Monday, May 2, 2011

सूरज जितनी बड़ी एस्प्रिन की एक टिकिया


अशोक भाई का बहुत शुक्रगुजार हूँ कि उन्होंने मुझे अपना कबाड़ यहाँ रखने की इज्जत बख्शी. फिलहाल रोक डाल्टन के कबाड़ में इस इजाफे को क़ुबूल फरमाएं...  


सिरदर्द  :  रोक डाल्टन 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

कितना सुन्दर है कम्युनिस्ट होना 
हालांकि यह बहुत सिरदर्द भी देता है.

आप देखते हैं कि साम्यवाद का सिरदर्द 
ऐतिहासिक समझा जाता रहा है, यानी 
यह दर्दनिवारक गोलियों से नहीं दूर होता 
बल्कि दूर होता है यह 
केवल पृथ्वी को स्वर्ग बना देने की उपलब्धि से.
मैं बताऊँ आपको, यह बम है, बम !

पूंजीवाद के अधीन जब हमारा सिर दुखता है
वे बस हमारे सिर को उतार लेते हैं.
क्रांतिकारी संघर्ष में, सिर एक विलंबित बम है.
सामाजिक ढाँचे में हम अपने सिरदर्द की ऎसी योजना बनाते हैं 
जो उसे बहुत बिरला नहीं रहने देता, बल्कि इसका ठीक उल्टा

बाक़ी चीजों के साथ-साथ, साम्यवाद 
सूरज जितनी बड़ी एस्प्रिन की एक टिकिया होगा. 
 

10 comments:

Neeraj said...

आपको यहाँ देखकर अच्छा लगा, मनोज भाई |

सतीश पंचम said...

बढ़िया कविता है ।

Pratibha Katiyar said...

कितना सुन्दर है कम्युनिस्ट होना
हालांकि यह बहुत सिरदर्द भी देता है....

Ek ziddi dhun said...

wakaii is sundarta ka anand sir dard men hi hai.

अरुण अवध said...

राक डाल्टन की इस अद्भुत कविता का सुन्दर अनुवाद किया आपने ! बधाई और धन्यवाद !

प्रवीण पाण्डेय said...

अन्दर की कथा।

वीना श्रीवास्तव said...

वाकई कभी-कभी सिरदर्द ही देता है...
अच्छी रचना...

दीपा पाठक said...

जबरदस्त कविताएं और शानदार अनुवाद। कबाड़खाना में स्वागत!!

Ashok Pande said...

उम्दा मनोज भाई. शुक्रिया.

बाबुषा said...

बड़े अच्छे कबाड़ी आये हैं ये तो !

:-)