30 अक्टूबर 1946 को इलाहाबाद में जन्मे विनोद कुमार श्रीवास्तव को आप कबाड़खाने में पहले भी
पढ़ चुके हैं. 1972 में भारतीय राजस्व सेवा में भरती हुए विनोद जी ने कविता और कहानी और अन्य विधाओं में लगातार रचनाएं की हैं. वे
समय-समय पर साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं. फिलहाल अवकाशप्राप्ति
के बाद वे मुम्बई में रहते
हैं.
विनोद कुमार श्रीवास्तव |
स्मृतियां
- विनोद कुमार श्रीवास्तव
1.
स्मृतियां बरसती नहीं हैं
वे पृथ्वी में गड़ी होती हैं
अपने आकार में सुरक्षित
उनके नोंक चोखीले होते जाते हैं
समय के साथ साथ
हम उनपर वर्क लपेटे हैं
वे जीवाश्मों में परिवर्तित नहीं होतीं
बरसात में स्मृतियाँ स्वच्छ होती हैं
जाड़ों में गहन
वे गर्मियों में खूब फैल कर आती हैं
हमारी दृष्टि और सोच को
पूरी तरह सोखती हुई
स्मृतियां एक ठोस आकार हैं
हमारे तरल अस्तित्व के
पूरे विलोम में.
2.
स्मृतियां निजी होने पर भी
सिर्फ हमारे जीवन का अंग नहीं होतीं
अनगिनत लोगों के चीथड़ों से
बनी होती हैं स्मृतियाँ
उनमें हम टांके हैं अनगिनत सलमें
तमाम लोगों के लिबासों से निकाले हुए
स्मृतियां सचमुच संजोई जाती हैं
सिर्फ यादों के संदर्भ में नहीं.
स्मृतियां निजी होने पर भी
सिर्फ हमारे जीवन का अंग नहीं होतीं
अनगिनत लोगों के चीथड़ों से
बनी होती हैं स्मृतियाँ
उनमें हम टांके हैं अनगिनत सलमें
तमाम लोगों के लिबासों से निकाले हुए
स्मृतियां सचमुच संजोई जाती हैं
सिर्फ यादों के संदर्भ में नहीं.
3.
स्मृतियां छनती रहती हैं
दिन रात के पोरों से
चलती रहती हैं पुश्त दर पुश्त
पुरखों की याद के साथ
हम खुलते रहते हैं
पर्त दर पर्त
और फिर देखते हैं धीरे-धीरे
अपना ही ढलना
स्मृतियों के आकार में.
4.
हम बढ़ते रहते हैं कदम दर कदम
धूप और छांव में
रखते हुए अपनी स्मृतियों के पांव
देखते रहते हैं अपनें ही अंगों को
एक एक कर स्मृतियाँ बनते हुए
इंतज़ार करते हैं
नई स्मृतियों का
देखते हैं बच्चों को
स्मृतियों के खेत में
बीज की तरह अंखुआते हुए
और फिर स्मृतियों को ही
अपनें आंगन में
घुटनों के बल चलते हुए.
धूप और छांव में
रखते हुए अपनी स्मृतियों के पांव
देखते रहते हैं अपनें ही अंगों को
एक एक कर स्मृतियाँ बनते हुए
इंतज़ार करते हैं
नई स्मृतियों का
देखते हैं बच्चों को
स्मृतियों के खेत में
बीज की तरह अंखुआते हुए
और फिर स्मृतियों को ही
अपनें आंगन में
घुटनों के बल चलते हुए.
1 comment:
वाह
Post a Comment