नवीन
श्ाानदार सर बहुत सुंदर
बहुत शानदार संस्मरण आदरणीय
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