Friday, February 20, 2009

हमें वहीं जाना होता है बार बार उन चेहरों का हिस्सा बनने

अनीता वर्मा की कविताओं से आप परिचित हैं ही. उनका पहला संग्रह 'एक जन्म में सब' बहुत चर्चित हुआ और सम्मानित भी. अभी दिल्ली में उनका नवीनतम संग्रह 'रोशनी के रास्ते पर' (२००८ में प्रकाशित) मिल गया. उनसे मेरी सिर्फ़ एक मुलाकात है. दो-तीन वर्ष पहले उनका एक बेहद जटिल ऑपरेशन हुआ था दिल्ली में - बहुत ही ख़तरनाक. मैं शाम को दिल्ली पहुंचा था. मुझे उसी रात यूरोप यात्रा पर निकल जाने की जल्दी थी. अनीता जी अस्पताल से वापस आकर मेरे होटल से नज़दीक मौजूद झारखण्ड भवन में स्वास्थ्यलाभ कर रही थीं.

एक संक्षिप्त मुलाकात के दौरान मुझे उनकी निश्छल पारदर्शिता और मजबूत ऑप्टिमिज़्म ने बांध कर रख लिया था. आज तक उनसे सम्पर्क बना हुआ है और यही दो उनकी ख़ूबियां आज भी मुझे सबसे ज़्यादा आकर्षित करती हैं. हां, बेहतरीन इन्सान तो ख़ैर वे हैं ही.

इस नए संग्रह में वे और अधिक आशाभरी मानवीय कविताओं के साथ आई हैं.

मेरा प्रयास रहेगा आप को इस संग्रह से चुनिन्दा रचनाएं पढ़वा सकूं. इस क्रम में आज प्रस्तुत है उनकी 'अस्पताल डायरी':




अस्पताल डायरी



शीशे के बाहर बैठा है
एक कबूतर और उसका बच्चा
यह अस्पताल बीमारों को जीवन देता है
कबूतर को भी देता है जगह



मृत्यु चली गई पुरानी चप्पलें पहनकर
मैं एक बार फिर लौट आई
अपने आप से कोई समझौता करने



दूर सड़क पर गाड़ियों की रोशनी
वहां गति है जीवन है
यहां दर्द की आंखें उन्हें देखती हुईं



वह मुझे उठाती है ज़मीन पर गिरे हुए
एक फूल की तरह
हमारे बीच दर्द की आवाज़ है.



मिज़ोरम की वह नर्स नीलांचली
मेरी हर बात दोहराती है
मैं कहती हूं बत्ती बन्द कर दीजिए
वह कहती है बत्ती बन्द कर दीजिए
और बुझा देती है बत्ती
मैं कहती हूं दूसरे बिस्तर की मरीज़ को
लगती है ठण्ड ए.सी. बन्द कर दीजिए
और वह बन्द कर देती है ए.सी.
मैं कहती हूं मुझे दर्द है
वह कहती है दर्द है और ला देती है दवा



बारिश भीतर उतरती रही
ज्यों ही उसे सुना
वह गुम हो गई.



रात की तरह मृत्यु की परछाईं नहीं होती
वह सिर्फ़ हमें आग़ोश में ले लेती है
हम छटपटाते हैं सिर धुनते हुए
वापस लौटने को तत्पर
सुरंग के दूसरे छोर पर
दिखता है एक हल्का प्रकाश
कुछ प्रिय चेहरे गड्डमड्ड
हमें वहीं जाना होता है बार बार
उन चेहरों का हिस्सा बनने.



वह रात भर रोता रहा
लौट आए उसकी प्रिय
लौट आए फिर एक बार.



मैं हर समय उसे याद करती हूं
जो इस नए संसार में बेहद शामिल है
जो कभी मुड़कर नहीं आएगा मेरी तरफ़

१०

मैं अपने ही विरुद्ध खड़ी थी
अपने विश्वासों के साथ
उनसे बचने को आतुर.

('रोशनी के रास्ते पर' - राजकमल प्रकाशन द्वारा २००८ में प्रकाशित. मूल्य रु. १५०)

कबाड़ख़ाने में अनीता जी की कविताएं यहां भी:

प्रभु मेरी दिव्यता में सुबह-सबेरे ठंड में कांपते रिक्शेवाले की फटी कमीज़ ख़लल डालती है
प्रार्थना
वान गॉग के अन्तिम आत्मचित्र से बातचीत
सभ्यता के साथ अजीब नाता है बर्बरता का

11 comments:

रंजू भाटिया said...

बहुत मार्मिक दिल को छू लेने वाली है यह अस्पताल डायरी

शायदा said...

मैं हर समय उसे याद करती हूं
जो इस नए संसार में बेहद शामिल है
जो कभी मुड़कर नहीं आएगा मेरी तरफ़

१०

मैं अपने ही विरुद्ध खड़ी थी
अपने विश्वासों के साथ
उनसे बचने को आतुर.

shukriya yahan prastut karne ka. bahut gehri abhivyakti.

Udan Tashtari said...

अति मार्मिक..आभार इस प्रस्तुति का. जारी रखिये यह क्रम.

अनिल कान्त said...

maarmik rachna ....padhne ka avsar dene ke liye shukriya

सुशील छौक्कर said...

दिल को छूती अस्पताल डायरी। पढवाने का शुक्रिया।

अमिताभ मीत said...

क्या बात है साहब.

शिरीष कुमार मौर्य said...

बुरे दिनों में अच्छे का विश्वास दिलाती हैं अनीता जी की कविताएं। अच्छी पोस्ट !

महेन said...

कवितायें अच्छी हैं. मैं सोच रहा था कि इन्होने अस्पताल में भी वक़्त जाया नहीं किया.

विधुल्लता said...

मैं हर समय उसे याद करती हूं
जो इस नए संसार में बेहद शामिल है
जो कभी मुड़कर नहीं आएगा मेरी तरफ़
...sundar

ghughutibasuti said...

बहुत ही अच्छी कविताएँ पढ़वाने के लिए धन्यवाद। अनीता जी को हस्पताल की उबाऊ सी बातों में भी कविता मिल गई !
घुघूती बासूती

ravindra vyas said...

बहुत अच्छी कविताएं।