Thursday, July 31, 2008

प्रेमचंद जयन्ती के अवसर पर - 'प्रेमचंद घर में'




आज से कोई पच्चीस साल पहले जब राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रेमचंद शतवार्षिकी के आयोजन की तैयारियां चल रही थीं तब हमारे 'हिन्दी मास्स्साब' ने एक किस्सा सुनाया था कि जब किसी पत्रकार ने हिन्दी सिनेमा की एक मशहूर अदाकारा से प्रेमचंद के बाबत कुछ पूछा था तो उस स्त्री का प्रतिप्रश्न था -'हू इज प्रेमचण्ड?' पता नही इस खबर में कितनी सत्यता थी या कि यह एक चुटकुला था या फ़िर सिनेमा की दुनिया के प्रति 'हिन्दी वालों' के दुराग्रह का नमूना था लेकिन इससे सवाल तो उठता ही है कि हम अपने लेखकों, कवियों, कलाकारों को कितना जानते है?

प्रेमचंद (३१ जुलाई १८८० - ८ अक्टूबर १९३६) के लेखन विविध आयामों को समझने-बूझने के लिए ढे़र सारी किताबें मौजूद हैं और निरंतर नई छप भी रही हैं लेकिन उनके व्यक्तित्व को समझने की दो जरूरी कुंजियां हैं- एक तो 'कलम का सिपाही' जो उनके बेटे अमृत राय की लिखी हुई है और दूसरी किताब उनकी पत्नी शिवरानी देवी (१८९४ -१९७६) की लिखी 'प्रेमचंद घर में' है. पहली किताब तो आसानी से उपलब्ध है किंतु दूसरी पुस्तक १९४४ मे पहली बार छपी थी और उसका पुनर्प्रकाशन लगभग आधी सदी से अधिक समय गुजर जाने के बाद ही हुआ वह भी प्रेमचंद और शिवरानी देवी के नाती प्रबोध कुमार और संजय भारती के प्रयासों से. शिवरानी देवी अपने समय की चर्चित कहानीकार रही हैं. श्री प्रबोध कुमार अपने संस्मरणात्मक लेख 'नानी अम्मा' में यह खुलासा करते हैं कि उन्होंने अपना लेखकीय नाम 'शिवरानी देवी प्रेमचंद' माना था.

'प्रेमचंद घर में' अपने आप मे एक अनूठी पुस्तक है. इसमे एक पत्नी के नजरिए से उस व्यक्ति को समझने की कोशिश की गई है जो कि एक मशहूर लेखक है किंतु स्वयं को एक मजदूर मानता है- 'कलम का मजदूर'. शिवरानी जी ने बेहद छोटे-छोटे डिटेल्स के माध्यम घर-परिवार , नातेदारी-रिश्तेदारी, लेखन -प्रकाशन की दुनिया में मसरूफ़ प्रेमचंद की एक ऐसी छवि गढ़ी है जो 'देवोपम' नहीं है , न ही वह उनकी 'कहानी सम्राट' और 'उपन्यास सम्राट' की छवि को ग्लैमराइज करती है बल्कि यह तो एक ऐसा 'पति-पत्नी संवाद' है जहां दोनो बराबरी के स्तर पर सवालों से टकराते हैं और उनके जवाब तलाशने की कोशिश मे लगे रहते हैं. यह पुस्तक इसलिये भी / ही महत्वपूर्ण है कि स्त्री के प्रति एक महान लेखक के किताबी नजरिए को नहीं बल्कि उसकी जिन्दगी के 'फ़लसफ़े' को बहुत ही बारीक ,महीन और विष्लेषणात्मक तरीके से पेश करती है. स्त्री विमर्श के इतिहास और आइने में झांकने के लिये यह एक अनिवार्य संदर्भ ग्रंथ है.

आज प्रेमचंद जयन्ती के अवसर पर कोई कहानी, उपन्यास अंश, निबंध,संपादकीय आदि न देकर और न ही प्रेमचंद का जीवन परिचय अथवा उनके द्वारा लिखित तथा अनूदित पुस्तकों की सूची देकर रस्म अदायगी करने की मंशा है और न ही 'उनके बताए रास्ते पर चलने' का संदेश देने का ही मन है अपितु 'प्रेमचंद घर में' पुस्तक का अंश इस इरादे से दिया जा रहा है कि अक्सर ऐसा देखा गया है कि बाहर की दुनिया का 'महान मनुष्य' घर की चहारदीवारी में घुसते ही अपनी महानता का केंचुल उतारकर 'मर्द' के रूप में रूपांतरित हो जाता है. प्रेमचंद ने स्वयं को 'घरे-बाइरे' के इस दुचित्तेपन के खतरे से बाहर कर लिया था ; केवल शब्द में ही नहीं कर्म में भी.



मैं गाती थी, वह रोते थे / शिवरानी देवी

बंबई में एक रात बुखार चढ़ा तो दूसरे दिन भी पांच बजे तक बुखार नहीं उतरा. मैं उनके पास बैठी थी. मैंने भी रात को अकेले होने की वजह से खाना नहीं खाया था. कोई छ: बजे के करीब उनका बुखार उतरा.

आप बोले- क्या तुमने भी अभी तक खाना नहीं खाया?

मैं बोली- खाना तो कल शाम से पका ही नहीं.

आप बोले- अच्छा मेरे लिए थोड़ा दूध गरम करो और थोड़ा हलवा बनाओ. मैं हलवा और दूध तैयार करके लाई. दूध तो खुद पी लिया और बोले- यह हलवा तुम खाओ. जब हम दोनो आदमी खा चुके , मैं पास में बैठी.

आप बोले- कुछ पढ़ करके सुनाओ, वह गाने की किताब उठा लो. मैंने गाने की किताब उठाई. उसमें लड़कियों की शादी का गाना था. मैं गाती थी, वह रोते थे. उसके बाद मैं तो देखती नहीं थी, पढ़ने में लगी थी, आप मुझसे बोले- बंद कर दो, बड़ा दर्दनाक गाना है. लड़कियों का जीवन भी क्या है. कहां बेचारी पैदा हों, और कहां जायेंगी, जहां अपना कोई नहीं है. देखो, यह गाने उन औरतों ने बनाए हैं जो बिल्कुल ही पढ़ी-लिखी ना थीं. आजकल कोई एक कविता लिखता है या कवि लोगों का कवि सम्मेलन होता है, तो जैसे मालूम होता है कि जमीन-आसमान एक कर देना चाहते हैं. इन गाने के बनानेवालियों का नाम भी नहीं है.

मैंने पूछा- यह बनानेवाले थे या बनानेवालियां थीं?

आप बोले- नहीं, पुरुष इतना भावुक नहीं हो सकता कि स्त्रियों के अंदर के दर्द को महसूस कर सके. यह तो स्त्रियों ही के बनाए हुए हैं.स्त्रियों का दर्द स्त्रियां ही जान सकती हैं, और उन्हीं के बनाए यह गाने हैं.

मैं बोली- इन गानों को पढ़ते समय मैं तो ना रोई और आप क्यों रो पड़े?

आप बोले- तुम इसको सरसरी निगाह से पढ़ रही हो, उसके अंदर तक तुमने समझने की कोशिश नहीं की. मेरा खयाल है कि तुमने मेरी बीमारी की वजह से दिलेर बनने कोशिश की है.

मैं बोली- कुछ नहीं, जिन स्त्रियों को आप निरीह समझते हैं, कोई उनमें निरीह नहीं है.अगर हैं निरीह, तो स्त्री-पुरुष दोनो ही हैं.दोनो परिस्थिति के हाथ के खिलौने हैं, जैसी परिस्थिति होती है, उसी तरह दोनो रहते हैं. पुरुषों के ही पास कौन उनके भाई-बंद बैठे रहते हैं, संसार में आकर सब अपनी किस्मत का खेल खेला करते हैं.

आप बोले- जब तुम यह पहलू लेती हो, तो मैं यह कहता हूं, कि दोनो एक दूसरे के माफ़िक अपने-अपने को बनाते हैं, और उसी समय सुखी होते हैं, जब एक-दूसरे के माफ़िक होते हैं. और उसी में सुख-आनंद है.

मगर हां इसके खिलाफ़ दोनो हों, तो उसमें पुरुष की अपेक्षा स्त्री अधिक निरीह हो जाती है.

6 comments:

Ashok Pande said...

अद्भुत पुस्तक से परिचित कराने का शुक्रिया. एकाध अंश और आ जाते तो आनन्द बढ़ जाता.

प्रेमचन्द की स्मृति को नमन!

anurag vats said...

yh aapne bahut achha kiya...rasm adaygi se yh khin behtar hai...main is pustak ko ab bhi dhoondh hi rha hun...ashokji theek kh rhe hain...unke aagrah men mujhe bhi shamil maniye...

Arun Sinha said...

अशोक, आपके ब्लाग पर आकर लगता है कि आप एक अच्छा और अपनी पसन्द का जीवन जी रहे हैं। आपकी रुचियों का बडा दायरा, आपका मनमौजीपन और आपकी गम्भीरता सभी ईर्ष्या-योग्य हैं। बुरी नजर से बचे रहें। ब्लागरों में शिवरानी देवी को कोई याद कर सकता था तो आप ही।

Vineeta Yashsavi said...

प्रेमचन्द मेरे पसन्दीदा लेखक हैं. उन के व्यक्तित्व के इस पहलू को सामने लाने का शुक्रिया.

Ek ziddi dhun said...

प्रेमचंद घर में किताब में खास बात मुझे यह भी लगी कि शिवरानी जी से प्रेमचंद के प्रति पूरी श्रद्धा तो रखती हैं लेकिन अमृत राय की तरह उनके हर कदम को ग्लेमराइज नहीं करती। मसलन, प्रेमचंद के पहले विवाह का मसला। यह किताब बेहद अद्भुत है। प्रेमचंद बहुत याद आते हैं, उनके पुनरुत्थानवादियों के साथ संघरष भी

बोधिसत्व said...

jay ho bhayi.....