Friday, August 3, 2018

दिल जलता है तो जलने दे

फ़िल्मी गानों की समीक्षा –  2
दिल जलता है तो जलने दे

प्रस्तावना: दिल अर्थात हृदय के अस्तित्व को लेकर विशेषज्ञ अभी एकमत नहीं हो सके हैं. कोई कहता है कि यह मनुष्य की आत्मा का दूसरा नाम है तो कोई इसे मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा वहम बतलाता है. एक अपेक्षाकृत नवीन चलचित्र का नायक इसे कैमिकल लोचे के स्रोत का नाम देता है. इसके बावजूद सर्वमान्य सर्वज्ञात तथ्य है कि इसके बगैर हमारी फ़िल्में लूली हो जातीं. फिल्मों ने लम्बे समय से सामाजिक जागरण तथा मानवता का सन्देश देने का ठेका उठा रखा है. तो ऐसा माध्यम विकलांग कैसे हो सकता है? इसका एक आर्थिक पहलू यह भी है कि फ़िल्में लूली नहीं हो सकतीं क्योंकि उनके निर्माण में बड़ा रुपया लगता है.
काव्य समीक्षा: राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत यह कविता देश के नागरिकों से अपील करती है कि उसे अपने कैमिकल लोचे से तनिक भी न घबराते हुए, बिना शिकायत किये सभी परेशानियों को झेलते चले जाना चाहिए. शास्त्रों में जीवन को दुखों का सागर बताया गया है. यहाँ पर्दानशीं अर्थात घूंघट के पीछे बैठी प्रेमिका से कवि का आशय उस आर्थिक सामाजिक उन्नति से है जिसकी प्रत्याशा में इस गीत को विभिन्न संस्करणों-रूपों में चालीस के दशक से गाया जा रहा है. मनुष्य को अपनी ग़ुरबत का सम्मान करना चाहिए क्योंकि वह विकास रूपी ऐसी नायिका का प्रेमी है जो अपना मुँह इस जन्म में तो दिखाने से रही.
"दिल जलता है तो जलने दे
आँसू ना बहा फ़रियाद ना कर
तू परदानशीं का आशिक़ है
यूँ नाम-ए-वफ़ा बरबाद ना कर"
कविता का दूसरा पैरा अत्यधिक प्रेरक है जिसमें अपने आप को पहले से और अधिक घायल बनाने की ललकार है – “मासूम नजर के तीर चला, बिस्मिल को बिस्मिल और बना.” देशभक्त को कोई लाज शर्म नहीं होनी चाहिए, ऐसा कवि का मंतव्य है.
कवि कहता है कि हे पाठको! मैं खुद जीवन भर अपने विकास की उम्मीद लगाए रहा लेकिन तमाम वायदों के बावजूद वह नहीं हो सका. अंतिम कराह के रूप में वह विकास से मुखातिब होता है – “या सूरत आ के दिखा जाओ!” लेकिन अपनी वास्तविकता और राष्ट्रीय कर्तव्य का भान होते ही वह स्वयं को चेतावनी देता है – “या कह दो हमको याद ना कर”
पचास के दशक के आलोचकों के हिसाब से कवि ने मूल कविता का शीर्षक यूं रखा था – “आंसू ही बहा फ़रियाद ही कर.” इस बाबत कोई आधिकारिक मतैक्य न होने के कारण इस विषय को छोड़ दिया जाना ही श्रेयस्कर है. इक्कीसवीं शताब्दी के परिप्रेक्ष्य में यह कविता इतनी कालजयी साबित हुई है कि हैरानी होती है इसे अब तक राष्ट्रीय गीत या धरोहर घोषित क्यों नहीं किया गया. इसके बड़े उद्देश्य की प्राप्ति लिए एक बड़े सामाजिक आन्दोलन की आवश्यकता है. कविता के अंत में नायक बारम्बार चीखता हुआ अपने कैमिकल लोचे की घोषणा करता है और गर्व से कहता है कि वह राष्ट्रभक्त है. कि उसकी गरीबी ही उसका धर्म है. कि उसका विकास से वंचित रह जाना ही उसकी जीस्त का मानी है. उसकी घोषणा में जनता के लिए एक आवश्यक आह्वान है.
वीडियो रिव्यू: इस कविता के फिल्मांकन हेतु काले और सलेटी रंगों वाले सैट का इस्तेमाल किया जाना चाहिए. बेहतर है इसे ब्लैक एंड व्हाईट में शूट किया जाए. ऐसा ही किया भी गया है. नायक का मनहूस और उदास होना अनिवार्य है. नायिका विकास के स्वप्न सरीखी सुन्दर लेकिन मनहूस दिखनी चाहिए. यह निर्देशक की प्रतिभा और कला की समझ पर निर्भर करता है कि वह ऐसी खूबसूरत हीरोइन को भी मनहूस कैसे दिखा सकेगा. कविता की अंतिम पंक्तियों के फिल्मांकन के लिए नायक के सामने एक छोटा और पिद्दी काष्ठस्तम्भ होना चाहिए जिसे उखाड़ने का प्रयास करते हुए वह अंतिम चीत्कार कर सके. इससे दर्शकों में कविता के समाप्त हो जाने के उपरान्त भी जिज्ञासा बनी रहती है कि नायक कुछ उखाड़ पाया कि नहीं.

मोतीलाल और मुनव्वर सुल्ताना बड़े कलाकार थे. बिचारे निभा ले गए. भारत कुमार के नाम से जाने वाले मनोज कुमार और सुरती से काले पड़े दांतों वाले आज के एक देशप्रेमी नायक इस कविता के नवीन फ़िल्मी संस्करण में कैसे और कैसी जान फूंकते यह अटकलों का विषय है.

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