कबाड़खाने के पाठकों के लिए शंभू राणा का नाम अपरिचित नहीं. उनकी अनेक रचनाएं यहाँ प्रकाशित हो चुकी हैं और उन्हें बहुत सराहा गया है. विवेक सौनकिया युवा लेखक हैं, सरकारी नौकरी करते हैं और फिलहाल कुमाऊँ के बागेश्वर नगर में तैनात हैं. विवेक इसके पहले अल्मोड़ा में थे. अल्मोड़ा शहर और उसकी अल्मोड़िया चाल का ऐसा महात्म्य बताया गया है कि वहां जाने वाले हर दिल-दिमाग वाले इंसान पर उसकी रगड़ के निशान पड़ना लाजिमी है.
विवेक पर पड़े ये निशान रगड़ से कुछ ज़्यादा गिने जाने चाहिए क्योंकि अल्मोड़ा में कुछ ही माह रहकर वे तकरीबन अल्मोड़िया हो गए हैं. वे अपने अल्मोड़ा-मेमोयर्स लिख रहे हैं और हमारी खुशनसीबी है कि उस अप्रकाशित पुस्तक का एक शानदार अध्याय हमारे शंभू राणा पर लिखा गया है.
शम्भू गुरु की ही तरह बेहतरीन गद्य है. मौज काटिए -
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शंभू राणा |
मिरे पहलू में वो आया भी तो खुशबू की तरह
- विवेक सौनकिया
हम सफर थे अलीगढ़ी ताले
रात भर में खुले नहीं साले
सरज़मीने-हिन्द के एक मक़बूल
व्यंग्यकार जो कि जितने बडे़ व्यंग्यकार हैं उससे भी बडे़ शायर श्री प्रदीप चौबे
का ऊपर लिखा शेर ओमप्रकाश ‘नदीम‘ से सुना तो लगा कि शेर पूरा का पूरा अल्मोड़े, अपने अल्मोड़े पर फिट बैठता है.
अल्मोड़ा शहर और यहां के बाशिंदे
(दोनों माफ़ करें) ताले नहीं चाभी हैं. एक से एक महीन चाभी, आपको कब, कहां से कितना खोल दे पता न चले.
उनमें से एक बारीक़ चाभी से हम खुल गये और खुलते चले गये. उन ज़नाब का नाम है शंभू
राणा वल्द स्व. श्री मदन सिंह राणा, निवासी ग्राम रालाकोट, जिला अल्मोड़ा, हाल मुक़ाम अल्मोड़ा और हाल का पता
कचहरी के पास किसी चाय की दुकान में नेपाल की सस्ती “सहारा“ सिगरेट फूंकते हुए
पाया जाना.
‘शंभू राणा’ कुल दो अक्षर, दो मात्रा का नाम और दो अक्षर, दो बड़े ‘अ‘ के डंडों के साथ
बिरादरी का नाम किसी बड़े लहीम-शहीम आकार के व्यक्ति की इमेज क्रियेट करता है. पर
ये क्या - नाम बडे़ और दर्शन छोटे - वह भी थोड़े बलखाते हुए, इठलाते हुए.
शंभू राणा से पहली मुलाकात श्री
अशोक पाण्डे के माध्यम से हुयी .उस मुलाकात से पहले बताया गया था कि “भाई विवेक
बाबू शंभू राणा पहली बार में घास न डालंगे सो बहुत ज्यादा एक्साइटेड मती रहियो.”
पहली बार फोन पर बात
हुयी.सामान्य परिचय लिया-दिया गया. फोन करने की ‘प्रयोजनमूलक व्याख्या‘ संक्षिप्त
में की गयी, मिलने का समय व स्थान तय हुआ.
फोन पर आवाज सुन के दिमाग में एक
रेखाचित्र खिंच गया. आवाज भी ऐसी कि प्रख्यात रंगकर्मी हवीब तनवीर से डिट्टो मिलती
जुलती. लगा कि हां किसी लेखक से मिलने जा रहा हूं. किसी बडे़ लेखक से.
खंडहर हो चुके रीगल सिनेमा के
सामने साह लोगों के मुहल्ले के पुस्ते (रिटेनिंग वॉल) में जगह निकाल कर बनाये गये
चाय के खोखे के पास पहुंच कर फोन किया और बताया कि जनाब आपका फैन ठिकाने के पास है
थोड़ा बाहर आइये तो पहचानूं.
लगभग 15 सेकेन्ड के बाद एक खल्वाट, चमकती हुई खोपड़ी के साथ नीली
चैकदार कमीज और कैंपस के नीले-पीले जूते, पैन्ट नामालूम में बेतरतीब
तरतीबी से खोंसी हुई एक आकृति बाहर प्रकट होती है जिसके हाथ में सिगरेट, मुंह और नाक से बाहर आता धुंआं
और दूसरे हाथ में मोबाइल था तो लगा कि भई बडे़ लेखक हैं चेले-चांटे को बाहर भेज
दिया होगा. मेरे ज़हन में निर्मल वर्मा जैसे किसी एलीट लेखक के तीसरे कार्बन प्रिंट
की इमेज लगभग बन रही थी कि धीर-गंभीर, नाक पर फ्रेमलेस चश्मा टिकाये
कोई व्यक्ति होगा जो अंदर बैठा होगा और चेला बाहर मुझे बुलाने आया होगा.
पर ये क्या? हाथ मिलाने पर पता चला कि लगभग
साढे चार फिट का अमचूरी बदन धारक ही शंभू राणा है. निर्मल वर्मा के सारे कार्बन
प्रिंट बेसाख्ता कहीं गायब हो गये और बचे थे हम दो. मुंह से दबी सी आवाज में निकला
कि “आप शंभू जी है?”
“हां जनाब कोई शक!”
एक धुआं-खाई, पूरी पकी आवाज़ ने बडे़ अदब और
अदाबाजी के साथ पूछा तो जवाब में सिवाय फिक्क से झेंपते हुए हंस पड़ने के अलावा कुछ
न निकला.
चाय के दो-दो गिलास खाली करने के
बाद हम दोनों उस कथित कॉफ़ी हाउस की महिमा से तंग आकर लगभग दुलकी मारते हुए बाहर
छपाक से सड़क पर गिर पडे़. संडे का दिन था सो सड़क आम-तौर पर वफा में शिकस्त खाये
आशिक सी लग रही थी, कुल जमा मौसम रोमांटिक था पर सुनसान और
अलसाया हुआ.काफी देर इधर-उधर की साहित्यिक-गैर साहित्यिक बातों के बाद
के0एम0वी0एन0 स्थित मेरे दड़बेनुमा आवास पर ढलती दोपहर हम पहुंचे. विस्तार से
गुफ्तगू हुयी.काफी देर हो जाने के बाद शंभू राणा ने अलविदा कहा और लचकते हुए चले
गये.
बड़े-बड़े नामी-गिरामी लिक्खाड़ जो
डनहिल और मार्लबरो से नीचे की सिगरेट नहीं पीते और पेरिस लिटेªचर फेस्टिवल से नीचे की बात नहीं
करते,
चार पांच चेलियां जिनके कलम दवात
ढोती रहती हैं, उनकी धुंधली आकृतियों के खाली गिलास जहन में उभर रहे थे और शंभू
राणा की लगभग केशविहीन-श्यामल रंग की मजबूत खोपड़ी से टकरा कर टूट रहे थे और मैं
अभी भी अपने आप को समझाने में जूझ रहा था कि लेखक ऐसे भी हो सकते हैं. अब ये
एब्सोल्यूट वोदका थी या शंभू राणा, कोई न कोई तो मुझे हिला रहा था.
कुछ दिनों बाद मुलाकातों का
सिलसिला चल निकला. शंभू राणा अल्मोडे़ में थे लेकिन अल्मोड़ा शंभू राणा में न था.
ऐसा सोचना मेरा भ्रम था.
शंभू राणा परम अल्मोड़िया निकले.
अल्मोड़ियों पर मेरे सारे विचारों को तहस-नहस करके पुनर्नवीनीकरण का काम शंभू ने
किया.
शंभू की अपने पिता जी से अच्छी
खासी मुहब्बत रही. मुहब्बत इतनी गाढ़ी कि पिता के ऊपर पूरी की पूरी किताब लिख डाली
अगले ने – ‘माफ करना हे पिता’.
किताब का टाइटिल देख कर लगा कि
यह लेखक द्वारा अपने पिता को दी गयी विन्रम श्रद्धाजंलि से भरे संस्मरण होंगें पर
ये क्या यहां तो उलटे मरे हुए पिता को दौड़ा लिया शंभू जी ने, और ऐसा दौड़ाया कि बूबू शंभू के
जिंदा रहने तक तो अल्मोड़े का रूख़ नहीं करेंगे.
शंभू दिन प्रतिदिन बढती
मुलाकातों में निन्यानबे अनुपात एक की दर से खुलते गये - और उस एक प्रतिशत के बारे
में लंबे समय तक मुझे कुल जमा पांच तथ्य पता थे.
एक - शंभू राणा तल्ला दन्या नामक
मुहल्ले में रहते हैं.
दो- रोज पीते हैं, ओवर रेट लेकर पव्वा खरीदते हैं.
तीन- नेपाल की सस्ती सिगरेट सहारा पीते हैं.
चार- एक खास चाय की दुकान में ही पाये जाते हैं.
पांच- जब बुलाओ तो आ जाते हैं.
बकौल शंभू राणा “मैं पैदायशी
अंग्रेज हूं.”
उनकी यह अंग्रेजियत बाद के दिनो
में कभी-कभी उन्हें पटक-पटक कर मारने के ख्याल लाती थी पर उन्हें मैं चाह कर भी
मार नहीं सकता क्यों कि उनका यानि कि शंभू का कहना था कि “कोई मुझे मारे तो लोग
कहगें कि बताओ मज़लूम को मार रहा है तो बेइज्ज़ती और अगर मैंने यानि शंभू राणा ने
मार दिया तो बेइज्ज़ती कि लोग कहेंगे कि बताओ शंभू जैसे आदमी से मार खा गया.”
खैर दिन बीतते गये और हम शंभू
राणा के साथ खुलते गये, खुलते गये और वो हमें कब, कैसे, कहां, कितने खोलते गये ये आज तक पता
नहीं चला.
दिमाग से लगभग कम्युनिस्ट, दिल से अखरोट और शरीर से सूख
चुके सख्त अमचूर शंभू क्या हैं इसका वर्णन नहीं किया जा सकता क्योंकि बक़ौल शंभू
मैंने अभी हैण्डपंप के ऊपर का हिस्सा भर देखा है.
पर तबीयत से खांटी शराबी यह
व्यक्ति जिदंगी से जोंक की तरह चिपका हुआ है या जिंदगी इससे जोंक की तरह अभी फैसला
नहीं हुआ है.
जीवन बड़ा निर्मम और अश्लील है
इतना अश्लील कि दो मिनट भी न देखा जाये शंभू इसी अश्लीलता को समझ रहे हैं, जी रहे हैं, देख रहे हैं, दिखा रहे हैं.
मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि
अल्मोड़े के बारे में लिखे जाने वाले मेरे संस्मरणों में यह सबसे नीरस और उबाऊ टाइप
का अध्याय होगाा क्योंकि किसे क्या गरज़ कि शंभू कौन है, क्या है, उससे भी ज्यादा क्यों है, इसके होने और न होने से क्या
फर्क पड़ता है .
शंभू जिदंगी के अश्लील चेहरे पर
वक़्त का,
अल्मोड़े का, अल्मोड़त्व का क़रारा तमाचा है.
जो लोग यह समझते है कि जिदंगी
पहाड़ की वादियों में बहुत खूबसूरत और खूबसीरत है तो वो इस भ्रम में न रहें जीवन के
नंगेपन को, निरे नंगेपन को पूरी दुनियां में अपना झंडा फहराने के बाद अल्मोड़े में
नीचे उतरना पड़ता है.
यही अल्मोड़ा उस विद्रूप को आइना
दिखाता है और परमशैव भाव से उसे शंभू जैसे व्यक्ति तमाचा मार कर जीने योग्य बनाते
हैं.
एक ऐसा व्यक्ति जिसकी आय का कोई
जरिया न हो पूरी शिद्दत के साथ जीवन को जी रहा हो और वक्त की छाती पर पाँव रख कर, आँखों में आँखें डाल कर कह रहा
हो कि “मेरी मां का नाम जानकर क्या उखाड़ लोगे!”
ऐसा सिर्फ और सिर्फ अल्मोडे़ में
हो सकता है.
और कहीं नहीं!
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लेखक विवेक सौनकिया |