Monday, June 29, 2009
चंद्रकांत देवताले पर वीरेन डंगवाल की एक अपर्याप्त टिप्पणी - भाग ३
तुम्हारा पति अभी बाहर है, तुम नहाओ जी भर कर
आईये के सामने पहनो, फिर
आईने को देखो इतना कि वह
तड़कने-तड़कने को हो जाये...
क्या मज़ा है। जहां निविड़ता होनी चाहिये - सूरज की पीठ, पृथ्वी के स्तनों, और घास के गठ्ठरों में - वहां कतई शोरो-गुल है और जहां शोरो-गुल मुमकिन था 'घर में अकेली औरत के लिये´ में - वहां कत्तई सन्नाटा है। हालांकि उसके भीतर एक खामोश कोहराम भी है। यही कवि की महिमा है।
कवि के विधिवत पहले संकलन 'दीवारों पर खून से´ में है यह कविता, और स्त्री के साथ उसका यह नाता अब तक अटूट चला आता है, और इतने रंग हैं उसमें कि हैरानी होती है। 'औरत´, 'मां जब खाना परोसती थी´, 'दो लड़कियों का पिता होने पर´, 'उसके सपने´, 'बालम ककड़ी बेचने वाली लड़कियां´, 'मां पर नहीं लिख सकता कविता´, 'नहाते हुए रोती औरत´ - ये वे स्त्री विषयक कवितायें हैं जो अपनी मार्मिकता के साथ औचक स्मृति में बसी रहती हैं। इन्हीं की पूरक है 'प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता´ या 'मेरी पोशाक ही ऐसी थी´ - जैसी कवितायें जिनमें भीतर के एक कोमल प्रांतर के उद्घाटन, या फिर एक दूसरी विद्रूप सामाजिक सचाई के खोलने का निमित्त स्त्री ही बनी है। वैश्वीकरण की विडम्बनाओं के बावजूद भारतीय समाज के ताने-बाने में औरत की जो विचित्र, अद्वितीय और जटिल हैसियत है, और उससे भी ऊपर, पुरुष की सापेक्षता में उसका जो झुटपुटा और तिलिस्म है हिंदी में देवताले से ज्यादा उसे किसी कवि ने न समझा है, न लिखा है। इसे यह कवि खुद जानता भी है, तभी 'स्त्री का साथ´ शीर्षक कविता में वह लिखता है
सचमुच मैं भाग जाता चंद्रमा से फूल और कविता से
नहीं सोचता कभी कोई भी बात ज़ुल्म और ज़्यादती के बारे में
अगर नहीं होतीं प्रेम करने वाली औरतें इस पृथ्वी पर
...स्त्री के साथ और उसके भीतर रहकर ही मैंने अपने को पहचाना है
... मुझे औरत की अंगुलियों के बारे में पता है
ये अंगुलियां समुद्र की लहरों से निकलकर आती हैं
और एक थके-मांदे पस्त आदमी को
हरे-भरे-गाते दरख़्त में बदल देती हैं
जिसे तुम त्वचा कहते हो वह नदी का वसंत है
... फिर भी सिर्फ एक औरत तो समझने के लिए
हजार साल की जिंदगी चाहिये तुमको
क्योंकि औरत सिर्फ माफ या बसंत ही नहीं है
एक सिम्फ़नी भी है समूचे ब्रह्मांड की...
- वीरेन डंगवाल
Sunday, June 28, 2009
चंद्रकांत देवताले पर वीरेन डंगवाल की एक अपर्याप्त टिप्पणी - भाग २
एक मायने में देवताले परिधि के कवि हैं - हाशिये के नहीं, परिधि के। निम्न मध्यम वर्गीय जीवन, रोज़मर्रापन का सौंदर्य, वंचना का प्रतिरोध और सत्ता केंद्रों से भौतिक और आत्मिक दूरी, इन सबके कारण प्रचुर और वैविध्यपूर्ण रचनात्मकता के बावजूद, आलोचना के केंद्रमुखी समुदाय ने परिधि के इस कवि को खास तवज्जो नहीं दी। लगभत समवर्ती धूमिल, और तत्काल अग्रज रघुवीर सहाय की तुलना में देवताले की यह उपेक्षा इसलिये भी थोड़ी अटपटी है क्योंकि उनकी कविता भी स्वातंत्र्योत्तर भारतीय नागरिक और उसके समाज के जीवन की विडंबनाओं का बखान है। इस नागरिक के बाहरी और भीतरी, निजी और सार्वजनिक दोनों ही संसार - एक ही डाल के 'दो सुपर्णों´ की तरह देवताले की कविता में अपने पंख फड़फड़ाते हैं- कभी अलग-अलग, और कभी एक साथ; जैसे यहां 'राहत´ शीर्ष उनकी इस कविता के अंश में
तुम अपनी खड़खड़िया सायकिल पर जाते हो
सोचते हुए आज बसन्त पंचमी है
और केरियर पर रखे कनस्तर में गेहूं उछलते हैं
जब तुम यह सोचते हो- देखो गेहूं के दाने
खनक रहे हैं, तभी तुम पुलिया में घुसने के पहले
देखते हो बांई की तरफ जाती मालगाड़ी
और उसी वक्त पेट्रोल भरी बड़ी गाड़ी से बचते
पुलिया के भीतर दैत्याकार आवाज़ों के बावजूद
अनजानी सी सुरक्षा की सांस लेकर
तुम पाते हो अकस्मात सड़क के बीचोंबीच बैठी दो बच्चियां
गंदे कागज़ों के चिन्दों को खोलकर तहाने में बेखबर
और तुम ट्रक के हार्न और टेम्पो-स्कूटरों की रफ़्तार के बीच
फिर से उन बच्चियों के साथ
बहुत सी चीज़ों की असुरक्षा से घिरने लगते हो...
बम्बई ने अभी मम्बई बनकर अपना लिंग परिवर्तन नहीं कराया है। सायकिल एक शानदार सवारी है। गेहूं पिसाने को केरियर से बंधे कनस्तर में दाने उछल कर खनकते हैं और एक लदी हुई मालगाड़ी महानगर की तरफ़ जा रही है। दिन वसंत पंचमी का है।
और इससे आगे हैं फिर ये पंक्तियां
तभी तुम्हें याद आती है हंसती हुई भद्र महिला
जो गैस के लिए नंबर लगाने वाली लाइन में
ठीक तुम्हारे आगे खड़ी थी और अपने साथ आई लड़की से
पूछ रही थी - तेरी मम्मी ने क्या पकाया आज वसंत पंचमी के दिन
कैसा विलक्षण वृतांत है! इस घरेलू लगती तफसील से आप जैसे ही फारिग होते हैं, चक्की में पिसता हुआ गेहूं एक दूसरी ही मालगाड़ी पर लादकर आपको कहीं और पहुंचा देता है
और चक्की गेहूं को आटे में तब्दील करते हुए
तुम्हें कहीं दूर पहुंचा देती है
जहां तुम सोचते हो कोई अदृश्य और विराट चक्की
तुम्हारे साथ भी ऐसा ही सलूक कर रही है
पर 'शब्दों से रोटी जैसी महक´ सोचते हुए
तुम उसी आवाज़ में अपने ही भीतर कुछ सुनने लगते हो
मित्रवत् जिससे तुम्हारे चेहरे पर आत्मीयता झलकने लगती है
तो यह है चंद्रकांत देवताले का तरीका - वसंत पंचमी के दिन, सायकिल पर गेहूं की चक्की के रास्ते, उस दूसरी अदृश्य चक्की तक ले जाना जो अनवरत हम सबका कचूमर निकालने के काम में लगी है, और इस जाने के क्रम में ही विराट दरिद्रता, मानवीय प्रेम और मैत्री का संधान भी कर लेना। इस नागरिक का प्रेम, उल्लास, क्रोध, आवेश, उसकी उग्र आदिवासियों जैसी प्रतिरोध रत चीख पुकार और बुखार भरी बर्राहटें, उसके आंसू - ये सब देवताले की कविता में स्पंदित होते हैं। यह कविता एक साथ बहिर्मुखी और अंतर्मुखी, सपाट और जटिल है। गो कि उसके पास मुक्तिबोध का नक्शा, उसकी भविष्य दृष्टि और निर्भ्रान्त विचारधारात्मक ज़मीन नहीं है पर यह कविता दौड़ती काफी आगे तक मुक्तिबोध की ही राह पर है क्योंकि वह अपने आंतरिक वर्गगत विवेक से मनुष्यता के शत्रुओं को पहचानती है। यह बात जरूर है कि कवि कई बार भाषा का 'ओवरयूज़´ करता लगता है - मसलन 'भूखंड तप रहा है´ शीर्षक लंबी और महत्वाकांक्षी कविता में , या 'आग हर चीज में बताई गई थी´ में संकलित 'हाइ पावर नंगे बस्तर को कपड़े पहनाएगा´ और 'सबसे जरूरी काम´ शीर्षक कविताओं में। कई जगह पूरी कविता ही 'क्लीशे´ तथा सामान्यीकरणों पर टिकी रहती है। 'थोड़े से बच्चे और बाकी बच्चे´ या 'प्राथमिक स्कूल´ सरीखी लोकप्रिय कवितायें, या 'एक नीबू के पीछे´ जैसी अभी तक असंकलित परवर्ती कविता इसके सटीक उदाहरण हैं। मगर यह गौरतलब है कि कवि की आवाज़ का सच्चापन भाषिक अतिरेक अथवा विषय की फार्मूलाबद्धता को भी ऊपर उठा लेता है। जैसा कि सुधी कवि और आलोचक विष्णु खरे भी जोर देकर कहते आए हैं, इस रूप में देवताले एक प्रतिबद्ध और राजनैतिक कवि हैं। यहां यह उल्लेख वाजिब रहेगा कि आलोचक समुदाय की विचित्र चुप्पी के बरक्स, पिछले कई दशकों से विष्णु खरे अपने इस कवि-मित्र की रचनात्मकता को रेखांकित करने में लगे रहे हैं। आखिर अब जाकर उनकी कोशिशें रंग लाती दिखाई दे रही हैं।
-वीरेन डंगवाल
(अगली कड़ी में समाप्य)
Saturday, June 27, 2009
चंद्रकांत देवताले पर वीरेन डंगवाल की एक अपर्याप्त टिप्पणी - भाग १
उसकी कम घनी शाखों पर
फदकता दीख रहा है
कुछ बेडौल सी आवाज़ में बोलता
पहाड़ों का वह पक्षी।
जिधर से वह आया
उधर ही मेरा घर भी था कभी।
एक नदी थी
दीखने में कृशकाय
मगर खूब भरी पानी से
यह कुछ अशालीनता सी भी लग सकती है - किसी अन्य, और बड़े कवि पर बात की शुरुआत ही अपनी कविता से करना, मगर 'पहाड़ों का पक्षी' शीर्षक उपरोक्त कविता कुछ वर्ष पहले इन पंक्तियों के लेखक ने लिखी ही चंद्रकांत देवताले की याद करते हुए थी। मेरी उनसे व्यक्तिगत और घनिष्ठ मुलाकातें ना के बराबर ही थीं। लिहाज़ा यह याद दरअसल उनकी कविताओं की, उनके प्रभाव की याद थी। मेरे तईं यह हिंदी के इस अनूठे कवि की कुल तस्वीर थी - थोड़ा अलग-थलग, अद्वितीय, और सारपूर्ण। उसमें करुणा का दयहीन पाखंड नहीं है, बल्कि आर्द्रता की एक मज़बूत लचीली डोर उसकी कुल रचनात्मकता को बांध कर रखती है। उसे बार-बार पंद्रह बरस के किसी भावुक किशोर की तरह आंसू छलछला आते हैं पर वह गुस्सा-भिंची मुठ्ठी से उन्हें पोंछता हुआ आंखें सुर्ख़ कर लेता है। थोड़ा फिचकुर फेंकता हुआ भी वह नाटकीय या झूठा नहीं लगता। उसका आवेश दरअसल प्रेम का ही एक बदला हुआ चेहरा है जिसे वह कभी स्त्री, कभी प्रकृति के आईने में देखता है, अक्सर समाज, संबंधों, और राजनीति के। परवर्ती कविताओं में तो देवताले आविष्ट से सुस्थिर-शांत होते हुए दिखने लगे हैं, लेकिन उनकी मूलभूत चिंतायें तथा मूल्यबोध, पूर्ववत और टिकाऊ हैं।
यह बात थोड़ा हैरत और अफसोस से भरने वाली है कि चार दशकों की सतत सक्रियता के बावजूद हिंदी कविता में चंद्रकांत देवताले की उपस्थिति को समुचित सम्मान नहीं मिला। यों तो उनका पहला संचयन 'हडि्डयों में छिपा ज्वर´´ 1973 में कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित और बहुचर्चित 'पहचान´ सीरीज़ में छपा था लेकिन वह उसके कहीं पहले से उस दौर की लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित होते आ रहे थे और अपने काफी नवेले, आक्रामक और एक आहिस्ता अराजक अंदाज़ से ध्यान भी खींच रहे थे '
मुसीबत के वक्त
खुलने वाले उत्तेजित दिनों
और बंद होने वाली
दहशत भरी रातों में
अकेलापन टूट कर
हर जगह सम्मिलित हो गया था
तब जोड़ों के दर्द
और चमड़ी के खुश्क होकर
दरकने के लिये
एक भी क्षण नहीं था
दगाबाज़ों और काटने वालों को भी
हिफाज़त की घड़ी में
विश्वस्त मानते हुए
उनके कंधों पर फिसलता हाथ
दुश्मनी को भूलकर
कैसे अपनेपन की हवा में
भूला हुआ था
तब दीमक और
चूहों के प्रति बेखबर होते जाना
कितना करुण और स्मृति वंचित
नाटक था ...
यह जानते हुए भी
कि यह हाथ
आग तापने को उठा है
हमने तपाक से उसे
अपने हाथों में
कस लिया था
ओज के परदे पर
हिलती हुई गरदनों के
उस दृश्य में
नमक की बात
कितनी फूहड़ होती
('हडि्डयों में छिपा ज्वर´ शीर्षक कविता से अंश)
देवताले की इस, और ऐसी तमाम दूसरी कविताओं में आप आठवें दशक की ज़मीन को पकते हुए देख सकते हैं - बावजूद उस वैयक्तिक स्वर, उस प्रबल 'मैं तत्व´ के - जो उनके सामाजिक अनुभव की भी कसौटी है और उनकी कविता में हमेशा बहुत मुखर है। इस अंतर्विरोध ने देवताले की रचनात्मकता में कई रंग जोड़े हैं।
(जारी)
कैसा ये प्यार है वल्लाह वल्लाह
और सभी को अपने काम प्यारे हैं.
ये तस्वीरें मुझे मेरे मित्र पारितोष पन्त के सौजन्य से प्राप्त हुईं. उनके सौजन्य से आप पहले भी कई महान तस्वीरें देख चुके हैं. जनाब हल्द्वानी शहर में विराजते हैं और पेशे से इंजीनियर कम मैनेजर ज़्यादा है. उनका शुक्राना.
(तस्वीरों पर क्लिक करेंगे तो वे ज़रा बड़ी और साफ़ नज़र आएंगी)
Friday, June 26, 2009
रंग में आज कन्हैया के है डूबा बादल
गंगा-जमुनी साझा विरासत की जो बातें हम अक्सर किया करते हैं, उस खत्म हो रही परम्परा की अनूठी मिसाल है यह नात. पहले स्टैंज़ा पर गौर फ़रमाएं:
सिम्त-ए-काशी से चला जानिब-ए-मथुरा बादल
तैरता है कभी गंगा कभी जमुना बादल
नातिया कलाम में कहीं कहीं कृष्ण का भी ज़िक्र सुनने को मिलता है. देखिये इसी नात का अगला हिस्सा:
खूब छाया है सरे गोकुल-ओ-मथुरा बादल
रंग में आज कन्हैया के है डूबा बादल
सक़लैन नक़वी से सुनिये मोहसिन काकोरवी की नात 'सिम्ते-ए-काशी से'
(वीडियो साभार यूट्यूब)
झुकी आई बदरिया सावन की, सावन की, मनभावन की
वे युवा हैं। हैंडसम हैं। मखमली आवाज के धनी हैं। चाहते तो इंजीनियरिंग में कैरियर बना सकते थे, एकदम चमकीला। लेकिन यह राह बीच में ही छोड़ी और सुर की उजली राह पकड़ी। कैंसर से पिता की मृत्यु हुई तो मां ने हिम्मत बढा़ई। धीरे-धीरे सारेगमप से होते हुए आलाप लिया और विलंबित से फिर द्रुत पर। रागों को जाना-समझा और गुरुओं की छाया में बैठकर गाना सीखा। इस तरह जीवन सुरीला बना लिया। अब जिस शहर जाते हैं, अपनी गायकी से वहां सुरीलापन पैदा कर देते हैं। यह कहानी है पुणे के युवा शास्त्रीय गायक पुष्कर लेले की। अगले बाल दिवस पर वे तीस के हो जाएंगे। उनकी इस कहानी में भी राग की तरह उतार-चढ़ाव हैं। कोमल और तीव्र स्वर हैं।
यह मेरी उनसे दूसरी मुलाकात थी। दो साल पहले वे इंदौर में प्रतिष्ठित मामा साहेब मुजुमदार स्मृति समारोह में आए थे। इस बार इंदौर की एक संस्था श्रुति संवाद के बुलावे पर वे इंदौर आए । इस शहर के संगीत महाविद्यालय के उस्ताद अमीर खां सभागृह में उन्होने अपनी प्रस्तुति दी।
बातचीत के वक्त उनके दिल-दिमाग में कोमल और मधुर स्वर ही थे। मैंने उनसे कहा कि हम फिल्म और फिल्मी संगीत पर बात करेंगे, शास्त्रीय संगीत पर नहीं। वे राजी हुए और बहने लगे। वे इंदौर में श्रुति-संवाद संस्था के बुलावे पर आए थे। वे कहते हैं कि ए.आर. रहमान का संगीत दिल को छूता है। उसमें गजब की मेलडी है। वह नदियों और झरनों की तरह बहता संगीत है। खासकर रोजा और बाम्बे का गीत-संगीत। स्लमडॉग मिलिनियेर का संगीत रिदम बेस्ड है। उसमें रिदम ज्यादा है, मेलड़ी कम है। इस फिल्म के लिए उन्हें ऑस्कर मिला लेकिन इसका संगीत मुझे इतना पसंद नहीं। ऑस्कर के अपने अलग मापदंड होते हैं। मुझे उनका पहले का संगीत स्लमडॉग से कई गुना बेहतर लगता है। जब से रहमान को इंटरनेशनल एक्सपोजर मिला है, उनका संगीत मेलडी से रिदम की तरफ झुका है। इस रिदम पर युवाओं के पैर आसानी से थिरकने लगते हैं। उसकी बीट्स युवाओं को लुभाती है। पुणे मे जो उनकी लाइव कंसर्ट हुआ इसमें भी उन्होंने वे गीत प्रस्तुत किए जिसमें रिदम और बीट्स थी। तमाम तामझाम के बावजूद उनकी प्रस्तुति में मेलडी गायब थी।
विजय सरदेशमुख और सत्यशील देशपांडे से संगीत की तालीम हासिल करने वाले पुष्कर कहते हैं लेकिन एक अच्छी बात ये हुई है कि संगीत में सारी हदें टूट गई हैं। अब कोई घेरेबंदी नहीं है। रहमान ने कई तरह के संगीत की खूबियों का इस्तेमाल किया है। वेस्टर्न से लेकर इंडियन क्लासिकल और अरबी संगीत से लेकर लेटिन अमेरिकी संगीत तक का इस्तेमाल किया है। शास्त्रीय संगीत में भी कट्टरपन कम हुआ है और घरानेदार गायकी बदल रही है। पहले तो इतनी कट्टरता थी कि एक घराने का उस्ताद अपने शिष्यों को दूसरे घराने के उस्ताद का गायन सुनने नहीं देता था। फिल्मों में देखिए कि स्कूल खत्म हो रहे हैं। श्याम बेनेगल ने अंकुर-मंथन से शुरूआत की थी। फिर उन्होंने जुबैदा और वेलकम टू सज्जनपुर बनाई। अनुराग कश्यप, अपर्णा सेन और मधुर भंडारकर जैसे फिल्मकारों ने कला और व्यावसायिक फिल्मों के बीच की विभाजन रेखा को खत्म करने की सार्थक कोशिशें की हैं। अभिनय के क्षेत्र से उदाहरण लेना चाहें तो युवा अभिनेत्री कोंकणा सेन शर्मा कितना अच्छा अभिनय करती हैं। उनमें कितनी सहजता है, स्पांटेनिटी है। वे आजा नच ले जैसी फिल्मों में भी अच्छा अभिनय करती हैं और पेज थ्री में भी। लाइफ इन मेट्रो में भी और लागा चुनरी में दाग में भी। चित्रकारी में भी यह देखा जा सकता है। तो अब सारी हदबंदिया टूट रही हैं। यह एक तरह से कलाओं का लोकतांत्रिकरण है। यह ज्यादा खुला और उदार समय है। ये सब अभिव्यक्ति के अलग अलग माध्यम हैं लेकिन इनके पीछे जो असल कलाकारी है वह तो एक ही है ना। यानी अपने को बेहतर से बेहतर ढंग से अभिव्यक्त करना।
पहले के उस्ताद कहते हैं कि हमारे जमाने का संगीत कितना उम्दा था। हर समय के उस्ताद यह कहते हैं कि हमारे जमाने का संगीत कितना अच्छा था। यह भी एक चलन है। लेकिन हम जानते हैं परिवर्तन होता ही रहता है।
पुणे यूनिवर्सिटी से वोकल म्यूजिक में एमए कर चुके और देश के तमाम संगीत सम्मेलनों में प्रस्तुतिया दे चुके पुष्कर कहते हैं समय के साथ संगीत बदलता है, उसके सुनने वाले बदलते हैं लेकिन जो दमदार होगा वही टिकेगा। हिमेश रेशमिया आए, आए और छा गए। आज उनका कोई नामलेवा नहीं। तो दौर आते रहते हैं, संगीत बदलता रहता है, प्रयोग होते रहते हैं। और उसे पसंद -नापसंद किया जाता रहा है। फिल्म संगीत ही कितना बदल गया है। आज राहत फतेह अली खां और कैलाश खेर कितना अच्छा गा रहे हैं। इनके आने से सुगम संगीत समृद्ध ही हुआ है। सोनू निगम कितना अच्छा गाते हैं। प्रसून जोशी जैसे गीतकारों की बदौलत गीतों में कविता आ गई है। उसे पसंद भी किया जा रहा है। तो ये अच्छा है।
गायन के लिए रामानुजम अवार्ड, फिरोदिया अवार्ड, सुधासिंधु अवार्ड, सुर मणि अवार्ड और सनातन संगीत पुरस्कार से से सम्मानित इस युवा गायक का मानना है कि अब तो रिअलिटी शोज के जरिये रातों-रात बच्चों से लेकर युवा तक शिखर पर पहुंच जाते हैं। लेकिन सवाल यह है कि वहां पहुंचकर कौन, कितनी देर टिकता है। संगीत की दुनिया बहुत बड़ी दुनिया है। रिअलिटी शोज उसका एक बहुत ही छोटा सा हिस्सा हैं लेकिन इसके जरिये बहुत बड़ी संख्या में टैलेंट सामने आ रहा है। अब सिक्के का दूसरा पहलू भी होता है, वह भी है ही। लेकिन आप सोचिए कि पहले तो कई प्रतिभाशाली कलाकार गुमनामी के अंधेरे में ही डूब जाया करते थे।
दोपहर में हुई इस बातचीत के बाद रात साढे सात बजे उनका गायन था। शाम छह बजे के आसपास बूंदाबांदी शुरू हो गई थी। मौसम ठंडा और खुशगवार हो गया था । लेकिन मेघ उमड़-घुमड़ कर, मुंह दिखाकर लौट गए थे। थोड़ा सा बरस कर और ज्यादा तरसा कर चले गए थे। जाहिर है उन्हें रिझाना था, लुभाना था ताकि वे जमकर बरसें और तृप्त कर जाएं। कभी कभी मौसम भी यह तय कर देता है कि कलाकार को क्या गाना है। लिहाजा पुष्कर ने अपने गायन की शुरुआत गौड मल्हार से की। उनके गायन में ताजगी थी और बोल अंग का इस्तेमाल कमाल का था। सुर और सरगम पर उनका अद्भुत नियंत्रण था। अपने रसीले गायन से उन्होंने श्रोताओं को तर कर दिया।
गौड़ मल्हार में उन्होंने एक छोटा सा आलाप लिया और फिर कुछ पारंपरिक रचनाएं पेश कीं। शुऱूआती झिझक के बाद उनका गायन आत्मविश्वास भरा था। धीरे-धीरे वे अपनी रंगत में आकर खूबी से जता रहे थे कि उनका गायन मनभावन है। उसमें माधुर्य भी था और गलाकारी भी। ओ बलमा बहार आई बंदिश में रमने का भाव था और जाहिर है इसे सुनकर श्रोता भी रमने लगे थे। इसके के बाद एक और रचना पेश की। बोल थे झुकी आई बदरिया सावन की, सावन की मनभावन की। इस प्रस्तुति को उन्होंने इतना सरस बनाया कि तपिश में ठंडी फुहारों का अहसास हुआ। इस रचना ने सावन के एक खूबसूरत दृश्य को जैसे पुष्कर जी ने अपने गायन से सजीव कर दिया। इसके बाद उन्होंने पंडित कुमार गंधर्व की एक बंदिश पेश की। सजल नैना काहे री, गौरी कारन बतावै री। इस बंदिश में उन्होंने कुमार गंधर्व के गायन का सुखद लेकिन आश्चर्यमिश्रित स्मरण कराया।
इसके बाद उन्होंने एक सरस रचना पेश की । बोल थे-मैं तोड़ लाई राजा जमुनिया की डाली रे। कल्पनाशील गायन से उन्होंने रचना के मर्म को साकार कर दिया। इसमें श्रृंगार भी था, रिझाना-लुभाना भी और प्रेम के नखरेभरे अंदाज भी। इसे उन्होंने झूमकर गाया।
जब कार्यक्रम राग मल्हार से शुरू होकर जामुन की डाल पर आकर रूका तो उस्ताद अमीर खां सभागृह के बाहर बारिश विलंबित में राग मल्हार ही गा रही थी....
Thursday, June 25, 2009
सलाम कपिल देव !
फ़ाइनल का स्कोर कार्ड यहां देखें: स्कोर कार्ड
उनके एकान्त में आदमी की पदचाप का खटका है
घोंसले में आई चिड़िया से
पूछा चूज़ों ने
मां! आकाश कितना बड़ा है?
चूज़ों को
पंखों के नीचे समेटती
बोली चिड़िया
सो जाओ
इन पंखों से छोटा है.
यह बिलासपुर, छत्तीसगढ़ में रहने वाले रामकुमार तिवारी की कविता है. रामकुमार जी से कुछ दिन पहले मुलाकात हुई थी. उनका दूसरा कविता संग्रह 'कोई मेरी फ़ोटो ले रहा है' २००८ में छप कर आया है. संग्रह में अनेक शानदार कविताएं हैं. सादगीभरी लेकिन बेहद बेहद जटिल चीज़ों को पकड़ने का हौसला रखने वाली कविताएं. विष्णु खरे ने संग्रह के ब्लर्ब में लिखा है: "मानवीय उपस्थिति के बिना आल कविता लिखना असंभव-सा है लेकिन रामकुमार तिवारी के काव्य में एक और बात जो चौंकाती है वह उसमें प्रकृति की अपेक्षाकृत प्रचुर उपस्थिति है. सूर्य, चन्द्र, धरती, आकाश, तारे, पहाड़, नदी, जंगल, पेड़, पक्षी, घाटी,, रेत, मरुस्थल आदि से कवि ऐसा सृष्टिचित्र रचता है जो अतिपरिचित 'प्रकृतिचित्रण' नहीं है बल्कि कवि के 'स्व' एवं प्रकृति के 'अन्य' के बीच कभी भावात्मक तो कभी चिंतनशील आवाजाही है. ... "
प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएं:
शमशेर कहां होंगे
गिनती की तैयारी में खड़े हैं पेड़
हिल रही पत्तियों के बीच
हिली एक पत्ती झील में
बहुत गहरे
हिला झील का पानी
हिला आकाश
नन्ही बूंद में डबडबाया सूरज
अनगिन रंगों के साथ डूबा
ओझल हो रहा
धीरे-धीरे
आकाश का पंछी
चट्टान पर हाथ रखे
खोह के पानी में
मछलियों को देखते-देखते
सोच रहा हूं
इस समय शमशेर कहां होंगे!
जल्दी-जल्दी रास्ता
रास्ते में पेड़ मिला
देखते ही पहचान गया
पुरखों की बातें करते समय
उसकी आंखे चमक रही थीं
मेरे पुरखों के बारे में
बहुत कुछ बताना चाहता था
मुझे पहुंचने की जल्दी थी
आजकल जल्दी पहुंचने के लिए
जल्दी-जल्दी रास्ता बदल रहा हूं.
धरती अपना संतुलन खो रही है
धरती पर
भटक रहे हैं धरती के लिए
अव्यक्त आकाश
देख-देख
सिलता हूं आकाश!
एक चादर में मेरी देह लिपटती है
सुबह
चादर को ऊपर, तानता हूं
आकाश!
आकाश नहीं
चादर मिलती है इस तरह
कि उसके बाहर
अपने पैर फैलाता हूं
मेरे पैर धरती से बाहर निकले हैं
धरती अपना संतुलन खो रही है
इस समय पृथ्वी पर
जल में मगर के भय से बड़ा हो गया
जल में मगर के न होने का भय
जंगल में
शेर के भय से बड़ा हो गया
शेर के न होने का भय
न होने के भय से डरी आंखें
खोज रही हैं जगह जगह
खत्म हो रही प्रजातियों के अन्तिम जोड़े
खत्म हो जाने के दुख में डूबे हैं
पृथ्वी ने अपने नीम अंधेरे में उन्हें छिपा लिया है
उनके एकान्त में
आदमी की पदचाप का खटका है
इस समय पृथ्वी पर
आदमी के न होने के भय से
बड़ा हो गया है आदमी के होने का भय.
(फ़ुरसत मिलने पर उनकी कुछेक और कविताएं कबाड़ख़ाने पर लगाई जाएंगी)
Tuesday, June 23, 2009
हमें करूणा ही बचा सकती है इस भयावह समय में
लगभग संशय के स्वरों में
मुझे
ख़ामोश करती हुई वह बोली
'वह ज़रूर हमारी बातें सुन रहा है
उसके मन में उतरती है एक-एक बात
वह बहुत चालाक है'
मैंने उसे आश्वस्त किया
उससे कुछ मत छिपाओ
वह सब जानता है वहाँ
होगा प्रविष्ट एक दिन
मेरी तरह यह भी
औरत की दुनिया में
पाग़ल होगा
धूप और संगीत के लिए
रोज़ एक नई दुनिया
बनाता हुआ
यह एक ऐसा कवि है जो एक मां के लिए कविताएं लिखते हुए औरत की दुनिया में एक बच्चे के जरिये शामिल होता है। वह जानता है कि सिर्फ औरत ही इस दुनिया को सुंदर और जीने लायक बनाती है। सपने देखने और गीत गाने लायक बनाती है। इस कवि की तरह ही किलकारियां भरता वह बच्चा औरत की दुनिया में शामिल होगा, धूप और संगीत के लिए पागल होता हुआ रोज एक नईदुनिया बनाएगा। वह नईदुनिया जहां खिलते फूल और मुस्कुराते खिलौने होंगे। हरी पन्नी से दिखाई देती हरी दुनिया होगी, हरा आसमान होगा और गुलाबी पन्नी लगाकर दिखाई देती गुलाबी दुनिया होगी। जाहिर है यह दुनिया को देखने का एक भोला और निर्दोष तरीका है और इसमें वह गहरी इच्छा भी शामिल है कि दुनिया को इसी तरह से सुंदर होना चाहिए। ये हैं समकालीन हिंदी कविता के महत्वपूर्ण कवि नरेंद्र जैन जिन्होंने एक बच्चे तीता के लिए कविताएं लिखीं और इसी शीर्षक से उनका संग्रह भी प्रकाशित हुआ था। इसीलिए वे बातचीत में कहते हैं कि यदि मुझे बुद्धिजीवियों और बच्चों में किसी के साथ रहना चुनना पड़े तो मैं बच्चों के साथ रहना पसंद करूंगा। मैं जुनून की हद तक उनकी दुनिया में रहता हूं और मुझे लगता है कि मैं बच्चों पर कविताएं लिखते हुए ही दुनिया-जहान के बारे में लिखता हूं। कहने की जरूरत नहीं कि बच्चे हमारी जिंदगी का अभिन्न हिस्सा हैं। वे श्रीकांत जोशी स्मृति समारोह में अपने एकल काव्य पाठ के सिलसिले में इंदौर आए थे।
वे मानते हैं कि इस भयावह समय में हमें करूणा ही बचा सकती है। और यह करूणा स्त्रियों और बच्चों में अविरल-अकुंठित बहती रहती है।वे कहते हैं इसीलिए मैं इनके जरिये करूणा को कविता में अभिव्यक्त करता हूं। हमारे समय के कई बड़े कवियों ने करूणा को ही तमाम अत्याचार के खिलाफ प्रतिरोध की ताकत में बदला है। आप स्त्रियों और बच्चों पर कविता लिखते हुए भी बड़ी राजनीतिक कविताएं लिख सकते हैं। इन पर लिखी गई कविताओं में बहती करूणा गहरी और सूझबूझ भरी राजनीतिक टिप्पणियां होती हैं। कई बार ये कविताएं किसी भी पोस्टर और नारेबाजी वाली कविता से ज्यादा सार्थक और कारगर होती है। हम यह जानते हैं कि हिंदी में कई कवियों ने कविता को पोस्टरों और नारे में तब्दील कर दिया था। हालांकि एक खास समय में उस कविता की अपनी सार्थक भूमिका भी रही है। धूमिल से लेकर आलोकधन्वा तक ने इस तरह की कविताएं लिखी हैं और वे बहुत महत्वपूर्ण कविताएं हैं लेकिन मैं समझता हूं वे कविताएं ज्यादा गहरी हैं जो अपने अंडर करंट में गहरे राजनीतिक आशयों वाली कविताएं हैं। आप किसी स्वप्न, स्त्री और बच्चे पर कविता लिखते हुए भी बेहतर राजनीतिक कविताएं लिख सकते हैं लेकिन इसके अपने खतरे हैं। यह सब करते हुए कवि सचेत नहीं हुआ तो हो सकता है उसकी कविता गलत दिशा में जाकर अमूर्त हो जाए।
हिंदी कविता से दूर होते पाठकों के सवाल पर वे कहते हैं कि इसका एक बड़ा कारण गद्य कविता है। गद्य कविता के नाम पर कुछ कवियों ने ऐसी कविताएं लिखी हैं कि वे वास्तव में समझ में नहीं आती। सिर्फ एक फैशन या ट्रेंड के नाम पर खूब गद्य कविताएं लिखी गईं जिनमें कम कविताएं अच्छी हैं। कई बार ये इतनी अमूर्त होती हैं कि शिल्प का चमत्कार भर लगती हैं। वे क्या कहना चाहती हैं, यह साफ नहीं हो पाता। मिसाल के तौर पर उदयन वाजपेयी या गगन गिल की कुछ इसी तरह की कविताएं मुझे कतई समझ नहीं आती जबकि इन्होंने दूसरी अच्छी कविताएं लिखी हैं। मंगलेश डबराल ने भी गद्य कविताएं लिखी हैं लेकिन देखिए वे अपनी सादगी और मारकता में कितनी संप्रेषणीय हैं। विष्णु खरे की क्रिकेट पर लिखी कविताएं मुझे अच्छी नहीं लगी थीं। यह कतई जरूरी नहीं कि नए विषयों पर लिखी गई कविताएं अच्छी ही हों। विष्णुजी की क्रिकेट पर लिखी गई कविताओं पर तो मैंने लिखा भी था। यह बात उन्हें इतनी चुभ गई और याद रह गई कि जब मुझे और उनको रघुवीर सहाय पुरस्कार साथ-साथ दिया गया तो मंच पर ही उन्होंने मेरी उस आलोचना का उल्लेख करते हुए कहा था कि आप क्रिकेट का जादू नहीं जानते लेकिन मैं अब भी अपनी राय पर कायम हूं। दूसरे छोर पर ऐसे भी कवि भी हैं जिन्होंने ढेर सारी खराब छंदबद्ध कविताएं लिखीं जो सुनने में तो अच्छी लगती हैं मगर उसका कंटेंट बहुत ही कमजोर होता है। इस तरह की कविता ने भी पाठकों को दूर किया है और अच्छी कविता का नुकसान। अच्छी कविता अपने रूप और कथ्य के जरिये ही पाठकों को प्रभावित कर सकती है। मुझे मंगलेश डबराल, असद जैदी, मनमोहन और सौमित्र मोहन की कविताएं बहुत अच्छी लगती हैं। इधर सौमित्र मोहन तो बेहतरीन फोटोग्राफी कर रहे हैं और एक फोटोग्राफर के रूप में भी जाने-पहचाने जाते हैं।
नाम लिए बिना नए कवियों पर टिप्पणी करते हुए वे कहते हैं कि पहली नजर में तो उनकी कविताएं फ्रैश और शॉर्प दिखाई देती हैं लेकिन इसे वे बरकरार रख पाएंगे, इसमें संदेह है। मेरी कई नए कवियों से बात होती है। वे पुराने लेखकों को पढ़ते ही नहीं। मैंने एक युवा कवि से पूछा कि आपने काफ्का या नीत्शे को पढ़ा है तो उनका कहना था- नहीं। कुछ नए कवि तो मानते हैं कि इन्हें पढ़ने की वे जरूरत ही नहीं महसूस करते। यह तो छोड़िए, उनकी अच्छे संगीत, अच्छी चित्रकला और अच्छे सिनेमा में भी खास दिलचस्पी नहीं है। मैं मानता हूं कि अच्छी कविता-कहानी या उपन्यास लिखने के लिए अच्छी चित्रकारी, अच्छा संगीत और अच्छा सिनेमा देखना-सुनना भी जरूरी है। ये कहीं ने कहीं आपको समृद्ध ही करते हैं।
अपने अनुवाद कर्म के बारे में वे कहते हैं कि मैं विश्व कविता से अनुवाद के लिए उन कवियों की कविताओं को चुनता हूं जो हिंदी में या तो नहीं पढ़े गए हैं या कम पढ़े गए हैं। इसीलिए मैंने डेनिस ब्रूट्स (जिम्बाब्वे), कोबस मूलमैन (दक्षिण अफ्रीका), डेविड श्मेट (दक्षिण अफ्रीका ), फालूदी जॉर्ज (हंगरी) और शेल सिल्वरस्टिन (अमेरिका) जैसे कवियों के अनुवाद किए हैं। उनके ये सारे अनुवाद हाल ही में मासिक पत्रिका रचना समय में प्रकाशित हुए हैं। उन्होंने इन कवियों के अलावा बर्तोल्ट ब्रेख्त (जर्मनी), नाजिम हिकमत (तुर्की), पाब्लो नेरूदा (चिली), आक्तोवियो पाज (मैक्सिको) और गैब्रिएला मिस्त्राल (चिली) की कविताओं के अनुवाद भी किए हैं। उन्हें रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार, गिरिरजाकुमार माथुर पुरस्कार, विजयदेव नारायण साही पुरस्कार, अश्क सम्मान, शमशेर सम्मान, वागीश्वरी पुरस्कार मिल चुके हैं। उनके रेखांकनों की एक प्रदर्शनी भी लग चुकी है।
Saturday, June 20, 2009
प्राग, गोलेम का मिथक और कुछ तस्वीरें
फ़िलहाल प्राग के यहूदी कब्रिस्तान में दफ़नाए गए रब्बी लोव और गोलेम का ज़िक्र अपरिहार्य रूप से साथ साथ किया जाता है. रब्बी लोव सोलहवीं शताब्दी में प्राग के यहूदियों के सबसे बड़े धर्मगुरु थे. वे यहूदी धर्म के सबसे बड़े अध्येताओं में भी गिने जाते हैं.
एक किंवदन्ती के अनुसार यह भविष्यवाणी की गई थी कि प्राग के सारे यहूदियों को कत्ल-ए-आम का सामना करना पड़ सकता था. उन दिनों सेमाइट विरोधियों ने यहूदियों पर हमला बोला हुआ था. उक्त भविष्यवाणी के मद्देनज़र रब्बी लोव ने प्राग में बहने वाली व्रत्लावा नदी के किनारे की मिट्टी से गोलेम नामक एक महाकाय का सृजन किया. मिट्टी के इस विशाल पुतले के भीतर मन्त्रोच्चारण कर प्राण फ़ूंके गए. गोलेम को बनाने का मकसद था प्राग नगर की सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु एक पहरेदार तैयार करना.
बड़ा होने के साथ साथ गोलेम हिंसक होता चला गया. उसने भोले भाले लोगों का कत्ल करना शुरू कर दिया. एक अन्य कथा के मुताबिक प्रेम में पड़ गए गोलेम को उसकी प्रेमिका द्वारा अस्वीकार कर दिया गया था जिसके कारण वह एक हिंसक दैत्य में तब्दील हो गया.
बादशाह ने रब्बी लोव से गोलेम को नष्ट करने का अनुरोध किया. गोलेम को निष्क्रिय करने हेतु रब्बी ने उसके माथे पर लिखे हिब्रू शब्द EMET (अर्थात सत्य या वास्तविकता) का पहला अक्षर मिटा दिया. बचे हुए शब्द MET का अर्थ होता है मृत्यु. इस प्रकार गोलेम का नाश हुआ. बादशाह को यह बताया गया था कि ज़रूरत पड़ने पर गोलेम को वापस ज़िन्दा किया जा सकता है. इस कथा के मुताबिक गोलेम को पुराने सिनागॉग के तहखाने में दफ़ना दिया गया. कोई कहता है गोलेम का शव अब भी वहीं है, कोई कहता है उसे चुरा कर कहीं और दफ़ना दिया गया. कहा तो यह भी जाता है कि दूसरे विश्वयुद्ध में कुछ नाज़ी सैनिकों ने गोलेम को शव को चुराने का प्रयास किया पर वे सारे मारे गए. सच जो भी हो सिनागॉग का तहखाने आम जनता के लिए कभी नहीं खोला जाता.
गोलेम का मिथक समूचे चेक गणराज्य में बेहद लोकप्रिय है. तमाम रेस्त्रां और कम्पनियां इस नाम को अपना चुके हैं. गोलेम के भीतर अतिमानवीय और परामानवीय शक्तियां हुआ करती थीं - वह स्पर्श मात्र से अन्धों को रोशनी दे सकता था, बीमारियां दूर कर सकता था और यहां तक कि मृत लोगों को जीवित भी कर सकता था.
गोलेम की कथा १८४७ में प्राग से छपे एक ग्रन्थ में सामने आई. बाद में १९११ में कथित रूप से खोजी गई रब्बी लोव की डायरियों में गोलेम के सृजन और नाश का वर्णन था.
गोलेम का मिथक यूरोप के अन्य देशों जैसे इंग्लैण्ड, फ़्रांस, जर्मनी और नीदरलैण्ड में भी प्रचलित है.
कल जिस यहूदी कब्रिस्तान की तस्वीरें मैंने लगाई थीं उसी के निकट अवस्थित एक संग्रहालय में गोलेम से सम्बन्धित ढेरों चीज़ें प्रदर्शित की गई हैं. म्यूज़ियम शॉप में आप अपनी पसन्द का गोलेम खरिद सकते हैं.
प्राग के भीतर अजीब-ओ-गरीब कहानियों की खानें है.
किसी ज़माने में यहां कीमियागर भी बसा करते थे. उन को लेकर ढेरों ढेर कहानियां हैं.
भूतों को लेकर एक से एक शानदार किस्से हैं. सबसे ज़्यादा मशहूर तो एक संगीतकार भूत का है जो पुराने किले के आसपास किसी किसी को रोता हुआ वायोलिन बजाता नज़र आ सकता है.
प्राग की यादों ने तो अब उमड़ना शुरू किया है. सो एकाध पोस्ट्स और आनी चाहिए शायद.
(ऊपर: मिकोलस आलेस का लिथोग्राफ़: रब्बी लोव और गोलेम और रब्बी लोव की कब्र)
प्राग की चन्द और तस्वीरें देखिए फ़िलहाल.
शैलेंद्र सिंह, यानी एक प्यारे दुश्मन का जाना
जला है जिस्म जहां दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है
शैलेंद्र प्यारे...
मुझे यकीन है कि मुमकिन होता तो अपनी जलती चिता के साथ हो रही कार्यवाहियों को देखकर तुम गालिब का यही शेर दोहराते और ठठाकर हंस पड़ते। निगम बोध घाट पर तुम्हारी चिता को दूर से तकते हुए मेरे कान में तुम्हारी वो मलंग हंसी लगातार बज रही थी जो 17 जून की आधी रात तुम्हारे और मेरे बीच बात-बात में खिल उठती थी। जीवन से भरी कव्वालियां सुनते-गाते हुए हमें ये अहसास होता भी कैसे कि मौत उसी कार की पिछली सीट पर पंजे खोलने को बेताब बैठी है जहां तुम्हारी गीता, रामायण और शिवपुराण रखे हुए थे । तब शायद दो दोस्तों की मुलाकात की गर्मी के बीच दाखिल होने की उसकी हिम्मत नहीं पड़ी। उसने तुम्हारे अकेले होने का इंतजार किया औऱ माकूल बहाना मिलते ही काम कर गई।
बहरहाल, अब हर तरफ खबर है कि मैं ही वो शख्स हूं जिसके साथ तुम्हें आखिरी बार देखा गया। मैं एक गवाह की हैसियत से तुम्हारी कहानी में हमेशा के लिए चस्पा हो गया हूं। पता नहीं, तुम इसे पसंद करते या नहीं कि तुम्हारी कहानी के आखिरी सफे पर एक गवाह की जरूरत पड़ रही है। आखिर तुमने अपनी जिंदगी के सारे मुकदमे अकेले ही लड़े थे।
पर मेरा बयान सुनने को बेकरार लोगों को मैं क्या-क्या और कैसे बताऊं। कैसे बताऊं कि रात साढ़े ग्यारह बजे तक तुम मुझमें इंतजार की चिढ़ भरते हुए अपने शेरों और कविताओं को गूंथकर एक प्रेमपत्र लिख रहे थे। खुश थे कि कलम चलती जा रही है। मुंबई के कविमित्र बोधिसत्व से बीती रात ही तुम्हारी लंबी बात हुई थी जिसमें उन्होंने कुछ लिखने का इसरार किया था और तुम उसे तुरंत पूरा कर डालना चाहते थे। पहला ड्राफ्ट हो भी गया था, जिसे तुमने कंप्यूटर के ड्राफ्ट में सेव कर लिया था। इरादा था कि दूसरे दिन मुझे पढ़ाओगे और जरूरी हुआ तो कुछ तरमीम करके बोधिसत्व को भेज दिया जाएगा। मुंबई की फिल्मी दुनिया को अपढ़ों का संसार बताते हुए हमने साथ ही डींग मारी थी कि "गुरु, सही जगह पहुंच जाएं तो बाजा बजा दें।"
लेकिन अफसोस अब वो प्रेमपत्र कोई नहीं पढ़ा पाएगा। पता नहीं, हम ऐसे रिश्ते में कैसे बंध गए थे कि एक दूसरे को अपना लिखा दिखाने और सलाह पर कान भी देने लगे थे। वरना न तुम कम ऐंठू थे और न मैं। तुमसे संवाद तो तब से था जब हम स्टार न्यूज में थे। तुम मुंबई दफ्तर में और मैं लखनऊ में। याद है, 'हंस' में छपी तुम्हारी गजलों को लेकर जब मैंने तुम्हें बधाई दी थी तो तुमने तड़प कर कहा था कि मुंबई में 'हंस' नहीं मिलता। फिर मैंने उस पन्ने को जब फैक्स किया तो तुमने बड़े प्यार से शुक्रिया कहा था। पर दिल्ली आकर जब आईबीएन7 में तुमसे मुलाकात हुई तो बड़ा निराश हुआ था। ऐसा लगा कि तुम मुझे पहचानते ही नहीं। हाथ में सिगरेट लेकर बगल से ऐसे गुजर जाते थे जैसे मेरा अस्तित्व ही न हो। अपने जेहन में तुम्हारे नाम के आगे मैंने 'घमंडी' दर्ज कर लिया था। लेकिन जल्दी ही पता चल गया कि कई बार दूसरे ही नहीं तुम खुद भी वहां नहीं होते, जहां से तुम्हें गुजरते देखा जाता था।
फिर तो संवाद बढ़ाने की मेरी पहल के साथ ही सारी दीवारें भरभरा के गिर पड़ीं। हम वाकई दोस्त बन गए। ऐसे दोस्त जिनमें कुछ भी समान नहीं था। तुम इस दुनिया से ज्यादा 'उस' दुनिया की बातें करते थे जबकि मैं इस दुनिया को बेहतर बनाने के उपक्रमों में रुचि लेता हूं। तुम दुनिया को ईश्वर की देन बताते थे और मैं ईश्वर को मनुष्य का सबसे दिलचस्प आविष्कार। तुम क्रियायोग और कुंडलिनी जागरण के तमाम तिलिस्म में विचरने वाले जीव थे और मैं स्वास्थ्य रक्षा के आदिम ज्ञान को रहस्यों में ढकेलने के लिए तुम जैसों को जी भर कोसता रहता था। साझा बस इतना ही था कि मानुष की जाति को हम दोनों ही पानी का बुलबुला मानते थे और लाखों साल के मानव सभ्यता के इतिहास में अपने जीवन को औकात से ज्यादा महत्व देने को मूर्खता। हम मौका पाते ही एक-दूसरे के पास पहुंच जाते थे क्योंकि आग के लिए पत्थरों के बीच रगड़ जरूरी होती है और हम अपने अंदर की आग को जलाए रखने के लिए टकराते रहते थे।
ऐसा नहीं था कि तुम दुनियादार नहीं थे, लेकिन तुम कभी ये भूलने नहीं देते थे कि ये दुनिया फानी है। इस लिहाज से न्यूज चैनलों की चीखपुकार के अजब संसार में तुम्हारी उपस्थिति बेहद मौलिक थी। तुम्हारी संजीदगी और बेचैनी की वजह से वे लोग जरूर तुम्हे अर्धपागल समझते थे जिन्हें खुद के पागल न होने का पक्का यकीन है। चूंकि ऐसा यकीन मुझे नहीं है इसलिए मैं तुम्हारी ईमानदारी पर कभी शक नहीं कर सका। तुम जो कहते थे, उस पर तुम्हें पूरा यकीन था। तुम्हारी भावुकता हृदय की गहराइयों से पैदा हुई थी। इस लिहाज से तुम वाकई मेरे लिए एक उपलब्धि थे। 12 साल की नौकरी में पहली बार कोई मिला था जिसने मन के कोने में दबी दार्शनिक भूख को इस कदर जगाया। जिसकी निकटता से कलम खुद ब खुद मचल उठी और चेतना के सूखते जा रहे दरख्त को पानी मिला।
वाकई, तुमसे झगड़ना एक नशे की तरह था जिसके बिना न तुम्हें चैन पड़ता था न मुझे। हालांकि मैं कभी आपे से बाहर नहीं हुआ लेकिन फिर भी न जाने क्यों तुमने मुझे 'दुर्वासा' का नाम दे दिया था। बदले में मैं तुम्हें 'परासर' कहने लगा। इरादा 'सत्यवती प्रसंग' की याद दिलाकर तुम्हारे छैला बने रहने की कोशिशों पर रस लेना था। इसका मजा लेने में तुम पीछे रहे भी नहीं। हालांकि उन बहसों में मैं तुमसे कभी जीत नहीं पाया। आखिर मैं इसका क्या जवाब देता कि मेरी सारी समस्या मेरा दिमाग है। तुम्हारी 'माइंड से नो माइंड' वाली बात मेरे लिए एक विकट बकवास थी लेकिन इस पर तुम्हारी आस्था अभिभूत करती थी। फिर जब तुम ये कहते थे कि 'मैं' 'मैं' कहां और 'तुम' 'तुम' कहां कि बहस की जाए, तो मेरा माथा घूम जाता था। मैं इसके सिवा क्या कहता कि सदियों से ऐसी बातें करके विद्वतजन आम लोगों को मूर्ख बनाते आए हैं। तुम जोर से हंस पड़ते थे। कुछ इस अंदाज में कि 'देखा बच्चू, घुमा दिया न।'
लेकिन आखिरकार हफ्ते भर पहले तुम्हें हराने का सुख मुझे मिल ही गया। 'ये इश्क नहीं आसां, बस इतना समझ लीजै, इक आग का दरिया है, और डूब के जाना है' को तुम गालिब का शेर बता बैठे थे जबकि ये जिगर मुरादाबादी का निकला, जिन पर मेरा दांव था। वैसे तुम इस हार से दुखी नहीं थे क्योंकि मेरी जीत के जश्न में तुम्हारी शिरकत भी तय थी।
हां, ये सच है कि उस दिन आधी रात मुझे घर छोड़ते जाते वक्त तुम्हारा अजब ही रूप मेरे सामने था। तुम दिल का एक-एक रेशा उधेड़ रहे थे। तुम हंस रहे थे, गा रहे थे और कभी-कभी उदास भी हो रहे थे। तुम चाहते थे कि मैं देर तक तुम्हारे साथ रहूं। अब लगता है कि काश तुम्हारी बात मान लेता तो शायद अनहोनी टल जाती। पर हमारे जीवन में न जाने ऐसे कितने 'काश' आते हैं जब हाथ मलने के सिवा कुछ नहीं बचता।
मुझे घर छोड़कर तुमने जिस तरह हंसते हुए विदा ली थी, वो चेहरा मेरे सामने अभी भी घूम रहा है। बुरा न मानना मित्र, मैंने तुम्हारा मरा मुंह नहीं देखा। न अस्पताल में, न पोस्टमार्टम हाउस में और न निगमबोध घाट में। न, मैं नहीं चाहता कि मेरी यादों में मुस्कराते चेहरे की जगह कोई क्षत-विक्षत लाश तुम्हारे नाम पर दर्ज हो जाए।
मुझे लगता है कि अगर मृत्युपार का जीवन वैसा ही है जैसी तस्वीर पुराणों में है, तो तुम यकीनन स्वर्ग में रहोगे, और वक्त आया तो मेरे लिए भी एक बर्थ का इंतजाम जरूर कर दोगे। उस मोटे यमराज को अपनी तरह स्लिम बनाने का लालच देकर स्वर्ग का ऑफीसियल योगगुरु बनने में तुम्हें देर नहीं लगेगी। वैसे, मुझे वाकई इंतजार है कि तुम पारलौकिक जीवन का कोई सबूत मुझ तक पहुंचाओ। इस दार्शनिक मुठभेड़ में तुम अब भी चाहो तो मुझे हरा सकते हो।
वरना मेरे लिए तुम्हारे जैसे दोस्त कभी नहीं मरते। वे हमारी स्मृतिपुंज का हिस्सा बनकर हमारे वजूद में शामिल हो जाते हैं और भविष्य की यात्रा में गिरने-बहकने की तमाम संभावनाओं के खिलाफ सचेत करते रहते हैं।
तुम इस भूमिका में हमेशा मेरे साथ रहोगे...हमेशा। अलविदा शैलेंद्र...अलविदा!
तुम्हारा
दुर्वासा...
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(शैलेन्द्र सिंह का फ़ोटो आईबीएन खबर डॉट कॉम से साभार)
Friday, June 19, 2009
उस्ताद अली अकबर ख़ाँ;खामोश हो गया सरोद.
भारतीय शास्त्रीय संगीत के लिये आज का दिन बड़ा मनहूस है जब आपके साथ यह ख़बर बाँटी जा रही है कि सरोद के सुमेरू उस्ताद अली अकबर ख़ाँ साहब नहीं रहे. मैहर घराने के शीर्षस्थ साधकों में ख़ाँ साहब का नाम शुमार था. अपने बेजोड़ सरोद वादन से उन्होने पूरी दुनिया में हिन्दुस्तानी संगीत मान बढ़ाया. आज जब तंत्रकारी के नाम पर ज़माने भर का शोर हुआ जा रहा है ख़ाँ साहब ताज़िन्दगी अपनी रिवायत और घराने के अनुरूप इस दुर्लभ वाद्य को साधते रहे. बिना इस बात की परवाह किये कि ज़माना बदल रहा है,लोगों का स्वाद बदल रहा है और बदल रही है क्लासिकल मूसीक़ी की फ़ितरत; ख़ाँ साहब अपने वालिद और मैहर घराने के संस्थापक महान संगीताचार्य उस्ताद अलाउद्दीन ख़ाँ की सोच और सीख का ही अनुसरण करते रहे. ज़माना जानता है कि बाबा अलाउद्दीन ख़ाँ कितने सख़्त तबियत की गुरू थे.
पण्डित रविशंकर भी बाबा के पास ही सितार सीखे थे. कहते हैं एक बार बाबा नें किसी बात पर क्रोधित होकर अपनी छड़ी से रविशंकरजी को पीटा. युवा पण्डितजी ने दु:खी होकर मैहर से वापसी का फ़ैसला कर लिया और अपना सामान बाँध कर स्टेशन पहुँच गए.अली अकबर को जब ये बात मालूम पड़ी तो वे भागते हुए स्टेशन पहुँचे और भीगी आँखों से रवि बाबू को बताया कि बाबा की छड़ी दर असल तुम्हारे प्रति मोहब्बत का इज़हार है. हमें (अली अकबर और उनकी बहन अन्नपूर्णा यानी पं.रविशंकर की पत्नी) को तो बाबा की छड़ी खाने का सौभाग्य ही नहीं मिला,घर चलो रवि.और पण्डितजी लौट आए अपने महान उस्ताद के घर.बाद में पं.रविशंकर कहाँ पहुँचे ये पूरी दुनिया जानती है.
फ़िल्म आँधिया(1953) के लिये जब प्रसिध्द निर्देशक चेतन आनंद ने उस्ताद अली अकबर ख़ाँ को अनुबंधित किया तो ख़ाँ साहब ने साफ़ कह दिया कि मेरा इलाक़ा शास्त्रीय संगीत है और मैं अपने गुरू की इजाज़त के बग़ैर धुनों की फ़ायनल रेकॉर्डिंग नहीं होने दूँगा. चेतन आनंद राज़ी हो गए. जब बाबा को अली अकबर नें अपनी धुन सुनाई तो वे बहुत प्रसन्न हुए . अली अकबर खाँ साहब में पिछले दिनों एक इंटरव्यू में कहा था कि जिस दिन बाबा स्टुडियो आए उसी दिन उन्होंने अपने पिता-गुरू का चेहरा ध्यान से देखा.सोचिये क्या अनुशासन और गरिमा रही होगी उस ज़माने में .तब तक अली अकबर पूरे तीस के हो चुके थे. पचास के द्शक में पं.उदय शंकर,पं.रविशंकर के बाद पहले पहल विदेश जाकर अपनी प्रस्तुतियाँ देने वाले कलाकारों में उस्ताद विलायत ख़ाँ ही थे.
ख्यात गायिका आशा भोंसले के साथ उस्ताद अली अकबर ख़ाँ ने लिगैसी नाम से एक अतभुत एलबम तैयार किया था.इसे सुनकर आशाजे और उस्तादजी के करिश्मे की बानगी सुनी जा सकती है.
उस्ताद अली अकबर ख़ाँ के इंतक़ाल से न केवल आज सरोद की मिठास चली गई है वरन उस दौर का भी अंत भी हो गया है जिसमें साधना प्रमुख हुआ करती थी और ग्लैमर निरर्थक.कबाड़ाख़ाना पर सरोद के इस सर्वकालिक महान कलाकार को श्रध्दांजली.
आइये सुनें उस्ताद अली अकबर ख़ाँ साहब का बजाया राग पीलू.ये भी बताता चलूँ कि आज यहाँ जारी किया गया दुर्लभ चित्र इन्दौर की साठ बरस पुरानी संस्था अभिनव कला समाज के मंच का है जहाँ उस्ताद की एकाधिक प्रस्तुतियाँ हुईं हैं.
Ali Akbar KHAN - Ali Akbar KHAN, Piloo | ||
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हिटलर के मंसूबे और प्राग का पुराना कब्रिस्तान
यूरोप में इसे सबसे पुराना सुरक्षित यहूदी कब्रिस्तान माना जाता है. जब हिटलर दुनिया को नेस्तनाबूद करता बढ़ रहा था, उसकी नाज़ी सेना यह सुनिश्चित करती थी कि यहूदियों का कोई कब्रिस्तान तक साबुत न बचे. लेकिन हिटलर ने इस कब्रिस्तान को सुरक्षित रखने का फ़रमान दिया था. इसके पीछे एक दुष्ट महत्वाकांक्षा थी. उसकी योजना थी कि समूचे यूरोप से यहूदियों का पूरी तरह सफ़ाया कर चुकने के बाद आने वाली पीढ़ियों के लिए एक यहूदी संग्रहालय बनवाया जाए.
हिटलर अपने मंसूबों समेत तो कब का कब्र में घुस चुका, यह कब्रिस्तान अब भी बचा हुआ है. यह छोटा सा कब्रिस्तान अपने भीतर करीब एक लाख यहूदियों को दफ़्न किए है. एक दूसरे से सटे करीब बारह हज़ार कुतबे देखे जा सकते हैं. मशहूर रब्बी लोव की कब्र का पत्थर यहां का विशेष आकर्षण है. रब्बी लोव की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं पर फ़िलहाल आप तस्वीरें देखिए.
(रब्बी लोव के बारे में एक मज़ेदार पोस्ट जल्द ही प्राग की कुछ और तस्वीरों के साथ जल्दी लगाऊंगा)
Wednesday, June 17, 2009
जावेद अख़्तर के भाषण पर एक लम्बी प्रतिक्रिया
कल उन्होंने इस पोस्ट का बहुत गहरा विवेचन करते हुए एक लम्बा मेल भेजा. मेल तनिक लम्बी है और ज़रा ध्यान से पढ़े जाने की दरकार रखती है. मेल को जस का तस आप लोगों के वास्ते यहां लगा रहा हूं.
पर्याप्त समय हो तभी शुरू करें...
नीचे जो आलेख आप पढ़ने जा रहे हैं उसकी एक विचित्र भूमिका है। जावेद साहब का यह व्याख्यान कबाड़खाना ब्लाग पर पढ़ा तो यूं ही कुछ मित्रों के साथ विचारो का आदान-प्रदान हो गया। बात कुछ बढ़ गई। मेरा अनुभव रहा है कि जहाँ तार्किक बहस हो रही हो वहाँ यदि वक्ता का भाषा पर ठीक-ठाक अधिकार है, वह तार्किक बहस की तकनीक से परिचित है तो अंत में बोलनेवाला हमेशा ही महफिल को लूट लेता है। मैंने इस लेख पर जो भी टिप्पणियाँ पढ़ी इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा में पढ़ी। मैंने देखा नास्तिकों के भी अपने ईश्वर हैं जिनके खिलाफ वे एक शब्द भी नहीं सुन सकते। वे अपनी नास्तिकता के प्रति गहरे आस्तिक हैं, कट्टर हैं, नास्तिक गुरुओं के भी पर्याप्त शिष्य हैं जो गुरु को ही तारणहार मानते हैं, और अटूट श्रद्धा रखते हैं। मुझ पर समय-समय पर यह भी खुलता रहा है कि जो लोग दूसरों को अंधविश्वासी, दिल-दिमाग गिरवी रखने वाले, चीजों को खास चश्मे से देखने का आरोप लगाते रहते हैं और अपने आप को बुद्धिपरक कहते हैं, उनकी स्वयं की आँखों पर भी बहुत सारे चश्मे पड़े हुए हैं। तार्किकों की महफिलों में पर्याप्त रूप से अंध-अविश्वासी माहौल है। विचारधारा को लेकर अंत में जो भी निर्णय होता है वह तर्क से नहीं इसी विश्वास या अविश्वास से ही होता है। (हम अपने विचारों के प्रति तार्किक नहीं वस्तुतः भावुक हो जाते हैं, मेरे गाँव में जागीरदार के यहाँ शादी-ब्याह के अवसर पर मण्डली नोटंकी करने आती थी, शाम सात-आठ बजे हम बालक मण्डली के आसपास इकट्ठा हो जाते, मण्डली वाले तैयार हो रहे होते, दो धुर विरोधी पात्रों का अभिनय करने वाले अभिनेता एक-दूसरे को उसका संवाद याद कराते हुए मिलते, रात को नाटक में वे आपस में लड़ रहे होते थे। जागीरदार के घर गाँव के मनोरंजन के लिए खेला जाने वाला यह नाटक अधिकांशतः जागीरदार के खिलाफ होता था, जैसे राजकुमारी को किसी आम आदमी से प्यार हो जाता अंत में प्यार की जीत हो जाती थी। जागीरदार देखता भी और इनाम भी देता, जबकि गाँव के छोरों को उसकी लडकी के दर्शन करना भी उपलब्ध नहीं होता था। गाँव का मनोरंजन होता, स्थिति जस की तस रहती। जागीरदार अपने खिलाफ होने वाले नोटंकी का खुद प्रबन्ध करता है और पूरी अकड़ में रहता है। एक प्रभाव जरूर होता है इन नाटकों का, जनता सपनों में चली जाती है, सपने में जागीरदार को जीत लेती है, जमीनी असंतोष स्थगित हो जाता है।
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आध्यात्मिकता अमीरों की ट्रांक्विलाइज़र है
हमारे समय के बड़े कवि-कहानीकार श्री कुमार अम्बुज ने मेल से यह ज़बरदस्त और ज़रूरी दस्तावेज़ भेजा है. बहुत सारे सवाल खड़े करता जावेद अख़्तर का यह सम्भाषण इत्मीनान से पढ़े जाने की दरकार रखता है. इस के लिए श्री कुमार अम्बुज और डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल का बहुत बहुत आभार.
(जावेद अख्तर के इण्डिया टुडे कॉनक्लेव में दिनांक 26 फरवरी, 2005 को ‘स्पिरिचुअलिटी, हेलो ऑर होक्स’ सत्र में दिए गए व्याख्यान का डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद)
मुझे पूरा विश्वास है देवियों और सज्जनों कि इस भव्य सभा में किसी को भी मेरी स्थिति से ईर्ष्या नहीं हो रही होगी. श्री श्री रविशंकर जैसे जादुई और दुर्जेय व्यक्तित्व के बाद बोलने के लिए खड़ा होना ठीक ऐसा ही है जैसे तेंदुलकर के चमचमाती सेंचुरी बना लेने के बाद किसी को खेलने के लिए मैदान में उतरना पड़े. लेकिन किन्हीं कमज़ोर क्षणों में मैंने वादा कर लिया था. कुछ बातें मैं शुरू में ही साफ कर देना चाहता हूं. आप कृपया मेरे नाम –जावेद अख्तर- से प्रभावित न हों. मैं कोई रहस्य उजागर नहीं कर रहा. मैं तो वह बात कह रहा हूं जो मैं अनेक बार कह चुका हूं, लिखकर, टी वी पर या सार्वजनिक रूप से बोलकर, कि मैं नास्तिक हूं. मेरी कोई धार्मिक आस्थाएंनहीं हैं. निश्चय ही मैं किसी खास किस्म की आध्यात्मिकता में विश्वास नहीं करता. खास किस्म की!एक और बात! मैं यहां बैठे इस भद्र पुरुष की आलोचना करने, इनका विश्लेषण करने, या इन पर प्रहार करने खड़ा नहीं हुआ हूं. हमारे रिश्ते बहुत प्रीतिकर और शालीन हैं. मैंने हमेशा इन्हें अत्यधिक शिष्ट पाया है.
जब हम किसी व्यक्ति को इस प्रकार के विशेषणों से अलंकृत करते हैं तो हमें अपनी बात को, विचार को गहराई से समझाने के लिये इस गहराई में भी उतरना चाहिये कि उक्त व्यक्ति ने ऐसे संस्कार, ऐसे गुण कहाँ से प्राप्त किये हैं, उसकी प्रेरणायें क्या हैं। कहीं यह उसका छल तो नहीं है। यदि श्री रविशंकर शालीन और शिष्ट हैं तो क्या उन्हें यह गुण उनकी आध्यात्मिकता प्रदान कर रही है या यह उनका कपट व्यवहार है। अगर वक्ता इस गहराई के साथ अपने विचारों को स्पष्ट करता है तो उसका सम्प्रेषण बेहतर होगा। जावेद साहब शायद किन्हीं खास मर्यादाओं के कारण ऐसा नहीं कर रहे हैं, व्यावहारिक रूप से यही बेहतर है, लेकिन बात को आगे बढाने से पहले हमें अपने दिमाग में इस बात को भी रखना चाहिये। हमें इस बात पर कोई ऐतराज नहीं होना चाहिये कि कोई व्यक्ति नास्तिक है, या उसकी किसी खास प्रकार की धार्मिक आस्थायें नहीं हैं, खास किस्म की, बशर्तें ऐसा व्यक्ति अपनी मानवता को बचाये रखे, परस्पर सम्मान में विश्वास रखे, सामाज में, देश में, विश्व में, पर्यावरण में आस्था रखने वाला हो अपनी जिम्मेदारियों का पालन करने वाला हो। लेकिन मुझे इस सदेच्छा पर सहज ही भरोसा नहीं होता, ठीक इसी प्रकार जैसे कोई राजा भी हो साथ ही विनम्र भी हो। इसके विपरीत यदि व्यक्ति आस्तिक है लेकिन उसमें उक्त गुण नहीं है तो उसकी आस्तिकता भी व्यर्थ है, समाज में उसकी स्वीकार्यता नहीं होगी, उसकी आस्तिकता पर संदेह किया जाना उचित होगा। आस्तिकता-नास्तिकता एक विवेक सम्पन्न व्यक्ति का नितांत निजी मामला है। जहाँ तक किसी खास किस्म की धार्मिक आस्था का प्रश्न है, हमें सवाल की गहराई में जाना चाहिये। यदि यह वर्तमान समय में धर्म के नाम पर हो रही मारकाट, धर्मों की आपसी लड़ाई या साम्प्रदायिक कट्टरवाद के खिलाफ एक सुरुचि सम्पन्न, शांतिप्रिय और मानवतावादी व्यक्ति की अरुचि है, मोहभंग है, तो वरेण्य है, प्रशंसनीय है। खास किस्म की धार्मिक आस्था नहीं होना, धर्म को सम्प्रदायातीत मानवतावादी स्वरूप में ग्रहण करने से किसी को आपत्ति हो भी क्या सकती है। लेकिन यहाँ विचारणीय विषय संस्थागत धर्म नहीं है, यहाँ विचारणीय विषय है आध्यात्मिकता!
मैं तो एक विचार, एक मनोवृत्ति, एक मानसिकता की बात करना चाहता हूं, किसी व्यक्ति विशेष की नहीं.मैं आपको बताना चाहता हूं कि जब राजीव ने इस सत्र की शुरुआत की, एक क्षण के लिए मुझे लगा कि मैं ग़लत जगह पर आ गया हूं. इसलिए कि अगर हम कृष्ण, गौतम और कबीर, या विवेकानन्द के दर्शन पर चर्चा कर रहे हैं तो मुझे कुछ भी नहीं कहना है. मैं इसी वक़्त बैठ जाता हूं. मैं यहां उस गौरवशाली अतीत पर बहस करने नहीं आया हूं जिस पर मेरे खयाल से हर हिन्दुस्तानी को, और उचित ही, गर्व है. मैं तो यहां एक सन्देहास्पद वर्तमान पर चर्चा करने आयाहूं.इण्डिया टुडे ने मुझे बुलाया है और मैं यहां आज की आध्यात्मिकता पर बात करने आया हूं. कृपया इस आध्यात्मिकता शब्द से भ्रमित न हों. एक ही नाम के दो ऐसे इंसान हो सकते हैं जो एक दूसरे से एकदम अलग हों. तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना की. रामानंद सागर ने टेलीविज़न धारावाहिक बनाया. रामायण दोनों में है, लेकिन मैं नहीं सोचता कि तुलसीदास और रामानंद सागर को एक करके देख लेना कोई बहुत अक्लमन्दी का काम होगा. मुझे याद आता है कि जब तुलसी ने रामचरितमानस रची, उन्हें एक तरह से सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा था. भला कोई अवधी जैसी भाषा में ऐसी पवित्र पुस्तक कैसे लिख सकता है? कभी-कभी मैं सोचता हूं कि किसम-किसम के कट्टरपंथियों में, चाहे वे किसी भी धर्म या सम्प्रदाय के क्यों न हों, कितनी समानता होती है! 1798 में, आपके इसी शहर में, शाह अब्दुल क़ादिर नाम के एक भले मानुस ने पहली बार क़ुरान का तर्ज़ुमा उर्दू में किया. उस वक़्त के सारे उलेमाओं ने उनके खिलाफ एक फतवा ज़ारी कर डाला कि उन्होंने एक म्लेच्छ भाषा में इस पवित्र पुस्तक का अनुवाद करने की हिमाक़त कैसे की! तुलसी ने रामचरितमानस लिखी तो उनका बहिष्कार किया गया. मुझे उनकी एक चौपाई याद आती है :”धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ जौलाहा कहौ कोऊ.काहू की बेटी सौं बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगारन सोऊ..तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको रुचै सो कहै कछु कोऊ.मांगि के खैबो, मसीत को सोइबो, लैबो एकू न दैबो को दोऊ..”रामानंद सागर ने अपने धारावाहिक से करोड़ों की कमाई की. मैं उन्हें कम करके नहीं आंक रहा लेकिन निश्चय ही वे तुलसी से बहुत नीचे ठहरते हैं.
विचारधारा या यूँ कहिये दर्शन पर जब बात करनी होती है तो व्यक्तियों पर बात करनी ही नहीं चाहिये। व्यक्ति के अपने गुण-दोष होते हैं, उन्हीं के आधारपर दर्शन को परिभाषित करना पर्याप्त नहीं है। हाँ उद्धरण दिये जा सकते हैं, लेकिन विचार व्यापक दृष्टिकोण से करना होगा। यहाँ केवल आज की आध्यात्मिकता बात करते हुए अपने विचार का प्रतिपादन करने वाले जावेद साहब आगे चलकर उस आध्यात्मिकता को भी एक ही शब्द में खारिज कर रहें हैं जिस पर यहाँ वे गर्व करने को उचित बता रहे हैं।
दूसरा यह भी पडताल करने की जरूरत है कि कट्टरपंथी अपनी कारगुजारियों की प्रेरणा क्या वास्तव में आस्तिकता या आध्यामिक्तता से ही लेते हैं या वे ऐसे कार्य अपने अंधविश्वास, आध्यात्मिकता को सही तरह से नहीं समझने, स्वार्थ, संगठनात्मक हित या अज्ञान के कारण करते हैं। इस पर पर्याप्त रूप से विचार कर लेने के पश्चात ही आध्यात्मिकता के दर्शन पर आरोप जड़े जा सकते हैं। जैसा कि जावेद साहब खुद ही कह रहे हैं कि एक ही नाम के दो व्यक्तियों की कारगुजारियाँ पूर्णतः परस्पर विरोधी हो सकती हैं इसको उनके नाम में तलाशना तो ठीक नहीं है, चाहे उन्होंने कपडे भी एक ही तरह के पहने हों। भिन्न-भिन्न धर्म-सम्प्रदायों के कट्टरपंथियों की समानता का कारण उनकी प्रेरणा शक्तियों का एक होना ही तो नहीं है, क्या ये आध्यात्मिकता से प्रेरणा प्राप्त करते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि ये नास्तिकता से प्रेरणा प्राप्त करते हों, आखिर चोरी तो पुलिस की वर्दी पहनकर भी की जा सकती है! मैं इसे आगे और स्पष्ट करने का प्रयास करूंगा। बहस की शुरुआत में मैं केवल इतना तय करना चाहता हूँ कि आध्यात्मिकता या आस्तिकता पर विचार रखने, आलोचना करने के लिये केवल उस चरित्र को ही माध्यम बनाया जा सकता है जो वास्तव में इस विचारधारा का सच्चे अर्थों में प्रतिनिधित्व करता है, इसी प्रकार नास्तिकता के उचित प्रतिनिधि चरित्र का चुनाव भी आवश्यक है अन्यथा नास्तिकता को समझने में भी भूल हो सकती है। अक्सर होता यह कि आलोचना के लिये हम हमारे विचार और हमारी सुविधा के अनुसार समाज से उन चरित्रों का चुनाव कर लेते हैं जो हमें रुचते हों। दूसरा आज तक मैं यह भी देखता आया हूँ कि कितना ही बडा तार्किक हो वह किसी आध्यात्मिक को यह छूट नहीं देता कि वह अपनी आध्यात्मिकता को खुद परिभाषित करे, बल्की नास्तिक ही अपनी सुविधा के अनुसार आध्यात्मिकता को परिभाषित करता है, ताकि अपने आरोपों को पुष्ट कर सके। यह तो बहस का उचित तरीका नहीं है, बल्की अपनी पीठ खुद थपथपाना है। आइये आगे चलें....
मैं एक और उदाहरण देता हूं. शायद यह ज़्यादा स्पष्ट और उपयुक्त हो. सत्य की खोज में गौतम महलों से निकले और जंगलों में गए. लेकिन आज हम देखते हैं कि वर्तमान युग के गुरु जंगल से निकलते हैं और महलों में जाकर स्थापित हो जाते हैं. ये विपरीत दिशा में जा रहे हैं. इसलिए हम लोग एक ही प्रवाह में इनकी बात नहीं कर सकते. इसलिए, हमें उन नामों की आड़ नहीं लेनी चाहिए जो हर भारतीय के लिए प्रिय और आदरणीय हैं.
बिल्कुल ठीक बात है, लेकिन यह आध्यात्मिकता की दृष्टि से ही सत्य है, नास्तिकता की दृष्टि से तो बिल्कुल पोंगा-पंथी वाली बात है। गौतम नें महल छोड़ा तो क्यूँ! उन्हें महल में रहते हुये ही यह समझ आया कि यह जीवन तो नश्वर है, यह महल, यह राज, यह वैभव सभी मिथ्या हैं, मृत्यु अटल सत्य है। इसका साक्षात्कार उनको एक ही दिन की नगर की यात्रा में हो गया। वे इस भौतिक जगत के मोह में महल से नहीं निकले वे मोहभंग से महल से निकले थे, वैराग्य में। इस ज्ञान के बाद भी यदि वे केवल करुणा से औतप्रोत होते तो राजा रहते हुए गरीबों की बेहतर सेवा कर सकते थे। उनके पास वे संसाधन होते, वे राजनीतिक जागरुकता पैदा करते। लेकिन वे महल से निकल गये, कष्ट उठाने के लिये। इस से तो यही सिद्ध हुआ कि भौतिकता के मोह में पड़ा हुआ मनुष्य समाज के काम का नहीं है। उसे अपने स्वरूप का ज्ञान वस्तुजगत में नहीं हो सकता। लेकिन इस घटना पर यदि जावेद साहब के नजरिये से विचार करें तो सोचिये कि ऐसी कौनसी रासायनिक क्रिया जो महल और विचार को मिलने नहीं देती। आखिर महल और विचार में क्या बैर है, मनुष्य महल में रहते हुए ज्ञानी क्यूँ नहीं हो सकता? दूसरी तरफ नितान्त अवैज्ञानिक और अतार्किक बात है कि बिना पढ़े-लिखे ही, समाज के सम्पर्क से अछूते, जीवन अनुभव से हीन व्यक्ति को किसी पेड़ के नीचे आँखें मूंदे बैठे-बैठे, अचानक ज्ञान प्राप्त हो जाता है। आखिर इस में क्या वैज्ञानिकता है, क्या तार्किता है। बात यह कि महल का विचार से क्या वैज्ञानिक बैर है? जब चार लाइन के गीत से करोड़ों रुपये कमाना वाला गीतकार दमादम तिजोरी भरते हुए भी अच्छे गीत लिख सकता है, यहाँ लक्ष्मी और सरस्वती का बैर नहीं है तो दर्शन में ही क्यूँ है? जबकि तुलसी, कबीर, सूरदास, मार्क्स, प्रेमचंद, गोर्की, निराला अभावों से जूझते हुए मर गये। आइये पुनः जावेद साहब के पास चलते हैं......
जब मुझे यहां आमंत्रित किया गया तो मैंने महसूस किया कि हां, मैं नास्तिक हूं और किसी भी हालत में बुद्धिपरक रहने की कोशिश करता हूं. शायद इसीलिए मुझे बुलाया गया है. लेकिन, उसी क्षण मैंने महसूस किया कि एक और खासियत है जो मुझमें और आधुनिक युग के गुरुओं में समान रूप से मौज़ूद है. मैं फिल्मों के लिए काम करता हूं. हममें काफी कुछ एक जैसा है. हम दोनों ही सपने बेचते हैं, हम दोनों ही भ्रम-जाल रचते हैं, हम दोनों ही छवियां निर्मित करते हैं. लेकिन एक फर्क़ भी है. तीन घण्टों के बाद हम कहते हैं – “दी एण्ड, खेल खत्म! अपने यथार्थ में लौट जाइए.” वे ऐसा नहीं करते.
यहाँ मैं कुछ कहूँगा तो व्यक्तिगत आक्षेप जैसा हो जायेगा, किसी फिल्मकार के दी- एण्ड कहने मात्र से फिल्म का दी एण्ड नहीं हो जाता है, वह समाज को तरह-तरह से प्रभावित करती है, अच्छे भी और बुरे भी। आधुनिक गुरु से निराशा वाजिब है, समय का यही सत्य है। लेकिन न तो यह समय अन्तिम है और न ही यह सत्य अन्तिम है। मैं पुनः कहता हूँ कि यहाँ सिर्फ आधुनिक शब्द पर ध्यान आकर्षित कर रहे जावेद साहब आगे चलकर बडी चतुराई से इस आधुनिक शब्द को हटा लेंगें। (एक जादूगर की तरह, जो अपने मंच, अपने साधनों की सुविधा से दर्शकों का ध्यान बंटाता है और चमत्कार दिखाता है, वह दर्शक का ध्यान चमकती चीजों पर केन्द्रित करता है और ध्यान बंटाकर जादू उत्पन्न करता है, जावेद साहब के पास यहाँ चमकदार शब्द हैं, अपनी बनाई हुई भूमिका है, अपनी परिभाषायें हैं) समीक्ष्य विषय आधुनिक गुरु नहीं आध्यात्म है, वह क्या सपना दिखाता है, उस सपने को अपने विचार में रखिये। आप ध्यान से पढ़ते चलिये...
इसलिए, देवियों और सज्जनों मैं एकदम स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं यहां उस आध्यात्मिकता के बारे में बात करने आया हूं जो दुनिया के सुपरमार्केट में बिकाऊ है. हथियार, ड्रग्स और आध्यात्मिकता ये ही तो हैं दुनिया के तीन सबसे बड़े धन्धे. लेकिन हथियार और ड्रग्स के मामले में तो आपको कुछ करना पड़ता है, कुछ देना पड़ता है. इसलिए वह अलग है. यहां तो आप कुछ देते भी नहीं.इस सुपर मार्केट में आपको मिलता है इंस्टैण्ट निर्वाण, मोक्ष बाय मेल, आत्मानुभूति का क्रैश कोर्स – चार सरल पाठों में कॉस्मिक कांशियसनेस. इस सुपर मार्केट की चेनें सारी दुनिया में मौज़ूद हैं, जहां बेचैन आभिजात वर्गीय लोग आध्यात्मिक फास्ट फूड खरीद सकते हैं. मैं इसी आध्यात्मिकता की बात कर रहा हूं.प्लेटो ने अपने डायलॉग्ज़ में कई बुद्धिमत्तापूर्ण बातें कही हैं. उनमें से एक यह है कि किसी भी मुद्दे पर बहस शुरू करने से पहले शब्दों के अर्थ निश्चित कर लो. इसलिए, हम भी इस शब्द- ‘आध्यात्मिकता’ का अर्थ निश्चित कर लेने का प्रयत्न करते हैं.
अगर इसका अभिप्राय मानव प्रजाति के प्रति ऐसे प्रेम से है जो सभी धर्मों, जतियों, पंथों, नस्लों के पार जाता है, तोमुझे कोई दिक्कत नहीं है. बस इतना है कि मैं उसे मानवता कहता हूं. अगर इसका अभिप्राय पेड़-पौधों, पहाड़ों, समुद्रों, नदियों और पशुओं के प्रति, यानि मानवेत्तर विश्व से प्रेम से है, तो भी मुझे क़तई दिक्कत नहीं है. बस इतना है कि मैं इसे पर्यावरणीय चेतना कहना चाहूंगा. क्या आध्यात्मिकता का मतलब विवाह, अभिभावकत्व, ललित कलाओं, न्यायपालिका, अभिव्यक्ति की स्वाधीनता के प्रति हार्दिक सम्मान का नाम है? मुझे भला क्या असहमति हो सकती है श्रीमान? मैं इसे नागरिक ज़िम्मेदारी कहना चाहूंगा. क्या आध्यात्मिकता का अर्थ अपने भीतर उतरकर स्वयं की ज़िन्दगी का अर्थ समझना है? इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? मैं इसे आत्मान्वेषण या स्व-मूल्यांकन कहता हूं. क्या आध्यात्मिकता का अर्थ योग है? पतंजलि कीकृपा से, जिन्होंने हमें योग, यम, यतम, आसन, प्राणायाम के मानी समझाए, हम इसे किसी भी नाम से कर सकते हैं. अगर हम प्राणायाम करते हैं, बहुत अच्छी बात है. मैं इसे हेल्थ केयर कहता हूं. फिजीकल फिटनेस कहता हूं. तो अब मुद्दा सिर्फ अर्थ विज्ञान का है. अगर यही सब आध्यात्मिकता है तो फिर बहस किस बात पर है? जिन तमाम शब्दों का प्रयोग मैंने किया है वे अत्यधिक सम्मानित और पूरी तरह स्वीकार कर लिए गए शब्द हैं. इनमें कुछ भी अमूर्त या अस्पष्ट नहीं है.
बिल्कुल, आध्यात्मिकता इन सभी शब्दों को समाहित करती है। जावेद साहब की पीठ थपथपाइए उनकी प्रतिभा के लिये... किसी प्रारम्भिक कक्षा के छात्र से अध्यापक द्वारा यदि गणित का सवाल पूछा जाता है – 7X5=?, जावेद साहब का प्रयास इसीलिये प्रसंशनीय है कि वे पांच बार सात-सात लाइन खैंचकर उन्हें गिनने का प्रयास कर रहे हैं। आध्यात्म की परिभाषा में जो जावेद साहब से छूट गया है वह है समूची सृष्टि से एकात्म भाव (आत्महीन सर्व व्यापक भाव), समर्पण, वैराग्य, आत्म नियन्त्रण, संयम, सांसारिक अनासक्ति, नैसर्गिक कमजोरियों ( क्रोध, स्वार्थ, आदि) पर विजय, निष्काम कर्म, आत्मशोधन, स्वयं की प्रति दृष्टा भाव, आदि, आदि, आदि... खैर जावेद साहब की सुनये...
तो फिर इस शब्द- आध्यात्मिकता- पर इतनी ज़िद क्यों? आखिर आध्यात्मिकता शब्द में ऐसा क्या है जो इन शब्दों में नहीं सिमट आया है? वो ऐसा आखिर है क्या?पलटकर कोई मुझी से पूछ सकता है कि आपको इस शब्द से क्या परेशानी है? क्यों मैं इस शब्द को बदलने, त्यागने, छोड़ देने, बासी मान लेने का आग्रह कर रहा हूं. आखिर क्यों? मैं आपको बताता हूं कि मेरी आपत्ति किस बात पर है. अगर आध्यात्मिकता का अर्थ इन सबसे है तो फिर बहस की कोई बात नहीं है. लेकिन कुछ और है जो मुझे परेशान करता है. शब्द कोष में आध्यात्मिकता शब्द, -स्पिरिचुअलिटी- की जड़ें आत्मा, स्पिरिट में हैं. उस काल में जबइंसान को यह भी पता नहीं था कि धरती गोल है या चपटी, तब उसने यह मान लिया था कि हमारा अस्तित्व दो चीज़ों के मेल से निर्मित है. शरीर और आत्मा. शरीर अस्थायी है. यह मरणशील है. लेकिन आत्मा, मैं कह सकता हूं, बायोडिग्रेडेबल है. आपके शरीर में लिवर है, हार्ट है, आंतें हैं, दिमाग है. लेकिन क्योंकि दिमाग शरीर का एक हिस्सा है और मन दिमाग के भीतर रहता है, वह घटिया है क्योंकि अंतत: शरीर के साथ दिमाग का भी मरना निश्चित है. लेकिन चिंता न करें, आप फिर भी नहीं मरेंगे, क्योंकि आप तो आत्मा हैं और क्योंकि आत्मा परम चेतस है, वह सदा रहेगी, और आपकी ज़िन्दगी में जो भी समस्याएं आती हैं वे इसलिए आती हैं कि आप अपने मन की बात सुनते हैं. अपने मन की बात सुनना बन्द कर दीजिए.. आत्मा की आवाज़ सुनिए – आत्मा जो कॉस्मिक सत्य को जानने वाली सर्वोच्च चेतना है.
उपर हम बता चुके हैं कि जावेद साहब कि आध्यात्मिता की परिभाषा में क्या- क्या नहीं सिमट आया है. कुछ और जोड़ते हैं सृष्टि का रहस्य, सम, शांति, अनन्त, संतुष्टि, धन्यवाद, ज्ञान, आदि...आदि। मनुष्य अपने प्रारम्भिक काल से ही विज्ञान से अछूता नहीं है न ही अकर्मण्य है, जब उसे पता भी नहीं था कि धरती गोल है या चपटी तब भी उसने खगोलीय गणनाओं का अत्यन्त समृद्ध गणित खोज लिया था, उसकी चंद्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण की गणनाओं के समक्ष आज भी कोई चुनौती नहीं है। फिर भी मैं क्यूं कि फैशन परस्त हूँ, अतः यह मान सकता हूँ कि,आध्यात्मिकता शब्द पुराना हो गया है, बासी है, इसलिये इसे छोड देना चाहिये, बदल लेना चाहिये ( तुम भी कोई अच्छा सा रख लो अपने दीवाने का नाम..)। वैसे आस्तिकों ने भी बदले तो हैं नाम...कृष्ण को कृष्णा, राम का रामा.. (बदला है न कुछ तो..नहीं!..) जावेद साहब का आग्रह शब्द को बदलने का है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं, लेकिन मुझे आपत्ति है अर्थ को नकारने से........ । हाँ गाँधी जी ने स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस को भंग करने का सुझाव कांग्रस के दुरुपयोग होने की संभवाना के कारण दिया था यदि जावेद साहब भी आध्यात्म शब्द के हो रहे दुरुपयोग के कारण ऐसा सुझाव देते तो विचारणीय होता। तब यह आध्यात्म पर संदेह नहीं बल्की आध्यात्म के ठेकेदारों पर संदेह होता। ठीक है आत्मापर संदेह है! कोई खास बात नहीं है आप फिलहाल इसे मस्तिस्क ही मानें और बात को बढ़ायें...
ठीक है. कोई ताज़्ज़ुब नहीं कि पुणे में एक आश्रम है, मैं भी वहां जाया करता था. मुझे वक्तृत्व कला अच्छी लगती थी. सभा कक्ष के बाहर एक सूचना पट्टिका लगी हुई थी: “अपने जूते और दिमाग बाहर छोड़ कर आएं”. और भी गुरु हैं जिन्हें इस बात से कोई ऐतराज़ नहीं होता है कि आप जूते बाहर नहीं छोड़ते. लेकिन दिमाग?.....नहीं.अब, अगर आप अपना दिमाग ही बाहर छोड़ देते हैं तो फिर क्या होगा? आपको ज़रूरत होगी ऐसे गुरु की जो आपको चेतना के अगले मुकाम तक ले जाए. वह मुकाम जो आत्मा में कहीं अवस्थित है. वह सर्वोच्च चेतना तक पहुंच चुका है. उसे परम सत्य ज्ञात है. लेकिन क्या वह आपको बता सकता है? जी नहीं. वह आपको नहीं बता सकता. तो, अपना सत्य आप खुद ढूंढ सकेंगे?. जी नहीं. उसके लिए आपको गुरु की सहायता की ज़रूरत होगी. आपको तो उसकी ज़रूरत होगी लेकिन वह आपको इस बात की गारण्टी नहीं दे सकता कि आपको परम सत्य मिल ही जाएगा...
क्या आप मुझे इजाजत देंगे कि मैं इसे कुतर्क कह सकूं? जूते बाहर छोड़ने पर जावेद साहब को ऐतराज नहीं है, नहीं छोडने पर गुरु को नहीं है, तो बात दिमाग की ही करते हैं। वह दिमाग जिसका नहीं होना मृत्यु है, शरीर शिथिल हो जाता है निस्पंद हो जाता है, क्या वही दिमाग बाहर छोडने का बोर्ड लगा होता गुरु के द्वार पर? इतना तय है कि गुरु किसी मृत व्यक्ति को शिष्य बनने का आमन्त्रण नहीं देता है, अर्थात वह दिमाग वाले को अपने आश्रम में प्रवेश देता है। फिर यह बोर्ड क्या कह रहा है? कौनसा दिमाग छोड़ना है? दिमाग अर्थात पूर्वाग्रह। अच्छा मैं जाता हूँ अपने अध्यापक के साथ भूगोल की प्रयोगशाला में अध्यापक मुझे बता रहा है कि धरती गोल है वह ग्लोब को घुमा रहा है, लेकिन चूँकि वहाँ कोई तख्ती नहीं थी ऐसे निषेध की, अतः मैं अपने दिमाग के साथ ही वर्तमान हूँ प्रयोगशाला में। पण्डित जी ने, दादाजी ने बता रखा है कि धरती तो गाय के सींग पर टिकी है, एक और है साथी उसे बता रखा है कि शेषनाग के फन पर टिकी है धरती। प्रयोगशाला में धरती घूम रही है, छोटी-सी गैंद के आकार में, अध्यापक अपनी तर्जनी से घुमा रहा है धरती को, दिमाग मेरे पास सुरक्षित है, साथी के पास भी, गाय का सींग उभर रहा है, शेषनाग का फन लपलपा रहा है, उंगली हमारे ठेंगे पर, क्या हमारे पास दिमाग नहीं है? अध्यापक घुमा देगा उंगली से धरती को, और यह है इसकी धरती... ओह...ओह.. हो बडे आये कहीं के वैज्ञानिक! (क्या तख्ती इसी दिमाग को बाहर छोडने के लिये है?) तर्क, विज्ञान सब कहते हैं पूर्वाग्रह छोड़ो, हम बिना तख्ती के ही छोड़ते हैं पूर्वाग्रह। पूर्वाग्रह के साथ ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता। दूसरी तरह से देखते हैं यदि इस तख्ती के पीछे गुरु का मन्तव्य यह कि जो कुछ वह कहता है उसे ज्यों का त्यों मानलो तो ऐसा संभव नहीं है, प्रश्न करने की, शास्त्रार्थ करने की इजाजत सभी गुरु देते हैं, चाहे ये प्रश्न-उत्तर कितने ही कूढ़मगज हों। जहाँ प्रश्न-उत्तर की इजाजत हैं वहाँ मेघा का विकास नहीं होगा ऐसा तो नहीं माना जा सकता है। ऐसा शिष्य यदि किसी बौद्धिक के पास आयेगा तो उसका कार्य भी पहले उसकी मेघा का विकास करना ही होगा। आध्यात्म के क्षेत्र में गुरु अनिवार्य है ऐसा तो कभी सुनने में नहीं आया। ठीक है कोई बात नहीं कि एक कोचिंग इंस्टीटूट है मेरे कस्बे में, प्रशासनिक पदों की तैयारी कराता है, बड़ी भारी भरकम फीस है, मैं भी वहाँ गया। न ही तो वह प्रशासनिक अधिकारी है न ही वह मुझे गारण्टी देता है कि मुझे आईएएस बना देगा फिर फी कहता है कि मुझे उसके कोचिंग इंसटीटूट की जरूरत है। परीक्षा खुद ही देनी है, इन्टरव्यू खुद ही देना है फिर भी साथी कहते हैं कि कोचिंग इन्सटीटूट जरूरी है। इतना ही बहुत है...
और यह परम सत्य है क्या? कॉस्मिक सत्य क्या है? जिसका सम्बन्ध कॉस्मॉस यानि ब्रह्माण्ड से है? मुझे तो अब तक यह समझ में नहीं आया है. जैसे ही हम अपने सौर मण्डल से बाहर निकलते हैं, पहला नक्षत्र जो हमारे सामने आता है वह है अल्फा सेंचुरी, और वह हमसे केवल चार प्रकाश वर्ष दूर है. उससे मेरा क्या रिश्ता बनता है? क्यों बनता है?तो, राजा ने ऐसे कपड़े पहन रखे हैं जो सिर्फ बुद्धिमानों को ही दिखाई देते हैं. और राजा लगातार बड़ा होता जा रहा है. और ऐसे बुद्धिमानों की संख्या भी निरंतर बढती जा रही है जिन्हें राजा के ये कपड़े दिखाई दे रहे हैं और जो उनकी तारीफ करते हैं.
मित्रों जब मैंने ये पक्तियाँ पढ़ी तो मेरी रोमावलियाँ खड़ी हो गई थीं। मुझे उम्मीद हो गई थी कि बस अब अगली ही पंक्ति में कॉस्मिक सत्य से पर्दा उठा देंगे जावेद साहब, इस रहस्य को जानने के लिये सदियों से मानव की कठिन दौड़-धूप का अंत होने वाला है। लेकिन बड़ी घटिया बात हुई, जावेद साहब ने कहा इससे मेरा क्या सम्बन्ध, क्या रिश्ता? तो इस शतर्मुर्गी सोच से विचार करेंगे हम आध्यात्मिकता पर! मेरा एक मित्र कहता है भूटान की गरीबी से भारत क्या सम्बन्ध? लेकिन वह कभी यह कभी नहीं कहता कि भूटान है तो उसका कोई सत्य नहीं है। मैं भी सोचता हूँ कि मेरी औसत आयु तो 100 वर्ष है, अधिक से अधिक मैं 150 वर्ष जीउंगा फिर पानी क्यों बचाऊँ, ओजोन परत के क्षरण से मेरे जीवन काल में तो कोई आफत नहीं आने वाली। 500 वर्ष के बाद के समय से मेरा क्या संबंध? इस सोच का और संकुचन करूं! चौराहे पर बैठा भिखारी मेरा कौन होता है? कैसे होता है? शायद जावेद साहब पूरी मानव जाति के संबंध की बात कर रहे हों, तो अब हम आध्यात्म पर अल्फा सेंचुरी से इधर-इधर बात करते हैं। जावेद साहब को ब्रह्माण्ड के सत्य से आपत्ति नहीं है उनका कहना है उससे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है, वैसे भी कोई तार्किक यह कैसे कह सकता है कि किसी चीज का अस्तित्व है तो उसका कोई सत्य नहीं हो सकता! अब बात रही हमारे सम्बन्ध की तो मानव जब हमारे सौरमण्डल के भीतर-भीतर की समस्त प्रकृत्ति पर अपनी सेवा के लिये विजय प्राप्त कर लेगा और सारा पानी पी जायेगा तो हो सकता है कि वैज्ञानिक अल्फा सैंचुरी के उधर कहीं पानी खोज लें और उसे इस सौरमण्डल में ले आयें मानव की सेवा के लिए। इस तरह हमारा अल्फा सैंचुरी से सम्बन्ध विकसित हो जाये। क्यूँकि वैज्ञानिक भी यह तो कह रहे हैं कि वे इस सृष्टि में न तो एक भी कण और जोड़ सकते हैं न घटा सकते हैं वे सिर्फ इस प्रकृति व्याख्या कर सकते हैं , वस्तुओँ के गुण-धर्म बदल सकते हैं प्राकृतिक सम्बन्ध स्थापित करके। न जोड़ सकते हैं न घटा सकते हैं। क्या सौर मण्डल के बाहर से धरती पर खतरा नहीं आ सकता है। लगा न आपको कुतर्क! इस तर्क के उपर ठीक ऐसा ही कुतर्क है। लेकिन यह तो हुई वैज्ञानिक अपेक्षा इसमें आध्यात्म क्या? आध्यात्म सिर्फ इस वैज्ञानिक अपेक्षा का सत्य, रहस्य!
और बढ़ें......
मैं सोचता था कि आध्यात्मिकता दरअसल धार्मिक लोगों की दूसरी रक्षा पंक्ति है. जब वे पारम्परिक धर्म से लज्जित अनुभव करने लगते हैं, जब यह बहुत चालू लगने लगता है तो वे कॉस्मॉस या परम चेतना के छद्म की ओट ले लेते हैं. लेकिन यह भी पूर्ण सत्य नहीं है. इसलिए कि पारम्परिक धर्म और आध्यात्मिकता के अनुयायीगण अलग-अलग हैं. आप ज़रा दुनिया का नक्शा उठाइए और ऐसी जगहों को चिह्नित कीजिए जो अत्यधिक धार्मिक हैं -चाहे भारत में या भारत के बाहर- एशिया, लातिन अमरीका, यूरोप.... कहीं भी. आप पाएंगे कि जहां-जहां धर्म का आधिक्य है वहीं-वहीं मानव अधिकारों का अभाव है, दमन है. सब जगह. हमारे मार्क्सवादी मित्र कहा करते थे कि धर्म गरीबों की अफीम है, दमित की कराह है. मैं उस बहस में नहीं पड़ना चाहता. लेकिन आजकल आध्यात्मिकता अवश्य ही अमीरों की ट्रांक्विलाइज़र है.आप देखेंगे कि इनके अनुयायी खासे खाते-पीते लोग है, समृद्ध वर्ग से हैं. ठीक है. गुरु को भी सत्ता मिलती है, ऊंचा कद और पद मिलता है, सम्पत्ति मिलती है..(जिसका अधिक महत्व नहीं है), शक्ति मिलती है और मिलती है अकूत सम्पदा. और भक्तों को क्या मिलता है?
चलिये हम भी नहीं इस बहस में नहीं पडें कि हमारे मार्क्सवादी मित्र क्या कहते हैं? हमने पहले भी कहा कि हमें विचारधारा के प्रतिनिधि चरित्रों को केन्द्र में रखना चाहिये। जो व्यक्ति लोगों को छल रहा है, ईश्वर(यदि वह मानता है) की आँखों में धूल झौंकने का भ्रम पाले हुए है वह आध्यात्मिक नहीं है, उसके माध्यम से आध्यात्म पर आरोप स्वीकार नहीं हैं।
जब मैंने ध्यान से इन्हें देखा तो पाया कि इन भक्तों की भी अनेक श्रेणियां हैं. ये सभी एक किस्म के नहीं हैं. अनेक तरह के अनुयायी, अनेक तरह के भक्त. एक वह जो अमीर है, सफल है, ज़िन्दगी में खासा कामयाब है, पैसा कमा रहा है, सम्पदा बटोर रहा है. अब, क्योंकि उसके पास सब कुछ है, वह अपने पापों का शमन भी चाहता है. तो गुरु उससे कहता है कि “तुम जो भी कर रहे हो, वह निष्काम कर्म है. तुम तो बस एक भूमिका अदा कर रहे हो, यह सब माया है, तुम जो यह पैसा कमा रहे हो और सम्पत्ति अर्जित कर रहे हो, तुम इसमें भावनात्मक रूप से थोड़े ही संलग्नहो. तुम तो बस एक भूमिका निबाह रहे हो.. तुम मेरे पास आओ, क्योंकि तुम्हें शाश्वत सत्य की तलाश है. कोई बात नहीं कि तुम्हारे हाथ मैले हैं, तुम्हारा मन और आत्मा तो शुद्ध है”. और इस आदमी को अपने बारे में सब कुछ अच्छा लगने लगता है. सात दिन तक वह दुनिया का शोषण करता है और सातवें दिन के अंत में जब वह गुरु के चरणों में जाकर बैठता है तो महसूस करता है कि मैं एक संवेदनशील व्यक्ति हूं.
यहाँ जरा रुक जाइयेगा।
पहला वर्गः जावेद साहब के गुरु ने उन्हे निष्काम कर्म की सही परिभाषा नहीं बताई है, श्रीमद्भगवद् गीता भारत में सर्वत्र उपलब्ध है। निष्काम कर्म जो केवल कर्त्तव्य से प्रेरित फल की आशा बगैर किया जाने वाला कर्म है, उसके माध्यम से सम्पदा कैसे बटोरी जा सकती है? जादूगर वाला प्रसंग यहाँ स्मरण करें अपने शब्द, अपने अर्थ, अपनी भूमिका, अपनी व्याख्या - दर्शकों-श्रोताओं को एक खास ऐंगल से दिखाना-सुनाना। बिना भावात्मक रूप से जुड़े हुए अनुचित पैसा कमाया जा सकता है? शोषण किया जा सकता है? कौन गुरु है जो निष्काम कर्म की यह व्याख्या करता है?
अगर वह है तो कोई टोने-टोटके वाला होगा। भारत में जन्मे किसी भी बालक से पूछ लीजिये, जिसका कोई आध्यात्मिक गुरु नहीं है, उसके माता-पिता ने उसे यही बताया है कि ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है, वह तुम्हारी प्रत्येक गतिविधि को देख रहा है, उसका लेखा-जोखा रख रहा है। उसे दोखा देना संभव नहीं है। और प्रत्येक गलत कार्य की सजा अवश्य है। निष्काम कर्म का जावेद साहब वाला अर्थ किसी को नहीं समझाया जा सकता है। अब इसे भी दूसरे ऐंगल से देखिये। क्या आपका कोई परिचित भ्रष्टाचारी है, शोषक है! तो कृपया उससे पूछिये कि वह भ्रष्टाचार क्यूँ करता है? उसका जबाब यह कभी नहीं होगा कि वह निष्काम कर्म कर रहा है, उसके गुरु ने उसे ऐसा करने को कह रखा है या वह भगवान के नाम पर ऐसा कर रहा है। वह आपको अपने भ्रष्टाचार के पक्ष में तर्क देगा। वह कहेगा कि सभी भ्रष्ट हैं इसलिये वह भी भ्रष्ट है, वह औरों जितना भ्रष्ट नहीं है, वह कहेगा मैं किसी की आत्मा दुःखाकर नहीं लेता, मैं माँग कर नहीं लेता कोई अपने आप देता है तो लेता हूँ। वह कहेगा मैं अपने कर्मचारियों को वाजिब से ज्यादा तनख्हा देता हूँ। इसके बिना काम नहीं चलता। उपर भी देना पड़ता है। बच्चे पालने हैं। अर्थात वह आध्यात्म को लेकर किसी भ्रम में नहीं है, वह अपनी निकृष्टता से पूरी तरह परिचित है लेकिन भौतिकता के समक्ष हथियार डाले हुए है। उसे इस तरह का कोई भ्रम हो ही नहीं सकता कि उसके कार्य से उसका ईश्वर खुश है या उसे माफ कर देगा। वह अपने बचाव में तर्क देता है तो क्या मैं इस आरोप को तार्किकता के माथे मढ़ दूँ? फिर भी वह जाता है गुरु के पास अपने पापों के शमन के लिये(जावेद साहब के अनुसार) इस अहसास के साथ कि बहुत बडी उधारी है उसके उपर वह नहीं चुका सकता पूरी लेकिन यदि थोड़ी हल्की होने की उम्मीद में। यदि गुरु उसे पाप छोड़ने के लिए प्रेरित नहीं करता और उसके पापों का शमन इस तरह कर रहा कि कमाये जाओ और मुझे लाकर देते रहो तो वो कैसा गुरु है। क्या उसे आध्यात्मिक गुरु माने? जो आरोप उस गुरु पर हैं उन आरोपों को आध्यात्म पर माने!
लोगों का एक और वर्ग है. ये लोग भी धनी वर्ग से हैं. लेकिन ये पहले वर्ग की तरह कामयाब लोग नहीं हैं. आप जानते हैं कि कामयाबी-नाकामयाबी भी सापेक्ष होती है. कोई रिक्शा वाला अगर फुटपाथ पर जुआ खेले और सौ रुपये जीत जाए तो अपने आप को कामयाब समझने लगेगा, और कोई बड़े व्यावसायिक घराने का व्यक्ति अगर तीन करोड भी कमा ले, लेकिन उसका भाई खरबपति हो, तो वो अपने आप को नाकामयाब समझेगा. तो, यह जो अमीर लेकिन नाकामयाब इंसान है, यह क्या करता है? उसे तलाश होती है एक ऐसे गुरु की जो उससे कहे कि “कौन कहताहै कि तुम नाकामयाब हो? तुम्हारे पास और भी तो बहुत कुछ है. तुम्हारे पास ज़िन्दगी का एक मक़सद है, तुम्हारे पास ऐसी संवेदना है जो तुम्हारे भाई के पास नहीं है. क्या हुआ जो वह खुद को कामयाब समझता है? वह कामयाब थोड़े ही है. तुम्हें पता है, यह दुनिया बड़ी क्रूर है. दुनिया बड़ी ईमानदारी से तुम्हें कहती है कि तुम्हें दस में से तीन नम्बर मिले हैं. दूसरे को तो सात मिले हैं. ठीक है. वे तुम्हारे साथ ऐसा ही सुलूक करेंगे.” तो इस तरह इसे करुणा मिलती है, सांत्वना मिलती है. यह एक दूसरी तरह का खेल है.
दूसरा वर्गः क्या कहूँ! करुणा और सांत्वना अपराध है, गलत बात है? इस केस में गुरु से क्या अपेक्षा की जानी चाहिये? क्या गुरु इस भक्त से यह कहे कि जैसे तुम्हारा भाई दोनों हाथों ले लूट रहा है तुम भी लूटो पीछे मत रहो। प्रतिभा से आगे नहीं निकल पा रहे हो तो अपराध करो। अपने भाई की सुपारी दे दो। उस पर झूठा मुकदमा दायर करदो, किसी भी तरह पीछे मत रहो वरना मै चलता हूँ तुम्हारे साथ दोनों मिलकर निकालते हैं कोई तरकीब! या हम यह अपेक्षा करना चाह रहे हैं कि गुरु इसे व्यापार करने की शिक्षा दे? यदि गुरु कहता है कि जो मिल रहा है उसे प्रभु का प्रसाद समझो, उसमे संतुष्ट रहो, पैसे के लिये अंधी प्रतियोगिता में मत फंसो। जो है वह बहुत अधिक है इसे अच्छे कार्यों में खर्च करो। उन्हे देखो जिन्हे तुम्हारा जितना भी नहीं मिल रहा है और संतुष्ट हैं। तुम्हारा भाई पैसे को ही सबकुछ समझ रहा है निश्चित ही वह मनुष्यता में तुमसे नीचे रहेगा। पैसा आँखो पर पट्टी बांध देता है। तो गुरु गलत रहा है? हाँ गलत, इससे देश का सकल घरेलू उत्पाद कम रह जायेगा ऐसी शिक्षा अर्थ व्यवस्था के लिये घातक है। प्रकृति द्वारा मनुष्य की सेवा जितनी हो सकती है उतनी नहीं हो सकेगी। मनुष्य असंतुष्ट नहीं रहेगा तो सुखी कैसे होगा!
खैर आगे.....
एक और वर्ग. मैं इस वर्ग के बारे में किसी अवमानना या श्रेष्ठता के भाव के साथ बात नहीं कर रहा. और न मेरे मन में इस वर्ग के प्रति कोई कटुताहै, बल्कि अत्यधिक सहानुभूति है क्योंकि यह वर्ग आधुनिक युग के गुरु और आज की आध्यात्मिकता का सबसे बड़ा अनुयायी है. यह है असंतुष्ट अमीर बीबियों का वर्ग.एक ऐसा व्यक्तित्व जिसने अपनी सारी निजता, सारी आकांक्षाएं, सारे सपने, अपना सम्पूर्ण अस्तित्व विवाह की वेदी पर कुर्बान कर दिया और बदले में पाया है एक उदासीन पति, जिसने ज़्यादा से ज़्यादा उसे क्या दिया? कुछ बच्चे! वह डूबा है अपने काम धन्धे में, या दूसरी औरतों में. इस औरत को तलाश है एक कन्धे की. इसे पता है कि यह एक अस्तित्ववादी असफलता है. आगे भी कोई उम्मीद नहीं है. उसकी ज़िन्दगी एक विराट शून्य है; एकदम खाली, सुविधाभरी लेकिन उद्देश्यहीन. दुखद किंतु सत्य!
तीसरा वर्गः मैं इस वर्ग के प्रति उक्त धारणा से जो निष्कर्ष निकाल पाया हूँ वह जावेद साहब के बारे में नहीं कह सकता, इसलिये जावेद साहब को इससे अलग रखें। कई बार हम किसी खास समुदाय में रहते हुए जो बात निरन्तर सुनते रहते हैं उसी बात को अन्य स्थान पर बिना पर्याप्त विचार किये अभ्यासवश ही दोहरा देते हैं। इस वर्ग के भक्तों के प्रति उक्त टिप्पणी में आप साफ देख सकते हैं कैसी करुणा, कैसा अपनत्व जाग उठा है। वस्तुतः कामुक लोगों की हसीन कल्पना है, दिवास्वप्न है कि अमीर बीबीयाँ असंतुष्ट हैं, उन्हे कन्धे की जरूरत है और इसके लिये उनका कंधा प्रस्तुत है, लेकिन यह भोली औरतें जा रही हैं गुरु के पास। जावेद साहब का व्यक्तित्व बड़ा है, और बड़े आदमी के नीचे उतरने की भी सीमा होती है इसलिये वे मान लेते हैं कि अमीर आदमी भी अपनी बीबी को बच्चे दे सकता है। वरना हमारे इतिहासकार, कहानीकार, उपन्यासकार तो अब तक यही कहते आये हैं कि अमीर, राजा, जागीरदार, सामन्त आदि तो नपुसंक होते हैं, उनके घरों में जो संतान उत्पन्न होती है वह किसी, मंत्री, दास, नौकर, ड्राइवर या बंजारे की होती है।(मुझे आज तक यह समझ में नहीं आता कि सब चिंताओं से मुक्त, शारीरिक रूप से सबल, सर्व साधन सम्पन्न ये लोग आखिर नंपुसंक होते हैं तो क्यूँ? इनकी पत्नियाँ दूसरों के प्रेम में पड़ी रहती हैं तो वहाँ क्या तलाशती रहती हैं? दूसरी ओर ये ही नपुंसक लोग दूसरी औरतों में खोये रहते हैं हालाँकि दूसरी औरत में खोने का कारण प्रकरण वाइज होता है, फिर भी अमीरों में अय्यासी भाव का पाया जाना तो तार्किक लगता है लेकिन क्या उनको अपनी नपुंसकता का पता ही नहीं चलता! यह भी देखा गया है जो आदमी जितना अधिक लम्पट होगा, घर में वह वफादारी का उतना ही नाटक करेगा, फिर भी अमीर पत्नियां असंतुष्ट ही रह जाती हैं। ओहो हाँ, इतिहास में मीरा का उदाहरण है वह भी आध्यात्मिक गुरुओं के पास जाती थी लेकिन उसका पति तो उसपर जान छिड़कता था) इस वर्ग के बारे में सोचते हुए स्वप्न में खो जाया जाता है, कंधे में खुजली होने लगती है लेकिन ये भोली औरतें जा रही हैं गुरु के पास, यहाँ हमारे नथुनों तक सैंट की खुशबू बिखराकर। मैं कई बार इन अमीर औरतों की असंतुष्टि को मापने की कोशिश करता हूँ, देखता हूँ एक गरीब की औरत उसकी अत्यन्त तुच्छ सम्पदा से जितनी असंतुष्ट है तो एक अमीर की पत्नी कितनी असंतुष्ट होगी! समूचे सौर मण्डल जितनी। इन औरतों के पास सुख-सुविधायें सारी हैं, इतनी की फुर्सत ही नहीं है, पार्टियाँ हैं, भरे-पूरे घर परिवार, मित्र, रिश्तेदार, बच्चे सब हैं। इन्हीं के बीच वे पांच घण्टे ब्यूटी पार्लर में बिताने को भी हैं। मनोरंजन के सारे साधन है, ये चाहे जैसी हॉबी के लिये समर्पित हो सकती हैं, ये गरीबों की सेवा कर सकती हैं, थकान से चूर पति जब घर आये तो इनका सबल कंधा उनके लिये तैयार है। ये साहित्य पढ सकती हैं, आयोजन कर सकती है, लिख सकती हैं। लेकिन असंतुष्ट हैं! कारण सिर्फ इतना कि पति समय नहीं देता है। एक और वर्ग है असंतुष्ट(इनके अनुसार) पत्नियों का जो गरीब घरों में पैदा हुईं, एक ऐसा व्यक्तित्व जिसने अपनी सारी निजता, सारी आकांक्षाएं, सारे सपने, अपना सम्पूर्ण अस्तित्व विवाह की वेदी पर कुर्बान कर दिया और बदले में पाया है एक गरीब और उबाउ पति, जिसने ज़्यादा से ज़्यादा उसे क्या दिया? पांच-छह बच्चे! वह डूबा है परदेश में अपने काम धन्धे में, रिक्सा चला रहा है, दो-दो तीन-तीन महिने में लौटता है घर-गाँव। शहर में कभी-कभार वह जाता है गंदी औरतों के पास, धन और स्वास्थ्य लुटाता। यह औरत है जो ज़िंदगी को दे रही है धक्के मैले, कुचैले बीमार कुपोषित बच्चों को पालती। जा रही है तांत्रिकों-औझाओं के पास, कई बार अपनी कमाई, अपनी इज्जत गिरवी रखती हुई। पति की सतत् प्रतिक्षा में करती है पूर्णिमा, ग्यारस के व्रत। दोपहर दो बजे तक भूखी-प्यासी खेतों में काम करती नहा-धोकर मंदिरों में जल चढ़ाती, नियम की पक्की, ब्राह्मणों को भोजन कराती। अपने शरीर को हाड-हाड करती वह भागवत कथायें सुनने जाती है दूसरे गाँवों तक। लेकिन इस वर्ग की किसी नास्तिक को , बौद्धिक को याद नहीं आती है क्यूँकि ये पत्नियां मैली-कुचैली हैं, इनसे दुर्गंध आती है, इनमें इन समाज सुधारकों की कोई रुचि नहीं हैं।
और भी लोग हैं. ऐसे जिन्हें यकायक कोई आघात लगता है. किसी का बच्चा चल बसता है, किसी की पत्नी गुज़र जाती है. किसी का पति नहीं रहता. या उनकीसम्पत्ति नष्ट हो जाती है, व्यवसाय खत्म हो जाता है. कुछ न कुछ ऐसा होता है कि उनके मुंह से निकल पड़ता है: “आखिर मेरे ही साथ ऐसा क्यों हुआ?” किससे पूछ सकते हैं ये लोग यह सवाल? ये जाते हैं गुरु के पास. और गुरु इन्हें कहता है कि “यही तो है कर्म. लेकिन एक और दुनिया है जहां मैं तुम्हें ले जा सकता हूं, अगर तुम मेरा अनुगमन करो. वहां कोई पीड़ा नहीं वहां कोई पीड़ा नहीं है. वहां मृत्यु नहीं है. वहां है अमरत्व. वहां केवल सुख ही सुख है”. तो इन सारी दुखी आत्माओं से यह गुरु कहता है कि “मेरे पीछे आओ, मैं तुम्हें स्वर्ग में ले चलता हूं जहां कोई कष्ट नहीं है”.
आप मुझे क्षमा करें लेकिन मेरा आरोप वही है ‘जादूगर वाला’। ऐसी परिस्थितियों में किसी गुरु के पास जाकर ही पता लगाया जा सकता है कि वह क्या कहता है। निश्चित रूप से वह नहीं जो जावेद साहब बता रहे हैं। ऐसी स्थिति में हर रिश्तेदार, मित्र, मिलने वाला और गुरु एक ही तरह से सांत्वना देता है। मुझे कोई नहीं मिला जो अपने परिजन की मृत्यु के पीछे-पीछे स्वर्ग की ओर निकल पड़ने को व्याकुल हुआ हो। दुःख होता है लेकिन उसके पीछे सारी समझावन आत्मिक शक्ति को बढ़ाने के लिये ही होती है। हाँ यह कहते हुए तो गुरु मिल जायेगा – क्यूँ व्यर्थ शोक करते हो, उसके लिये दुःखी मत हो वह भला आदमी था निश्चित ही स्वर्ग में गया है। अब तुम कर्म करो ताकि उसकी आत्मा को भी खुशी हो। एक दिन सबको वहीं जाना है कोई आगे –कोई पीछे। क्या निकृष्ट बात है, घातक बात है, इससे किसका बुरा होता है? अब बताइये इस दुःख में नास्तिकता किस प्रकार से सांत्वना देती है?
आप मुझे क्षमा करें, यह बात निराशाजनक लग सकती है लेकिन सत्य है, कि ऐसा कोई स्वर्ग नहीं है.ज़िन्दगी में हमेशा थोड़ा दर्द रहेगा, कुछ आघात लगेंगे, हार की सम्भावनाएं रहेंगी. लेकिन उन्हें थोड़ा सुकून मिलता है.
हाँ कोई स्वर्ग नहीं है तब? मृत्यु के बाद कोई पीड़ा नहीं है तो वह भी स्वर्ग से कम नहीं।
आपमें से कोई मुझसे पूछ सकता है कि अगर इन्हें कुछ खुशी मिल रही है, कुछ शांति मिल रही है तो आपको क्या परेशानी है? मुझे अपनी पढ़ी एक कहानी याद आती है. किसी संत की कही एक पुरानी कहानी है. एक भूखे कुत्ते को एक सूखी हड्डी मिल जाती है. वह उसी को चबाने की कोशिश करने लगता है और इसी कोशिश में अपनी जीभ काट बैठता है. जीभ से खून आने लगता है. कुत्ते को लगता है कि उसे हड्डी से ही यह प्राप्त हो रहा है. मुझे बहुत बुरा लग रहा है. मैं नहीं चाहता कि ये समझदार लोग ऐसा बर्ताव करें, क्योंकि मैं इनका आदर करता हूं. मानसिक शांति या थोड़ा सुकून तो ड्रग्स या मदिरा से भी मिल जाता है लेकिन क्या वह आकांक्ष्य है? क्या आप उसकी हिमायत करेंगे? जवाब होगा, नहीं. ऐसी कोई भी मानसिक शांति जिसकी जड़ें तार्किक विचारों में न हो, खुद को धोखा देने के सिवा और कुछ नहीं हो सकती. कोई भी शांति जो आपको सत्य से दूर ले जाए, एक भ्रम मात्र है, महज़ एक मृग तृष्णा है.
चलिये यहाँ तक विचार कर लेते हैं। कुत्ते वाली कहानी की संत की है! संत शायद आध्यात्मिक ही रहा होगा, तब इस कहानी का संदर्भ क्या होगा! चलिये इतनी सुविधा प्राप्त नहीं करते हैं। कहानी पर आते हैं कहानी कहती है कि कुत्ता अपने ही खून से संतुष्टि प्राप्त कर रहा है, इस भ्रम में कि वह उसे हड्डी से प्राप्त हो रहा है, और इस प्रकार न केवल वह अपनी शारीरिक क्षति कर रहा है बल्कि झूठी खुशी प्राप्त कर रहा है जो अधिक देर नहीं रहेगी। क्या मैंने सही समझा? ठीक है, आध्यात्म एक सूखी हड्डी है, जो दुःख में सुख की भूख को तृप्त करने के लिये व्यक्ति के मुंह में है, व्यक्ति समझ रहा है कि आध्यात्म से उसका दुःख दूर हो रहा है जबकि वास्तव में वह सुख वह अपने –आप से ही प्राप्त कर रहा है। यह दुःख वस्तुतः आत्मसबलीकरण से प्राप्त हो रहा है, जिसका माध्यम या प्रेरक आध्यात्म है। यह आध्यात्म चाहे झूठ है लेकिन आत्मसबलीकरण वास्तविक है, कुत्ते की भूख तृप्त नहीं होगी, थोड़ी देर बाद पुनः सतायेगी, उसे यह भी पता चल जायेगा कि खून हड्डी से नहीं मुंह से ही आ रहा है, वह हड़्डी को फैंक देगा। लेकिन यहाँ एकबार दुःख को सहन करने की शक्ति विकसित हुई तो पुनः खत्म नहीं होगी, भूख का वास्तविक रूप से शमन हो जायेगा। यहाँ जिस मुंह से खून आ रहा है वह शारीरिक क्षति नहीं है, मानसिक पुष्टि है जो स्थाई है, अब बात आती है कि यह अवास्तविक साधन (सूखी हड्डीरूप आध्यात्म) से प्राप्त हुई है, तो उसकी अवास्तिवकता के बावजूद पुनः दुःख उत्पन्न होने पर इसी सूखी हड़्डी से संतोष प्राप्त हो सकेगा, इसकी खोज होगी। क्योंकि यह सूखी हड्डी स्थायी रूप से दुःख को मिटाती है। इस बात को आगे बढाउँ, ड्रग्स और मदिरा से जोड़ूँ, वैसे बात उपर सिमट आयी है, लेकिन ड्रग्स और मदिरा दिमाग को शिथिल कर सुख देते हैं, अंततः शारीरिक क्षति करते हैं , आध्यात्म विवेक उत्पन्न करता है, निश्चित ही ऐसा नहीं जैसा आप चाहते हैं। वह दुःख मनाने की व्यर्थता को सामने रखता है। पत्नी मर गई है, क्या इसमें कोई तार्किक और सत्य सुख ढूँढा जा सकता है? इसका सत्य यही है न कि मरा हुआ व्यक्ति जिंदा नहीं हो सकता है, मृत्यु को स्वीकार कर लेना चाहिये। क्या आध्यात्म इस सत्य से दूर ले जाता है, कोई मृगतृष्णा रचता है? नश्चित ही नहीं, वह सत्य के पास ले जाता है।
मैं जानता हूं कि शांति की इस अनुभूति में एक सुरक्षा-बोध है, ठीक वैसा ही जैसी तीन पहियों की साइकिल में होता है. अगर आप यह साइकिल चलाएं, आप गिरेंगे नहीं. लेकिन बड़े हो गए लोग तीन पहियों की साइकिलें नहीं चलाया करते. वे दो पहियों वाली साइकिलें चलाते हैं, चाहे कभी गिर ही क्यों न जाएं. यही तो ज़िन्दगी है.
तर्क में, बहस में किसी प्रकरण पर जब हम कोई उदाहरण देते हैं तो उसे समस्त अंगउपांगों के साथ प्रकरण पर घटित होना चाहिये। मैं आध्यात्म को साइकल का तीसरा पहिया मानूँ या पूरी तीन पहियों की साइकल कुछ स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। अब चूँकि आप बडे हो गये हैं अतः साइकल तो चलानी जरूरी है लेकिन वह दो पहियों की होनी चाहिये, तीन की नहीं। ठीक, साइकल की उपयोगिता क्या है? वह यात्रा को सुगम बनाती है, दो पहियों से आशय है आपको बैलंस बनाकर साइकल चलाना आना चाहिए। तो यहाँ आपकी जीवन यात्रा का यह बलैंस आध्यात्म का पहिया बना रहा है। जीवन में आप बार-बार गिरते हैं, पड़ते हैं तो आध्यात्म का पहिया बैलंस बनाने आता है। जब आप खुद बैलंस बनाने लगते हैं तो तीससे पहिये की आवश्यकता नहीं है, विवेक और सत्य का पहिया ही पर्याप्त है। क्या मैंने इसे भी ठीक समझा? लेकिन ठहरिये आपकी साइकल चल कहाँ रही है, धरती पर न। जीवन की साइकल चलाने के लिये आपका बालपन और युवापन क्या है, अनुभव की सघनता न। जीवन यात्रा है, विवेक और सत्य साइकल के पहिये, तो धरती क्या है, कहीं यह साइकल हवा में तो नहीं चलानी है! हाँ अपके सांसारिक जीवन की यात्रा भौतिकता के धरातल पर बिना तीसरे पहिये के संभव है, आप बीमार हैं, संकट में हैं तो आध्यात्म आपको यही दो पहिये वाली साइकल चलाने का सुझाव देगा वह कहेगा वैध को दिखाओ, डाक्टर के पास जाओ, संकट में हो तो भौतिक इंतजामात करो। लेकिन आप दुःख में हैं उन कारणों से जिनपर आपका कोई बस नहीं, जिनका कोई वस्तुगत हल नहीं, आप वायवीय जगत में तैर-उतरा रहे हैं, तब आपको इन हिचकोलों से बचाने के लिये है आध्यात्म की साइकल।
एक और वर्ग है. ठीक उसी तरह का जैसा गोल्फ क्लब जाने वालों का हुआ करता है. वहां जाने वाला हर व्यक्ति गोल्फ का शौकीन नहीं हुआ करता. ठीक उसी तरह हर वह इंसान जो आश्रम में नज़र आता है, आध्यात्मिक नहीं होता. एक ऐसे गुरु के, जिनका आश्रम दिल्ली से मात्र दो घण्टे की दूरी पर है, घनघोर भक्त एक फिल्म निर्माता ने एक बार मुझसे कहा था कि मुझे भी उनके गुरु के पास जाना चाहिए. वहां मुझे दिल्ली की हर बड़ी हस्ती के दीदार हो जाएंगे. सच तो यह है कि वे गुरु जी निर्माणाधीन दूसरे चन्द्रास्वामी हैं. तो, यह तो नेटवर्किंग के लिए एक मिलन बिन्दु है.
ज्यूं का त्यूँ का स्वीकार है, यह भी आध्यात्म पर आरोप नहीं है, आध्यात्म का दुरुपयोग है।
ऐसे लोगों के प्रति मेरे मन में अगाध सम्मान है जो आध्यात्मिक या धार्मिक हैं और फिर भी भले इंसान हैं. इसकी वजह है.
मैं मानता हूँ आध्यात्मिक इंसान तो भला होगा ही यह सुनिश्चित है। मुझे आश्चर्य मिश्रित सुख होता है जब मैं किसी नास्तिक को भला देखता हूँ। ( एक पृथक आलेख)
मैं मानता हूं कि किसी भी भाव या अनुभूति की तरह आपकी भी एकसीमा होती है. आप एक निश्चित दूरी तक ही देख सकते हैं. उससे आगे आप नहीं देख सकते. आप एक खास स्तर तक ही सुन सकते हैं, उससे परे की ध्वनि आपको सुनाई नहीं देगी. आप एक खास मुकाम तक ही शोक मना सकते हैं, दर्द हद से बढ़ता है तो खुद-ब-खुद दवा हो जाता है. एक खास बिन्दु तक आप प्रसन्न हो सकते हैं, उसके बाद वह प्रसन्नता भी प्रभावहीन हो जाती है.
इसमें मैं इतना ही जोडता हूँ कि आपके सोचने की भी एक सीमा होती है, बुद्धि की भी एक सीमा होती है आप एक सीमा तक ही बौद्धिक हो सकते हैं पूर्ण बौद्धिक नहीं, तर्क की भी एक सीमा होती है, उसके आगे आप तार्किक नहीं हो सकते हैं। आप नहीं मानेंगे न, नीचे एक बात है जिसे मैं भी नहीं मानता।
इसी तरह, मैं मानता हूं कि आपके भलेपन की भी एक निश्चित सीमा है. आप एक हद तक ही भलेहो सकते हैं, उससे आगे नहीं. अब कल्पना कीजिए कि हम किसी औसत इंसान में इस भलमनसाहत की मात्रा दस इकाई मानते हैं. अब हर कोई जो मस्जिद में जाकर पांच वक़्त नमाज़ अदा कर रहा है वह इस दस में से पांच इकाई की भलमनसाहत रखता है, जो किसी मदिर में जाता है या गुरु के चरणों में बैठता है वह तीन इकाई भलमनसाहत रखता है. यह सारी भलमनसाहत निहायत गैर उत्पादक किस्म की है. मैं इबादतगाह में नहीं जाता, मैं प्रार्थना नहीं करता. अगर मैं किसी गुरु के पास, किसी मस्जिद या मंदिर या चर्च में नहीं जाता तो मैं अपनेहिस्से की भलमनसाहत का क्या करता हूं? मुझे किसी की मदद करनी होगी, किसी भूखे को खाना खिलाना होगा, किसी को शरण देनी होगी. वे लोग जो अपने हिस्से की भलमनसाहत को पूजा-पाठ में, धर्म या आध्यात्म गुरुओं के मान-सम्मान में खर्च करने के बाद भी अगर कुछ भलमनसाहत बचाए रख पाते हैं, तो मैं उन्हें सलाम करता हूं.
आप बतायें क्या मैं इस बात को तार्किक मानूं, भलमनसाहत की सीमा होती है, उसकी निश्चित इकाईयाँ होती हैं। आप मुझे कहने दीजिये एक व्यक्ति के पागलपन की भी एक सीमा होती है उसके बाद वह बुद्धिजीवी हो जाता है। तब तो कोई चिंता नहीं ये सारे आध्यात्मिक जो अपने अविवेक से या पाप से आध्यात्मिक बने फिरते हैं एक सीमा के बाद सारे के सारे वैज्ञानिक या पुण्यात्मा हो जायेंगे। फिर तो कोई बड़ी चिंता नहीं हैं। आप नहीं मान रहे हैं न, मै जानता हूँ मुझे कुछ और कहना होगा। जैसे मुझमें विनम्रता की १० इकाइयाँ हैं, पूरी की पूरी मैंने शाम चार बजे से पहले ही खर्च करदी (दस मंदिरों में जाकर) क्या आप शाम 5 बजे मुझसे मिलना चाहेंगे? नहीं न। आप मिल सकते हैं मुझसे कभी भी, विनम्रता, भलमनसाहत कभी खत्म नहीं होती हैं। विद्या के कहा गया है जितना अभ्यास किया जाता है उतनी ही बढ़ती जाती है, अभ्यास नहीं करने पर घट जाती है। भलमनसाहत भी, और विनम्रता भी। वाह रे जादूगर तेरी चालाकी की निश्चित इकाईयाँ नहीं है और भलमनसाहत की हैं! धन्य है। इसे पढ़कर कहीं पिता अपने पुत्रों से शाम के समय मिलने से ही कतराने लगें कि यदि दिन में दस बार अध्यापक या बॉस के सामने झुक चुका होगा तो शाम को मिलते ही चाँटा लगायेगा।
आप मुझसे पूछ सकते हैं कि अगर धार्मिक लोगों के बारे में मेरे विचार इस तरह के हैं तो तो फिर मैं कृष्ण, कबीर या गौतम के प्रति इतना आदर भाव कैसे रखता हूं? आप ज़रूर पूछ सकते हैं. मैं बताता हूं कि क्यों मेरे मन में उनके प्रति आदर है. इन लोगों ने मानव सभ्यता को समृद्ध किया है. इनका जन्म इतिहास के अलग-अलग समयों पर, अलग-अलग परिस्थितियों में हुआ. लेकिनएक बात इन सबमें समान थी. ये अन्याय के विरुद्ध खड़े हुए. ये दलितों के लिए लड़े. चाहे वह रावण हो, कंस हो, कोई बड़ा धर्म गुरु हो या गांधी के समय में ब्रिटिश साम्राज्य या कबीर के वक़्त में फिरोज़ शाह तुग़लक का धर्मान्ध साम्राज्य हो, ये उसके विरुद्ध खड़े हुए. और जिस बात पर मुझे ताज़्ज़ुब होता है, और जिससे मेरी आशंकाओं की पुष्टि भी होती है वह यह कि ये तमाम ज्ञानी लोग, जो कॉस्मिक सत्य, ब्रह्माण्डीय सत्य को जान चुके हैं, इनमें से कोई भी किसी सत्ता की मुखालिफत नहीं करता. इनमें से कोई सत्ता या सुविधा सम्पन्न वर्ग के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द नहीं करता. दान ठीक है, लेकिन वह भी तभी जब कि उसे प्रतिष्ठान औरसत्ता की स्वीकृति हो. लेकिन आप मुझे बताइये कि कौन है ऐसा गुरु जो बेचारे दलितों को उन मंदिरों तक ले गया हो जिनके द्वार अब भी उनके लिए बन्द हैं? मैं ऐसे किसी गुरु का नाम जानना चाहता हूं जो आदिवासियों के अधिकारों के लिए ठेकेदारों से लड़ा हो. मुझे आप ऐसे गुरु का नाम बताएं जिसने गुजरात के पीड़ितों के बारे में बात की हो और उनके सहायता शिविरों में गया हो.
सही है इसका अर्थ यह है कि ये लोग आध्यात्मिक नहीं है, इनमें से कोई भी ब्रह्माण्डीय सत्य को नहीं जान चुका है, जानना तो दूर आपकी भांति इनको ब्राह्माण्डीय सत्य में यकीन ही नहीं है। इनको केन्द्र में रखकर आध्यात्मिकता को खारिज नहीं किया जा सकता है। यदि घर में बहुत-सा कूड़ा- करकट इकठ्ठा हो गया, गंदगी हो गई है, टूट-फूट हो गई है तो घर की साफ-सफाई और मरम्मत की आवश्यकता है न कि घर को फोड़ डालने की। आप किसी रास्ता यह कह कर मत रोकिये अंदर बैठा तेरा भाई शराब पी रहा है अब इस घर में मत जा। अगर मनुष्य और उसके विकास में यकीन है तो घर की आवश्यकता को खारिज मत करिये श्रीमान्। और जिनका अल्फा सेंचुरी से कोई संबंध नहीं है उन्हें कहिये कोई और अल्फा सेंचुरी से सम्बन्ध बनाना चाहता है तो उसकी टांग न खींचे, बुद्धि की सीमारेखाओं का आविष्कार मत कीजिये प्रभु।
ये सब भी तो आखिर इंसान हैं. मान्यवर, यह काफी नहीं है कि अमीरों को यह सिखाया जाए कि वे सांस कैसे लें. यह तो अमीरों का शगल है. पाखण्डियों की नौटंकी है. यह तो एक दुष्टता पूर्ण छद्म है. और आप जानते हैं कि ऑक्सफर्ड डिक्शनरी में इस छद्म के लिए एक खास शब्द है, और वह शब्द है: होक्स(HOAX). हिन्दी में इसे कहा जा सकता है, झांसे बाजी!.धन्यवाद.
मानाकि अमीरों को सांस लेना सिखाना तो पर्याप्त नहीं है लेकिन सांस लेना सिखाना दुष्टतापूर्ण छद्म है, प्रयोग द्वारा सिद्ध करें। बहुत घिनौना षडयंत्र है यह कि कुछ नास्तिक आस्तिकता चौला ओढ़ लें और कुछ बाहर रहें, केन्द्र में रखें आध्यात्मिकता को और उसकी फुटबाल बनालें। आतंकवादी सेना की वर्दी पहनकर सेना में घुस आये हैं महोदय, यह सुरक्षातंत्र को चौपट करने का गंभीर मामला है। कृपया बंद कीजिये इस प्रहसन को, अपने अभिनेताओं को लौटा लीजिये, दुनिया से उसका वो हसीन, मानवीय और प्रेम का ख्वाब(जो निरा ख्वाब नहीं है) मत छीनिये जो लाखों हकीकतों से अधिक उपयोगी है। अपनी शुद्र वासनापूर्तियों के लिये मनुष्य को वापस जंगल में पहुँचाने का कार्यक्रम स्थगति कर दीजिये महोदय। धन्यवाद
एक परीक्षणः
१. क्या आप इसे पढ़कर तारीफ के लिये उतावले हो रहे हैं, या गाली देना चाह रहे हैं?
यदि हाँ तो आप कट्टर हैं।
२. क्या आप को यह समीक्षा सही लग रही है?
यदि हाँ तो आप आस्तिक हैं, यदि सही भी लग रही है और कुछ कमी लगती है तो आप पाखण्डी हैं।
३.क्या आप संकुचित हो रहे हैं?
यदि हाँ तो आप नास्तिक हैं
४. क्या आप जवाब तैयार कर रहे हैं?
यदि हाँ तो आपका एक नास्तिक ईश्वर अवश्य है।
५. क्या आप कुछ और तर्क अपनी और से जोड़ना चाह रहे हैं?
यदि हाँ तो आप अंधविश्वासी आहत आस्तिक हैं।
६. क्या आपने सोचना शुरु किया है?
यदि हाँ तो आप विवेकशील बौद्धिक हैं।
७. आपको यह समीक्षा मूर्खतापूर्ण लगी?
यदि हाँ तो आप सुखी इंसान हैं मनोरंजन प्रिय।
८. आप इस विषय पर कुछ और पढ़ने के इच्छुक हो रहे हैं?
यदि हाँ तो आप विनोदी हैं।
९. आप समझते हैं कि जावेद साहब की काट नहीं हो पाई है?
यदि हाँ तो आप तर्क फ्रैंडली नहीं हैं?
१०. आप दोबार इस ब्लाग पर नहीं आयेंगे।
यदि हाँ तो आप बिल्कुल सही हैं।
निवेदनः मुझे इस बात का अहसास है कि इस प्रकार की प्रतिक्रिया उचित नहीं है, इसमे गंभीरता नहीं है, लेकिन क्या करें?
-प्रीतीश बारहठ