Monday, December 24, 2007

हैप्पी बर्थडे रफ़ी साहब




बहुत बचपन की देखी एक फ़िल्म याद आती है 'दोस्ती'. मेरी उम्र तब शायद सात आठ साल की थी, कस्बा था रामनगर. फ़िल्म देख चुकने के बाद मैं कई कई दिनों तक उसी के गीतों की लाइनें यहां वहां जोड़ कर गुनगुनाता रहता था. एक दूसरे को इतनी शिद्दत से चाहने वाले दो दोस्त - एक नेत्रहीन और एक विकलांग - और एक नन्हीं सी गुड़िया जैसी बच्ची, और एक बैसाखी और एक माउथआर्गन - यही छवियां तब भी दिमाग में तैरा करती थीं, 'दोस्ती' के किसी भी गाने को सुनकर आज भी यही छवियां आती हैं - और इन सब को सहलाती हुई सी रफ़ी साहब की धूप-छांव-धूप-छांव आवाज़: "दुख हो या सुख, जब सदा संग रहे ना कोय, फ़िर दुख को अपनाइए, कि जाए तो दुख न होय."
जब सन १९८० में रफ़ी साहब की अचानक मौत हुई, मेरे बड़े भाई ने खाने को हाथ नहीं लगाया - पूरे दो दिन तक. न मेरे भाई ने, न उस के एक दोस्त ने. दूसरे दिन पिताजी को भाईसाहब के उपवास की सूचना मिली. उन्होंने उसे झिड़कते हुए इस आकस्मिक भूख हड़ताल का सबब पूछा तो मेरा शेरदिल, बाडीबिल्डर भाई आंखों में इतने बड़े बड़े आंसू लाकर बोला: "मोहम्मद रफ़ी साब की डैथ हो गई! अब गाने कौन गाएगा!! ..." और उस के बाद उसने ज़ोरों से रोना शुरू किया. भाई का वह अविस्मरणीय रुदन शायद मेरे लड़कपन की एक निर्णायक घटना था.
मेरे बचपन और लड़कपन और जवानी और पहली मोहब्बत और पहले विरह और पहले प्रवास और जाने कितने कितने मरहलों पर मुझे अहसास हुआ है कि मोहम्मद रफ़ी साहब को याददाश्त से हटा दूं तो मेरे जीवन का बड़ा हिस्सा भूसे का ढेर बन जाएगा.

आज मोहम्मद रफ़ी साहब की ८३वीं सालगिरह है.

उनके चाहने वालों और खुद स्वर्गीय रफ़ी साहब के लिए उन्हीं का गाया : 'बूंदें नहीं सितारे, टपके हैं कहकशां से. सदक़े उतर रहे हैं तुम पर ये आस्मां से"



*रफ़ी साहब को इन जगहों पर भी सुनें:

http://kabaadkhaana.blogspot.com/2007/12/blog-post_13.html
http://kabaadkhaana.blogspot.com/2007/12/blog-post_1848.html
http://sukhansaaz.blogspot.com/2007/12/blog-post_4012.html
http://sukhansaaz.blogspot.com/2007/12/blog-post_09.html

12 comments:

Anonymous said...

Bhrasht bhasha ke istemaal ka zimmedaar mein kyon Delhi ke chirkuton ko manuu, jab Ashok Pande hi happy birth day jaisi 'haraami' bhasha likh rahe hein?

Mein koi Hindi dhwja dhaari nahi hoon, lekin aisi bhasha to mat likho yaar.

Ashok Pande said...

बेनाम साहब. मुझ बन्दे की क्या औकात जो भाषा पर कुछ कहूं. आप तो कोई पहुंची हुई हस्ती लगते हैं. कहना तो बहुत कुछ चाह रहा था मगर यह इस माध्यम की सीमा है सो कोई कमेन्ट नहीं करूंगा. सिवाय मीर बाबा के एक शेर के:

"इतनी भी बदमिजाज़ी हर लहज़ा मीर तुम को
उलझाओ है ज़मीं से झगड़ा है आस्मां से"

(आपको बुरा लगा होगा तो रफ़ी साहब को जन्मदिन की शुभकामनाएं कह देता हूं. ... सालगिरह मुबारक पर कोई ऐतराज़ तो नहीं है न आपको?)

sanjay patel said...

भैया रफ़ी साहब के जन्म दिन को खू़ब याद रखा आपने.ज़्यादातर मुरीदों द्वारा रफ़ी साहब बरसी पर याद किये जाते हैं मुझे भी तक़रीबन सत्ताइस बरस हो गये...बिला नागा ३१ जुलाई को व्रत रखता हूँ.उसे चाहें तो रोज़ा कह लें क्योंकि रफ़ी साहब जिस बरस गये तब रमज़ान का पाक़ महीना चल रहा था.मुबारक़ कहें या शुभकामना पाँडे जी रफ़ी साहब की रूह तो पहुँच ही रहे हैं हमारे ये जज़बात.
खु़दा हाफ़िज़.

दिलीप मंडल said...

बेनामी साहेब,
"हरामी" स्क्रिप्ट लिखते हुए तो आपको शर्म आई ही होगी। रफी साहेब के जन्मदिन के मौके पर भी फुनगी नोचने से बाज नहीं आए आप। लेकिन हर बेनामी अपने आप से इतना शर्मिंदा क्यों होता है कि चेहरा छिपाए घूमता है। मैं तो इन दिनों भाषा के आधार पर बेनामियों को डिकोड करने का मजेदार खेल खेल रहा हूं। बहुत मजेदार नतीजे हैं कभी लिखूंगा तो बहुत लोगों को मुंह छिपाने की जगह नहीं मिलेगी।

अशोक जी, बेनामियों को उनके बुरे हाल पर छोड़ दें। हमें तो आपके ब्लॉग की आदत-सी होती जा रही है। चुनकर मोती निकाल रहे हैं आप। धन्यवाद

Vineeta Yashswi said...

Benaam Sahab ! Happy Birthday shabda kam se kam HARAMI shabda se to bahut zyzda achha hai. Aap ko dusron ko kuch kahne se pahle apni bhasha ko bhi dekh lena chahiye.

मुनीश ( munish ) said...

anaam bhai-
BHALEY HI KAM PIYA KARO,

LEKIN HAMESHA RUM PIYA KARO.

chunki isse neend bi achchi ave hai or gande-gande khayal bhi pareeshan na karen hain. Iske alaava Gasgo ya Hajmola churan ka nitt nem se sevan bhi apke bigde haazme ko araam dega. agli baar aao to muh dhoke aana taki tumhe apna naam na chupana pade.

Sunder Chand Thakur said...

anam sahab, agar apne shabdgyan par itna yakeen hai aur shudh bhasha ke prati aisa samarpan to meharbani karke apna parichay do...Hindi mein aap jaise chirag ki sadiyon se khoj thi...jara hum hindiwalon ka bhala karo prabhu...prakat ho...kripaya yah bhi batao ki radio aur tv ko hindi main kya kahenge...maine apni ek kavita mein Raghuvir Sahay ke liya "thank you Sir" likha hai...tum to iske liye shayad mujhe bhi na bakshoge...

Vineeta Yashswi said...

Anonymous ji mujhe abhi abhi yaha khyaal aaya ki apko english bhasha se to dushmani hai par apna naam chupaane ke liye apne english bhasha ka hi prayog kiya hai. ??????????????

Priyankar said...

इसे मिलावटी भाषा का समर्थन और अशोक पांडेय के प्रति अतिरिक्त उदारता न माना जाए,पर मुझे इस पोस्ट में रफ़ी साहब के प्रति स्नेह और सम्मान इतना छलकता दिख रहा था कि इसके शीर्षक की संकरता की ओर मेरा ध्यान गया ही नहीं . वैसे भी अशोक पांडेय बोलचाल की अनौपचारिक हिंदी लिखते रहे हैं. वही उनकी शैली है. इसलिए भी मुझे इसमें कोई विचलन दिखाई नहीं दिया .

इधर जब फोन पर हैपी दीवाली-हैपी होली-हैपी जन्माष्टमी-हैपी रामनवमी की फूहड़ता जोर-शोर से चल ही रही है तो कम से कम 'हैपी बर्थ डे' को मुआफ़ीनामा दे दिया जाय .

Prem said...

Once a famous Hindi writer (Respected Sri Bhisma Sahini)spoke in DD (probably during 1990s) that "If some one wants to speak in English, s(he) should speak only in English. (And vice versa).". I remember this DD broadcast crystal- clear. I keep a great appreciation for this. I try to stick to this philosophy. However, the problem is, if I speak in Hindi in a city in south India, then no one understands (read appreciates). What is important is I must be able to communicate that (for example) some one is 'picking the pocket' or some very important sentence that helps someone else,or me. It happens so that in south, people are aware of English words but do not understand the 'National' ones. I respect their local culture and language (like I do mine). Under above mentioned circumstances, in case, we use mixed English/ Sanskrit words with the local language, it makes sense! and helps a lot!
In the present conflict, however, there is nothing important, as it is only an easy way to communicate 'more' to the audience (readers, surfers). We need more communications, we need to be more integrated rather than be alienated. I would actually suggest people to be a bit 'global' rather than 'local'. Be prepared if your son/daughter may be in Paris pretty soon.
Best wishes

मुनीश ( munish ) said...

lets not make a mountain out of a molehill yar. fukk it off. enuf is enuf!!

Sudarshan Angirash said...

ग़ुमनाम मित्र महोदय, भाषा अपने आप मैं इतनी महान होती हैं की हम चाह कर भी उसका अपमान नहीं कर सकते.