Monday, January 3, 2011

परिंदे - पहला भाग

[कहानी अधूरी है , पूरी कब तक होगी , होगी भी या नहीं , पूरे विश्वास से नहीं कह सकता | अधूरे ड्राफ्ट पढ़ने का भी अपना मजा है | सोचते रहो , अंदाजे लगाते रहो, कहानी पूरी करो , आपके अन्दर भी तो एक अफ़सानानिगार छुपा बैठा है]

शाम का धुंधलका छाने लगा था | पगडण्डी की मोड़ों पर अँधेरा पाँव पसारने लगा था | बेतरतीब उग आई झाड़ियाँ अँधेरे को पनाह देती सी महसूस होती हैं | पहाड़ों में हरे रंग की कालिमा के बीच बीच में भूरा रंग उजला लग रहा था | प्रोफ़ेसर उप्रेती चलते चलते ठिठक गए | जैकेट की जेब में हाथ डालकर अपना पसंदीदा सिगरेट ब्रांड निकाला, कैप्सटन | पीछे पीछे जमीन देखता सुधीर भी रुक गया | प्रोफ़ेसर हर एक जेब में हाथ डालकर माचिस ढूँढने की नाकाम कोशिश करने लगे | बीच बीच में हाथ झटककर नाउम्मीद भी होते | सुधीर ने माचिस की डिबिया उनकी तरफ बढ़ा दी | प्रोफ़ेसर खिसियानी हँसी हँस पड़े | "भगवान् की तलाश सबसे ज्यादा नास्तिक को ही होती है | तुम कब से माचिस रखने लगे ?" सुधीर ने सिर्फ हूँ किया, प्रोफ़ेसर के भूलने की आदत वो जानता था |
"तुमको अर्चना याद है ? अर्चना सेमवाल ? शायद तुम्हारी सीनियर रही होगी |" प्रोफ़ेसर ने धीरे से कहा | सुधीर का कोई जवाब नहीं आया, बात उस तक नहीं पहुंची |

"जिंदगी का गणित कुछ अजीब नहीं लगता तुम्हें ?" प्रोफ़ेसर ने सवाल किया | सुधीर का ध्यान इस ओर नहीं था | प्रोफ़ेसर ने अपना सवाल दोहराया |
"आपको ऐसा क्यों लगता है प्रोफ़ेसर ?"
"अर्चना के बारे में सोचकर लगता है | मेरी सबसे होनहार स्टुडेंट |" प्रोफ़ेसर आगे आगे चल रहे थे | पगडंडी इतनी छोटी थी कि दो लोग एक साथ नहीं चल सकते थे | बात करने के लिए लगभग चिल्लाना पड़ रहा था |
"प्रोफ़ेसर! अब वापस चलें ? हम लोग काफी दूर आ गए हैं कॉलेज से | अँधेरा भी घिरने लगा है |" सुधीर ने चिल्लाकर कहा | दोनों वापस मुड़ गए | अब सुधीर आगे आगे चल रहा था, प्रोफ़ेसर पीछे | पटकथा वही थी, बस पात्र आपस में बदल लिए | कॉलेज के मैदान में पीली रौशनी जलने लगी थी | फ़ुटबाल खेलने वाले लड़के अब होहल्ला करते हुए, एक दूसरे को गाली देते हुए अपने होस्टल की ओर जा रहे होंगे | गंगोत्री गर्ल्स होस्टल के गेट पर खड़े लड़के लड़की अब एक दूसरे से विदा लेने लगे होंगे | कॉलेज में ऑफिशियल रात हो गयी थी |
"आप कुछ कह रहे थे प्रोफ़ेसर |" सुधीर ने प्रोफ़ेसर को याद दिलाया |
"हाँ, अर्चना वापस आई है यहाँ पढ़ाने के लिए | तुम तो जानते हो अर्चना तुम्हारी सीनियर थी |"
सुधीर तब फर्स्ट इयर में आया था, जब अर्चना सेमवाल फाइनल इयर में थी | कॉलेज की जीनियस लडकी, मैकेनिकल इंजीनियरिंग में अपने बैच की अकेली लडकी | मैकेनिकल लेने वाली, बाद की कई लड़कियों के लिए वो प्रेरणाश्रोत बनी थी, मिस अर्चना | "मुझे पता है प्रोफ़ेसर लेकिन मेरी उनसे कोई जान-पहचान नहीं थी |"
"अर्चना ने प्रेम विवाह किया था, कुछ सालों में तलाक़, जब विवाह में प्रेम ही नहीं रहा |" प्रोफ़ेसर अब सुधीर के बगल में आ गए थे | "पगडण्डी पे सावधानी से कदम रखना, आगे फिसलन है |"
प्रोफ़ेसर ने एक गहरी सांस भरी, "शोभा और डॉली को अपने साथ रखने के लिए मैंने क्या क्या कोशिशें नहीं की | लेकिन शोभा गयी तो गयी, डॉली ने भी पूरा बचपन बाप के बिना गुज़ार लिया |" सुधीर चुपचाप चलता रहा, कहने के लिए कुछ नहीं था | प्रोफ़ेसर अपनी रौ में बोलते रहे, "डॉली की शादी भी हो गयी, लेकिन मुझे नहीं बुलाया | कभी कभी मिल आता हूँ उससे दिल्ली जाकर, लेकिन दिल्ली बहुत दूर है शायद अभी | वक़्त भी कितनी तेज़ भागता है न ? कल तक तो मेरी बच्ची थी डॉली, मेरी दुनिया | आज उसकी अपनी दुनिया है, जहाँ मेरे लिए कोई जगह नहीं |"
"आप, वहाँ क्यों नहीं चले जाते ? क्या रखा है यहाँ ?" सुधीर ने बेपरवाही से कहा |
"सूरज बुझते ही यहाँ रात हो जाती है | है न ?" प्रोफ़ेसर ने सिगरेट फेंक दी |
हलकी बूंदाबांदी फिर से होने लगी थी | दोनों तेज़ क़दमों से ट्रांसिट की ओर चलने लगे |
"प्रोफ़ेसर ! अभी स्वामी जी के पास गयी थी, लगा कि आप वहाँ होंगे | आज रात का खाना मेरे रूम में, ठीक ?" सामने मिस अर्चना खड़ी थी |
"क्या कर रहा है वो साला ? हमारे साथ घूमने भी नहीं आया |" प्रोफ़ेसर ने गुस्से से कहा | मिस अर्चना हँस पड़ी, सुधीर ने कनखियों से देखा, मिस अर्चना अभी भी सुन्दर लगती हैं |
"सुधीर! तुम भी हमारे साथ ही खाओगे |" मिस अर्चना ने आदेश के स्वर में कहा |
"मिस, मैं ...खुद..." सुधीर सकपका गए |
"अरे! सुधीर खा लो, कब तक विश्वामित्र की तरह तपस्या करते रहोगे |" प्रोफ़ेसर ने धीमे से कहा |
"क्या कहा आपने ?" मिस अर्चना ने दोनों हाथ कमर पे रख लिए |
"मैं कह रहा था कि खा लो, अर्चना खाना बहुत अच्छा बनाती है |" प्रोफ़ेसर ने शरारती मुस्कान से कहा |


खाना खाने के बाद सभी सुर-स्तव(बकौल स्वामी) का पान करने के लिए बैठ गए | सुधीर उनसे थोड़ी दूर बैठ गया, फ्रान्ज़ काफ्का में मुँह डालकर | किताबों में सुधीर की कोई दिलचस्पी नहीं है , लेकिन... | मिस अर्चना ने सुधीर से भी लेने का आग्रह किया, पर सुधीर टाल गए | बातों की कोई धुन छेड़े बिना सभी पी रहे थे | अचानक स्वामी बोले, "यार डॉक्टर, तुम कहाँ यहाँ हम लोगों के बीच चले आये | अच्छा खासा बेंगलोर में थे | पैसा भी बना रहे थे | बढ़िया कुलीन परिवार, शादी वादी करे रहते और फिर ..." बोलते बोलते रुक गए | सुधीर के लिए ये सवाल कभी आया न हो ऐसी बात नहीं थी | बस सुधीर को खुद कभी ये कोई सवाल नहीं लगा, "माँ ने शादी कराने के लिए काफी जोर लगाया था | तीनों भाई अपनी गृहस्थी में खुश हैं | फिर माँ चल बसी तो उस दुनिया के साथ जो ताना बाना था वो भी नहीं रहा | ऐसे ही एक दिन यहाँ चला आया |" ख़ामोशी एक बार फिर सबके मन में पसर गयी थी | बाहर टिन शेड पर बारिश की धीमी धीमी टप टप सुनी जा सकती थी | आज सुधीर का जन्मदिन था, माँ थी तो जन्मदिन भी याद रहता था | अब तो पता ही नहीं चलता और गुज़र जाता है | प्राग से कभी कभी भैया भाभी का फोन आ जाता है, साथ में छोटा अंशुल भी होता है |
"जिंदगी का गणित भी अजीब है प्रोफ़ेसर !" मिस अर्चना पहली बार बोली, सुधीर ने चौंककर प्रोफ़ेसर की ओर देखा, प्रोफ़ेसर धीमे से मुस्कुराये | अर्चना ने सिप लेकर अपनी बात जारी रखी, "जहाँ से नफ़ा होने की उम्मीद होती है, वहाँ से नुक्सान, है न प्रोफ़ेसर ?" प्रोफ़ेसर बन्द खिड़की को घूर रहे थे, "लाइफ इस व्हट हैपंस टु यू व्हाइल यू आर बिजी मेकिंग अदर प्लान्स" | स्वामी हल्के से हँस दिए, "प्रोफ़ेसर साला, हमेशा कुछ न कुछ फिलोसोफी मारता है | किताबें पढ़ पढ़ के पागल हो गया है |" सुधीर जानना चाहता था कि मिस अर्चना क्यों इस जगह पर चली आई, पूछने में संकोच हुआ तो नहीं पूछा | प्रोफ़ेसर ने कुछ कहा तो था कि तलाक़ लिया था मिस अर्चना ने, लेकिन फिर यहाँ आने की क्या जरूरत थी | सुबह की बरसात होने से धूप की उम्मीद बेमानी तो नहीं होती | जिंदगी एक बार फिर से भी तो शुरू हो सकती है | सपनों से हार जाना भी जीवन का एक अहम् पड़ाव है, सफ़र फिर भी जारी रहता है |
"मीरा देहरादून जाना चाहती है, जाह्नवी को लेकर |" स्वामी ने अपना सर झुका लिया |
प्रोफ़ेसर ने धीमे से पूछा "तुम क्यों नहीं चले जाते उनके साथ ?"
स्वामी ने बदले में कुछ न कहा | प्रोफ़ेसर उप्रेती ने शोभा को ऐसे ही जाते देखा था | शोभा, फिर कभी वापस नहीं आई | डॉली भी बदलकर अनुपमा हो गयी | दिल्ली विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र की प्रोफ़ेसर, मिसेज़ अनुपमा कोहली | "चलो खैर, देहरादून जाकर जाह्नवी की एडुकेशन ठीक से हो जायेगी, फ्यूचर अच्छा रहेगा |" प्रोफ़ेसर ने सिगरेट जलाते हुए कहा | "आपके घर से कोई पत्र नहीं आया, मिस अर्चना ?" स्वामी ने पूछा |
"नहीं" अर्चना एक बेबस हँसी हँस दी, "बाबूजी और छोटे भाई ने जो कहा था, पूरा किया | पिछले दिनों माँ की चिट्ठी आई थी, बाबूजी की तबियत खराब होने का जिक्र भी था |"
"तुम्हें जाना चाहिए था |" प्रोफ़ेसर ने खांसते खांसते कहा |
"पी एस में भाई ने लिखा था कि आने की कोई जरूरत नहीं है, पोस्ट करते वक़्त लिखा होगा |" अर्चना हाथ में पकडे ग्लास को काफी देर तक देखती रही, "धमकी के स्वर में अपने साइन भी किये थे |"
बाहर बारिश तेज़ हो चली थी, टिन शेड की टप टप अब संगीत न रहकर एक कुंठा हो चली थी | लैम्प की बत्ती अचानक तेज़ हो गयी थी | प्रोफ़ेसर ने आगे बढ़कर उसे थोड़ा धीमा किया | अर्चना के अन्दर भावनाओं का आलोड़न जारी था, "बाबूजी शायद न बचें, फिर उसके बाद भाई घर अपने नाम करना चाहेगा | आखिर उसके बीवी-बच्चे हैं, घर-गृहस्थी है | सब कुछ जानते हुए भी बाबूजी उसके नाम कर देंगे | पुरुषप्रधान समाज की हकीकत यही है | स्त्री पुरुष बराबरी, भेदभाव नहीं, से सब बातें सिर्फ घर से बाहर ही अच्छे लगती है | जिंदगी के गणित का एक अजीब सा समीकरण |" कॉलेज के शिवमंदिर से टन...टन की आवाज आ रही थी | शाम की आरती के बाद पुजारी रात को २ किलोमीटर दूर जंगल में अपने घर जाएगा | सर्दी , गर्मी , बरसात हो लेकिन पुजारी का नियम नहीं टूटता | सन्यास उसने लिया नहीं है, लेकिन अकथ, अदृश्य, अनाम को लेकर ऐसा पागलपन एक गृहस्थ में बिरले ही देखने को मिलता है | स्वामी ने हाथ जोड़कर हरिओम का घोष किया |
"बाबूजी ने बचपन से दिल्ली की लड़की बनाके रखा | पिछ्ड़ेपंथी से कहीं दूर, मोडर्न दुनिया में | इस दुनिया में लड़के -लड़कियों के बीच कोई फर्क नहीं है | दोनों जींस पहनते हैं, बाल कटाते हैं, फर्राटेदार अंग्रेजी में बात करते हैं | इंजीनियरिंग में एडमिशन के टाइम पर उन्हें अपना गाँव याद आया, गाँव से मेरा बर्थ सर्टिफिकेट बना लिया गया | फिर इंजीनियरिंग में विक्रांत से प्यार | एक साल के करीयर को समर्पित किया, फिर शादी | विक्रांत के रूप में सब कुछ मिला, और भी बड़ा परिवार, और भी बड़ा घर, और और भी बड़े बुद्धिजीवी | विक्रांत के साथ हर तरह से खुश थी मैं, मेरी मनमर्जी चलती थी | फिर वही, जिसपे खबरें बनती हैं; अविश्वास, शक, रोज़ रोज़ के झगड़े | मेरी जॉब छुड़वा दी गयी,फिर एक दिन चरित्रहीनता का आरोप लगाकर तलाक़ की अर्जी डाल दी गयी | अदालत में बैठकर सुनती रही कि मेरे अफ़ेयर किस किस से हैं | बदले में मेरे वकील ने भी विक्रांत के ऐसी ऐसी लड़कियों से रिश्ते निकाले, जिनके नाम मैंने भी नहीं सुने थे | तलाक़ तो खैर लेना ही था, लेकिन होड़ लगी थी कि कौन सामने वाले को ज्यादा पतित और स्खलित साबित कर सकता है | वो लोग जीत गए |" अर्चना के चेहरे पे सख्ती आने लगी थी | प्रोफ़ेसर फिर से बन्द खिड़की के बाहर देखने लगे, काले शीशे को, जैसे जानते हों कि सच और काला होने जा रहा है | अर्चना ने एक सिप और भरा, "अदालती कार्यवाही में मेरे वकील ने वो सब गलत साबित किया , लेकिन अब कोई फ़ायेदा नहीं था | कुछ दिन माँ के आँचल में चुपचाप सोई कुछ घूरती रही | एक दिन मेरा सारा सामान मेरे घर वापस पहुंचा दिया | उस दिन महसूस हुआ मानो दलदल में गिरी हुई हूँ | बस अब कोई रास्ता नहीं है, संघर्ष से और भी हार मिलेगी |"
"आपके घर वालों ने तो आपको सपोर्ट किया होगा |" सुधीर ने पहली बार मिस अर्चना से सीधा संवाद किया |
"भाई को अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा पर आंच आती दिखने लगी थी | हर एक बात में टोकाटोकी होने लगी थी | कभी कभी मुँह पर कह भी दिया जाता कि तुम तो हमें मत ही समझाओ | अपने आस पास बैठे बुद्धिजीवियों की नस्ल को गिद्धों से भी नीचे गिरते हुए देखा मैंने | कॉलेज में नियुक्तियां निकली तो माँ ने अपने अकाउंट में छुपाये हुए पैसे निकालके मुझे रोते हुए विदा किया |" अर्चना की आँखों में एक आँसू छटपटा रहा था |
"नफरत होती है ऐसे लोगों से |" प्रोफ़ेसर अपने आप में बड़बड़ाए |
"नफरत मुझे माँ से होती है | क्यों, इस सब के बीच में बेचारी सी बनी रही, लाचार बनी रही| अरे लोगों के खिलाफ मेरा पक्ष नहीं ले सकती थी, तो लोगों के साथ ही हो लेती | मेरे चरित्र को जब मेरे अपने ही बाजार में बेच रहे थे, तो वो भी कुछ नफ़ा कमा लेती | क्यों दोनों तरफ से हिस्सेदार बनना ?"
"अर्चना! उन्होंने तुम्हें यहाँ भेजा है, सबके विरोध के वावजूद |"
"यही तो ग़लतफ़हमी है स्वामीजी, उन्होंने मुझे वहाँ से भेज दिया | जो काम भाई, बाबूजी सारी लानत-मलानत भेजने के बाद भी नहीं कर सके, उन्होंने मुझे ममता के धोखे में रखकर कर दिया |"
"तुम अभी बहुत निर्दयता से आकलन कर रही हो अर्चना, वक़्त के साथ शायद तुम्हें ... |" प्रोफ़ेसर जानते थे वक़्त के साथ भी धारणाएं बदलनी बहुत मुश्किल होती हैं | आखिर यही था तो वक़्त उनके रिश्तों में जमी बर्फ क्यों नहीं पिघला पाया |
"वैसे आप सही कहते हैं प्रोफ़ेसर |" अर्चना के चेहरे पर सायास मुस्कान थी, "शान्ति और नीरवता के इस शमशान में, गिद्धों की आमद मंदिरों से कम है |"
"प्रोफ़ेसर! डॉली की तरफ से कोई ख़त आया ?" स्वामी ने एक हलकी झिझक के बाद पूछ लिया | खारापन जुबान पर अभी ताजा ही था, समंदर में थोड़ा सा नमक और डालने से समंदर नहीं बदलेगा |
"फोन आया था | एक बेटा हुआ है | कह रही थी, पापा, माथा बिलकुल आप का लगता है |" प्रोफ़ेसर बच्चों जैसे खुश हुए, लेकिन एक वक़्त के बाद हँसी को जबरन खींचा भी तो नहीं जाता, "फिर कहने लगी कि, पापा! पूछोगे नहीं माँ पर क्या गया है ?" सुधीर चौंका, लेकिन शांत बैठा रहा | मिस अर्चना अपने ग्लास को ध्यान से देखती रही | स्वामी खिड़की की ओर देखने लगे, जहाँ थोड़ी देर पहले तक प्रोफ़ेसर देख रहे थे |

- क्रमश:

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

प्यार की राहों वाली घृणा घातक और पीड़ामयी होती है। यदि अलग होना ही है तो शान्तिमय ढंग से भी हुआ जा सकता है, दुनिया इतनी छोटी भी नहीं।

vandana gupta said...

दोस्तों
आपनी पोस्ट सोमवार(10-1-2011) के चर्चामंच पर देखिये ..........कल वक्त नहीं मिलेगा इसलिए आज ही बता रही हूँ ...........सोमवार को चर्चामंच पर आकर अपने विचारों से अवगत कराएँगे तो हार्दिक ख़ुशी होगी और हमारा हौसला भी बढेगा.
http://charchamanch.uchcharan.com

मुनीश ( munish ) said...

Nirmal verma had distinct and very engrossing way of telling stories provided one had some patience and time.