Friday, June 22, 2018

मैं केवल इतना कर सकता हूं कि अपनी लड़ाई पूरी ताकत से लड़ूं

फिल्म अभिनेता इरफ़ान खान ने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सिनेमा में अपने लिए एक अलग स्थान बनाया है. वे हमारे उपमहाद्वीप के सबसे प्रतिभावान और वर्सेटाइल कलाकार हैं. दुर्भाग्यवश कुछ दिन पूर्व उन्हें एक खतरनाक बीमारी ने घेर लिया है जिसका इलाज वे फिलहाल लन्दन में करवा रहे हैं. वहां से भेजे एक उन्होंने पत्र भेजा है जो सोशल मीडिया पर पिछले कुछ दिनों से चर्चा में बना हुआ है. मनुष्य के अथाह जीवट और सादगी से भरे जीवनदर्शन की बानगी देता यह छोटा सा पत्र इरफ़ान को मनुष्यता एक अलग स्तर पर पहुंचा देता है. अग्रज आशुतोष बरनवाल के आग्रह पर इस का अनुवाद यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है -  



काफ़ी समय बीत चुका जब मुझे हाई-ग्रेड न्यूरोएंडोक्राइन कैंसर बताया गया था. यह मेरे शब्दकोश में एक नया नाम है. मैं अब एक प्रयोग का हिस्सा बन चुका था. मैं एक अलग गेम में फंस चुका था. तब मैं एक तेज ट्रेन राइड का लुत्फ उठा रहा थाजहां मेरे सपने थेप्लान थेमहत्वकांक्षाएं थींउद्देश्य था और इन सबमें मैं पूरी तरह से अस्त-व्यस्त था. … और अचानक किसी ने मेरे कंधे को थपथपाया और मैंने मुड़कर देखा. वह टीसी थाजिसने कहा, ‘आपकी मंजिल आ गई हैकृपया उतर जाइए.’ मैं हक्का-बक्का सा था और सोच रहा था, ‘नहीं नहींमेरी मंजिल अभी नहीं आई है.' उसने कहा, 'नहींयही है.'

जिंदगी कभी-कभी ऐसी ही होती है. इस आकस्मिकता ने मुझे एहसास कराया कि कैसे आप समंदर के तेज तरंगों में तैरते हुए एक छोटे से कॉर्क की तरह हो! और आप इसे कंट्रोल करने के लिए बेचैन होते हैं.


तभी मुझे बहुत तेज दर्द हुआऐसा लगा मानो अब तक तो मैं सिर्फ दर्द को जानने की कोशिश कर रहा था और अब मुझे उसकी असली फितरत और तीव्रता का पता चला. उस वक्त कुछ काम नहीं कर रहा थान किसी तरह की सांत्वनाकोई प्रेरणा … कुछ भी नहीं. पूरी कायनात उस वक्त आपको एक सी नजर आती है - सिर्फ दर्द और दर्द का एहसास जो ईश्वर से भी ज्यादा बड़ा लगने लगता है.

जैसे ही मैं हॉस्पिटल के अंदर जा रहा था मैं खत्म हो रहा थाकमजोर पड़ रहा थाउदासीन हो चुका था और मुझे इस चीज तक का एहसास नहीं था कि मेरा हॉस्पिटल लॉर्ड्स स्टेडियम के ठीक ऑपोजिट था. क्रिकेट का मक्का जो मेरे बचपन का ख्वाब था. इस दर्द के बीच मैंने विवियन रिचर्डस का पोस्टर देखा. कुछ भी महसूस नहीं हुआक्योंकि अब इस दुनिया से मैं साफ अलग था. हॉस्पिटल में मेरे ठीक ऊपर कोमा वाला वार्ड था.

एक बार हॉस्पिटल रूम की बालकनी में खड़ा इस अजीब सी स्थिति ने मुझे झकझोर दिया. जिंदगी और मौत के खेल के बीच बस एक सड़क हैजिसके एक तरफ हॉस्पिटल है और दूसरी तरफ स्टेडियम. न तो हॉस्पिटल किसी निश्चित नतीजे का दावा कर सकता है न स्टेडियम. इससे मुझे बहुत कष्ट होता है. दुनिया में केवल एक ही चीज निश्चित है और वह है अनिश्चितता. मैं केवल इतना कर सकता हूं कि अपनी पूरी ताकत को महसूस करूं और अपनी लड़ाई पूरी ताकत से लड़ूं.

Wednesday, June 20, 2018

दिन रात के पोरों से छनती स्मृतियां

30 अक्टूबर 1946 को इलाहाबाद में जन्मे विनोद कुमार श्रीवास्तव को आप कबाड़खाने में पहले भी पढ़ चुके हैं. 1972 में भारतीय राजस्व सेवा में भरती हुए विनोद जी ने कविता और कहानी और अन्य विधाओं में लगातार रचनाएं की हैं. वे समय-समय पर साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं. फिलहाल अवकाशप्राप्ति के बाद वे मुम्बई में रहते हैं.

विनोद कुमार श्रीवास्तव

स्मृतियां 

- विनोद कुमार श्रीवास्तव


1.

स्मृतियां बरसती नहीं हैं 

वे पृथ्वी में गड़ी होती हैं 
अपने आकार में सुरक्षित 

उनके नोंक चोखीले होते जाते हैं 
समय के साथ साथ 

हम उनपर वर्क लपेटे हैं 
वे जीवाश्मों में परिवर्तित नहीं होतीं

बरसात में स्मृतियाँ स्वच्छ होती हैं 
जाड़ों में  गहन
वे गर्मियों में खूब फैल कर आती हैं
हमारी दृष्टि और सोच को 
पूरी तरह सोखती हुई

स्मृतियां एक ठोस आकार हैं 
हमारे तरल अस्तित्व के 
पूरे विलोम में. 

 2.

स्मृतियां निजी होने पर भी
सिर्फ हमारे जीवन का अंग नहीं होतीं 

अनगिनत लोगों के चीथड़ों से
बनी होती हैं स्मृतियाँ 

उनमें हम टांके हैं अनगिनत सलमें
तमाम लोगों के लिबासों से निकाले हुए

स्मृतियां सचमुच संजोई जाती हैं
सिर्फ यादों के संदर्भ में नहीं.


3.

स्मृतियां छनती रहती हैं 
दिन रात के पोरों से 

चलती रहती हैं पुश्त दर पुश्त 
पुरखों की याद के साथ

हम खुलते रहते हैं 
पर्त दर पर्त 

और फिर देखते हैं धीरे-धीरे 
अपना ही ढलना
स्मृतियों के आकार में. 


4.


हम बढ़ते रहते हैं कदम दर कदम
धूप और छांव में 
रखते हुए अपनी स्मृतियों के पांव

देखते रहते हैं अपनें ही अंगों को
एक एक कर स्मृतियाँ बनते हुए

इंतज़ार करते हैं 
नई स्मृतियों का

देखते हैं बच्चों को
स्मृतियों के खेत में 
बीज की तरह अंखुआते हुए
और फिर स्मृतियों को ही
अपनें आंगन में 
घुटनों के बल चलते हुए.

Monday, June 11, 2018

निन्यानवे फीसद देवानंद एक फीसद जोशी


देवानंद

-विवेक सौनकिया

रोजमर्रा की जिंदगी में कई कैरेक्टर टोटल फिल्मी होते हैं जो मानस पर इकदम फिल्मी छाप छोड़ जाते हैं. ऐसे ही थे देवानंद जोशी जिनका असल नाम क्या था अल्मोडे़ प्रवास से लेकर आजतक पता न चला पर आबकारी दफ्तर में उन्हें देवानंद के नाम से जाना जाता था.

अल्मोड़ा कचहरी से लाला बाजार की तरफ उतरने वाली सीढ़ियों  से उतर कर ज्यो ही कोई नीचे बढे़गा, उसे देवानंद का प्रतिष्ठान कचहरी के पुस्ते में मजबूती से ठोकी गयी कील के सहारे बांधी गयी नीली बरसाती के नीचे दिख जायेगा जिसमें देवानंद बतौर मुख्य कार्यकारी अधिकारी अधखुली आंख से अधजली सिगरेट के उड़ते हुये धुएँ में जिन्दगी की पूरी संभावनायें तलाशते अधलेटे, अधबैठे दिख ही जायेंगे.

बात इकदम सीधी और इकदम सपाट है कि कोई किसी भी ऐंगल से क्यों न देखे हर चीज, चाहे वह प्रतिष्ठान हो, धुआँ हो या धुआँ उड़ाते देवानंद, आधे ही दिखेंगे क्योंकि देवानंद की कारोबारी दुनियां के हरेक पहलू का हरेक आधा हिस्सा बगल के पनवाड़ी के खोखे के नीचे के खाली हिस्से में आधा घुसा दिखता था जिसकी जानकारी खुद कई दफे अल्मुड़ियों तक को  नहीं हो पाती थी.

फिल्म अभिनेता देवानंद स्टाइल का चश्मा, देवानंद स्टाइल की टोपी, देवानंद स्टाइल की चमकती आंखें और आखीर में देवानंद स्टाइल के बदन में समाई देवानंद स्टाइल की आत्मा जो बस देवानंद स्टाइल में बोलती भर नहीं थी. निन्यानवे फीसद देवानंद स्टाइल के देवानंद जोशी सुर फूटते ही देवानंद न रहते बल्कि वे उत्तराखंड के अल्मोड़खंड के कचहरी बाजार की पटालों जिनका स्थान बजट को खपाने के लिये लगाये गये गैरवाजिब कोटा स्टोन ने ले लिया है पर बैठे एक अद्वितीय क़िस्म के अल्मुड़िया समझ में आते.

ताला, चाभी, छाता, संदूकची, अटैची, स्टोव, चेन, लाईटर आदि विभिन्न वर्गों और जातीय संरचना द्वारा समान रूप से रोज प्रयोग की जाने वाली आम लगने वाली खास चीजों के एकमात्र सिद्धहस्त और अल्मुड़िया मार्का मिस्त्री देवानंद जोशी में मात्रा के रूप में मात्र आधा अल्मोड़ा भरा था. शेष आधे हिस्से में एक खालीपन था जिसमें देशी दारू ‘गुलाब’ से लेकर हल्द्वानी की नाहिद टाकीज में देखी गयी पिक्चरों और उनकी फेवरेट जय जयंती वैजयंतीमाला के क़िस्से इफ़रात में भरे थे.

देवानंद ने अपने जीवन की सबसे लंबी यात्रा बरेली की वाया हल्द्वानी की थी जिसमें बकौल उनके कुल जमा तीन पिच्चरें, तीन बोतल देशी दारू, तीन प्राइवेट बैंकरों के लॉकर खोलकर कुल तीन सौ रूपये कमाये पर समूची यात्रा में साथ के तीन बिजनौरी दोस्तों का सात दिन में ऐसा प्रभाव पड़ा तीन सौ से अधिक बिजनौरी बोली के शब्द सीख गये जो अल्मोड़ा आकर अपनी मित्र मंडली में अपना प्रभाव जमाने के लिये खूब काम लिये गये. तीन नंबर के प्रति इतना समर्पण किसी दो नंबरी के बस की बात नहीं थी,आखिर देवानंद अल्मुड़िया जो थे.

आफिस के ताले बदलने के दौरान देवानंद की इंजीनियरिंग और भाषाई दक्षता से रूबरू होने का मौका मिला.

 “साब ऐसा कोई ताला नहीं जो हमसे स्साला खुला नहीं. सब बदल ग्या चाबी की जगै बटन आ गये, कांटे की जगै गिर्री-गरारी आ गई पर रोक ना सके देवू को. वो क्या कहे हैं बैंक में जां सारे अल्मोडे़ का मालमत्ता, रूपया पइसा रखे हैं अरे जिसमें लोहे का भारी वाला दरवज्जा होवे है ... हां लाकर वा तक पांच मिन्ट में रैट टैट कर देवे.”

नजीबाबाद बिजनौर के शब्दों के माध्यम से प्लेन्स के साहब पर रंग जमाने की इच्छा रखने वाला देवानंद रुका नहीं.

साब पर इस अल्मोडे़ में जानकार की कदर कहां. स्साला दिन भर पटाल पर बैठे-बैठे भेल तक घिस जाती है पर कभी कभी तो पव्वे तक की जुगाड़ न हो पावे है. पर क्या करें साब अल्मोड़ा जो ठैरा. यां पै साब काम करने वाले की कदर ना है बस्स चूतिया काटे रहो बनो मती फिर तो मौजई मौज.”
देवानंद के हाथ आफिस की अल्मारियों पर किसी पेशेवर की तरह सधे हुये चल रहे थे और उसकी जुबान किसी निर्मम सामाजिक विश्लेषक की तरह अल्मोडे़ की खैर ख़बर लेने पर आमादा थी. वह रूका नहीं.

 “साब भतेरे आये भतेरे चले गये पर यौ न शहर ना बदला है न बदलेगा. यां तो सुनो सबकी और करो मनकी और हां बोलो तो बिल्कुल मती. ढाई चाल कब ढेर करदे पता न चलैगा. सब परम है स्साले. न काम करेंगे और कन्ने भी ना देंगे. बस्स एक खचड़पचड़ मचा रक्खे है दिन भर. साब अगर आप बुरा न मानें तो बीड़ी पी लूं.”

सहमति मिलने के लिये इंतजार करना देवानंद को गैरवाज़िब लगा सो पहले ही देवानंद ने धूम्रपान निषिद्ध क्षेत्र में फर्श पर दोनों टांगें फैलाकर ‘मजदूर’ के बंडल में बची आखिरी बीडी़ सुलगा ली और फिर चालू हो गया.

साब कसार देवी से क़रबले तक एक से एक फितरती मिलेगें. बचके रइयो.यां  बडे़ बडे़ ग्यानी, कलाकर, नचइये, गवइये आये और आकर भेल घिस के चले गये. आये तो थे चूलें हिलाने के लिये पर पड़ी पिछवाड़े पे अल्मुड़िया लात तो पिछवाड़ा हिलाते चले गये. अल्मोड़ा और अल्मुड़िया आसानी से टिकने कहां देते हैं. अब तुम देख लो मेरा गांव रानीखेत के धौरे कठपुड़िया में है पर आज तक बाबूजी तीस साल हो गये आदमी स्साला बाहर का कहै है. स्साला पूरे अल्मोड़े का ताला खोल के बंद कर दिया पर यौ न खुल्ला.”

देवानंद का अद्भुत बिजनौरी स्टाइल का सामाजिक विश्लेषण आधे पिये गये अद्धे से अपनी ऊर्जा ग्रहण कर रहा था और ज्ञान फचाफच बाहर आ रहा था. आधे टुन्न होने के बाद भी शहर के मिज़ाज़ की ऐसी अद्भुत व्याख्या से रूबरू होना अपने आप में एक अलग क़िस्म का अनुभव था जो किसी भी पढ़े लिखे व्यक्ति की संगत में प्राप्त नहीं हो सकता था क्योंकि यह समाज का टुन्नावस्था में किया गया विश्लेषण जो था. हालांकि व्यक्ति अपनी गहराई और विस्तार से ही चीजों को देखता समझता है और ऐसा भी नहीं है कि देवानंद की सारी बाते सहीं हो पर उनमें दम जरूर था. देवानंद के हलक से नीचे का आधा अद्धा उन्हें अल्मुड़ियापन से, अल्मोड़त्व से टक्कर लेने का पूरा साहस दे रहा था. बचीखुची ऊर्जा उन्हें कमर में खोंसे गये आधे अद्धे से मिल रही थी.

अल्मोड़ा है ही ऐसा. काफी हद तक देवानंद की कमर में खोंसे हुये आधे अद्धे की तरह. निर्भर देखने वाले पर करता है कि वह आधी शराब का संभावित आनंद देखता है अथवा आधा खालीपन.
ऊपर की इन ढाई लाइनों में एक महीन अल्मुड़िया दर्शन भी निहित है कि जब आप अल्मोड़े मे रहकर अल्मोड़त्व से रूबरू हो रहे हों तो आपको सिर्फ और सिर्फ एक ही चीज से मतलब रखना चाहिये वह है “दारू”,जो कि ज्ञान, आत्मा, अमरत्व, निर्वाण, मोक्ष, प्रकृति, सौम्यता, रम्यता, तनाव, दुराव, लगाव, छुपाव, अभाव, प्रभाव, कुभाव आदि सबसे ऊपर है और शुद्ध अल्मोड़त्व की स्थापना आपके अंदर करती है. यही अल्मोड़त्व विभूषित करता है आपमें, हममें और सब में उस परम अल्मुड़ियापन को जिसमें कोई कितना भी डूब जाये पर समझ में आयेगा सिर्फ आधा. ठीक देवानंद के कमर में छुपे आधे अद्धे की तरह.

देवानंद का एक दूसरा किस्सा जो वार्तालाप की अल्मुड़िया शैली का परिचायक हो सकता है.

एक दिन सुबह पांच बजे हल्द्वानी से वापस लौटते समय क़र्बला तिराहे पर देवानंद दिखे तो उत्सुकतावश उनकी मॉर्निंग वॉक का प्रयोजन पूछ लिया. जो उत्तर मिला वह समझने लायक था-
साब गया था किसी गांव में किसी आदमी के घर किसी कमरे में पड़ी किसी शादी की अल्मारी के किसी लाकर को खोलने जिसमें उस व्यक्ति की उसी पत्नी के उसी पांव की वही पायल उसी से किसी तरह बंद हो गयी थी और उन मैडम को किसी दूसरी मैडम के साथ किसी तीसरी मैडम के घर शादी में जाना था.घर मे बवाल मचा ठरा सो किसी ने किसी के कान में कुछ फुसफुसाकर कहा कि कहीं से कोई देवानंद को पकड़ लाये तो ये ताला खुल पाये.

“फिर”

अद्भुत अल्मुड़िया शैली में कहे गये लंबे डायलाग ने उत्सुकता बढ़ा दी थी.

फेर क्या साब मौके पर पहुंच कर बिना मुआयना किये चट से उस अल्मारी को उसी तरह खोल डाला जिस तरह वह बंद हुयी थी. फेर क्या इधर मैडम खुस और उधर उनके ऐडम खुस और उन दोनों की खुसी ने हमें खुस कर दिया सो आधा हाफ तो हम वहीं सूंत गये और आधा हाफ आधी रात को. घर के आधे रस्ते में कि कहीं आधी बेहोसी में किसी पैराफीट से टिककर सो गये थे.”

अगर आपके पास कुछ पड़ा हो तो!” हांलांकि देवानंद ने ब्लांइंड चाल चली थी लेकिन वह चल गई.
कार की डिग्गी में देशी शराब के कुछ पव्वे पडे़ थे .

साब मजा आ गया अब पेट सही साफ हो जायेगा” कह कर देवानंद जोशी इकदम सधे कदमों से दुलकी मारते हुये आंखों से ओझल हो गये और काफी दिनों तक पव्वे से पेट साफ होने का कनैक्शन हमें उलझाये रहा.

Wednesday, June 6, 2018

जिदंगी के अश्लील चेहरे पर अल्मोड़े का क़रारा तमाचा है शंभू राणा

कबाड़खाने के पाठकों के लिए शंभू राणा का नाम अपरिचित नहीं. उनकी अनेक रचनाएं यहाँ प्रकाशित हो चुकी हैं और उन्हें बहुत सराहा गया है. विवेक सौनकिया युवा लेखक हैं, सरकारी नौकरी करते हैं और फिलहाल कुमाऊँ के बागेश्वर नगर में तैनात हैं. विवेक इसके पहले अल्मोड़ा में थे. अल्मोड़ा शहर और उसकी अल्मोड़िया चाल का ऐसा महात्म्य बताया गया है कि वहां जाने वाले हर दिल-दिमाग वाले इंसान पर उसकी रगड़ के निशान पड़ना लाजिमी है. 

विवेक पर पड़े ये निशान रगड़ से कुछ ज़्यादा गिने जाने चाहिए क्योंकि अल्मोड़ा में कुछ ही माह रहकर वे तकरीबन अल्मोड़िया हो गए हैं. वे अपने अल्मोड़ा-मेमोयर्स लिख रहे हैं और हमारी खुशनसीबी है कि उस अप्रकाशित पुस्तक का एक शानदार अध्याय हमारे शंभू राणा पर लिखा गया है. 

शम्भू गुरु की ही तरह बेहतरीन गद्य है. मौज काटिए - 

शंभू राणा

मिरे पहलू में वो आया भी तो खुशबू की तरह
- विवेक सौनकिया

हम सफर थे अलीगढ़ी ताले               
रात भर में खुले नहीं साले

सरज़मीने-हिन्द के एक मक़बूल व्यंग्यकार जो कि जितने बडे़ व्यंग्यकार हैं उससे भी बडे़ शायर श्री प्रदीप चौबे का ऊपर लिखा शेर ओमप्रकाश ‘नदीम‘ से सुना तो लगा कि शेर पूरा का पूरा अल्मोड़े, अपने अल्मोड़े पर फिट बैठता है.

अल्मोड़ा शहर और यहां के बाशिंदे (दोनों माफ़ करें) ताले नहीं चाभी हैं. एक से एक महीन चाभी, आपको कब, कहां से कितना खोल दे पता न चले. उनमें से एक बारीक़ चाभी से हम खुल गये और खुलते चले गये. उन ज़नाब का नाम है शंभू राणा वल्द स्व. श्री मदन सिंह राणा, निवासी ग्राम रालाकोट, जिला अल्मोड़ा, हाल मुक़ाम अल्मोड़ा और हाल का पता कचहरी के पास किसी चाय की दुकान में नेपाल की सस्ती “सहारा“ सिगरेट फूंकते हुए पाया जाना.

‘शंभू राणा’ कुल दो अक्षर, दो मात्रा का नाम और दो अक्षर, दो बड़े ‘अ‘ के डंडों के साथ बिरादरी का नाम किसी बड़े लहीम-शहीम आकार के व्यक्ति की इमेज क्रियेट करता है. पर ये क्या - नाम बडे़ और दर्शन छोटे - वह भी थोड़े बलखाते हुए, इठलाते हुए.

शंभू राणा से पहली मुलाकात श्री अशोक पाण्डे के माध्यम से हुयी .उस मुलाकात से पहले बताया गया था कि “भाई विवेक बाबू शंभू राणा पहली बार में घास न डालंगे सो बहुत ज्यादा एक्साइटेड मती रहियो.”

पहली बार फोन पर बात हुयी.सामान्य परिचय लिया-दिया गया. फोन करने की ‘प्रयोजनमूलक व्याख्या‘ संक्षिप्त में की गयी, मिलने का समय व स्थान तय हुआ.

फोन पर आवाज सुन के दिमाग में एक रेखाचित्र खिंच गया. आवाज भी ऐसी कि प्रख्यात रंगकर्मी हवीब तनवीर से डिट्टो मिलती जुलती. लगा कि हां किसी लेखक से मिलने जा रहा हूं. किसी बडे़ लेखक से.

खंडहर हो चुके रीगल सिनेमा के सामने साह लोगों के मुहल्ले के पुस्ते (रिटेनिंग वॉल) में जगह निकाल कर बनाये गये चाय के खोखे के पास पहुंच कर फोन किया और बताया कि जनाब आपका फैन ठिकाने के पास है थोड़ा बाहर आइये तो पहचानूं.

 लगभग 15 सेकेन्ड के बाद एक खल्वाट, चमकती हुई खोपड़ी के साथ नीली चैकदार कमीज और कैंपस के नीले-पीले जूते, पैन्ट नामालूम में बेतरतीब तरतीबी से खोंसी हुई एक आकृति बाहर प्रकट होती है जिसके हाथ में सिगरेट, मुंह और नाक से बाहर आता धुंआं और दूसरे हाथ में मोबाइल था तो लगा कि भई बडे़ लेखक हैं चेले-चांटे को बाहर भेज दिया होगा. मेरे ज़हन में निर्मल वर्मा जैसे किसी एलीट लेखक के तीसरे कार्बन प्रिंट की इमेज लगभग बन रही थी कि धीर-गंभीर, नाक पर फ्रेमलेस चश्मा टिकाये कोई व्यक्ति होगा जो अंदर बैठा होगा और चेला बाहर मुझे बुलाने आया होगा.

पर ये क्या? हाथ मिलाने पर पता चला कि लगभग साढे चार फिट का अमचूरी बदन धारक ही शंभू राणा है. निर्मल वर्मा के सारे कार्बन प्रिंट बेसाख्ता कहीं गायब हो गये और बचे थे हम दो. मुंह से दबी सी आवाज में निकला कि “आप शंभू जी है?”

“हां जनाब कोई शक!”

एक धुआं-खाई, पूरी पकी आवाज़ ने बडे़ अदब और अदाबाजी के साथ पूछा तो जवाब में सिवाय फिक्क से झेंपते हुए हंस पड़ने के अलावा कुछ न निकला.

चाय के दो-दो गिलास खाली करने के बाद हम दोनों उस कथित कॉफ़ी हाउस की महिमा से तंग आकर लगभग दुलकी मारते हुए बाहर छपाक से सड़क पर गिर पडे़. संडे का दिन था सो सड़क आम-तौर पर वफा में शिकस्त खाये आशिक सी लग रही थी, कुल जमा मौसम रोमांटिक था पर सुनसान और अलसाया हुआ.काफी देर इधर-उधर की साहित्यिक-गैर साहित्यिक बातों के बाद के0एम0वी0एन0 स्थित मेरे दड़बेनुमा आवास पर ढलती दोपहर हम पहुंचे. विस्तार से गुफ्तगू हुयी.काफी देर हो जाने के बाद शंभू राणा ने अलविदा कहा और लचकते हुए चले गये.

बड़े-बड़े नामी-गिरामी लिक्खाड़ जो डनहिल और मार्लबरो से नीचे की सिगरेट नहीं पीते और पेरिस लिटेªचर फेस्टिवल से नीचे की बात नहीं करते, चार पांच चेलियां जिनके कलम दवात ढोती रहती हैं, उनकी धुंधली आकृतियों के खाली गिलास जहन में उभर रहे थे और शंभू राणा की लगभग केशविहीन-श्यामल रंग की मजबूत खोपड़ी से टकरा कर टूट रहे थे और मैं अभी भी अपने आप को समझाने में जूझ रहा था कि लेखक ऐसे भी हो सकते हैं. अब ये एब्सोल्यूट वोदका थी या शंभू राणा, कोई न कोई तो मुझे हिला रहा था.

कुछ दिनों बाद मुलाकातों का सिलसिला चल निकला. शंभू राणा अल्मोडे़ में थे लेकिन अल्मोड़ा शंभू राणा में न था.

ऐसा सोचना मेरा भ्रम था.

शंभू राणा परम अल्मोड़िया निकले. अल्मोड़ियों पर मेरे सारे विचारों को तहस-नहस करके पुनर्नवीनीकरण का काम शंभू ने किया.

शंभू की अपने पिता जी से अच्छी खासी मुहब्बत रही. मुहब्बत इतनी गाढ़ी कि पिता के ऊपर पूरी की पूरी किताब लिख डाली अगले ने – ‘माफ करना हे पिता’.

किताब का टाइटिल देख कर लगा कि यह लेखक द्वारा अपने पिता को दी गयी विन्रम श्रद्धाजंलि से भरे संस्मरण होंगें पर ये क्या यहां तो उलटे मरे हुए पिता को दौड़ा लिया शंभू जी ने, और ऐसा दौड़ाया कि बूबू शंभू के जिंदा रहने तक तो अल्मोड़े का रूख़ नहीं करेंगे.

शंभू दिन प्रतिदिन बढती मुलाकातों में निन्यानबे अनुपात एक की दर से खुलते गये - और उस एक प्रतिशत के बारे में लंबे समय तक मुझे कुल जमा पांच तथ्य पता थे.

एक - शंभू राणा तल्ला दन्या नामक मुहल्ले में रहते हैं.

दो-   रोज पीते हैं, ओवर रेट लेकर पव्वा खरीदते हैं.

तीन-  नेपाल की सस्ती सिगरेट सहारा पीते हैं.

चार-  एक खास चाय की दुकान में ही पाये जाते हैं.

पांच-  जब बुलाओ तो आ जाते हैं.

बकौल शंभू राणा “मैं पैदायशी अंग्रेज हूं.”

उनकी यह अंग्रेजियत बाद के दिनो में कभी-कभी उन्हें पटक-पटक कर मारने के ख्याल लाती थी पर उन्हें मैं चाह कर भी मार नहीं सकता क्यों कि उनका यानि कि शंभू का कहना था कि “कोई मुझे मारे तो लोग कहगें कि बताओ मज़लूम को मार रहा है तो बेइज्ज़ती और अगर मैंने यानि शंभू राणा ने मार दिया तो बेइज्ज़ती कि लोग कहेंगे कि बताओ शंभू जैसे आदमी से मार खा गया.” 

खैर दिन बीतते गये और हम शंभू राणा के साथ खुलते गये, खुलते गये और वो हमें कब, कैसे, कहां, कितने खोलते गये ये आज तक पता नहीं चला.

दिमाग से लगभग कम्युनिस्ट, दिल से अखरोट और शरीर से सूख चुके सख्त अमचूर शंभू क्या हैं इसका वर्णन नहीं किया जा सकता क्योंकि बक़ौल शंभू मैंने अभी हैण्डपंप के ऊपर का हिस्सा भर देखा है.

पर तबीयत से खांटी शराबी यह व्यक्ति जिदंगी से जोंक की तरह चिपका हुआ है या जिंदगी इससे जोंक की तरह अभी फैसला नहीं हुआ है.

जीवन बड़ा निर्मम और अश्लील है इतना अश्लील कि दो मिनट भी न देखा जाये शंभू इसी अश्लीलता को समझ रहे हैं, जी रहे हैं, देख रहे हैं, दिखा रहे हैं.

मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि अल्मोड़े के बारे में लिखे जाने वाले मेरे संस्मरणों में यह सबसे नीरस और उबाऊ टाइप का अध्याय होगाा क्योंकि किसे क्या गरज़ कि शंभू कौन है, क्या है, उससे भी ज्यादा क्यों है, इसके होने और न होने से क्या फर्क पड़ता है .

शंभू जिदंगी के अश्लील चेहरे पर वक़्त का, अल्मोड़े का, अल्मोड़त्व का क़रारा तमाचा है.

जो लोग यह समझते है कि जिदंगी पहाड़ की वादियों में बहुत खूबसूरत और खूबसीरत है तो वो इस भ्रम में न रहें जीवन के नंगेपन को, निरे नंगेपन को पूरी दुनियां में अपना झंडा फहराने के बाद अल्मोड़े में नीचे उतरना पड़ता है.

यही अल्मोड़ा उस विद्रूप को आइना दिखाता है और परमशैव भाव से उसे शंभू जैसे व्यक्ति तमाचा मार कर जीने योग्य बनाते हैं.

एक ऐसा व्यक्ति जिसकी आय का कोई जरिया न हो पूरी शिद्दत के साथ जीवन को जी रहा हो और वक्त की छाती पर पाँव रख कर, आँखों में आँखें डाल कर कह रहा हो कि “मेरी मां का नाम जानकर क्या उखाड़ लोगे!”

ऐसा सिर्फ और सिर्फ अल्मोडे़ में हो सकता है.

और कहीं नहीं!


लेखक विवेक सौनकिया



महेंद्र झा की दो मैथिली कविताएं

महेंद्र की दो मैथिली कविताएं
 वरिष्ठ कवि महेंद्र मूल रूप से बिहार के सुपौल से हैं. वे कविके अलावा  कथाकार और आलोचक भी हैं. भू.ना. विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर केन्द्र, सहरसा में मैथिली के विभागाध्यक्ष भी रहे हैं. साहित्य अकादेमी से प्रकाशित मोनोग्राफ शैलेन्द्र मोहन झा के अलावा उनकी कई कविता संग्रह भी प्रकाशित हो चुकी है. 

1.   इसी पते पर
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मुख्य सड़क की दाहिनी तरफ 
झुका हुआ है बिजली का खम्भा 
मेरी गली का पता 
वहीं है टंगा 
गर्म और ठंढे तार के  
खतरे से बचने के लिए 
आँख से ऊपर देखकर चलना पड़ता है 

मुख्य सड़क की दाहिनी ओर
झुके बिजली के खम्भे से सटे 
पूरब की ओर
देसी दारू की है दुकान 
जहां हिलता-डुलता रहता है 
मेरी गली का पता 
दारुबाज 
गोल घेरे में करते रहते हैं गाली-गलौज 
और गली को भूलकर नगरपालिका की नाली में 
गिरे रहते हैं मस्त होकर 
सूअर और भैंस की तरह

मुख्य सड़क की दाहिनी ओर
झुके बिजली के खम्भे से सटे 
पश्चिम ओर
बजाज मोटर साइकिल का वर्कशॉप है 
वहीं है मेरी गली का पता 
जहां ठीक होता है 
युवावर्ग के बाइक-स्कूटर का क्लच और तार 
एक लीटर में अधिक माइलेज के जुगाड़ में 
साफ होता रहता है इंजन 
ठीक होता रहता है 
किक पॉइंटलाइट और ब्रेक 
जहां यूँ ही पड़ा होता है प्लास्टिक का कप भी 
यहाँ-वहां बेतरतीब खड़ी रहती हैं मोटर साइकिलें 
मेरी गली का पता 
खो चुका है मेरे नाम की रूपरेखा 
पूछना पड़ता है लोगों को बेकार लोगों से 
मोहल्ला और चिह्नित गांव 
खोज रहा हूँ अपनी स्थायी पते की चिट्ठी 
झूलते बिजली-तार के नीचे 
मोटर साइकिल की गूंजती आवाज में खोए
देसी दारू के गंध के बीच दिग्भ्रमित 
तुलसी के पौधे और सहजन की लत्ती 
खोज रहा हूँ जड़ कोनिहारने में है निस्तेज 
यह है अस्थायी पता 
लोगों के लिए हो चुका है बहाना 
डाकिये के लिए सुगम हो गया है 
चिट्ठी और दूसरे सामान को गुमाना 
अकेले नहींतूफानी रात के समुद्री जहाज जैसा 
खो गया है मेरा पता 
हो सकता है अब इसका कोई ठिकाना न हो. 
मैं कुंद हो गया हूँ 
नाम मेरा खो गया है 
जन-अरण्य सघन-घन नंदन में अकेले 
लाख प्रयास करूं 
दोनों हाथ लकड़ी से 
अब बाहर नहीं आती आवाज 
मेरे पैर श्लथ 
अपने पता की खोज में 
खोज रहा है अपना नामअपना लोक
अपनी गली में धूमिल चिन्ह
उपलाते हुए कीड़े जैसे भटकते  
भटक गया मेरा मन-प्राण 
किस पते पर?
हो सकता है इसी पते पर...
अनुवादक: विनीत उत्पल


2.   आस्था-अनास्थाक बीच कुंठा 
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सबसे तेज दौड़ता है मन
जिसे न हाथ है और न पैर 
और जिसके पास हाथ भी है और पैर भी 
उसका मन नहीं है वैसा 
जैसा रात को है हजारलाखकरोड़ आँखें
दिन को तो वह एक ही है और उसी पर 
सम्पूर्ण युग को जीतते हुए धरती के सभी प्राणी को 
अंतरिक्ष तक ज्ञान-प्रकाश देते हैं और 
अनावश्यक समय में सापेक्षित बुझ जाता है.

चिमनी का धुंआ ऊपर उठता है आग की लौ पर 
स्वप्नमणिक सम्पूर्ण आस्था रखते हैं
और उसके नीचे बहुतेरी प्रवृत्ति कटते हैं 
ठण्ड की रात गर्मी के दिन 
मांस के बदले में अन्न या कुछ रेजगारी
-स्वादिष्ट लगता है 
आगमित पीढी से विदा होकर 
दो में से (स्वर्ग या नरक के)
किसी एक दरवाजे में समाहित होते हुए 
हाथ हिला देता है.

और मैं या आप या कोई और 
परंपराओं में विश्वास करते हुए-
अपनत्व के गंध से बचाते हुए 
लहठी से हुए नोछार (घाव) के ऊपर सूखी खैठीं (त्वचा) को हटा देते हैं-
लेकिन सुबह में दूब की नोक पर पड़ी वेदना से भरे ओस कण
सूर्य की लालिमा से सूख जाते हैं और साँझ की प्रतीक्षा में सहेज लेती है 
सम्पूर्ण वयस की घटना कोघटना के साथ घटना पुरुष को-
पात्र कोकुपात्र को 
और गंगा के मर्यादित हिलकोर में अलक्षित शीतलता 
स्नेह की टुकड़ी से साथ 
अंत्येष्टि-स्थल की सारी राख को पखारते 
मन कोआंख कोआग की लौ को 
और नोछार की वेदना की अहर्निशता को 
अंत तक भुलाते हुए 
बंद हो जाता है...
अनुवादक: विनीत उत्पल