Saturday, June 6, 2009

कोई तो जान-ए-तसव्वुर हो जिसके हो लें

कुछ दिन पहले सुख़नसाज़ पर मेहदी हसन साहब की गाई जनाब कृष्ण अदीब की लिखी एक मशहूर ग़ज़ल पोस्ट की थी.
सुख़नसाज़ पर उनके बारे में यह लिखा गया था:

"उर्दू के शायर कृष्ण 'अदीब' साहब का जन्म जालंधर ज़िले में २१ नवम्बर १९२५ को हुआ था. पन्द्रह साल की आयु में घर छोड़ने पर विवश हुए - कुलीगिरी की, फ़ैक्ट्री में मज़दूर रहे.अपने जीवन का ज़्यादातर समय उन्होंने लुधियाना में बिताया. पंजाब कृषि विश्वविद्यालय में वरिष्ठ फ़ोटोग्राफ़र के तौर पर काम करने के बाद वे १९८५ में रिटायर हुए. लम्बी बीमारी और आर्थिक कमी के चलते ७ जुलाई १९९५ को उनकी मृत्यु हुई. 'अदीब' साहब की मुख्य किताबों में 'आवाज़ की परछाइयां', 'फूल, पत्ते और ख़ुशबू' और 'रौ में है रख्शे उम्र' प्रमुख हैं."

इस पोस्ट की प्रतिक्रिया में मुझे सात समुन्दर पार से यह ग़ज़ल बतौर सौग़ात प्राप्त हुई. अदीब साहब की ही लिखी हुई है. गाया है सदाबहार मोहम्मद रफ़ी ने.



आप भी आनन्द लीजिए इस सुन्दर ग़ज़ल का:



तल्ख़ि-ए-मै में ज़रा तल्ख़ि-ए-दिल भी घोलें
और कुछ देर यहां बैठ लें पी लें रो लें

हर तरफ़ एक पुर असरार सी ख़ामोशी है
अपने साये से कोई बात करें कुछ रो लें

कोई तो शख़्स हो जी जान से चाहें जिसको
कोई तो जान-ए-तसव्वुर हो जिसके हो लें

आह ये दिल की कसक हाय ये आंखों की जलन
नींद आ जाए अगर आज तो हम भी सो लें

(डाउनलोड यहां से करें: तल्ख़ि-ए-मै में ज़रा तल्ख़ि-ए-दिल भी घोलें)