कवि अवधबिहारी श्रीवास्तव की इस कविता पर मन मुग्ध हो गया। इसमें व्याप्त करूणा , बेबसी बेचैन करने वाली है। बिना किसी आडंबर के सरल-सहज बानी में एक अनाम गिरस्तिन की व्यथा को किस संवेदना से कवि ने उभारा है । पानी , बादल ,हवा के संदर्भों पर सफर की आगामी कड़ियों के लिए इसे सहेजे हुए था, मगर आज फिर निगाह पड़ी तो रहा नहीं गया।
बादल मत आना इस देश....
साडी एक मांग कर लाई
तब अपनी धोकर फैलाई
उसको भी वह लेने आयी
तुम आए तो सूख न पाए, मर्यादा को ठेस
बादल मत आना इस दश
छोटू को बुखार है कल से
उसे शीत लग जाती जल से
अबला क्या कर सकती बल से
पानी जहां न टपके घर में , ऐसी जगह न शेष
पिया हमारे घाटी घाटी
खोज रहे सोने की माटी
मेरी पीड़ा कभी न बांटी
कुछ लाएं तो घर बनवाएं , अभी न देना क्लेश
बादल मत आना इस देश
अब तुझको क्या क्या बतलाना
जाड़ा है, हरगिज मत आना
यदि आए निश्चित मर जाना
घर में नहीं रजाई कोई, और न कोई खेस
बादल मत आना इस देश
वैसे भी तुम इधर न आना
यक्षप्रिया के घर रह जाना
लाठी का है यहां ज़माना
और भरोसा नही किसी का , बिगड़ा है परिवेश
बादल मत आना इस देश
अवध बिहारी श्रीवास्तव
2 comments:
साडी एक मांग कर लाई
तब अपनी धोकर फैलाई
उसको भी वह लेने आयी
तुम आए तो सूख न पाए, मर्यादा को ठेस
बादल मत आना इस दश
achichi lagii...bahut aabhaar
ह्रदय को हिला देने वाली कविता । इसको हमारे साथ बाँटने के लिये धन्यवाद ।
Post a Comment