Wednesday, March 31, 2010

पहली फ़िल्म की रोशनी

आलोक धन्वा की यह छोटी सी कविता अपनी सादगी की वजह से मुझे अतिप्रिय है:



जिस रात बांध टूटा
और शहर में पानी घुसा

तुमने ख़बर तक नहीं ली

जैसे तुम इतनी बड़ी हुई बग़ैर इस शहर के
जहाँ तुम्हारी पहली रेल थी
पहली फिल्म की रोशनी

Tuesday, March 30, 2010

एक सुबह मैं उठूंगा पृथ्वी-समेत

वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह की एक कविता:



यह पृथ्वी रहेगी

मुझे विश्वास है
यह पृथ्वी रहेगी
यदि और कहीं नहीं तो मेरी हड्डियों में
यह रहेगी जैसे पेड़ के तने में
रहते हैं दीमक
जैसे दाने में रह लेता है घुन
यह रहेगी प्रलय के बाद भी मेरे अन्दर
यदि और कहीं नहीं तो मेरी ज़बान
और मेरी नश्वरता में
यह रहेगी

और एक सुबह मैं उठूंगा
मैं उठूंगा पृथ्वी-समेत
जल और कच्छप-समेत मैं उठूंगा
मैं उठूंगा और चल दूंगा उससे मिलने
जिससे वादा है
कि मिलूंगा.

Monday, March 29, 2010

दत्तं मया निज मनस्तदिदं गृहाण

तैं रहीम मन आपुनो, कीन्हो चारु चकोर ।
निसि बासर लाग्यौ रहे, कृष्णचंद्र की ओर ।

अकबरी और जहांगीरी दरबार से जुड़े रहीम ( १५२६- १६२७ ) का व्यक्तित्व बहुआयामी रहा है। वे तो कलम के धनी होने के साथ तलवार के भी धनी थे. हिन्दी में कृष्ण भक्ति काव्य परंपरा से जुड़े कई विद्यापति, सूर, मीरां, रसखान और तमाम मध्यकालीन कवियों के साथ रहीम का नाम नहीं लिया जाता है. रहीम या अब्दुर्रहीम खानखानां हालांकि कृष्ण काव्य परंपरा से उस तरह से सम्बद्ध भी नहीं माने जाते हैं जैसे ऊपर उल्लिखित अन्य वि. हिन्दी पढ़ने - लिखने - पढ़ाने वालों के लिए वे मुख्यत: नीतिपरक दोहों व सोरठों के रचनाकार के रूप में जाने जाते हैं लेकिन यह बताना (शायद) कोई नई बात नहीं होगी कि उन्होंने कई भाषाओं में लिखा है. आज उनके संस्कृत काव्य का आनंद लेते हैं ।श्रीकृष्ण की विनती में रहीम के लिखे दो श्लोक प्रस्तुत हैं-

आनीता नटवन्मया तव पुर: श्रीकृष्ण ! या भूमिका .
व्योमाकाशखखांबराब्धिवसवस्त्वप्रीत्येद्यावधि ..
प्रीतस्त्वं यदि चेन्निरीक्ष्य भवगन् स्वप्रार्थित देहि मे .
नीचेद ब्रूहि कदापि मानय पुनस्त्वेताद्रिशीं भूमिकाम् ..

( हे श्रीकृष्ण ! आपकी प्रीति की प्रत्याशा में मैं आज तक नट की चाल पर आपके सामने लाया जाने से चौरासी लाख रूप धारण करता रहा हूं. हे भगवन ! यदि आप मेरी इस गति से प्रसन्न हुए हैं तो आज मैं जो कुछ भी मांगता हूं उसे दीजिये और यदि नही तो ऐसी आज्ञा दीजिये कि मैं फिर कभी इस तरह के स्वांग को धारण कर / धारण करने हेतु इस पृथ्वी पर न लाया जाऊं )

* *

रत्नाकरोस्ति सदनं गृहिणी च पद्मा,
किं देयमस्ति भवते जगदीश्वराय .
राधागृहीतमनसे मनसे च तुभ्यं,
दत्तं मया निज मनस्तदिदं गृहाण .

(हे श्रीकृष्ण ! रत्नाकर अथवा समुद्र आपका सदन या गृह या घर है और लक्ष्मी जी आपकी गृहिणी हैं. तब हे जगदीश्वर ! आप ही बताइये कि आपको देने योग्य बचा ही क्या? राधा जी ने आपके मन मन का हरण कर लिया है, यही एक वस्तु है जो आप के पास नहीं है जिसे मैं आपको देता हूं ,लीजिए कृपापूर्वक मेरे मन को ग्रहण कीजिये.)

Thursday, March 25, 2010

आज चैती का यह दिव्य गान.....


***
फागुन तो कबका बीत गया
अपने पीछे छोड़कर
अबीर - गुलाल के रंग भरे चिह्न - निशान
अब चैत आया है
तपती गर्मियों से ठीक पहले की
एक सुखद छाँव की तरह।
दिन अलसाने लगे हैं
रातों में बाकी है हल्की खुनक....
क्या किया जाना चाहिए
ऐसे में आज
आइए सुनते हैं
वही स्वर
वही आवाज
जिसे सुन कर जुड़ा जाता हृदय
धन्य होते हैं कान...
................
.................
...................
तो फिर सुना जाय पं० छन्नूलाल मिश्र जी के स्वर में आज चैती का यह दिव्य गान.....
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Wednesday, March 24, 2010

और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं


ग़ज़ल गायकी का पर्याय मानी जाने वाली अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी यानी बेग़म अख़्तर सुना रही हैं फ़िराक़ गोरखपुरी साहेब की लिखी एक मशहूर ग़ज़ल



सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
लेकिन इस तर्क-ए-मुहब्बत का भरोसा भी नहीं

यूँ तो हंगामे उठाते नहीं दीवान-ए-इश्क
मगर ऐ दोस्त कुछ ऐसों का ठिकाना भी नहीं

मुद्दतें गुजरी तेरी याद भी आई न हमें
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं

मुँह से हम अपने बुरा तो नहीं कहते कि फिराक
है तेरा दोस्त मगर आदमी अच्छा भी नहीं



इस कम्पोज़ीशन में बेग़म ने इस ग़ज़ल के जिन शेरों को नहीं गाया, ये रहे -

ये भी सच है कि मोहब्बत में नहीं मैं मजबूर
ये भी सच है कि तेरा हुश्न कुछ ऐसा भी नहीं

दिल की गिनती न यगानों में न बेगानों में
लेकिन इस जल्वागाह-ए-नाज से उठता भी नहीं

बदगुमां होके न मिल ऐ दोस्त जो मिलना है तुझे
ये झिझकते हुए मिलना कोई मिलना भी नहीं

शिकवा-ए-शौक करे क्या कोई उस शोख़ से जो
साफ़ कायल भी नहीं, साफ़ मुकरता भी नहीं

मेहरबानी को मोहब्बत नहीं कहते ऐ दोस्त
आह मुझसे तो मेरी रंजिश-ऐ-बेजा भी नहीं

बात ये है कि सुकून-ए-दिल-ए-वहशी का मकाम
कुंज-ए-जिन्दा भी नहीं बौशाते सेहरा भी नहीं

Tuesday, March 23, 2010

मैं घास हूँ



सरदार भगत सिंह और पाश, दोनों आज हॊ के दिन शहीद हुए थे. कविता शहीद अवतार सिंह पाश की है.

मैं घास हूँ
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊंगा
बम फेंक दो चाहे विश्‍वविद्यालय पर
बना दो होस्‍टल को मलबे का ढेर
सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोपड़ियों पर
मुझे क्‍या करोगे
मैं तो घास हूँ हर चीज़ पर उग आऊंगा
बंगे को ढेर कर दो
संगरूर मिटा डालो
धूल में मिला दो लुधियाना ज़िला
मेरी हरियाली अपना काम करेगी...
दो साल... दस साल बाद
सवारियाँ फिर किसी कंडक्‍टर से पूछेंगी
यह कौन-सी जगह है
मुझे बरनाला उतार देना
जहाँ हरे घास का जंगल है
मैं घास हूँ, मैं अपना काम करूंगा
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊंगा

नदी, घंटियां, माता और शिशु

(पिछली किस्त से जारी)

लेकिन मैल्कियोर उन लोगों में था जो हमेशा उसका उल्टा करते हैं जैसी दूसरे लोग या वे खुद अपने से उम्मीद करते हैं. ऐसा भी नहीं था कि वे चेतते नहीं थे – जैसा कि मुहावरा भी है चेता हुआ आदमी दो आदमियों के बराबर होता है. वे खुद से कहते हैं कि अब कोई भी चीज उन्हें दगा नहीं दे सकेगी और यह कि वे अपने जीवन की नाव को खुद बेहद सधे हुए हाथों से एक निश्चित गन्तव्य तक चलाएंगे. लेकिन वे अपने आप को जानते ही नहीं. विस्मृति के उन क्षणों में से एक में जिनकी उन्हें आदत पड़ चुकी होती है वे पतवार छोड़ देते हैं और जैसा कि स्वाभाविक है उन्हें ऐसा करने में आनन्द आने लगता है. अपने रास्ते से भटकी हुई नाव किसी चट्टान से टकरा जाती है और इस तरह पहेली बुझाने की सी हठ के साथ मैल्कियोर ने एक कुक से शादी कर ली. और जिस दिन उसने अपने जीवन की डोर उस औरत के साथ जोड़ने का फैसला लिया उस दिन न तो वह पिए हुए था न ही किसी प्यार की संवेदना से भरा हुआ था. ऐसा कुछ नहीं था. लेकिन शायद हमारे भीतर दिल और दिमाग के अलावा और कोई शक्तियां भी होती हैं जो असल में इन्द्रियों से भी ज्यादा रहस्यमय और ताकतवर होतीं हैं. वे हम पर उस क्षण कब्जा कर लेती हैं जब और लोग सोए होते हैं. और शायद ऐसी ही कोई ताकतें थीं जिन्हें मैल्कियोर ने उन जर्द आंखों में देखा जो एक शाम उसे निरीहता से देख रही थीं जब वह उस लड़की को नदी किनारे ले गया था और उसके साथ बैठा हुआ था और बिना वजह जाने उसने अपना हाथ उसे दे दिया था.

उसे शादी किए जरा भी वक्त नहीं बीता था जब उसे अपने कृत्य पर घिन आने लगी और अपनी भावनाओं को उसने बिचारी लुईसा से भी नहीं छिपाया जो बहुत विनम्रता के साथ उस से क्षमायाचना किया करती थी. वह बुरा आदमी नहीं था और वह खुशी खुशी उसे माफ कर दिया करता था. लेकिन जैसे ही वह अपने दोस्तों के साथ होता था या अपनी रईस छात्राओं को सिखा रहा होता था जिनकी उंगलियां कीबोर्ड पर सही तरीके से रखना सिखाने पर उसके स्पर्श से अब जरा भी नहीं कांपती थीं और जो उसके लिए हिकारत से भर चुके थे¸ पश्चात्ताप की आग उसे तुरन्त दबोच लेती थी. फिर वह बुझा हुआ चेहरा लेकर घर लौटता था और धड़कते दिल के साथ उसका इन्तजार कर रही लुईसा उसके चेहरे पर पहली ही निगाह में वही तिरस्कार देख लेती थी. या फिर वह एक शराबखाने से दूसरे में बाकी लोगों में अपना स्वाभिमान खोजता या उनसे दया की अपेक्षा रखता देर रात तक भटकता रहता था. ऐसी रातों को वह ठहाके मारता चीखता हुआ घर पहुंचता था और यह लुईसा के लिए बाकी दिनों के तिरस्कार से ज्यादा भयानक और त्रासद होता था. उसे लगता था कि एक हद तक वह पागलपन के इन दौरों के लिए जिम्मेदार है जिनमें उसके पति का बचा खुचा दिमाग और घर की बची खुची संपत्ति एक दिन गायब हो जाएंगे. मैल्कियोर धरातल में और भी गहरा धंसता गया. ऐसी आयु में जब उसने अपने दोयम दर्ज़े की प्रतिभा को विकसित करते रहने में दिन रात मशक्कत करनी थी उसने चीजों को अपने हाथों से छूट जाने दिया¸ और दूसरे लोगों ने उसकी जगह ले ली.

लेकिन उस अज्ञात शक्ति को इस सब से क्या वास्ता था जिसने उसे उड़ी रंगत वाले बालों वाली नौकरानी के साथ ला पटका था? वह अपनी भूमिका अदा कर चुका था , और नन्हे ज्यां क्रिस्तोफ़ ने धरती पर अपना कदम रख लिया था; जहां चाहे उसकी तकदीर उसे ले जाए.

रात पूरी तरह आ चुकी थी. लुईसा की आवाज ने ज्यां मिशेल को जगाया. बीती हुई घटनाओं और वर्तमान के बारे में सोचते सोचते उसकी आंख लग गई थी.

"पिताजी देर हो गई होगी शायद" बहुत अपनेपन के साथ उस युवा औरत ने कहा "आपको घर जाना चाहिए. आपको बहुत दूर जाना है."

"मैं मैल्कियोर का इन्तजार कर रहा हूं." बूढ़े ने जवाब दिया.

"प्लीज नहीं. मेरे खयाल से बेहतर होगा आप इन्तजार न करें."

"क्यों?"

बूढ़े ने अपना सिर उठाया और बहुत घूर कर उसे देखा.

वह कुछ नहीं बोली.

बूढ़े ने फिर बोलना शुरू किया.

"तुम्हें डर लग रहा है. तुम नहीं चाहती मैं उस से मिलूं?"

"हां हां. ऐसा करने से सब कुछ और बिगड़ जाएगा. आप दोनों एक दूसरे को गुस्सा दिला देंगे और वो मैं नहीं चाहती. मेहरबानी करके चले जाइए."

बूढ़े ने उसांस भरी और उठते हुए कहा:

"ठीक है ... मैं जाता हूं."

वह उसके पास गया और उसके माथे को अपनी कड़ी दाढ़ी से सहलाया. उसने पूछा अगर घर में किसी चीज की जरूरत है और दिया बुझाकर कमरे के अंधेरे में कुर्सियों से टकराता बाहर चला गया. लेकिन वह बमुश्किल ज़ीने तक पहुंचा जब उसने अपने बेटे के धुत्त होकर वापस आने के बारे में सोचा और हरेक सीढ़ी पर ठहरता हुआ वह उन भयानक खतरों की कल्पना करने लगा जो मैल्कियोर को अकेला वापस आने देने से उपज सकते थे …

मां की बगल में लेटा हुआ बच्चा फिर से हरकत करने लगा था. उसके अस्तित्व की गहराइयों से एक अनजाना दर्द उठ चुका था. उसने मां से सटा कर खुद को कड़ा कर लिया. उसने अपने शरीर को ऐंठा¸ मुठ्ठियों को भींचा और अपनी भंवों को टेढ़ा किया. उसकी यातना बढ़ती गई – खामोश – उसे इस यातना की ताकत का अन्देशा था. वह नहीं जानता था कि वह क्या थी या कहां से आई थी. वह उसे विराट लगी – और वह विलाप करता हुआ रोने लगा. उसकी मां ने उसे प्यारभरे हाथों से सहलाया. उसकी यातना अभी से कम होने लगी थी. लेकिन उसने रोना जारी रखा क्योंकि वह यातना उसे अब भी आसपास महसूस हो रही थी; अब भी उसके भीतर. यातना झेलता हुआ आदमी अपना दर्द यह जानकर कम कर सकता है कि वह कहां से उपजी है. अपने विचारों के माध्यम से वह उस यातना को शरीर के किसी भी एक हिस्से में महसूस कर सकता है जिसका उपचार किया जा सकता हो या जरूरत पड़ने पर जिसे देह से अलग किया जा सकता हो. वह उसके बंधनों की मरम्मत करता है. किसी बच्चे के पास ऐसा भरमाने वाला स्रोत नहीं होता. यातना के साथ उसका पहला साक्षात्कार हमेशा ज्यादा त्रासकारी और सच्चा होता है. खुद उसके अस्तित्व की तरह यातना भी अनन्त प्रतीत होती है. उसे लगता है जैसे कि वह उसके सीने में उसके दिल में उसकी देह में मालकिन बनी बैठी हो. और यही होता है. वह उसे तब तक छोड़कर नहीं जाती जब तक उसे निगल न ले. उसकी मां उसे चिपटा लेती है और गुनगुनाती हुई कहती है : "बस हो गया हो गया! मत रोओ मेरे नन्हे ईसा¸ मेरी छोटी सी सुनहरी मछली ..." लेकिन उसका अन्तहीन रोना जारी रहता है. यह ऐसा होता है मानो उस बिचारे बिना आकार और चेतना के लोथड़े के लिए दुखों से भरा पूरा जीवन इन्तजार कर रहा हो¸ और दुनिया की कोई भी चीज उसे चुप न करा सकती हो ....

रात में सेन्ट मार्टिन की घन्टियां बजीं. उनकी आवाजें गम्भीर और धीमी हैं. नम हवा में वे काई पर चलते कदमों जैसी आती हैं. एक सिसकी के बीच में बच्चा चुप हो गया. दूध की बाढ़ जैसा शानदार संगीत जैसे उसकी आत्मा के भीतर बह उठा. रात रोशन हो गई थी; हवा मुलायम और नमीभरी थी. उसका दुख अदृश्य हो गया और उसके दिल ने हंसना शुरू किया; और सब कुछ छोड़छाड़ कर वह एक लम्बी सांस के साथ अपने सपने के भीतर फिसल गया.

कल होने वाले उत्सव के लिए बज रही घंटियां मुलायम स्वर में बजती रहीं. उन्हें सुनते हुए लुईसा भी सपने देखती रही: खुद पर बीत चुकी त्रासदी और अपनी बगल में लेटे प्यारे बच्चे के भविष्य के बारे में. वह कई घन्टों से बिस्तर में थी: थकी हुई और पीड़ा में. उसकी हथेलियां और उसकी देह दोनों जल रहे थे; वह भारी रजाई के बोझ तले दबी हुई थी; उसे लग रहा था कि अंधेरा उसे कुचले दे रहा है; लेकिन वह हिलने की हिम्मत नहीं कर सकी. उसने बच्चे को देखा और वह उसके नाकनक्श पढ़े बिना नहीं रह पाई जो अभी से बूढ़े नज़र आ रहे थे. नींद उस पर सवार हो गई; उसके दिमाग में बुखारभरी छवियां तैर रही थीं. उसे लगा कि उसने मैल्कियोर को दरवाजा खोलते हुए सुना और उसका दिल धक्क रह गया.

इस पूरे समय ज्यां मिशेल घर के बाहर इन्तजार कर रहा था. वह बारिश से भीगा हुआ था और उसकी दाढ़ी नमी के कारण गीली पड़ चुकी थी. वह अपने तबाह बेटे का इन्तजार कर रहा था: उसका दिमाग उसे निरन्तर जोर देकर ज्यादा पीने के बाद होने वाली तमाम बरबादियों के बारे में आगाह करता रहा था ; और हालांकि वह इन पर यकीन नहीं करता था तो भी वह एक पल को भी नहीं सोया क्योंकि वह अपने बेटे को वापस घर आते देखना चाहता था. घंटियों की आवाज़ ने उसे अवसाद से भर दिया क्योंकि उसे वे सारी उम्मीदें याद हो आईं जिन पर पानी फिर चुका था. उसने एक पल को सोचा कि वह उस समय सड़क पर खड़ा वहां क्या कर रहा था और शर्मसार होता हुआ वह रोने लगा.

दिनों का विराट तूफान धीरे धीरे चलता है. दिन और रात किसी समुन्दर के ज्वार भाटे जैसी निश्चितता के साथ आते रहते हैं. हफ्ते और महीने बीतते जाते हैं और फिर दुबारा शुरू होते हैं और दिनों का यह क्रम एक दिन जैसा होता है.

असीम होता है दिन: अस्पष्ट¸ उजाले और अंधेरे की ताल के स्प्ष्ट निशान लगाता हुआ¸ अपने पालने में सोए स्वप्नरत जीव के जीवन की ताल के – उसकी दुखभरी या सुखी जरूरतें – वे भी उतनी नियमित होती हैं कि लगता है रात और दिन का होना उन्हीं की वजह से है.

जीवन का पेण्डुलम बहुत धीरे डोलता है और उसकी मद्धम गति में सारा संसार डूबा हुआ लगता है. बाकी सब सपनों के अलावा कुछ नहीं. सपनों के टुकड़ों के अलावा कुछ नहीं : निराकार और झुण्ड में उड़ते हुए¸ अणुओं की धूल की निरुद्देश्य गति¸ एक उनींदा चक्रवात¸ जो या तो हंसियां लेकर आता है या आतंक. दर्द की कराहें , हंसती आकृतियां, दुख, आतंक, हंसी, सपने, सपने ... सब कुछ सपना है ... दिन भी और रात भी ... और इस गड़बड़झाले में उसे देखकर मुस्कराती हुई दोस्ताना आंखें¸ आनन्द का वह प्रवाह जो उसकी मां की देह से उसकी देह तक बहता आता है¸ दूध से भरी उसकी छातियों से – वह शक्ति जो उसके भीतर है¸ वह अपार अचेतन शक्ति जो उसके भीतर इकठ्ठा हो रही है¸ वह हिलोरें लेता महासागर जो एक शिशु के देह की संकरी कारागार में दहाड़ रहा है. और उन आंखों को जो इसे देख सकें दिखाई देंगे अंधेरे में आधे दफनाए गए समूचे संसार और शक्ल लेती एक अन्तर्नक्षत्रीय शून्यता और निर्मित होता हुआ एक ब्रह्माण्ड. उसका अस्तित्व सीमाहीन है. वही एक है जो है ....

महीने बीत जाते हैं … उसके जीवन की नदी में से स्मृति के द्वीप उभरना शुरू करते हैं. शुरू में वे अनचीन्हे द्वीप होते हैं: पानी की सतह से बस जरा सा बाहर निगाह डालतीं चट्टानें. उनके आसपास और उनके पीछे भोर के धुंधलके में पानी की विशाल शान्त चादर होती है; उसके बाद नए द्वीप जिन्हें सूर्य की सुनहरी रोशनी स्पर्श करती है. सो आत्मा की खोह में से निश्चित आकृतियां प्रकट होती हैं¸ और अनजानी स्पष्टता के दृश्य. और हमेशा की तरह एक बार फिर शुरू हो रहे दिन के भीतर उसकी महान और उबाऊ ताल के साथ दिनों का क्रम चालू हो जाता है: उनमें से कुछ मुस्करा रहे होते हैं कुछ उदास होते हैं. लेकिन जब भी इस जंजीर की कड़ियां टूटती हैं¸हफ्तों और महीनों से ऊपर उठकर स्मृतियां आपस में जुड़ती हैं ...

नदी … घंटियां … जब तक वह याद रख सके : सुदूर समय की गर्त के भीतर अपने जीवन के हर घंटे : उनकी परिचत और गूंजती हुई ध्वनियां हमेशा बजती रही हैं.

रात – आधी नींद – एक जर्द रोशनी खिड़की को आभासित करती है ... गुनगुनाती है नदी. हालांकि खामोशी की आवाज अब भी सर्वशक्तिमान है; वह सारे प्राणियों पर शासन करती है. कभी कभी वह उनकी नींद को दुलराती है और ऐसा लगता है कि वह घूमते हुए अपने ही चक्रवात में कहीं गुम हो गई है. कभी कभी वह गुस्से में आ जाती है और काटने पर आमादा किसी रौद्र पशु की तरह गुर्राने लगती है. कोलहल धीमा पड़ता है. अब एक अनन्त मुलायम गुनगुन है¸ नन्ही घंटियों की साफ आवाज़ों जैसी¸ बच्चों की हंसी जैसी¸ या धीमे स्वर में गाती किसी आवाज सी – एक महान मातृसुलभ आवाज जो कभी नहीं सोती! वह बच्चे के पालने को झुलाती रहती है जैसा वह सदियों से करती आ रही है¸ जन्म से मृत्यु तक¸ वे सारी पीढ़ियां जो उस से पहले रही थीं; वह उसके विचारों में भर जाती है और उसके सारे सपनों में निवास करती है; वह अपनी तरल धुन के लबादे में उसे लपेट लेती है; जो तब भी उससे लिपटा होगा जब वह राइन नदी के तट पर की छोटी सी कब्रगाह में लेटा हुआ होगा.

घंटियां … भोर हो चुकी है! वे अपनी उदास¸ अवसादभरी और दोस्ताना आवाजों का उत्तर देती जाती हैं. उनकी धीमी आवाजों से उसके भीतर सपनों के ढेर उमड़ आते हैं – बीते समय के सपने¸ उन की इच्छाओं और उम्मीदों के सपने जो यहां से जा चुके¸ जिन्हें यह शिशु नहीं जानता था¸ हालांकि उनके भीतर इस शिशु का अस्तित्व था जिस तरह इस के भीतर वे दुबारा से जीवित हैं. स्मृतियों की पीढ़ियां उस संगीत से निकलती हैं. इतना सारा शोक¸ इतना सारा उत्सव! और घंटियों की आवाज के साथ जैसे कमरे की गहराइयों से होकर गुजरीं मुलायम ध्वनियां¸ आजाद पंखों वाले परिन्दे¸ और हवा की नमी. खिड़की से झांकता हुआ आसमान का एक टुकड़ा मुस्कराता है; परदों से होकर सूरज की एक किरण बिस्तर तक पहुंच जाती है. वह छोटा सा संसार जिससे बच्चा परिचित है ¸ वो सब जिसे वह हर सुबह जागने पर अपने बिस्तर से देखता है¸ वो सब जिसे वह बहुत श्रम के साथ जानने और समझने की कोशिश करता है ताकि वह इस सब का भाग्यविधाता बन सके : रोशन हो जाता है उसका साम्राज्य. वह रही मेज जहां बैठकर लोग खाना खाते हैं¸ वह अल्मारी जहां वह खेल खेल में छिपता है¸ वह चौखानेदार फर्श जिस पर वह घिसटता है¸ वह वॉलपेपर जिस पर बनी आकृतियां उसके लिए कितनी ही हंसानेवाली और डरानेवाली कहानियां छिपाए हैं¸ और वह घड़ी जो इतने सारे अबूझ शब्दों से भरी आवाजें निकालते हैं. कितनी सारी चीजें हैं इस कमरे में! वह उन सब को नहीं जानता.

Monday, March 22, 2010

जीवन में पहला काम होता है अपना कर्तव्य निभाना

(पिछली किस्त से आगे)

ज्यां मिशेल ने दबी जु़बान में लेकिन गुस्से के साथ कहा:

"मैंने परमपिता परमेश्वर के साथ ऐसा क्या किया था कि मुझे ऐसा शराबी बेटा नसीब होना था? और जिस तरह मैं जिया हूं उस तरह जीने का भी क्या मतलब है? मैंने अपने आप को दुनिया की हर चीज से वंचित रखा! और तुम – तुम – तुम कुछ नहीं कर सकती यह सब रोकने के लिए? ख़ुदा के लिए! बताऊं तुम्हें क्या करना चाहिए ... तुमने उसे घर से बाहर नहीं जाने देना चाहिए! ..."

लुईसा का रोना तेज हो गया.

"मुझे डांटिए मत! मैं वैसे ही बहुत नाखु़श हूं! मैं वो सब कर चुकी जे मेरे बस में था. अगर आप जानते होते कि मुझे किस कदर डर लगता है जब मैं अकेली होती हूं! मुझे हर पल उसके कदमों की आहट सुनाई देती है. फिर मैं दरवाज़ा खुलने का इन्तजार करती हूं या खु़द से पूछती हूं: 'हे ईश्वर पता नहीं वह किस हालत में आएगा!' इस बारे में सोच कर ही मुझे मितली आने लगती है!"

वह अपनी सिसकियों की वजह से हलकान हुई जा रही थी. बूढ़ा और चिन्तित हो गया. वह उसके पास गया और उसके सिहरते कन्धों के गिर्द चादर लपेटकर अपने हाथों से उसका सिर सहलाने लगा.

"कोई बात नहीं. डरो मत. मैं हूं तो सही"

बच्चे के वास्ते वह शान्त पड़ गई और मुस्कराने की कोशिश करने लगी.

"मुझे आप से ऐसा नहीं कहना चाहिए था."

उसकी तरफ देखते बूढ़े ने अपना सिर हिलाया.

"मेरे बच्चे. मैं तुम्हें सौगात में कुछ भी न दे सका."

"सारी गलती मेरी है." वह बोली. "उसने मुझसे शादी नहीं करनी चाहिए थी. उसने जो किया उसका उसे अफसोस है."

"क्या? तुम्हारा मतलब है कि उसे इस का अफसोस है? ..."

"आप जानते हैं. आप खुद नाराज थे कि मैं उसकी बीवी बन गई."

"हम उस बारे में बात नहीं करेंगे. यह सच है कि मैं इस बात से पशेमां हुआ था. वैसा एक नौजवान – मैं बिना तुम्हें चोट पहुंचाए यह बात कह भी नहीं सकता – वैसा नौजवान जिसे मैंने कितने जतन से बड़ा किया था और एक असल संगीतकार बनाया था. वह तुमसे ज्यादा हैसियत वाला था. तुम निचले तबके की थीं और तुम्हारा पेशा भी वही नहीं था. पिछले सौ से भी ज्यादा सालों से क्राफ़्ट खानदान में किसी आदमी ने ऐसी औरत से शादी नहीं की है जो संगीतकार न हो! लेकिन तुम जानती हो मुझे तुमसे कोई शिकवा शिकायत नहीं है और तुम मुझे अच्छी लगती हो. और मैं लगातार तुम्हें जानने की कोशिशें करता रहा हूं. और इसके अलावा यह सब चुन लेने के बाद वापस जाने का कोई रास्ता नहीं हैः सिर्फ यह किया जाना है कि आप ईमानदारी से अपने कर्तव्य का पालन करते रहें."

वह फिर से बैठ गया और एक गम्भीर आवाज निकाल कर अपने तमाम नियम कानूनों को एक वाक्य में बताता हुआ बोला:

"जीवन में पहला काम होता है अपना कर्तव्य निभाना."

वह एक जवाब का इन्तजार करता रहा और उसने आग में थूक दिया. जब मां और बच्चे दोनों ने उसकी बात का विरोध नहीं किया तो वह दुबारा से खामोश हो गया.

दोनों में कोई बात नहीं हुई. आग के नजदीक बैठा ज्यां मिशेल और बिस्तर पर लेटी लुईसा दोनों उदास होकर सपनों में खो चुके थे. अपनी कही हुई बात के बावजूद बूढ़ा अपने बेटे की शादी को लेकर कड़वाहट से भरा हुआ था और लुईसा भी इसी बारे में सोच रही थी हालांकि ऐसी कोई बात नहीं थी जिसके कारण वह अपने आप पर गुस्सा करती.

उन दिनों वह नौकरानी का काम कर रही थी जब हर किसी को हैरत में डालते हुए उसने ज्यां मिशेल के बेटे मैल्कियोर क्राफ्ट से शादी कर ली थी. खुद लुईसा इस बात से अचरज में पड़ गई थी. क्राफ्ट परिवार के पास बहुत संपत्ति नहीं थी लेकिन छोटे से राइन शहर में उसे इज्जत की निगाह से देखा जाता था. कोई पचास साल पहले बूढ़ा यहां आ कर बस गया था. पिता और पुत्र दोनों ही संगीतकार थे और कोलोन से लेकर मैनहाईम तक देश के सारे संगीतकार उनसे परिचित थे. मैल्कियोर होफ थियेटर में वायलिन बजाया करता था जबकि ज्यां मिशेल पहले ग्रैण्ड ड्यूकल कन्सर्टस में निर्देशक रह चुका था. बेटे की शादी के बाद बूढ़े को गहरे अपमान का अनुभव हुआ था क्योंकि उसने मैल्कियोर को लेकर बड़ी उम्मीदें पाल रखी थीं. उसने चाहा था कि उसका बेटा वैसा नामी गिरामी आदमी बनेगा जैसा वह खुद नहीं बन पाया था. पागलपन भरे इस कृत्य ने उसकी उम्मीदों को तहस नहस कर डाला था. शुरू में उसने मैल्कियोर और लुईसा पर अभिशापों की बौछार की थी. लेकिन वह मूलत: एक भला आदमी था और लुईसा को बेहतर जानना शुरू करने के बाद उसने अपनी बहू को माफ कर दिया. कभी कभार वह उसके लिए पिता सरीखा व्यवहार करने लगता था खासतौर पर जब वह उसे झिड़का करता.

यह बात कोई भी कभी नहीं जान सका कि किन वजहों के चलते मैल्कियोर ने यह शादी की. खुद मैल्कियोर भी नहीं जान पाया. निश्चित ही लुईसा का सौन्दर्य इसके पीछे नहीं था. उसके भीतर आदमी को रिझा सकने वाली कोई चीज नहीं थी. वह छोटे कद की फीकी रंगत वाली और नाजुक लड़की थी. वहीं ज्यां मिशेल और मैल्कियोर दोनों विशाल देह और लाल रंगत वाले चेहरों के स्वामी दैत्यों सरीखे थे जो खूब खाते और पीते थे और हंसी पसन्द करते थे और खूब शोर करना. ऐसा लगता था कि लुईसा उन के बोझ से कुचल गई है. कोई भी उस पर गौर नहीं करता था और वह खुद अपनी नगण्यता के बावजूद किसी के भी ध्यान से बच निकलना चाहती थी. अगर मैल्कियोर एक दयालु इन्सान होता होता तो इस बात पर यकीन किया जा सकता था कि वह लुईसा की सादगी को हरेक चीज पर तरजीह देता लेकिन उस से बड़ा आवारा और असफल आदमी ढ़ूंढा नहीं जा सकता था. यह अविश्सनीय लगता था कि मैल्कियोर जैसा एक सुदर्शन युवक जो मुखर होने के बावजूद पूरी तरह से प्रतिभाहीन नहीं था और जो अपने लायक एक बेहतर रिश्ता तलाश सकता था और क्या मालूम शहर में अपनी किसी छात्रा तक का ध्यान खींच सकता था – अचानक एक ऐसी लड़की को पत्नी के रूप में छांट सकता था जो बिल्कुल आम लोगों में से थी – निर्धन¸ अशिक्षित¸ रूपहीन¸ एक ऐसी लड़की जो किसी भी तरह उसके कैरियर को बेहतर नहीं बना सकती थी.

(जारी)

Sunday, March 21, 2010

ईमानदार आदमी से बेहतर कुछ नहीं होता

रोम्यां रोलां का उपन्यास ज्यां क्रिस्तोफ़ चार खण्डों में बांटा गया है - भोर, सुबह, यौवन और विद्रोह. आज आपले सम्मुख प्रस्तुत है उपन्यास का शुरुआती हिस्सा. इस हिस्से का अगला अंश एक या सम्भवतः दो किस्तों में आप को पढ़वाऊंगा. किताब दर असल इतनी लम्बी है कि उस के कुछ हिस्सों को पूरा का पूरा लगाने के लिए हो सकता है एक ब्लॉग अलग से बनाना पड़े.



भोर

घरों के पीछे से नदी का गुनगुनाना सुनाई देता है. सारे दिन बारिश खिड़की के शीशों पर थपेड़े मारती रही है. खिड़की के टूटे हुए कोने से पानी की एक पतली धार रिस रही है. पीलापन लिए हुए दिन की रोशनी जा चुकी है. कमरा बेझिल और मद्धिम है.

अपने पालने में नवजात शिशु हिलता डुलता है. हालांकि बूढ़ा आदमी लकड़ी के अपने जूतों को भीतर आने के बाद दरवाजे पर ही उतार चुका था उसके कदमों की चाप से लकड़ी का फर्श चरमराता है. शिकायत करता हुआ बच्चा कुनमुनाता है. अपने बिस्तर पर से मां उसे थपकियां देती है. अन्धेरे में दादाजी दीया खोजने लगते हैं ताकि जागने पर बच्चा रात से भयभीत न हो जाए. दीए की लपट में ज्यां मिशेल का रक्ताभ चेहरा चमक उठता है: उसकी रूखी सफेद दाढ़ी, मनहूस मुखाकृति और उसकी चपल आंखें. वह पालने के नजदीक जाता है. उसके लबादे से गीलेपन की महक आ रही है और जब वह अपनी बड़ी बड़ी नीली चप्पलें पहने अपने पैरों को घसीटता चलता है तो लुईसा इशारा करके उसे कहती है कि वह ज्यादा नजदीक न जाए. वह गोरी है : करीब करीब सफेद : उसके नैननक्श तीखे हैं और उसके उदार बेवकूफ चेहरे पर लाल चकत्ते हैं : उसके होंठ फीकी रंगत वाले और सूजे हुए हैं और वे एक निश्छल मुस्कराहट में खुले हुए हैं : अपनी आंखों से वह बच्चे को बेहद प्यार करती है और उसकी आंखें नीली और अस्पष्ट हैं जिनकी पुतलियां छोटी छोटी हैं लेकिन वे अनन्त कोमलता से भरपूर हैं.

बच्चा जागता है और रोने लगता है और उसकी आंखों में दर्द है. उफ़! कितना भयंकर है! अन्धेरा, दीए की आकस्मिक कौंध, और कोलाहल से अब भी जुड़े एक दिमाग के भीतर की गडमड छवियां. और घुटनभरी दहाड़ती रात जिसके भीतर यह सब है ¸ वह असीम अवसाद जिसके भीतर से चौंधिया देने वाले रोशनी के खम्भों की तरह तीखी सनसनियां¸ दर्द और प्रेत बाहर आते हैं – उसके ऊपर झुके हुए वे विशाल चेहरे¸ उसे बींधती हुईं आंखें – यह सब उसकी समझ से परे है. चिल्लाने की उसके भीतर ताकत नहीं है ; भय ने उसे गतिहीन बना दिया है; खुली आंखों और मुंह के साथ उसके गले से रुक रुक कर आवाजें निकलती हैं. उसका बड़ा सिर जो सूज गया लगता है¸ उसकी अटपटी मुखमुद्राओं के कारण झुरीर्दार हो गया है; उसके चेहरे और हाथों की त्वचा भूरी और जामुनी है जिस पर पीले चकत्ते हैं ...

"या खुदा!" बूढ़ा ने वहुत यकीन के साथ कहा: "किस कदर बदसूरत है ये!"

उसने दीए को मेज पर रख दिया.

लुईसा ने ऐसे बच्चे की तरह मुंह बनाया जिसे डांटा गया हो. अपनी आंख के किनारे से बूढ़े ने उसे देखा और हंसा.

"तुम यह तो नहीं चाहती ना कि मैं इसे खूबसूरत कहूं ? तुम इस बात पर यकीन भी नहीं करोगी. कोई बात नहीं. ये तुम्हारी गलती थोड़े ही है. ये सब एक जैसे होते हैं."

दीए की रोशनी और बूढ़े की आंखों के कारण हक्का बक्का हो गया बच्चा अब सदमे से बाहर आया और उसने रोना चालू किया. शायद उसने मां की आंखों में अपने लिए दुलार देखा और शिकायत करने की अपने लिए संभावना. मां ने अपनी बाहें आगे ले जाते हुए कहा:

"मुझे दो उसे"

बूढ़े ने हमेशा की तरह अपने नियम कानून गिनाते हुए कहा:

"जब बच्चा रो रहा हो उसे बांहों में नहीं लेना चाहिए. उसे रोते देना चाहिए."

लेकिन वह बच्चे के पास आया और शिकायती लहजे में बोला:

"इतना बदसूरत बच्चा मैंने आज तक नहीं देखा"

लुईसा ने झटपट बच्चे को थामा और अपने सीने से लगा लिया. उसने बच्चे पर एक बेजार लेकिन खुश निगाह डाली.

"ओह मेरे बिचारे बेटे" शर्मसार चेहरे के साथ उसने कहा "किस कदर बदसूरत हो तुम. किस कदर बदसूरत और कितना प्यार करती हूं मैं तुम्हें."

बूढ़ा वापस आग के पास चला गया और विरोध जताते हुए आग को कोंचने लगा. लेकिन उसके मनहूसियत भरे गम्भीर चेहरे पर आई मुस्कान उसके विरोध को झुठला रही थी.

"भली लड़की !" वह बोला "इस बारे में चिन्ता करने की जरूरत नहीं है. बदलने के लिए अभी बहुत वक्त है उस के पास. और वह न भी बदला तो क्या हो जाएगा? उसके बारे में सिर्फ एक बात पूछी जानी होगी : बड़ा होकर वह ईमानदार आदमी बनेगा या नहीं."

मां के गर्म शरीर के सम्पर्क में आने पर बच्चे को आराम पहुंचा. उसे दूध पीते हुए और सन्तुष्ट आवाजें निकालते सुना जा सकता था. ज्यां मिशेल अपनी कुर्सी पर थोड़ा सा मुड़ा और एक बार फिर जोर देकर बोला:

"ईमानदार आदमी से बेहतर कुछ नहीं होता."

वह एक क्षण को चुप रहा. वह अपने विचार को विस्तार में बताने की जरूरत के बाबत सोच रहा था लेकिन आगे कहने के लिए उसके पास कुछ नहीं था. कुछ देर खामोश रहने के बाद वह खीझ के साथ बोला:

"तुम्हारा पति यहां क्यों नहीं है?"

"मेरे ख्याल से वह थियेटर में है" निरीह स्वर में लुईसा बोली. "एक रिहर्सल है."

"थियेटर बन्द पड़ा है. मैं जरा देर पहले उसके सामने से गुजरा हूं. यह भी उसका एक झूठ है."

"नहीं. हर समय उस पर ऐसे आरोप मत लगाया करो. शायद मुझसे समझने में कोई भूल हो गई थी. वह अपनी क्लास के लिए रुक गया होगा."

"उसे अब तक वापस आ जाना चाहिए था." बूढ़ा बोला. वह सन्तुष्ट नहीं था. वह एक पल को रुका और अपनी आवाज धीमी बनाकर तनिक शर्म के साथ बोला :

"तो क्या वो ... दुबारा?"

"नहीं पिताजी नहीं नहीं" लुईसा हड़बड़ी में बोली.

बूढ़े ने उस पर निगाह डाली. लुईसा ने उस निगाह से बचते हुए दूसरी तरफ देखना शुरू कर दिया.

"यह सच नहीं है. तुम झूठ बोल रही हो."

वह खामोशी में रोने लगी.

"या ख़ुदा" आग को अपने पैर से लतियाता हुआ बूढ़ा बोला. आग कोंचने वाली छड़ धम से नीचे गिरी. मां और बच्चा सिहर उठे.

"पिताजी प्लीज़. आप बच्चे को रुला देंगे" लुईसा बोली.

बच्चा यह तय करने से पहले कुछ देर को हिचकिचाया कि रोने लगे या अपना भोजन जारी रखे; चूंकि वह दोनों काम एक साथ नहीं कर सकता था सो वह मां की छाती से चिपका रहा.

(जारी)

(फ़ोटो में रोम्यां रोलां और रवीन्द्रनाथ टैगौर)

Saturday, March 20, 2010

एक जीनियस के संगीतकार के रूप में विकसित होने का इतिहास



विख्यात फ़्रांसीसी लेखक रोम्यां रोलां (29 जनवरी १९६६ - ३० दिसम्बर १९४४)को १९१५ में साहित्य के नोबेल पुरुस्कार से सम्मानित किया गया था. एक मानवतावादी के रूप में उन्होंने रवीन्द्रनाथ टैगोर और महात्मा गांधी के कार्यों का गूढ़ अध्ययन किया. वे भारत के वेदान्त दर्शन से गहरे प्रभावित रहे और स्वामी विवेकानन्द की रचनाओं ने उनके बौद्धिक विकास पर बहुत प्रभाव डाला.

जनता के थियेटर के पक्षधर रोलां ने अपने जीवन में कई विषयों पर कई पुस्तकों की सर्जना की. इन सारी पुस्तकों में उनका विशाल उपन्यास ज्यां क्रिस्तोफ़ एक अलग जगह रखता है. उन्हें साहित्य का नोबेल भी मूलतः इसी पुस्तक को ध्यान में रख कर दिया गया था. इत्तेफ़ाक़न मैं पिछले कई महीनों से क़रीब दो हज़ार पन्नों की इस पुस्तक के अनुवाद में लगा हुआ हूं. क्यों न आपको इस क्लासिक के कुछ हिस्सों का रसास्वादन करवाया जाए.

बल्कि उस से भी पहले आप पढ़िये गिल्बर्ट कैनन द्वारा लिखी गई इस किताब की भूमिका. अगले एकाध दिन तक आपको इस किताब के कुछ अंश पढ़वाऊंगा.




‘ज्यां क्रिस्तोफ’ एक जीनियस के संगीतकार के रूप में विकसित होने का इतिहास है. इस खण्ड में चार हिस्से हैं : भोर¸ सुबह¸ यौवन और विद्रोह. पहले और दूसरे भाग में ज्यां क्रिस्तोफ़ के जन्म से लेकर पन्द्रह की वय में स्त्री के साथ उसके पहले सम्पर्क तक की कथा है. तीसरे और चौथे हिस्से में अगले पांच सालों का विवरण है जब बीस की आयु तक पहुंचते पहुंचते अपनी अतिशय ईमानदारी और चारित्रिक मजबूती के कारण अपनी पैदाइश के छोटे से शहर राइन में उसका जीना तकरीबन असम्भव हो चुका होता है. जर्मन सैन्यवाद का खुला विरोध करने के कारण उसे सीमा पार कर पेरिस की शरण लेनी पड़ती है. किताब का बाकी हिस्सा उसके जीवन के जोखिमों पर केन्द्रित है.

उसके सर्जक का कहना था कि इस नायक के जीवन के विचार और स्वयं इस किताब को उन्होंने किसी नदी की तरह कन्सीव किया था. जहां तक इस किताब के किसी संयोजन का सवाल है तो यही इसका संयोजन है. इसमें कोई सहित्यिक तिकड़मबाजी नहीं है और न ही कोई ‘प्लॉट'. व्याकरण के सिद्धान्तों के विरोध में टंगे हुए इसके शब्द ठीक उसी तरह मौजूद हैं जिस तरह एक दूसरे का पीछा करते इसके विचार दर्शनशास्त्र के हर सिद्धान्त के विरोध में नज़र आते हैं किताब के हर वाक्यांश के गर्भ में अगले वाक्यांश के बीज छिपे होते हैं. किताब खुद जीवन की तरह सीधी और सपाट है क्योंकि सत्य को जान लेने के बाद जीवन आसान हो जाता है. और ज्यां क्रिस्तोफ़ ने सत्य को जान लिया था. इस नदी की खोजबीन इस तरह की गई है मानो उसके भौगोलिक अस्तित्व के बारे में लोगों को कुछ मालूम ही न हो. जीवन के बारे में आज तक जो भी कहा और सोचा गया है उसे ज्यां क्रिस्तोफ़ के जीवन की कसौटी पर परखे बगैर स्वीकार कर लिया गया है. उसके लिए हर उस चीज का अस्तित्व नहीं है जो सच्ची नहीं. मनुष्य के विकास और उसके पतन की ऐसी बहुत कम प्रकियाएं हैं जिनका विश्लेषण नहीं किया गया है. पाठक के सम्मुख जिस तरह की सम्पूर्णता के साथ आधुनिक जीवन की व्याख्या प्रस्तुत की गई है वह इस पूरी शताब्दी में प्रकाशित हुए किसी भी कृतित्व से महत्तर है.

रोम्यां रोलां द्वारा इस्तेमाल की गई नदी की उपमा को एक पल के लिए अलग रखूं तो स्वयं मुझे यह किताब एक मजबूत पुल जैसी लगी है जो आपको उन्नीसवीं सदी के विचार-संसार से बीसवीं सदी के विचार-संसार तक लेकर जाता है. ऐसा लगता है मानो उन्नीसवीं सदी के सारे विचारों को इकठ्ठा करने के बाद ज्यां क्रिस्तोफ़ के भविष्य में उड़ान भरने के लिए प्रस्थान बिन्दु का निर्माण किया गया है. उस विचार के भीतर जो भी सबसे ज्यादा धार्मिक था वह ज्यां क्रिस्तोफ़ में सघनित हो गया प्रतीत होता है और जब आप किताब के इतिहास के बारे में जानकारी खोजने लगते हैं तो आपको लगने लगता है कि यह किताब रोम्यां रोलां को सीधे उत्तराधिकार में मिली थी.

रोम्यां रोलां का जन्म 1866 में फ़्रांस के बीचोबीच क्लैमैन्सी मे एक उच्चकुलीन परिवार में हुआ था. पेरिस और रोम में उनकी शिक्षा दीक्षा हुई. 1890 के वर्ष में रोम में उनकी मुलाकात माल्दीवा फान मेसेनबर्ग नाम की एक जर्मन महिला से हुई जिन्होंने 1848 की क्रान्ति के बाद से इंग्लैण्ड में पनाह ले रखी थी. वहां इस महिला के परिचितों में कोसुथ ¸ मैज़िनी ¸ हर्ज़ेन ¸ लेडिन ¸ रोलिन और लुई ब्लान्क शामिल थे. बाद में इटली में उसके परिचतों में वागनर¸ लिस्ज़्ट¸ लेन्बाख¸ गैरीबाल्डी और इब्सेन भी जुड़े. 1908 में उनकी मृत्यु हुई. जब रोलां की उनसे मुलाकात हुई वे ताल्सताय के विचारों से बहुत प्रभावित थे. माल्दीवा फान मेसेनबर्ग के दोस्तों और उनकी गतिविधियों की संपर्क में आने के बाद रोलां को स्वयं अपने विचारों को जानने और खोजने का अवसर मिला. 'मैमोयर्स दून इदियालिस्ते' नामक अपनी किताब में माल्दीवा फान मेसेनबर्ग ने रोलां के बारे में लिखा : "इस नौजवान फ़्रांसीसी के भीतर मुझे वही आदर्शवाद¸ वही महत्वाकांक्षा और वही महान बौद्धिकता नज़र आती है जैसी कि हमारे समय के विभिन्न देशों के महानतम व्यक्तियों में देखी जाती है."

ज्यां क्रिस्तोफ़ की शुरूआत के बीज इसी काल में पनपे: यानी रोलां के जीवन की आवारगी के सालों में. पेरिस लौटने के बाद वे एक आन्दोलन से जुड़ गए जो रंगमंच के सामाजिक पुनर्जागरण के विषय पर कार्यरत था. रोलां ने कई नाटक लिखे. उसके बाद वे सोरबोन में एक संगीत आलोचक और संगीत अध्यापक का काम करते रहे. उन्होंने बीथोवन ¸ माइकेल एन्जेलो और ह्यूगो वूल्फ की जीवनियां लिखीं उनका उद्देश्य हमेशा 'हीरोइक' चीजों को खोजना होता था. उनके हिसाब से सम्पूर्ण सत्य ही महान लोगों के जीवन का आधार होता है. ज्यां क्रिस्तोफ़ ने न सिर्फ सत्य को जानना था बल्कि उसे किसी भी कीमत पर औरों तक पहुंचाना भी था: कैसी भी परिस्थिति के बावजूद¸ स्वयं खुद की कीमत पर¸ जीवन की कीमत पर. यही उसका कानून है. यही रोलां का भी कानून है. पूरी किताब में जो संघर्ष है वह ज्यां क्रिस्तोफ़ की शुद्ध जीवनशैली और व्यक्तिगत नैतिकता के स्थानापन्न के रूप में दोयम दर्ज़े की सामाजिक और वैधानिक नैतिकता के बीच चलता रहता है. इसका मतलब यह हुआ कि हर आदमी को अपनी आत्मा के अभेद्य निर्णय के सामने स्वयं को पेश करना ही होगा. ज्यां क्रिस्तोफ़ को हर जगह समझौतों और झूठ के रूबरू होना पड़ता है: व्यक्तिगत स्तर पर भी और देश के स्तर पर भी. वह जर्मन फरेब को बहुत जल्दी पकड़ लेता है और पेरिस में पैर रखते ही फ़्रांसीसी झूठ अपना बदसूरत चेहरा उसे दिखाता है. किताब खुद जर्मनी और फ़्रांस के बीच की सीमा को तहसनहस करती है. अगर एक सीमा टूटती है तो बाकी अपने आप टूट जाती हैं. हरेक चीज का सत्य सार्वभौमिक सत्य होता है और ज्यां क्रिस्तोफ़ के अनुभव और उसकी आत्मा द्वारा उठाए गए जोखिम (जिनके अलावा और कोई जोखिम हैं ही नहीं) किसी न किसी स्तर पर हर मनुष्य के होते हैं जिनसे उसे गुजरना ही होता है : बीते समय की तानाशाही और भविष्य की चाकरी करने के बीच.

किताब ऐसे कई चरित्र हैं जो पाठक के दोस्त बन जाते हैं या कम से कम दिलचस्प पड़ोसी. अपनी विकासयात्रा के दौरान ज्यां क्रिस्तोफ़ लोगों को इकठ्ठा करता चलता है और जब वे ज्यां क्रिस्तोफ़ के जीनियस के सामने इम्तहान में खड़े होते हैं तो आप उन्हें ठीक वैसे ही देखते हैं जो वे असल में हैं. उनमें जो सबसे नीच भी होता है वह कम से कम मनुष्य तो होता ही है और आपकी सहानुभूति की दरकार रखता है.

विकास के एक नए आयाम के तौर पर फ़्रांस में ‘ज्यां क्रिस्तोफ’ को तुरन्त लोकप्रियता और पहचान हासिल हुई. अभी तक इसके प्रभाव का ठीकठाक विश्लेषण नहीं हो पाया है. इसकी जीवन से सराबोर ऊर्जा को नकारा नहीं जा सकता. इसका 'अस्तित्व' है. ज्यां क्रिस्तोफ़ उतना ही वास्तविक है जितना वे महानुभाव होते हैं जिनके पोट्रेर्ट क्वीन्स हाल के बाहर लगे रहते हैं और वह उनमें से कईयों से ज्यादा वास्तविक है. यह पुस्तक हवा को शुद्ध करती है. इस किताब तक पहुंचने वाला कोई भी खुला दिमाग एक मनुष्य के जीवन की नदी की यात्रा से तरोताजा और अधिक शक्तिशाली बन कर बाहर आएगा और अगर इस यात्रा का आखिर तक अनुसरण किया जाए तो कोई भी यात्री ज्यां क्रिस्तोफ़ के साथ इस तथ्य को खोज पाएगा कि दुख के तले आनन्द होता है और आनन्द तक दुख से होते हुए ही पहुंचा जा सकता है.

‘ज्यां क्रिस्तोफ़ के दोस्तों के लिए’ नाम से सातवें भाग की भूमिका में रोलां लिखते हैं :

"मैं अलग थलग पड़ा हुआ था: फ़्रांस में कई और लोगों की तरह एक एक संसार में घुटता हुआ जो नैतिक रूप से मेरे लिए हेय था. मुझे हवा चाहिए थी. मैं एक बीमार सभ्यता के खिलाफ प्रतिक्रिया करना चाहता था : धोखेबाज कुलीनवर्ग द्वारा भ्रष्ट कर दिए गए विचारों के खिलाफ. मैं उनसे कहना चाहता था "तुम झूठ बोलते हो! तुम फ़्रांस का प्रतिनिधित्व नहीं करते!" ऐसा करने लिए मुझे एक नायक की दरकार थी जिसका दिल शुद्ध हो और दृष्टि स्पष्ट, जिसकी आत्मा इस कदर बेदाग हो कि उसे बोल पाने का अधिकार हो; ऐसा कोई जिसकी आवाज में इतना जोर हो कि हर कोई उसकी बात सुने. मैंने बहुत श्रम के साथ इस नायक को पाया है. लिखना शुरू करने से कई वर्ष पहले से मैंने बाकायदा इस पर लगातार काम जारी रखा. ज्यां क्रिस्तोफ़ ने अपना सफर तब शुरू किया जब मैं उसके इस सफर के अन्त को देख पाने लायक हो गया था."

अगर रोलां ने ‘ज्यां क्रिस्तोफ’ को लिखते समय केवल फ़्रांस को ध्यान में रखा होता और अगर इसकी निष्ठा दुनिया भर में फैली बुराई के खिलाफ न होती तो इसके अनुवाद किए जाने का कोई मतलब नहीं था. लेकिन जरथुष्ट्र की तरह यह किताब हर किसी के लिए भी है और किसी के लिए भी नहीं. रोलां ने वही लिखा जो उन्हें सच लगा और जैसा कि डॉ॰ जॉनसन का मत है : " हर आदमी को यह कहने का हक है कि उसकी निगाह में सत्य क्या है. और हर दूसरे आदमी को हक है कि वह उसकी धज्जियां उड़ा दे ..."

अपने सत्य और सम्पूर्ण निष्ठा के चलते और स्पष्टता के – जैसा मुझे ताल्सताय के बाद किसी में नज़र नहीं आया है – ‘ज्यां क्रिस्तोफ’ निस्सन्देह बीसवीं सदी की पहली महान रचना है. एक तरह से देखा जाए तो यह बीसवीं सदी की शुरूआत है. यह एक पुल की तरह कार्य करती हुई हमें बताती है कि हम किस जगह खड़े हैं. यह भूत और वर्तमान को निरावृत्त करती हुई हमारे वास्ते भविष्य के दरवाजे खोलती है …

(फ़ोटो: रोम्यां रोलां महात्मा गांधी के साथ स्विटज़रलैण्ड में, १९३१)

कुछ गुलाब-चर्चा , गुलाब-दर्शन कबाड़ख़ाने में ....

"What's in a name? That which we call a rose
By any other name would smell as sweet."
रोमियो एंड जूलियट की इस मशहूर उक्ति और गुलाब की खूबसूरती पे कही गयी असंख्य कविताओं के अलावा हिंदी कविता के महाप्राण ' निराला ' की एक कविता है 'कुकुरमुत्ता ' हाल में चंडीगढ़ के रोज़ गार्डन में ली गयी अपनी तस्वीरों को इस कविता के साथ छापने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ इन तस्वीरों को आपने मयखाने में भी देखा और सराहा है मग़र चाहता हूँ कि आप इन्हें फिर से देखें यहाँ इस कविता के साथ .......












आया मौसम खिला फ़ारस का गुलाब,

बाग पर उसका जमा था रोबोदाब

वहीं गंदे पर उगा देता हुआ बुत्ता

उठाकर सर शिखर से अकडकर बोला कुकुरमुत्ता

अबे, सुन बे गुलाब

भूल मत जो पाई खुशबू, रंगोआब,

खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,

डाल पर इतरा रहा है कैपिटलिस्ट;

बहुतों को तूने बनाया है गुलाम,

माली कर रक्खा, खिलाया जाडा घाम;


हाथ जिसके तू लगा,

पैर सर पर रखकर वह पीछे को भगा,

जानिब औरत के लडाई छोडकर,

टट्टू जैसे तबेले को तोडकर।

शाहों, राजों, अमीरों का रहा प्यारा,

इसलिए साधारणों से रहा न्यारा,

वरना क्या हस्ती है तेरी, पोच तू;

काँटों से भरा है, यह सोच तू;

लाली जो अभी चटकी

सूखकर कभी काँटा हुई होती,

घडों पडता रहा पानी,

तू हरामी खानदानी।

चाहिये तूझको सदा मेहरुन्निसा

जो निकले इत्रोरुह ऐसी दिसा

बहाकर ले चले लोगों को, नहीं कोई किनारा,

जहाँ अपना नही कोई सहारा,

ख्वाब मे डूबा चमकता हो सितारा,

पेट मे डंड पेलते चूहे, जबाँ पर लफ़्ज प्यारा।


देख मुझको मै बढा,

डेढ बालिश्त और उँचे पर चढा,

और अपने से उगा मै,

नही दाना पर चुगा मै,

कलम मेरा नही लगता,

मेरा जीवन आप जगता,

तू है नकली, मै हूँ मौलिक,

तू है बकरा, मै हूँ कौलिक,

तू रंगा, और मै धुला,

पानी मैं तू बुलबुला,

तूने दुनिया को बिगाडा,

मैने गिरते से उभाडा,

तूने जनखा बनाया, रोटियाँ छीनी,

मैने उनको एक की दो तीन दी।


चीन मे मेरी नकल छाता बना,

छत्र भारत का वहाँ कैसा तना;

हर जगह तू देख ले,

आज का यह रूप पैराशूट ले।

विष्णु का मै ही सुदर्शन चक्र हूँ,

काम दुनिया मे पडा ज्यों, वक्र हूँ,

उलट दे, मै ही जसोदा की मथानी,

और भी लम्बी कहानी,

सामने ला कर मुझे बैंडा,देख कैंडा,

तीर से खींचा धनुष मै राम का,

काम का

पडा कंधे पर हूँ हल बलराम का;

सुबह का सूरज हूँ मै ही,

चाँद मै ही शाम का;


नही मेरे हाड, काँटे, काठ या

नही मेरा बदन आठोगाँठ का।

रस ही रस मेरा रहा,

इस सफ़ेदी को जहन्नुम रो गया।

दुनिया मे सभी ने मुझ से रस चुराया,

रस मे मै डुबा उतराया।

मुझी मे गोते लगाये आदिकवि ने, व्यास ने,

मुझी से पोथे निकाले भास-कालिदास ने

देखते रह गये मेरे किनारे पर खडे

हाफ़िज़ और टैगोर जैसे विश्ववेत्ता जो बडे।

कही का रोडा, कही का लिया पत्थर

टी.एस.ईलियट ने जैसे दे मारा,

पढने वालो ने जिगर पर हाथ रखकर

कहा कैसा लिख दिया संसार सारा,

देखने के लिये आँखे दबाकर

जैसे संध्या को किसी ने देखा तारा,

जैसे प्रोग्रेसीव का लेखनी लेते

नही रोका रुकता जोश का पारा

यहीं से यह सब हुआ

जैसे अम्मा से बुआ














































Friday, March 19, 2010

अकीला बुआ और उनके साढ़े तीन किस्से


यह कहना गलत होगा कि एक थीं अकीला बुआ. सही तो यह कहना होगा कि एक हैं अकीला बुआ. वैसे उत्तर प्रदेश और बिहार के भोजपुरी भाषी इलाके में बुआ के लिए फ़ुआ शब्द प्रचलित है लेकिन आज जिस अमर,अनश्वर चरित्र के किस्से पेश किए जा रहे हैं वह तो बुआ हैं ,सबकी बुआ,जगत बुआ- अपनी अकिला बुआ. यह संभव है कि वह कभी, कहीं पैदा होकर, अपने हिस्से का जीवन जीकर मर-खप गई होंगी लेकिन उनके किस्से,उनके कारनामे जीवित हैं और हमेशा बने रहेंगे अकीला बुआ भोजपुरी इलाके के मौखिक सांस्कृतिक इतिहास का एक ऐसा चरित्र हैं जिनके बारे में कोई भूले से भी यह सवाल नहीं करता कि कि उनका गांव-गिरांव कौन-सा था ,उनका जात-धरम कौन-सा था और सबसे बड़ी बात तो यह है कोई यह संदेह व्यक्त नहीं करता कि वे सचमुच थीं भी या कि यह कोरी गप्प है!

अकीला माने अक्किल वाला और अक्किल माने अकल यानि समझ। अकीला बुआ अपने इलाके की सबसे अधिक अक्किल वाली स्त्री मानी जाती हैं. जिस मुकाम पर आकर सबकी अकल घास चरने चली जाती है उसी बिंदु से अकीला बुआ काम शुरु होता है. वह सबकी समझ को धता बताते हुए अपनी अक्लमंदी का ऐसा मुजाहिरा करती हैं कि बड़े-बड़े समझदारों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती और वे अपनी अदृश्य दुम दबाकर खिसक लेने में ही भलाई समझते हैं. यह अलग बात है कि अकीला बुआ की समझदारी प्राय: हर बार हास्यास्पद स्थितियां पैदा कर देती है.लोग-बाग उनके इसी गुण के कारण ही तो कोई पेंच फंसने पर उन्हें बुलाते हैं.

हर सांस्कृतिक इलाका अपनी समझदारी,श्रेष्ठता,बुद्धिमानी और अकल का नगाड़ा बजाने में पीछे नहीं रहता साथ ही अक्सर ऐसा भी होता है कि अपने बौड़मपने और बेवकूफ़ियों को उत्सव में बदलकर आनंदित-प्रमुदित होने की कला भी मनुष्यता का एक गुण है। संभवत: इसी उत्सवधर्मिता की उपज हैं अपनी अकीला बुआ. जिस तरह मिथिलांचल में गोनू झा के किस्से मशहूर हैं लगभग वैसे ही भोजपुरी अंचल में अकीला बुआ के किस्से यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरे पड़े हैं. जब कोई बेवकूफ़ी भरी समझदारी वाला कारनामा अंजाम देता है तो उसे अकिला बुआ कहने की रवायत है- वह चाहे स्त्री हो या पुरुष. अकिला बुआ का आख्यान एक ऐसे चरित्र का आख्यान है जो शायद कभी था ही नहीं और जो कभी खत्म नही होगा. तमाम अवरोधों,अड़चनों और आशंकाओं के बावजूद जब तक भोजपुरी भाषा और संस्कृति की अविराम धारा प्रवहमान है तब तक अकीला बुआ हैं, रहेंगी और उनसे जुड़े किस्से कहे-सुने जाते रहेंगे. चलिए आप भी पढ़िये- सुनिये उनके साढ़े तीन किस्से-


पहला किस्सा - कलकत्ते का सफ़र

अकीला बुआ का मन हुआ कि कलकता घूम आया जाय. गांव - गिरांव के बहुत सारे लोग वहां रहते हैं .वे जब भी होली-दीवाली-, ईद-बकरीद की छुट्टियों में आते हैं तो उनका इसरार रहता है- ' ए बुआ ! एक बार कलकत्ता घूम लो. बहुत बड़का शहर है कककत्ता ' . इस बार बुआ ने सोचा कि चलो देख ही लें कैसा है कलकत्ता. सो वे दो-चार और लोगों के साथ रेलगाड़ी पर सवार होकर चल पड़ीं.दूसरे दिन जब एक बड़े-से स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो लोगों ने कहा आ गया कलकत्ता, चलो उतरो. बाहर लाल-लाल कपड़े पहने कुली चिल्ला रहे थे : हबड़ा-हबड़ा अकीला बुआ ने अपनी साड़ी घुटनों तक उठाकर कछान मार ली और अपने साथियों को हिदायत देने लगी - ' सब लोग धोती-लुंगी ऊपर उठा लो लगता है यहां तो बहुत हबड़ा है.' साथी घबरा गए- ' अरे गांव में हबड़ा और यहां भी हबड़ा.' बुआ ने कहा -' देखा ! मैं इसी मारे न आती थी , अब भुगतो सब जने.' धन्य हैं हमारी अकीला बुआ. उन्हें किसी ने बताया ही नहीं था हाबड़ा स्टेशन का नाम है, वे तो भोजपुरी भाषा के 'हबड़ा' शब्द से घबरा गई थीं . हबड़ा माने -कीचड़, दलदल.

दूसरा किस्सा - कान का झब्बा

गांव में किसी का गौना हुआ. दुलहिन घर आई. औरतों का जमघट लग गया. किसी ने खुले आम तो किसी ने दबी जुबान में बतकुच्चन की कि दुलहिन ऐसी है तो वैसी है. किसी को वह खूबसूरत लगी तो किसी को भैंगी. किसी ने उसके मुखड़े की तारीफ़ की तो किसी ने तलवों की. दुलहिन बेचारी चचिया सास, ददिया सास ,ममिया सास आदि -इत्यादि के पैर छूते-छूते पस्त हो चली थी. खैर, दुलहिन का बक्सा खोला गया . बाकी सारी चीजें तो सासों, गोतिनों और ननदों को समझ में आ गईं लेकिन एक जोड़े चमकीली- रंगीन चीज किसी की समझ में नहीं आई कि इसका क्या इस्तेमाल है? सब हलकान- परेशान. बहू से पूछें तो नई रिश्तेदारी में जगहंसाई का डर कि देखो कैसे भुच्चड़ हैं ससुराल वाले. अब एक ही उपय था कि अकीला बुआ को बुलाया जाय. वही बतायेंगी कि यह क्या बला है. अकिला बुआ आईं, सामान पर नजर दौड़ाई और हंसने लगीं .बोलीं - 'अरी बेवकूफ़ों ! हम ना रहें तो तुम लोग तो गांव की नाक कटवा दोगी. इतना भी नहीं जानतीं यह तो नई चलन का गहना है- कान का झब्बा. आजकल कलकत्ते में खूब चल रहा है . लाओ , सुई-डोरा दो . हम अपने हाथ से पहनायेंगे दुलहिन को.' दुलहिन बेचारी ! लाज के मारे कुछ न बोल पाई, चुपचाप पहन लिया -कान का झब्बा . अब वह नई बहुरिया क्या कहती कि ए बुआ ! यह कान का झब्बा नहीं पांवों में पहनने की सैंडल है !

तीसरा किस्सा - हाथी के पांव

सुबह- सुबह गांव में शोर था. कुछ लोग दिशा- फ़रागित से फ़ारिग होकर दतुअन करते हुए खड़े थे. औरतें घूरे पर झाड़न- बहारन फ़ेंक कर कमर पर टोकरी टिकाए खड़ी थीं. बच्चे घुच्ची और ओल्हा -पाती का खेल छोड़कर अकबकाये खड़े थे. सबकी निगाह पगडंडी पर बने पैरों के निशानों पर थी कि आखिर ये निशान किस जानवर के पैरों के हैं. आदमी के तो हो नहीं सकते और भूतों के तो पैर ही नहीं होते ,सो निशान का सवाल ही नहीं उठता . ये गाय, बैल,भैंस, ऊंट, घोड़े, गदहे, भेड़,बकरी, कुत्ते, बिल्ली, सियार,खरगोश के हैं नहीं. बाघ के भी नहीं, तो आखिर किस जानवर के पैरों के निशान हैं इतने बड़े-बड़े. जवाहिर चा की राय मांगी गई. उन्होंने सुलेमान खां से मशविरा किया और घोषित किया कि ये हाथी के पैरों के निशान हैं क्योंकि हाथी के पैरों के निशान ऐसे ही होते हैं हाथी के पैरों जैसे बड़े-बड़े . संदेह फ़िर भी नहीं मिटा. अब एक ही उपाय था, अकीला बुआ जो कह दें वही ठीक. अकीला बुआ आईं, निशान देखे , अभी तक की कयास आराई की बेवकूफ़ी पर मुस्कुराईं. सबको प्यार से गरियाते हुए बोलीं - ' नतिया के बेटों ! पता नही मेरे बाद तुम लोगों का क्या होगा? अरे ! ये तो हिरन के पैरों के निशान हैं, इतना भी नहीं पहचानते.' सबने मान लिया लेकिन जवाहिर चा मिमियाये- ' पर, बुआ ! इतने बड़े? हिरन के पैर तो----- ' बुआ ने तत्काल डपटा- 'चुप जाहिल ! चार जमात पढ़कर तू क्या मुझसे गियानी हो गया . हिरन अपने पैरों में जांता बांधकर कूदा होगा. जांता माने चक्की. देखो तो गांव मे किसी के घर से जांता तो गायब नही है?'

साढ़े यानि आधा किस्सा :

?.........यह तो आप खोजें कि साढ़े यानि आधा किस्सा कहाँ है?

( चित्र परिचय :इंडियन वुमन,१९४६ हैरी टर्नर , गूगल से साभार )