और देवताले की स्त्रियां! शोक और आह्लाद और उनके विलक्षण झुटपुटे का वह महोत्सव, जिसका एक छोर एक विराट अमूर्तन में है - पछीटे जाते कपड़ों, अंधेरी गुफा में गुंधे आटे से सूरज की पीठ पर पकती असंख्य रोटियों आदि-आदि में, गोया यह सब करती स्त्री स्वयं कर्मठ मानवता है। और दूसरा छोर है घर में अकेली उस युवती के निविड़ एकांत में जहां उसका अकेलापन ही उसका उल्लास, उसका भोग उसकी यातना, उसके भी आगे उसका स्वातंत्र्य है
तुम्हारा पति अभी बाहर है, तुम नहाओ जी भर कर
आईये के सामने पहनो, फिर
आईने को देखो इतना कि वह
तड़कने-तड़कने को हो जाये...
क्या मज़ा है। जहां निविड़ता होनी चाहिये - सूरज की पीठ, पृथ्वी के स्तनों, और घास के गठ्ठरों में - वहां कतई शोरो-गुल है और जहां शोरो-गुल मुमकिन था 'घर में अकेली औरत के लिये´ में - वहां कत्तई सन्नाटा है। हालांकि उसके भीतर एक खामोश कोहराम भी है। यही कवि की महिमा है।
कवि के विधिवत पहले संकलन 'दीवारों पर खून से´ में है यह कविता, और स्त्री के साथ उसका यह नाता अब तक अटूट चला आता है, और इतने रंग हैं उसमें कि हैरानी होती है। 'औरत´, 'मां जब खाना परोसती थी´, 'दो लड़कियों का पिता होने पर´, 'उसके सपने´, 'बालम ककड़ी बेचने वाली लड़कियां´, 'मां पर नहीं लिख सकता कविता´, 'नहाते हुए रोती औरत´ - ये वे स्त्री विषयक कवितायें हैं जो अपनी मार्मिकता के साथ औचक स्मृति में बसी रहती हैं। इन्हीं की पूरक है 'प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता´ या 'मेरी पोशाक ही ऐसी थी´ - जैसी कवितायें जिनमें भीतर के एक कोमल प्रांतर के उद्घाटन, या फिर एक दूसरी विद्रूप सामाजिक सचाई के खोलने का निमित्त स्त्री ही बनी है। वैश्वीकरण की विडम्बनाओं के बावजूद भारतीय समाज के ताने-बाने में औरत की जो विचित्र, अद्वितीय और जटिल हैसियत है, और उससे भी ऊपर, पुरुष की सापेक्षता में उसका जो झुटपुटा और तिलिस्म है हिंदी में देवताले से ज्यादा उसे किसी कवि ने न समझा है, न लिखा है। इसे यह कवि खुद जानता भी है, तभी 'स्त्री का साथ´ शीर्षक कविता में वह लिखता है
सचमुच मैं भाग जाता चंद्रमा से फूल और कविता से
नहीं सोचता कभी कोई भी बात ज़ुल्म और ज़्यादती के बारे में
अगर नहीं होतीं प्रेम करने वाली औरतें इस पृथ्वी पर
...स्त्री के साथ और उसके भीतर रहकर ही मैंने अपने को पहचाना है
... मुझे औरत की अंगुलियों के बारे में पता है
ये अंगुलियां समुद्र की लहरों से निकलकर आती हैं
और एक थके-मांदे पस्त आदमी को
हरे-भरे-गाते दरख़्त में बदल देती हैं
जिसे तुम त्वचा कहते हो वह नदी का वसंत है
... फिर भी सिर्फ एक औरत तो समझने के लिए
हजार साल की जिंदगी चाहिये तुमको
क्योंकि औरत सिर्फ माफ या बसंत ही नहीं है
एक सिम्फ़नी भी है समूचे ब्रह्मांड की...
- वीरेन डंगवाल
11 comments:
बहुत वस्तुनिष्ठ, संजीदा और संवेदनक्षम मूल्यांकन. देवताले जी के वैविध्यपूर्ण, विपुल और जीवंत काव्य-संसार के प्रति आलोचक-समुदाय की "विचित्र चुप्पी" की वजह भी वीरेन जी ने सही बतायी
है कि यह समुदाय दरअसल "केन्द्रमुखी" है. इसके साथ ही वह देवताले जी के कवि -स्वभाव और उनकी स्त्री-विषयक कविताओं की भी अचूक और मर्मस्पर्शी शिनाख्त करते हैं. देवताले की कविता के महत्त्व को उजागर करने की विष्णु खरे की अहम और निरंतर आलोचनात्मक कोशिश की
वाजिब सराहना करते और उसका मुनासिब संज्ञान लेते हुए. वस्तुतः विष्णु खरे के अलावा वीरेन डंगवाल ने ही अब तक हिंदी में चंद्रकांत देव्ताले की कविता पर सबसे अच्छा और सच कहें तो अविस्मर्णीय लिखा है. फिर भी यह अधूरा है. अभी एक ज़्यादा समग्र पड़ताल दरकार है. देवताले जी की कविता पर एक पूरी किताब ही आनी चाहिए, जिसमें कई महत्त्वपूर्ण लोग लिखें.
------पंकज चतुर्वेदी
कानपुर
वीरेनजी की पूरी टिप्पणी दोबारा से पढ़ी। मैं रंगनाथ की बात से इत्तफाक रखता हूं कि इस पोस्ट के केंद्र में देवतालेजी की कविताएं होना चाहिए और उसी पर बात होना चाहिए। इस तरह की बहसों में अक्सर ऐसा होता है कि कवि पर बातचीत न होकर उसके बहाने कई दूसरे मुद्दों पर बातें होने लगती हैं (और रंगनाथ की टिप्पणियां भी इससे बच नहीं पाई हैं)। मैं इस बात से भी इत्तफाक रखता हूं कि अशोकजी ने यह एक सुंदर और सकारात्मक शुरूआत की है क्योंकि इस बहाने इस कवि पर बातचीत की शुरूआत हो सके। मुझे लगता है कि देवताले जी की कविताएं एक ऐसे कवि की कविताएं हैं जिसकी आंखें क्षितिजों के पास कुछ ढूंढ़ती रहती हैं। इस ढूंढ़ने में वह देखता हुआ बताता है कि तांबे के दमकते गमलों से किरणों की टहनियां फूट रही हैं, कंधों पर महकती फूलों की आतिशबाजी हो रही है। दूर कहीं बजती कांसे की घंटियां की घंटियां सुनते हुए वह कहता है बादलों में कोई कविता बुदबुदाता है और यह बुदबुदाहट इतनी हलकी है जैसे पानी पर तैरते हंसों की हंसध्वनि। उसकी कामना है कि उसकी स्त्री के भीतर ईश्वर खुद एक बार थरथरा जाए जिसे सफेद बालों और झुर्रियों सचमुच सुंदर बना दिया है।
मूर्त-अमूर्त को एक साथ मथने के विलक्षण कौशल में देवतालेजी कविता में एक ऐसा अद्भुत रसायन पैदा करते हैं जिसमें एक साथ ताकतवर करुणा, मानवीय आंच और आत्मीयता के साथ ओज का हलका स्पर्श भी है। इनमें धूप, समुद्र, चंद्रमा, हवा, आकाश , स्मृतियां , प्रेम, उदासी, और अवसाद के साथ दुःख , पत्तियां, पेड़, नदीं सड़क की कौंध है जिसमें हिलता डुलता हमारे ही संसार का प्रतिबिंब और चमकदार होकर उसे हमारे और करीब ले आता है। हम कभी सुखद आश्चर्य से तो कभी उदास होकर अपनी स्मृति में ही रचे-बसे अनुभव का विस्मयकारी साक्षात्कार करते हैं।
ये कविताएं पढ़ते हुए एक तरफ हम अपनी ही दुनिया की पुनर्रचना कर रहे होते हैं वहीं दूसरी तरफ ये कविताएं हमें कवि के करीब भी ले जाती हैं और हम देख-समझ पाते हैं कि कवि उस धातु का बना है ताकतवर व्यक्तित्व है जो अपने सारे भेद कविताओं में उगल चुका है। ये कविताएं कवि को जितना बदलती हैं , पाठक को भी उतना ही बदलती हैं । पाठक जब इन कविताओं से होकर गुजरता है और बाहर आकर आसपास देखता है तो यह देखना भी पूरी तरह बदल चुका होता है। वह कवि की ही तरह महसूस करने लगता है कि डबडब आंखों जैसे धुंध में देख रहे हैं और कंठ में डुच्चा फंसा है और शब्दों से वह बिलकुल ही मोहताज हो चुका है।
प्रेम के साथ आशंकाग्रस्त समय के सुख-दुःख का चेहरा बनाते हुए देवताले जी अपनी दुनिया को इस तरह विन्यस्त करते हैं जहां व्यक्तिगत और सार्वजनिक का भेद मिट जाता है । हालांकि बहुत ही निजी संसार की उनकी कुछ मर्मस्पर्शी और अद्वितीय कविताएं हैं जो उन्हें शमशेर और रघुवीर सहाय से खूबसूरती से जोड़ती हैं। इनमें से कुछ का वीरेन ने जिक्र किया ही है। इस अनूठे कवि के प्रति एक विचित्र नहीं , सायास चुप्पी दुर्भाग्यपूर्ण है।
रविन्द्र जी आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ। आगे से इसका ख्याल रहेगा।
रवीन्द्र व्यास जी का विश्लेषण बहुत सच्चा,गहन और आत्मीय है. उनसे देवताले जी की कविता को समझने-सराहने की एक नयी अंतर्दृष्टि हासिल होती है. उन्हें बहुत-बहुत शुक्रिया !
-----------पंकज चतुर्वेदी
कानपुर
देवताले जी की कविता की सबसे बड़ी खूबी जीवन की अति सामान्य परिस्थितियों में कविता का निर्माण है। बालम ककड़ी बेचती लड़कियों वाली कविता देखिए या कुछ बच्चे बाकि बच्चे। लगता ही नहीं की कवि सयाश कविता कर रहा है। ऐसा लगता है जैसे कवि के मस्तिष्क में हर दृश्य कवित्तपूर्ण बिम्ब के रूप में उतर जाता है। बस में बैठी आदिवासी लड़की कविता में देखिए, क्या सुंदर सरल शब्द-चित्र है। कहीं कोई विशेष परिस्थिति नहीं है। फिर भी देवताले के लिए वहाँ कवित्त है। देवताले की इस कविता से नागार्जुन की नेवला कविता याद आ जाती है। नागार्जुन या देवताले जैसे प्रखर कवियों के लिए ही ऐसी कविता संभव हैं जो किसी विचारधारा या प्रबल भावना से चार्जड् न हों फिर भी उदात्त हो।
देवताले की कविता की दैनिक जीवन के छोटे छोटे अनुभवों से बटी और अटी है। हिन्दी में ऐसे कवि कम ही हैं जो सहज स्थिति में कविता कर सके। मुक्तिबोध हों या निराला उनकी कविताओं उत्तेजित स्नायुओं की स्पष्ट नसें दिखती हैं। जबकि देवताले में एक ठोस स्थिर सर्द स्वर तो दिखता है लेकिन उनमें वह क्षणिक उत्तेजना नहीं दिखती। इस तरह उनकी कविता ज्यादा सहज दिखती है।
हिन्दी कवियों में देवताले से किसी कवि का साम्य दिखता है तो वह है कवि नागार्जुन। नागार्जुन के लिए संघर्ष जीवन की सामान्य परिस्थिति का नाम है उसी तरह देवताले में मूलभूत मानवीय संवेदनाएं स्थाई भाव हैं। उनमें निराला वाली तीव्र क्षणिक मानसिक उत्तेजना से उपजी वह तोड़ती पत्थर या भिक्षु जैसी कविताएं नहीं उतरती। इसके बरक्स वह कदम दर कदम दैनिक जीवन में ठिठराते हुए सामान्य जन उनकी कविता में सहज भाव से उतर आते हैं।
देवताले जी की नई कविताओं मे से एक कविता है,
मेरे हक में यही अच्छा रहा कि
गुस्से और आग ने
कभी मेरा साथ नहीं छोड़ा
देखिए भला, कितने शांत और स्थिर स्वर में कवि अपने जीवन भर के संघर्ष को समेट रहा है। गुस्से से तो सभी परिचित होंगे, लेकिन ये कौन सी ‘आग‘ है जिसने कवि का साथ जीवन भर नहीं छोड़ा ?
इस ‘आग‘ को समझने से पहले एक नजर कवि के गुस्से पर भी डालें। अद्भूत है यह देखना कि गौतम, महावीर, कपिल,कणाद,गाँधी के देश में जीवन के आखिरी वय में एक कवि यह कहने का साहस रखता है कि उसके हक में यही अच्छा रहा कि गुस्से ने उसका साथ नहीं छोड़ा। काम,क्रोध,लोभ,मोह को समूचा भारतीय दर्शन महा-विकार के रूप में ही बरतता आ रहा है। कवि का साहसिक चुनाव देखिए प्रबल काम आसक्ति, लोभ या मोह का कवि की कविताओं में दूर दूर तक अता-पता नहीं है लेकिन, कवि ने क्रोध को अपने जीवन भर की उपलब्धि बताया है। निश्चय ही यह किसी युवा कवि को स्वर नहीं है जो युवा सुलभ साहस से गोली दागो पोस्टर जारी करे। कवि अपने जीवन का आधा पड़ाव पार कर चुका है। जीवन के तमाम कडवे-कसैले अनुभव देख चुका है। अनुभवों के ढेर पर बैठा हुआ वह इस वय में पीछे पलट कर गुजरे हुए जीवन को देखता है और इस नतीजे पर पहुँचता है कि मेरे हक में यही अच्छा रहा कि गुस्से ने मेरा साथ नहीं छोड़ा। क्या यह वही गुस्सा नहीं है जो मुखर होने पर बेलौस ढंग से कहता है,
यदि जीवन जीने के पीछे सही तर्क नहीं है
तो रण्डी की दलाली करके जीने
और रामनामी बेच कर जीने में
कोई फर्क नहीं है
क्या यह वह गुस्सा नही है कि जो मुँहफट हो कह उठता है
अबे, सुन बे गुलाब,
भूल मत जो पाई खुशबू,रंगोआब,
खून चूसा खाद का सूने अशिष्ट,
डाल पर इतराता है केपीटल्स्टि !
हाँ यह वही गुस्सा है। जो समय समय पर युगांतकारी प्रतिभाओं का स्थाई टेक बना है। सामान्य जीवन मे असहाय जन की पक्षधारिता के एवज में उन्हें खुद को क्रोध में तपते रहना मंजुर रहा है। मूँदही आँाख कतहू कुछ नाहीं ! जिन्हें जीवन में पसरा अत्याचार नहीं दिखता, अन्याय नहीं दिखता उनके लिए सुदर्शन क्रिया या सहज योग करना आसान है। जिनको मानव निर्मित असामनता पर सख्त एतराज होता है उनमें इस अन्याय के प्रति प्रकट या दबा-दबा गुस्सा अवश्य होता है। अपने गुस्से के उदात्त मानवीय अर्थों को समझने के कारण कवि को लगता है कि उसके हक में यही अच्छा रहा कि जीवन भर गुस्से ने उसका साथ नहीं छोड़ा। कवि के लिए उसका गुस्सा ही उसका श्रेय है, उसका प्रेय है। क्योंकि यही गुस्सा उसे मानवीय होने का एहसास करवाता रहा है। यही गुस्सा है जिससे उसमें अच्छाई के हक में परिवर्तन की आस बचाए रखता है। यही गुस्सा है जो जीवन भर उसके जीने की वजह उपलब्ण्ध करवाता रहा है। यह गुस्सा होता तो कवि के जीवन दूभर हो जाता। वह औरों की तरह अपने पेट के लिए नहीं जी सकता था। उसमे इसकी कुव्वत ही नहीं थी। क्योकि वह एक कवि था। उसने हमेशा अपने विवके की आवाज सुनी न कि अपने लालच की। ऐसे में स्वाभाविक है कि पूर्णमया अविवेकी व्यवस्था में कवि जीवन भर गुस्से से भरा रहा।
कवि का दूसरा आजन्म सहचर “आग“ है। आग और गुस्सा, दोनों को स्थूल अर्थों में देखें तो लगता है कि दोनों पर्यायवाची हैं। लेकिन ऐसा होता तो कवि दोनों को चुनाव एक साथ क्यों करता ! इन दोनों का एक साथ प्रयोग यह सुनिश्चित करता है कि कवि के मन में दोनों के दो अर्थ हैं। दोनो की स्वतंत्र सत्ता है। जीवन भर दोनों का साथ कवि के लिए अपरिहार्य रहा है।
इन दोनों को होने को कवि ने सहर्ष अपना भाग्य माना है। अतः इस प्रतीक का जो भी सूक्ष्म अर्थ होगा उसके गंभीर दार्शनिक मूल्य होंगे। एक सीधा सपाट और पैदल दिमाग पहले पहल आग के धार्मिक निहितार्थों की तरफ दौड़ पड़ेगा। उसे हर जगह वही आग दिखाई देती है जिसमें मनुष्य की सारी मानवता भस्म हो गई। और उससे उपजी अभिजात्यता की राख को तमाम रहस्यवादी आज भी अपने माथे पर मलते नजर आते हैं।
इस आग की साम्यता किसी गरीब के चूल्हे की आग से बैठती है न कि हवन कुण्ड की आग से। यहाँ आग जल रही है तो जीवन के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए आवश्यक आवश्यक्ता के रूप में जल रही है। जीवन के भीतर बने रहने के लिए जरूरी सहारे के रूप में जल रही है। यह आग इहलोक को बनाए रखने के लिए जल रही है न कि परलोक सुधारने के लिए।
कोई कवि जब कविता करता है तो अपने प्रतीक बिम्ब चुनते वक्त वह दर्शन कोश नहीं देखता। उसके संपूर्ण समझ का सार जिस शब्द पर पुंज रूप में प्रकट हो जाता है उसी को वह तत्काल चुन लेता है। यह प्रक्रिया सायास कम और स्वाभाविक ज्यादा होती है। हर शब्द अपने एक विशेष अर्थ में कवि की समझ का हिस्सा होता है। कवित्त के क्षणों में कवि उसी शब्दकोश की गठरी का प्रयोग करता है। इसी कारण सामान्य शब्द भी किसी कविता में विशेष अर्थ देते हैं। इस तरह कवि भाषा की सीमाओं को लांघते हुए सीमित शब्दों से असीमित अर्थ उद्घाटन में सफल रहता है।
गुस्सा तो जाहिर चीज है। हर किसी को दिखता है। लेकिन आग ?
यह आग जो किसी को देखे नहीं दिखे, दरअसल है क्या ?
क्या यह कवि की जीवन दृष्टि नहीं है ?
निश्चय ही ऐसा ही है। यह आग कवि की विश्व-दृष्टि का प्रतीक है।
आग और विश्व-दृष्टि ! कुछ लोगों को यह लालबुझकड़ी लगेगी। लेकिन ऐसा है नहीं। इस आग के कवि के जीवन में ठोस मायने हैं। किसी कवि के जीवन में उसकी जीवन-द्ष्टि से ज्यादा ठोस दूसरी कोई चीज नहीं होती। यह कवि की विश्व-द्ष्टि ही है जो उसकी जनपक्षधरता को सुविधावाद की सर्द हवाओं में जमने नहीं देती। यह उसकी विश्व-दृष्टि ही है जो कुछ बच्चों को देखते हुए भी बाकि बच्चों से उसकी निगाह को हटने नहीं देती। यह उसकी विश्व-दृष्टि ही है कि वो जानता है उसने जिनके पक्ष में खड़ा होना तय किया है उनका वाजिब साथ देना भी कईयों को अपना दुश्मन बना लेना है। उसकी इस बात से कोई घबराहट भी नहीं है। उल्टे वह अपने विरोधी विश्व-दृष्टि को लक्ष्य करके बड़े ही मारक और साहसिक ढंग से कहता है
ऐसे जिंदा रहने से नफरत है मुझे
जिसमें हर कोई आए और मुझे अच्छा कहे
मैं हर किसी की तारीफ करते भटकता रहूँ
मेरे दुश्मन न हों
और इसे मैं अपने हक में बड़ी बात मानूँ
इस कविता के पाठ के बाद किसी को यह नहीं पूछना पड़ेगा कि कवि की जीवन-दृष्टि क्या है ?
जीवन-दृष्टि की व्यापकता को समझने के लिए हम एक ऐसे प्रसंग की तरफ मुड़ते हैं जहाँ बहुतों को जीवन-दृष्टि खोजना हास्यास्पद लगेगा। यदि आग कवि की विश्व-दृष्टि का प्रतीक है तो बकौल कवि यह आग हमेशा ही उसके साथ रही। लेकिन जब कवि प्रकृति के सौंदर्य बोध में रमा हुआ हो, क्या तब भी यह विश्व-दृष्टि रूपी आग उसके साथ थी ? निश्चय ही थी, किस रूप में थी जरा ध्यान से देखिएगा। आग में फूलों का क्या हश्र होगा सभी जानत हैं। अब जरा देवताले की कविताओं को पलटिए। देवताले की कविता में आपको महुआ,शीशम,नींबू के फूल मिलते हैं। देवताले को मुगल गार्डेन की रंगीनी से ज्यादा लुभावना यह प्रकृति में बसे प्राकृतिक फूल लगते हैं।
यहाँ निराला के कुकरमुत्ता के ललकार भरे स्वर के याद करना समीचीन होगा,
अबे, सुन बे, गुलाब
........
माली कर रक्खा, सहाया जाड़ा-घाम,
हाथ जिसके तू लगा
पैर सर रखकर व पीछे को भगा
...शाहों,राजों,अमीरों का रहा प्यार
तभी साधारणों से तू रहा न्यारा ।
निराला के इन पंक्तियों के सामने रख देवताले को पढ़ते ही देवताले की विश्व-दृष्टि को लेकर किसी को कोई भ्रम नहीं रहेगा। यही वही आग है जो कवि के सौंदर्यबोध को ठण्ढा नहीं होने देती। जो उसे सहज प्रकृति में बने रहने का उचित आंतरिक ताप देती है। जो कवि को गुलाब से ज्यादा महुआ और निंबू के फुलों में सुघड़ता और सौंदर्य दिखाती है।
देवताले जी की कई कवि कविताओं ने मुझे गहरे मथा था। उनमें से एक कविता यह थी जिसके बारे में मैंने अपनी राय को साझा किया।
उम्मीद है देवताले जी कबाड़खाना की चर्चा के कंेन्द्र में कुछ दिन और रहेंगे। जिससे देवताले जी के विविध पाठों से हम सब रूबरू हो सकें।
रंगनाथ भैया...
आपने देवताले के अन्दर के आग और आक्रोश को अपनी कविताई की समझ से स्पस्ट करने की सार्थक पहल की है..उम्मीद है नए लोगों को देवताले को समझने में इससे मदद मिलेगी..कोशोश अछी है..पंकज चतुर्वेदी और रविन्द्र जी के बाद उम्मीद है और सार्थक टिप्पणियां आएँगी...?
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