नए साल के मौके पर बतौर कर्मकांड जीवन के चकमक क्षेत्रों के जगमगाते लोगों से यह जानने की कोशिश की जाती है कि उनकी क्या-क्या उम्मीदें हैं. हमने तय किया कि इस बारे में धूल-धूसरित हिन्दी जगत के नए-पुराने रचनाकर्मियों को टटोला जाए और पता किया जाए कि उनकी आशंकाएँ-कुशंकाएँ क्या हैं. सो, अमल यह हुआ कि बातचीत होती गयी और क्रम बनता गया. यह बातचीत विजयशंकर चतुर्वेदी ने की है. अब विनती यह है कि साहित्य की हर विधा से जुड़े लोग शामिल होकर यह कारवां आगे ले जाएँ.
आबिद सुरती (पेंटर, कार्टूनिस्ट, कहानीकार, उपन्यासकार, नाटककार): नए साल में मैं देखना चाहूंगा कि अपनी संस्कृति को कैसे सुरक्षित रखा जाए. यह जो वैश्वीकरण आगे बढ़ रहा है वह सब कुछ तहस-नहस किये डाल रहा है. यह अमेरिकी संस्कृति है जो पूरी दुनिया पर छाती जा रही है और सब कुछ खाती जा रही है. यह हर हाल में रुकना चाहिए.
मैं मानता और कहता हूँ कि भारतीय संस्कृति दुनिया में सर्वश्रेष्ठ है और अमेरिकी संस्कृति दुनिया में सबसे घटिया है. आज के बच्चे टिफिन में नूडल्स लेकर स्कूल जाते हैं, जिनमें कोई पौष्टिकता नहीं होती कोई विटामिन नहीं होता. हमारी संस्कृति में माँ बाजरे की रोटी पर घी चुपड़ कर देती थी. अमेरिकी संस्कृति जहां भी जाती है, वायरस की तरह वहां की लोक-संस्कृति को चट कर जाती है.
चित्रकारिता जगत में नया साल खुशियाँ लेकर आयेगा. आज हुसैन, रज़ा, सुजा, गायतोंडे आदि की पेंटिंग्स लाखों-करोड़ों में बिकती हैं. इस दुनिया का विस्तार हो रहा है. आज एनीमेशन आ गया है, कार्टून चैनल्स हैं, कार्टून फ़िल्में बनती हैं...इससे सैकड़ों नए-नए कलाकारों को खपने की जगह मिलती है. पहले स्थान बहुत सीमित था. आज के दौर को आप कार्टूनिस्टों का स्वर्णयुग कह सकते हैं. साल २०१० में पेंटर भी अच्छा काम और दाम पायेंगे.'
प्रोफेसर कमला प्रसाद (आलोचक, सम्पादक 'वसुधा'): मैं इस व्यवस्था में लगातार ह्रास देखता हूँ और इसीके बढ़ते जाने की आशंका है क्योंकि इसमें जैसे-जैसे गरीबी और अमीरी की खाई बढ़ेगी, देश में पैसे का कब्ज़ा बढ़ेगा. चुनाव में, राजनीति में पैसे का कब्ज़ा बढ़ेगा. अमरीकी दोस्ती सघन होगी तो आतंकवाद, नस्लवाद, क्षेत्रवाद बढ़ेगा. हर समस्या का निदान क़ानून-व्यवस्था की समस्या माना जाएगा. नक्सलवाद की समस्या के लिए सेना की तरफ देखा जाएगा...तब हम क्या उम्मीद कर सकते हैं...साल २०१० में...२०११ में और उसके आगे के वर्षों में भी...
जबसे यह भूमंडलीकरण का राज आया है तबसे विकास की थोथी चर्चा होती है. समता की बात नहीं होती...तो ऐसे में कैसा जनतंत्र? रूसो ने कहा है कि ऐसे किसी जनतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती जिसमें समता न हो...आज हमारे देश के हर आदमी के अवचेतन में अज्ञात भय और अमूर्त गुस्सा व्याप्त है. यह जनतंत्र के चरित्र का सबसे घातक पहलू है.
ऐसी परिस्थितियों में उम्मीद की किरण हमारी जागरूक युवा पीढ़ी है और जो जागरूक मीडिया वाले लगातार विपरीत परिस्थितियों में सकारात्मक बातें जनता के सामने रखते चलते हैं, उनसे भी आने वाले समय में उम्मीद बंधती है. यह मीडिया बड़ी-बड़ी साजिशों को विफल करके नई उम्मीदों को जन्म देता है. अगले साल उन्हीं उम्मीदों के विस्तार की आशा करता हूँ. जनता में सामूहिक भाव-बोध आने वाले समय में सामाजिक परिवर्त्तन का कारक बनेगा. मैं अब भी मानता हूँ कि कला और संस्कृति का क्षेत्र तथा माध्यम अग्रगामी है और यही परिवर्त्तन की राह दिखाएगा.
निदा फाज़ली (मशहूर शायर): मुझे कोई उम्मीद नहीं है. पिछला साल अपने दुखों के साथ चला जाता है और नया साल अपने ग़मों के साथ आता है. मेरा एक शेर है-
'रात के बाद नए दिन की सहर आयेगी
दिन नहीं बदलेगा, तारीख़ बदल जायेगी.'
...सो कैलेण्डर बदलता है, कैलेण्डर के बाहर का माहौल नहीं बदलता. वह २००९ हो, २०१० हो या कोई और साल हो... बाहर की फिजायें, हवाएं, सदायें जस की तस रहती हैं.
बहुत बड़ी बात यह है कि भाजपा ने इंडिया शाइनिंग का नारा दिया था, कांग्रेस इंडिया इज शाइनिंग कह रही है...लेकिन जिस देश में नंदीग्राम हो, सिंगूर हो, भिंड हो, मुरैना हो, मोतिहारी हो... और ऐसे ही अनेक अंधेरों के क्षेत्र फैले हुए हों जो देश की आबादी के तीन चौथाई से ज्यादा हैं...वहां बहुत उम्मीद क्या करना...बस इन्हीं लोगों के लिए भूख है... मंहगाई है...महामारियां हैं...२००९ में भी थीं और क्या आप कह सकते हैं कि २०१० में नहीं रहेंगी?
आज़ादी से अब तक... और ब्रिटिश राज में तथा उसके पहले से भी आम आदमी का शोषण हमारी तहजीब की पहचान रहा है...पुराने युग में भी था...२०१० में भी रहेगा. नए साल के लिए मेरा कोई सुझाव नहीं है... बस इतना कहता हूँ कि भगवान ने इंसान को बनाया तो शैतान को भी नहीं मारा...रामकथा में दिलचस्पी रावण के कारनामों के चलते कायम रहती है...यही २०१० में होगा...इक़बाल का एक शेर है-
'गर तुझे फ़ुरसत मयस्सर हो तो पूछ अल्लाह से
क़िस्सा-ए-आदम को रंगीं कर गया किसका लहू.'
फ़िल्मी गीत-संगीत एक व्यापार है और व्यापार चलता रहता है. एक बात गौर करने लायक है और वो यह कि पहले फिल्मों की दुनिया में प्रवेश पाने के लिए जो पासपोर्ट मिलता था वह इस आधार पर मिलता था कि आपने कितनी बढ़िया शायरी की है, आप कितने जहीन हैं, आपकी कितनी किताबें छप चुकी हैं. शैलेन्द्र, साहिर, राजा मेंहदी अली खाँ, भारत व्यास आदि गीतकार यही पासपोर्ट लेकर दाखिल हुए थे. आज हालत यह है कि अगर आपमें ये विशेषताएं हैं तो आपको बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा. वजह यह है कि जैसा लिखवाने वाला वैसा ही लिखने वाला.
नए साल के लिए मैं अपना एक दोहा पाठकों को भेंट करना चाहता हूँ-
'किरकिट, नेता, एक्टर, हर महफ़िल की शान
स्कूलों में क़ैद है, ग़ालिब का दीवान.'
नई नस्ल के लिए मेरा यही सन्देश होगा कि वे स्कूलों में क़ैद ऐसे कई गालिबों को आज़ाद कराएं और उनका नेताओं, एक्टरों और क्रिकेटरों से ज्यादा सम्मान करें. शुक्रिया...धन्यवाद!"
7 comments:
अच्छी चर्चा, अभिनंदन।
बेहतरीन चर्चा की . प्रस्तुति..के लिए ...आभार ..
अर्थपूर्ण पोस्ट
सच का चेहरा यही है…बदनुमा…पर यही है।
जीवन में हर नया दिन नयी उम्मीदें। नए सपने लेकर आता है। जीवन के आगे बढ़ने का शायद यही मूल है। बाकी हम उसे कैसे देखते हैं यह हमारे नजरिये की बात है। वैसे टिफिन में नूडल्स और लाखों में पेंटिग्स का बिकना एक ही तसवीर के दो पहलू हैं। अब डालर अपने साथ बाजरे की रोटी तो लेकर आने से रहा। अब पैसा , बाज़ार या अमेरिका जो भी कहिये अगर आयेगा .... और कहीं अवचेतन में सब उसके आने की प्रतीक्षा में भी हैं..... तो अपनी सम्पूर्णता में आयेगा । अब मीठा मीठा गप्प और कड़वा कड़वा थू तो हो नहीं सकता।
स्थिति कितनी निराशाजनक हो। नयी रोशनी इसी में से निकलेगी। हाँ काफी कुछ बदल गया होगा और शायद बेहतर भी। थोड़े समय के लिए सोने का मृग राम को भी भरमा लेता है। नव वर्ष की सारी शुभकामनाएं सच हों..........
लेकिन आप ने लिखा था की बात चीत साहित्यकारों से की जायेगी
rah जी, कृपया आप भी अपनी राय और परिचय भेज दीजिये. आपको साहित्यकार मान लेने में हमें कोई गुरेज नहीं होगा. पता है chaturvedi_3@hotmail.com
एस. बी. सिहं जी का सोच प्रभावित करता है। मेरा मानना यह कि प्रतिभाशाली लोग थोड़े में छलकते नहीं हैं, उनकी दृष्टि हमेशा गहरी और व्यापक होती है इसलिये किसी साहित्यकार का नववर्ष के उत्सवों में नाचना तो संभव नहीं है, इनसे सूखे आशावाद के नाम पर गाना नहीं गवाया जा सकता है। लेकिन इस बहाने इन्हें कुरेदकर आप जो राह पूछ रहे हैं वही श्रेष्ठ है, क्योंकि चुप्पी टूटेगी तो बदलाव की आशा भी जगगी, तब तारीख के साथ शायद दिन भी बदले।
इस जमात से भी कहिये कि मीठा मीठा गप्प और कड़वा कड़वा थू से बचें।
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