Tuesday, April 26, 2011

घर में है अभाव, इसीलिए पृथ्वी लगती है काला धुआं - सुकान्त की कविता बरास्ते नीलाभ ४

सुकान्त का परिचय यहां देखे


हरकारा

हरकारा दौड़ चला, दौड़ चला,
बजती है रात में इसीलिए घण्टी की रुनझुन!
हरकारा चल दिया बोझ लिये ख़बरों का हाथ में।
हरकारा चल दिया है, हरकारा,
रात की राहों में चलता है हरकारा, मानता नहीं वह निषेध कोई मन में,
दिग से दिगन्त तक दौड़ चला हरकारा,
नयी ख़बर लाने का ज़िम्मा है उस पर।

हरकारा! हरकारा!
जाने-अनजाने का
बोझ आज काँधे पर
चल रहा है हरकारा चिट्ठी और ख़बरों से लदा हुआ जहाज़ एक,
हरकारा चल रहा है, शायद हो जाय भोर।
और भी तेज़ी से, और भी तेज़ी से, यह हरकारा दुर्जय दुर्वार आज,
उसके जीवन के सपने सरीखा सरकता है वन, पीछे छूटता।
बाक़ी है, शेष है राह अभी - होता है लाल शायद पूरब का वह कोना।
नि:स्तब्ध रात के सितारे झमकते हैं नभ में,
कितनी तेज़ी से भागता है यह हरकारा हिरन की तरह।
कितने गाँव, कितने रास्ते छूट-छूट जाते हैं
हरकारा भोर में पहुँच ही जायेगा शहर।
हाथ की लालटेन करती है टुन-टुन-टुन जुगनू देते हैं आकाश,
डरो मत हरकारे! रात की कालिमा से अब भी भरा है आकाश!

इसी तरह जीवन के बहुत-से वर्षों को पीछे छोड़ कर,
पृथ्वी का बोझ भूखे हरकारे ने पहुँचा दिया "मेल" पर,
थकी हुई साँस से छुआ है आकाश, भीगी है मिट्टी पसीने से,
जीवन की सारी रातें ख़रीदीं हैं उन्होंने बहुत सस्ते में।
बड़े दुख में, वेदना में, अभिमान और अनुराग से
घर में उसकी प्रिया जागती है अकेली उनींदे बिस्तर पर।
रानार! रानार!
कब होंगे शेष ये बोझ ढोने के दिन
कब बीतेगी रात, उदित होगा सूरज?
घर में है अभाव, इसीलिए पृथ्वी लगती है काला धुआं
पीठ पर रुपयों का बोझ, फिर भी यह धन कभी नहीं जायेगा छुआ,
निर्जन है रात, रास्ते में हैं कितनी ही आशंकाएँ, फिर भी दौड़ता है हरकारा।
डाकू का डर है, उससे भी ज़्यादा डर जाने कब सूरज उग आये
कितनी चिट्ठियाँ लिखते हैं लोग -
कितनी सुख में, प्रेम में, आवेग में, स्मृति में, कितने दुख और शोक में,
मगर इसके दुख की चिट्ठी मैं जानता हूँ कोई कभी नहीं पढ़ पायेगा,
इसके जीवन का दुख जानेगी सिर्फ़ रास्ते की घास,
इसके दुख की कथा नहीं जानेगा कोई शहर और गाँव में,
इसकी कथा ढँकी रह जायेगी रात के काले लिफ़ाफ़े में।
हमदर्दी से तारों की आँखें टिमटिमाती हैं -
यह कौन है जिसे भोर का आकाश भेजेगा सहानुभूति की चिट्ठी -
रानार! रानार! क्या होगा यह बोझा ढो कर ?
क्या होगा भूख की थकान में क्षय हो -हो कर ?
रानार! रानार! भोर तो हुई है - आकाश हो गया है लाल,
उजाले के स्पर्श से कब कट जायेगा यह दुख का काल ?

हरकारे! गाँव के हरकारे!
समय हुआ है नयी ख़बर लाने का।
शपथ की चिट्ठी ले चलो आज,
कायरता को पीछे छोड़,
पहुँचा दो यह नयी ख़बर
प्रगति की ’मेल‘ में।
दिखेगा शायद अभी-अभी प्रभात
नहीं, देर मत करो और,
दौड़ चलो, दौड़ चलो और तेज़ी से
ओ दुर्दम हरकारे!

बयान

अन्त में हमारे सोने के देश में उतरता है अकाल,
जुटती है भीड़ उजड़े हुए नगर और गाँव में
अकाल का ज़िन्दा जुलूस
हर भूखा जीव ढो कर ले आता है अनिवार्य समता।

आहार के अन्वेषण में हर प्राणी के मन में है आदिम आग्रह
हर रास्ते पर होता है हर रोज़ नंगा समारोह
भूख ने डाला है घेरा रास्ते के दोनों ओर,
विषाक्त होती है हवा यहाँ-वहाँ व्यर्थ की लम्बी साँसों से
मध्यवर्ग का धूर्त सुख धीरे-धीरे होता है आवरणविहीन
बुरे दिनों की घोषणा करता है नि:शब्द।
सड़कों पर झुण्ड-दर-झुण्ड डोलती हुई चलती है कंगालों की शोभा-यात्रा
आतंकित अन्त:पुरों से उठती है दुर्भिक्ष की गूँज।
हर दरवाज़े पर बेचैन उपवासी प्रत्याशियों के दल,
निष्फल प्रार्थना-क्लान्त, भूख ही है अन्तिम सम्बल;
राजपथ पर देख कर लाशों को भरी दोपहरी में
विस्मय होता है अनभ्यस्त अँखों को।
लेकिन इस देश में आज हमला करता है ख़ूँख़ार दुश्मन,
असंख्य मौतों का स्रोत खींचता है प्राणों को जड़ से
हर रोज़ अन्यायी आघात करता है जराग्रस्त विदेशी शासन,
क्षीणायु कुण्डली में नहीं है ध्वंस-गर्भ के संकट का नाश।
सहसा देर गयी रात में देशद्रोही हत्यारे के हाथों में
देशप्रेम से दीप्त प्राण ढालते हैं अपना रक्त, जिसका साक्षी है सूरज;
फिर भी प्रतिज्ञा तैरती है हवा में अकेले,
यहाँ चालीस करोड़ अब भी जीवित हैं,
भारत भूमि पर गला हुआ सूरज झरता है आज -
दिग-दिगन्त में उठ रही है आवाज़,
रक्त में सु़र्ख टटकी हुई लाली भर दो,
रात की गहरी टहनी से तोड़ लाओ खिली हुई सुबह
उद्धत प्राणों के वेग से मुखर है आज मेरा यह देश,
मेरे उध्वस्त प्राणों में आया है आज दृढ़ता का निर्देश।
आज मज़दूर भाई देश भर में जान हथेली पर लिये
कारख़ाने-कारख़ाने में उठा रहे तान।
भूखा किसान आज हल के नुकीले फाल से
निर्भय हो रचना करता है जंगी कविताएँ इस माटी के वक्ष पर।
आज दूर से ही आसन्न मुक्ति की ताक में है शिकारी,
इस देश का भण्डार जानता हूँ भर देगा नया यूक्रेन।
इसीलिए मेरे निरन्न देश में है आज उद्धत जिहाद,
टलमल हो रहे दुर्दिन थरथराती है जर्जर बुनियाद।
इसीलिए सुनता हूँ रक्त के स्रोतत में आहट
विक्षुब्ध टाइ़फून-मत्त चंचल धमनी की।
सुनता हूँ बार-बार विपन्न पृथ्वी की पुकार,
हमारी मज़बूत मुट्ठियाँ उत्तर दें उसे आज।
वापस हों मौत के परवाने द्वार से,
व्यर्थ हों दुरभिसन्धियाँ लगातार जवाबी मार से।

शत्रु एक है

आज यह देश विपन्न है; निरन्न है जीवन आज,
मौत का निरन्तर साथ है, रोज़-रोज़ दुश्मनों के हमले
रक्त की अल्पना आँकते हैं, कानों में गूँजता है आर्तनाद;
फिर भी मज़बूत हूँ मैं, मैं एक भूखा मज़दूर।
हमारे सामने आज एक शत्रु है : एक लाल पथ है,
शत्रु की चोट और भूख से उद्दीप्त शपथ है।
कठिन प्रतिज्ञा से स्तब्ध हमारे जोशीले कारख़ाने में
हर गूँगी मशीन प्रतिरोध का संकल्प बताती है।
मेरे हाथ के स्पर्श से हर रोज़ यन्त्र का गर्जन
याद दिलाता है प्रण की, धो डालता है अवसाद,
विक्षुब्ध यन्त्र के सीने में हर रोज़ युद्ध की जो घोषणा है
वह लड़ाई मेरी लड़ाई है, उसी की राह में रुक कर गिनने हैं दिन।
निकट के क्षितिज में आता है दौड़ता हुआ दिन, जयोन्मत्त पंखों पर -
हमारी निगाह में लाल प्रतिबिम्ब है मुक्ति की पताका का
अन्धी रफ़्तार से हरकतज़दा मेरा हाथ लगातार यन्त्र का प्रसव
प्रचुर-प्रचुर उत्पादन, अन्तिम वज्र की सृष्टि का उत्सव।।

(ये सभी अनुवाद नीलाभ ने मूल बांग्ला से किए हैं)

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