Tuesday, January 29, 2008

भाषा की बहस और बहस की भाषा

ब्लॉग और भाषा का जनपक्ष पोस्ट पर कई टिप्पणियां आई हैं। इन टिप्पणियों को एक साथ रखने का मकसद ये है कि बहस आगे बढ़े। इस बहस में हम सबके लिए कुछ न कुछ है। वैसे भाषा तो बहुत मनमाने तरीके से बहती है। कभी कोई कोई किनारा तोड़ देती है, तो कभी रास्ता बदल लेती है तो कभी अंत:सलिला बन जाती है। कभी संस्कृत बनकर पोथियों में दम तोड़ देती है तो कभी लैटिन बनकर शास्त्रीय तो हो जाती है फिर लोक से नाता जोड़ते ही पहले तो वल्गर लैटिन बन जाती है आगे चलकर कई यूरोपीय लैंग्वेज फॉर्म में तब्दील हो जाती है। खैर, शामिल हो जाइये इस बहस में। इस बहस में मेरा पक्ष इतना सा है कि शास्त्रीय भाषा, शुद्ध भाषा के साथ लोक और "अशुद्ध" को भी जीने का अधिकार मिले। और ब्लॉग पर तो इस अधिकार को मांगने की जरूरत भी नहीं है।

-दिलीप मंडल


संजय बेंगाणी said...

हिन्दी का नेट संस्करण रचा जा रहा है और हम इसके साक्षी है.

भाषा या भासा तो बहता पानी है, बहेगा...ही.

इरफ़ान said...

आपकी बात को उचित संदर्भ में समझने की कोशिश कर रहा हूँ उसी तरह जैसे आपने मेरी बात समझी होगी. भाषा के लोकपक्ष के समर्थन में आपकी बातों से उन्हें भी शक्ति मिलेगी जो अपनी मूर्खताओं को दार्शनिक जामा पहनाना चाहते हैं, इस ख़तरे से में अवगत हूँ. अगर हमारे लालन-पालन में और शिक्षण में कोई कमी है तो हम अपने बच्चों को उसका शिकार नहीं बनने देना चाहते और बच्चे ही क्यों, मौक़ा लगते ही अपनी कोशिशों से उस किये को अनकिया करना चाहते हैं.सीखना तो एक प्रक्रिया है जिसे उदाहरण के लिये अंग्रेज़ी का बरताव करते हुए जी जान से अपनाते हैं. मैं लोकभाषा के बारे में कुछ कहने के लिये ख़ुद को बहुत छोटा समझता हूँ और हर तरह की लोक अभिव्यक्तियों का सम्मान करता हूँ.
मुझे बताइये कि ख़लीफ़ाओं से जुडे ख़िलाफ़त शब्द को जब आप विरोध के अर्थ में प्रयोग करते हैं तो अर्थ बदलता है या नहीं? जब आप ख़ुलासा को खोलकर बताने के लिये काम में लाते हैं तो इसका अर्थ यह नहीं होता कि खोल को आप ख़ोल से गड्डमड्ड कर रहे हैं.

एक मोटा अंतर यह है कि कल तक लोग "प्रसारकों से" सीखा करते थे कि कैसे बोला जाय और प्रसारक इस ज़िम्मेदारी को समझते हुए अपनी तैयारी करते थे,आज प्रसारक "लोगों से" से सीखते हैं कि वे कैसे बोलते हैं क्योंकि अपनी तैयारी के लिये न तो उनमें इच्छाशक्ति है और न ही उसका माहौल. क्या आप भी कुएँ में गिरे आदमी को कुएँ में गिरकर निकालने के समर्थक हैं?
आइये इस ज़िम्मेदारी को समझें कि लोग हमसे सीखते हैं और इसके लिये हमें थोडा परिश्रम करना होगा. मैं ख़ुद जिस क़स्बे में पैदा हुआ वहाँ से किश्त, ग़ुफ़ा, सफ़ल और ग़ज़ जैसी बुराइयाँ लाया था लेकिन समझने के क्रम में मैंने इन्हें ठीक किया.

Kakesh said...

इरफ़ान भाई , मैं सीखने के लिये तैयार हूँ.शागिर्द बनायेंगे क्या?

आपका सही नाम लिखना तो सीख ही लिया. ;-)

Uday Prakash said...

दिलीप जी, आपकी बात से मै सहमत हू। हिन्दी एक बनती हुई भाषा है। इसका अभी स्थिरीकरण नही हुआ है। विकासशील जीवित भाषाओ का स्थिरीकरण होता भी नही है। मै खुद छ्त्तीसगढ के सीमान्त के एक गाव से हू। ६ से ८ दर्ज़े तक 'गलत हिन्दी' लिखने के लिए हमारे नम्बर काटे जाते रहे। हमे दण्ड मिलता रहा। बाद मे हमने जाना कि अरे ये तो खडी हिन्दी के भीतर भी 'कोलोनीज़' है। साहित्य मे आकर तो यह पारदर्शी आईने जैसा साफ़ हुआ। 'शुद्ध हिन्दी' लिखना और 'एक स्थिरीक्रित' 'मानकीक्रित' या फिर काशी-प्रयाग-उत्तरकाशी के 'महामण्डलेश्वरो'द्वारा निर्धारित 'हिन्दी' लिखना, और इसके बरक्स अपनी 'मात्रिभाषा हिन्दी' लिखना...अलग-अलग मुद्दे है। इतनी सहजता से इस बहुत गम्भीर मुद्दे को उठाने के लिए बधाई।

अभय तिवारी said...

आप की सब बातें जायज़ है पर साथ-साथ इरफ़ान की चिंताएं भी.. उन्होने परिश्रम करके अपने को ठीक किया है.. मैं खुद भी लगातार अपने हिज्जों और नुक़्तों को लेकर सचेत बने रहने की कोशिश करता हूँ और मानता हूँ कि जो भी ज़िम्मेदारी के स्थानों पर हैं वे भी इसे समझें.. नहीं तो एक मधुर भाषा की मधुर ध्वनियों को खोकर नुक़सान हमारा ही होगा..

swapandarshi said...

दीलीप जी तर्क और कुतर्क लगभग हर चीज़ के दिए जा सकते है। अपने जीवन मे बहुत कुछ हम स्व -अभ्यास से सीखते है, अपने आस-पास लोगो को सुनकर सीखते है, रेडियो- टीवी से भी सीखते है, और दूनिया भर की किताबो से भी। फिर इस सीख-सीख कर कभी इस लायक भी हो जाते है कि ज्ञान के सागर मे एक बूँद खुद भी मिला दे। स्कूल से, या कोलेज से सिर्फ बुनियादी शिक्षा मिलती है, या कहे तो एक मतलब मे साक्षर हो जाते है, शिक्षा जीवन के विभिन्न आयामों से जीवनभर हमारे चाहे-अनचाहे चलती रहती है। भाषा की शिक्षा भी इसके इतर नही है, इसे भी लागातार साधना पड़ता है, शब्दावली मे लगातार नए शब्द भरने पड़ते है. प्रवाह का ख्याल, नया ट्रेंड के शब्द, नए उच्चारण, ये सब भी स्कूल के बहुत आगे जाते है। फिर नुक्तों का इस्तेमाल को भी इसी सीखने की प्रक्रिया का हिस्सा क्यो ना माना जाय। उर्दू के शब्द, संस्कृत के शब्द, देशज भाषाओं के शब्द, अंग्रेजी के शब्द, सभी से मिल कर हिन्दी बनी है। पर बहुत से देशज शब्द संस्कृत और उर्दू और अंग्रेज़ी भाषा के शब्दों की टांग तोड़कर बने है।
खासतौर पर अगर सरल, सुगम, और सही शब्द है तो कम से कम लिखने वालों को उन्ही को इस्तेमाल करना चाहिऐ। कम से कम उन लोगो को जो लिखने-पढने के काम से रोटी खाते है। उद्दहरण के लिए, लगभग सारी हिन्दी पत्ती के देहाती, समय के लिए "टेम" बोलते है, हमारे पास सही शब्द वक़्त और समय दोनो है ।
इसी तरह सिगरेट अंग्रेजी से है, पर उसकी खोज भी अंग्रेजो ने ही की, उसके लिए 'धूम्रदंडिका' कहना फ़जूल है।
इसी तरह का शब्द है, 'चिरकुट' जो अवधी का है पर बड़ा उपयोगी।
हर चीज़ को अच्छा बनाने के लिए मेहनत करनी पड़ती है, फिर पत्रकारों, लेखकों से ये उम्मीद क्यो न की जाय?

Jan Sevak said...

पोस्ट में मेरी टिप्पणी का ज़िक्र है इसलिए लिख रह हूँ.

Apparently हिन्दी में एक saying है.. सब धान बाईस पसेरी.. आप ने वाही कर दिया.... दिलीप कुमार को happy birth day कहने पर objection raise करने वाला में ही था. लेकिन आपने मुझे उन लोगों के rank में put कर दिया जो language fanatic हैं. what I mean is that यार तुसी समझते हो न की this hindi fundamentalism is you know चलने वाला नही है. you are right... language को river के माफिक flow करने देना चाहिए... but you know... पुराने type की thinking hold करने वाले एकदम stupid बात करते हैं. After all हिन्दी को इस globalised world में survive करना है या नही?

Dilip, you are a genius. नही सच्ची मुची... jokes apart. Oh, by the way, who cares about लिंग भेद यार. as long as आप अपनी बात explain कर सकते हैं... किसे फुरसत है without any reason हिन्दी के grammer का रोना रोये... I mean, you know... why bother !!

And believe me you, में ख़ुद यही मानता हूँ, अगर हमारे आपके जैसे लोग language को open up .... your know.. open up नही करेंगे, ताब तक these hindi walas will not learn.

Keep it up, buddy.

mamta said...

भाषा की शुद्धता और अशुद्धता से कहीं ज्यादा जरुरी है भाषा मे मिठास होना।

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

हिन्दी भाषा का कुल इतिहास ही सौ साल का है. इसके पहले का जो हिन्दी साहित्य उपलब्ध है वह हिन्दी का नहीं, हिन्दी की डकैती का है. कबीर-रैदास-गोरख भोजपुरी के हैं, तुलसी-जायसी अवधी के, सूर-मीरा-रसखान आदि ब्रज के और विद्यापति मैथिल के. जब हिन्दी हिन्दी नहीं थी. टैब इन्ही लिंग दोषियों को मिल कर हिन्दी के साहित्य को रीढ़ दी गई और इनमें से कोई नुक्ता-उक्ता भी नहीं जनता था. आज अगर इन्हें हिन्दी से निकाल दें तो हिन्दी की फिर वही दशा होगी. असल में हिन्दी आज तक राजभाषा ही रह गई, राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई. इसकी वजह कुछ और नहीं, ऐसे ही सरकारी चमचों का हिन्दी का नीतिनिर्धारक होना है.
एक बात और. जो लोग कहते हैं कि बिहार या यूपी या कहीं और वालों का लिंग कमजोर होता है तो उससे तुरंत यह सवाल करें की उसने इस्तेमाल करके देखा क्या? आखिर ऐसे कोई कुछ कैसे कह सकता है!

3 comments:

अनुनाद सिंह said...

इष्टदेव जी,
आपकी बाकी बातें ठीक हैं किन्तु यह कहना कि "हिन्दी का इतिहास केवल सौ वर्ष पुराना है" बहुत अज्ञानपूर्ण है। जब आप यह लिख रहें हैं तो आपके अचेतन मस्तिष्क में कहीं ये गलतफहमी है कि भोजपुरी, मैथिली आदि हिन्दी नहीं है। जरा दुनिया की कोई भाषा बताइये जिसकी उपबोलियाँ न हों। छोटा सा ब्रिटेन है, उसमें ही अंग्रेजी की दसों बोलियाँ हैं।

दूसरी बात, जरा सोलहवीं शताब्दी की अंग्रेजी पढ़िये; क्या आपको समझ आ जायेगी? नहीं। हर भाषा समय के साथ बदलती है। हिन्दी भाषा इस दृष्टि से एक हजार वर्ष पुरानी है।

रही बात भाषा में मिलावट की। एक छोटी सीमा तक ये ठीक है किन्तु जब मूल भाषा ही अल्पमत में आने लगे तो बहित बुरी बात है। इस प्रवृत्ति का विरोध होना ही चाहिये।

वज्ञानिक दृष्टि से शोर और संगीत में कोई अन्तर नहीं है क्योंकि दोनो ही वायु के कणों के दोलन के परिणाम हैं। किन्तु कितने लोग मानेगे कि शोर और संगीत में कोई अन्तर नहीं है?

Ashok Pande said...

इष्टदेव जी,

हिन्दी साहित्य के इतिहास पर अनुनाद सिंह जी की टिप्पणी से मैं सहमत हूं.

भोजपुर-अवध-ब्रज और मिथिला के अलावा भी कई जगहों पर हिन्दी अपने अपने स्तरों पर विकसित होती रही है और हो रही है - (मिसाल के तौर पर उत्तराखंड के कुमाऊं में बोली जाने वाली खास लहज़े वाली हिन्दी की एक झलक मनोहरश्याम जोशी जी की 'कसप' जैसी रचनाओं में पाई जा सकती है। इसी कुमाऊं में गुमानी जैसा हिन्दी कवि "को जानै था विल्लायत से यहां फ़िरंगी आवैगा" जैसी भाषा बीसवीं सदी के पहले दशक में लिख रहा था।) और अनवरत विकसित होते जाने की प्रक्रिया ही किसी भी भाषा की लोकप्रियता और समृद्धि की पहली शर्त है।

अंग्रेज़ी के जिस रूप की तरफ़ अनुनाद सिंह जी ने ध्यान खींचा है उस पर कुछ बताया जाना ज़रूरी लगता है। १६वीं शताब्दी में जब अंग्रेज़ी अपने शैशव पर थी तब हमारे यहां तुलसीबाबा महाकाव्य रच रहे थे। क्या कारण रहा होगा कि अंग्रेज़ी लगातार दुनिया की सबसे लोकप्रिय और सम्पन्न भाषा बनती जा रही है और हम यहां हिन्दी भाषा के इतिहास और हिन्दी-उर्दू वगैरह से आगे नहीं बढ़ पा रहे!

अंग्रेज़ी दुनिया की सबसे लालची भाषा है इस लिये वह सबसे लोकप्रिय है। वह दुनिया भर की भाषाओं से शब्द और शब्द-समूह उधार लेने में कोई हिचक नहीं रखती। हिन्दी से इतर भारत की सारी ज़बानों के शब्द उस के शब्दकोश के हिस्से हैं और जापानी के भी। उसे तो कुरासाओ जैसे सूक्ष्म द्वीप की पापियामेन्तो भाषा से भी शब्द मांगने में शर्म नहीं आती। और हमारे यहां हिन्दी-उर्दू के मेलजोल से बनी जिस तरह की भाषा अब तक जज़्ब हो जानी चाहिए थी, उस पर अभी भी विचित्र (कम से कम मुझे वे विचित्र लगती हैं) बहसें चला करती हैं। कबीर-रैदास-गोरख-तुलसी-जायसी सूर-मीरा-रसखान और विद्यापति को याद करते हुए अगर आप नज़ीर, वली, मीर, ग़ालिब फ़िराक़ का ज़िक्र नहीं करेंगे तो आप ऐसी हिन्दी की बात कर रहे होंगे जो सिर्फ़ किताबों में पाई जाती है।

हिन्दी और उर्दू लगातार एक दूसरे से मिलाकर बोले जाते रहे हैं और हमारे पुरखे उस आलीशान मिश्रण की गरिमा और शालीनता बनाए रखना जानते थे और जिसे हमारे समकालीन शायर बशीर बद्र 'वो इत्रदान सा लहज़ा मेरे बुज़ुर्गों का' कह चुके हैं। अभी मैंने फ़हमीदा रियाज़ का एक उपन्यास खत्म किया है और यकीन मानिए उस में इस सादगी और संयम के साथ हिन्दी के ऐसे ऐसे मीठे और शानदार शब्दों का प्रयोग किया गया है कि आपको लगता ही नहीं कि आप उर्दू की किताब पढ़ रहे हैं। पाकिस्तान में आज तक किसी ने उर्दू की रचनाओं में शास्त्रीय हिन्दी के शब्दों के प्रयोग को लेकर ऐतराज़ किया हो, ऐसा कोई वाकया मेरे जेहन में नहीं है। मेरा तो यह मानना है कि हिन्दी और उर्दू के प्रयोग को लेकर उपजी बहसों के पीछे कहीं न कहीं हमारे अवचेतन में अंग्रेज़ी का बढ़ता प्रसार रहा है। और वह भी नकली नफ़ासत से लिथड़ी अधकचरी अंग्रेज़ी का जिसे महानगरों के बड़े स्कूलों में बोलते बोलते रईसों के बच्चों ने भारत के नए मीडिया की बुनियाद रखी। जब देखा गया कि असल मार्केट हिन्दी का है तो उस के बाद ... । दिक्कत उस के बाद ही शुरू हुई है। हिन्दी न जानने वाला बॉस जब हिन्दी लिखवाता है या उसे करेक्ट तरीके से लिखने के लिए ज़ोर देता है, इस बारे में मीडिया से जुड़े दोस्त ज़्यादा व्यक्तिगत अनुभव बांट सकते हैं और हम सब जानना चाहेंगे कि असल में क्या होता है कि हिन्दी चैनलों के दर्शकों के हाथ सबसे हिन्दी का सबसे पलीत और निखिद्द संस्करण लगता है। क्या कई बार नौकरी बचाने की विवशता तो ऐसा नहीं कराती। पता नहीं, इस बारे में मैं कभी कुछ नहीं कह पाता। मेरे खुद के बड़े पक्के पक्के यार जो एक ज़माने में राबर्ट पिर्सिग की नई किताब को पा और पढ़ लेने के बाद महीनों बौराये फ़िरते थे, आज किताब का ज़िक्र आने पर 'राग दरबारी' के एक मास्टर का सा भाव मुंह पर ले आते हैं कि 'जी घिन्ना गया किताबों से साहब'। ये पक्के यार बड़े चैनलों में ऊंची नौकरियां करते हैं और साल-दो साल में होने वाली मुलाकातों में "वापस पहाड़ आकर" लिखने-पढ़ने में बुढ़ापा काटने के महान प्रयोजन हेतु मुक्तेश्वर-रामगढ़ में प्लाट खोज देने का ज़िम्मा दे जाते हैं। अस्तु, इस बारे में कम लिखे को कम ही पढ़ा जाए।

हिन्दी और उर्दू की नुक्ताचीनी पर मैं इरफ़ान की बातों से सहमत हूं और सीखने का हिमायती हूं। आपको नुक्ता लगाना नहीं आता तो सीखा जा सकता है। दिलीप भाई की पिछ्ली पोस्ट पर अजित वडनेरकर जी ने शब्दकोशों की महत्ता को चिन्हित किया है और यही बात इरफ़ान भी कहते हैं।

सही भाषा लिखे-बोले जाने की ज़रूरत हमेशा रही है। वर्षों से सार्वजनिक स्थानों पर गलत लिखी और सही जाती हिन्दी भाषा को बचाने का काम कई स्तरों पर जारी है लेकिन ये प्रयास नगण्य हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारे बच्चों या उन के बच्चों के पास जो हिन्दी पहुंचेगी उस में खूब मिठास होगी और खूब खुलापन भी होगा।

मैं जल्द ही एक पोस्ट लगाने वाला हूं जिस में आपको बताया जायेगा कि आत्म मोह के दलदल में आकंठ डूबे हमारे महान हिन्दी साहित्य समाज में किस किस तरह के अकल्पनीय प्रयोग किए जा रहे हैं ताकि हिन्दी की जितनी जल्दी हो ऐसी की तैसी फेरी जा सके.

Ashok Pande said...

जन सेवक जी की बात मेरी समझ में कतई नहीं आई. अलबत्ता उस में सायास प्रयोग किए गए अंग्रेज़ी शब्दों में एक 'ग्रामर' की 'स्पैलिंग' गलत है. ऐसा यहां इस लिये लिख रहा हूं कि 'ग्रामर' की गलत स्पैलिंग लिखने पर मुझे छ्ठी क्लास में मार पड़ी थी: स्कूल में भी और घर में भी.

अस्तु, यहां भी कम लिखे को कम समझा जाए, ऐसी मेरी प्रार्थना है.